Saturday 9 September 2017

भारतेंदु हरिश्चंद्रः आधुनिक हिंदी के पितामह-पुरूष

परिवर्तन गुजरते समय के अगले पदचिन्ह के पर्याय भी होते हैं और एक लंबी यात्रा का एक पड़ाव भी। पड़ाव वह जहां से यात्रा नए कलेवर में, नई ऊर्जा के साथ एक नया स्वरूप लेकर आगे बढ़ती है। इस परिवर्तन को तब केवल परिवर्तन नहीं कहा जाता। तब इसे युगांतर, क्रांति या नए मार्ग का प्रवर्तन आदि संबोधनों से संबोधित किया जाता है। हर प्रवर्तन या क्रांति अपनी स्थापना के लिए एक स्थापक ढूंढती है। एक युगपुरूष, जो केवल उस महान परिवर्तन का माध्यम बनने के लिए हमारे बीच आता है और नए मार्ग का सृजन कर उससे विश्व को आगे बढ़ने की प्रेरणा देकर चला जाता है। 9 सितंबर एक ऐसे ही महान प्रवर्तक के प्राकट्य की ऐतिहासिक तारीख है। अपने जमाने के लोकप्रिय कवि गिरिधरदास यानी कि गोपालचंद्र एक संपन्न परिवार से ताल्लुक रखते थे। कई पीढ़ियों से इस परिवार की संपन्नता अक्षुण्ण थी। अंग्रेजी राज से अच्छे संबंध भी इनकी संपन्नता के कारणों में गिने जा सकते हैं। इसी संपन्न वैश्य परिवार में 1850 ईसवी में भारतेंदु का जन्म हुआ। भारतेंदु हरिश्चंद्र, हिंदी साहित्य से परिचित कोई भी ऐसा नहीं होगा जिससे इस नाम का परिचय अब तक न हुआ हो।

परिवार के धार्मिक और साहित्यिक वातावरण में हिंदी साहित्य का एक ऐसा वटवृक्ष पल रहा था जिसकी छांव में आने वाले कई दशकों, सदियों तक हिंदी का एक विशाल कुनबा प्रश्रय पाने वाले था। जन्म के महज सात साल बाद या सीधे-सीधे कहें तो महज सात वर्ष की उम्र में कवि पिता गिरिधरदास को बालक हरिश्चंद्र ने एक दोहा सुनाया, जो उन्होंने खुद लिखा था। दोहा था-

"लै ब्यौढ़ा ठाणे भए, श्री अनिरुद्ध सुजान।
बाणासुर की सेन को, हनन लगे भगवान।।"

मात्रा, भाषा. छंद विधान और भाव का संतुलन दोहे में देख पिता गदगद हो गए। बेटे को महान कवि बनने का आशीर्वाद दिया, और यही आशीर्वाद हिंदी साहित्य के मार्ग में एक नया मोड़ बनने का आधार साबित हुआ। भारतेंदु ने अपनी पहली कविता ब्रज भाषा में लिखी। उस दौर में आधुनिक हिंदी वाली कविताएं नहीं लिखी जाती थीं। साहित्य में ब्रज और अवधी का पूरी तरह से कब्जा था। भारतेंदु ने हिंदी साहित्य में खड़ी बोली भाषा का सृजन किया। खड़ी बोली हिंदी वह हिंदी थी जो ऊर्दू से काफी अलग थी। यह हिंदी उस दौर की तमाम क्षेत्रीय भाषाओं से पोषण पाती थी। हरिश्चंद्र का संपूर्ण गद्य साहित्य खड़ी हिंदी बोली ही में लिखा गया है। हां, कविता के लिए उन्होंने ब्रजभाषा को ही माध्यम बनाया हुआ था। भारतेंदु को हिंदी साहित्य का वटवृक्ष इसलिए भी कहा जा सकता है, क्योंकि हिंदी साहित्य की दुनिया में उपन्यास, निबंध, नाटक आदि की शाखाएं उन्हीं से निकलीं। साहित्य की इन विधाओं का न केवल विकास बल्कि उनका प्रचार-प्रसार भी भारतेंदु की ही उपलब्धि थी।

पंद्रह वर्ष की अवस्था से ही रचनाकर्म शुरू कर देने वाले हरिश्चंद्र अपने छोटे से जीवनकाल में साहित्य का वो उपयोगी भंडार दुनिया को सौंप गए जिसकी नींव पर आज हिंदी साहित्य अपना परचम पूरी दुनिया में लहरा पाने में कामयाब है। कविता, कहानी, नाटक, व्यंग्य, ग़ज़ल और निबंध, साहित्य की कौन सी ऐसी विधा है जिस पर भारतेंदु की कलम न चली। साहित्यकार एक तरह से समाजसुधारक की भी भूमिका में होता है। भारतेंदु की रचनाओं ने उस दैर में व्याप्त तमाम सामाजिक और धार्मिक कुरीतियों पर प्रहार करने के लिए कलम को हथियार के रूप में इस्तेमाल करने की परंपरा का सूत्रपात किया। अंधेर नगरी नाटक के जरिए एक दिक्भ्रमित और भ्रष्ट शासक के राज्य में लोगों की दुर्दशा को जिस बेहतरीन अंदाज में प्रस्तुत किया गया है, उसके बारे में क्या ही कहा जाए। अंग्रेजी राज को आधार बनाकर लिखे गए इस चुटीले व्यंग्य को आज की परिस्थिति की कसौटी पर भी रखा जाए तो भी यह खरा ही दिखता है -

अंधेर नगरी अनबूझ राजा। टका सेर भाजी टका सेर खाजा॥
नीच ऊँच सब एकहि ऐसे। जैसे भड़ुए पंडित तैसे॥

वेश्या जोरू एक समाना। बकरी गऊ एक करि जाना॥
सांचे मारे मारे डाल। छली दुष्ट सिर चढ़ि चढ़ि बोलैं॥

प्रगट सभ्य अन्तर छलहारी। सोइ राजसभा बलभारी ॥
सांच कहैं ते पनही खावैं। झूठे बहुविधि पदवी पावै ॥

धर्म अधर्म एक दरसाई। राजा करै सो न्याव सदाई ॥
भीतर स्वाहा बाहर सादे। राज करहिं अमले अरु प्यादे ॥

अंधाधुंध मच्यौ सब देसा। मानहुँ राजा रहत बिदेसा ॥
गो द्विज श्रुति आदर नहिं होई। मानहुँ नृपति बिधर्मी कोई ॥

ऊँच नीच सब एकहि सारा। मानहुँ ब्रह्म ज्ञान बिस्तारा ॥
अंधेर नगरी अनबूझ राजा। टका सेर भाजी टका सेर खाजा ॥

राष्ट्रभक्ति भारतेंदु में कूट-कूट कर भरी थी। वे आत्मसम्मान और स्वाभिमान के लिए न्यौछावर हो जाने वाले व्यक्तित्व थे। अपने देश, देश के लोगों और देश की भाषा से उन्हे अथाह प्रेम था। तभी तो अपने देश की दुर्दशा को लेकर जहां 'भारत दुर्दशा' जैसा कालजयी नाटक लिखते हैं वहीं 'भारतवर्षोन्नति कैसे हो सकती है' जैसे विषय पर निबंध लिखते हुए देश की ऐसी कड़वी हकीकत की नब्ज पर उंगली रखते हैं जो आज के दौर में भी उतनी ही प्रासंगिक है जितनी कि तब थी। 'भारतवर्षोन्नति कैसे हो सकती है' में भारतेंदु लिखते हैं कि -

"हमारे हिंदुस्तानी लोग तो रेल की गाड़ी है। यद्यपि फर्स्ट क्लास, सैकेंड क्लास आदि गाड़ी बहुत अच्छी-अच्छी और बड़े-बड़े महसूल की इस ट्रेन में लगी है पर बिना इंजिन सब नहीं चल सकती वैसी ही हिंदुस्तानी लोगों को कोई चलाने वाला हो तो ये क्या नहीं कर सकते। इनसे इतना कह दीजिए 'का चुप साधि रहा बलवाना' फिर देखिए हनुमानजी को अपना बल कैसा याद आता है।"

भारतेंदु ने अपने देश से जुड़ी चीजों की उन्नति पर बड़ा जोर दिया है। वो इसे राष्ट्रीय स्वाभिमान का प्रतीक मानते हैं। अपने एक बहुचर्चित दोहे में उन्होंने लिखा भी है-

"निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।
बिन निजभाषा ज्ञान के, मिटै न हिय को शूल।"

भारतेंदु रचनात्मकता के अक्षय स्रोत थे। अंग्रेजी राज से लोहा लेने के लिए उन्होंने जिस तरह से अपनी रचनात्मकता का सहारा लिया वह उनकी दूरदर्शी सोच का द्योतक है। उन्होंने ही पत्रकारिता में हास्य व्यंग्य विधा की शुरूआत की थी। ये उनका अपने तरह का स्वतंत्रता संग्राम था। भारतेंदु के साहित्यकोश में कई तरह की गजलें और हास्य गजलें भी सम्मिलित हैं। श्रीकृष्ण की भक्ति करतीं उनकी गजल की ये कुछ पंक्तियां देखिए -

"जहाँ देखो वहाँ मौजूद मेरा कृष्ण प्यारा है,
उसी का सब है जल्वा जो जहाँ में आश्कारा है। 

जो कुछ कहते हैं हम यही भी तिरा जल्वा है इक वर्ना, 
किसे ताक़त जो मुँह खोले यहाँ हर शख़्स हारा है ।।"

भारतेंदु का साहित्यकोश बहुत ही विस्तृत है। सभी का जिक्र करना बेहद मुश्किल है। महज 35 साल तक जीने वाले भारतेंदु की तकरीबन 150 रचनाएं प्रकाशित हुई हैं। साहित्य में उनका योगदान केवल लिखने तक ही सीमित नहीं रहा है। उन्होंने महज 18 साल की उम्र में 'कविवचनसुधा' नाम की एक पत्रिका का संपादन भी किया। इसमें उस दौर के मशहूर रचनाकारों की रचनाएं छपती थीं। इसके अलावा उन्होंने 'हरिश्चंद्र मैगजीन' का भी संपादन किया। हिंदी साहित्य में भारतेंदु काल प्राचीनता और नवीनता का संधिकाल है। यहां से जहां प्राचीनता नए स्वरूप में ढलने की कोशिश कर रही थी वहीं कई तरह की नवीनताओं ने भी अपनी यात्रा की शुरूआत की थी। इन नवीनताओं के प्रवर्तक निस्संदेह भारतेंदु थे। अपने दौर में उनकी लोकप्रियता ने उन्हें 'भारतेंदु' का संबोधन दिया तो वहीं एक अपरिमित काल वाली परंपरा में उनके योगदान ने उन्हें युगपुरूष के तौर पर स्थापित कर दिया। हिंदी साहित्य का भारतेंदु काल एक युगांतकारी घटना के तौर पर देखा जाता है। जहां से आधुनिक हिंदी ने चलना सीखा, जिसे तब खड़ी हिंदी कहा जाता था और आज जो हिंदी का पर्याय है।

भारतेंदु के व्यक्तिगत जीवन की कटुता ने कभी उनके सामाजिक, साहित्यिक और राष्ट्रीय दायित्वों को प्रभावित नहीं किया। बेहद कम आयु में पिता को खो देने वाले भारतेंदु ने स्वाध्याय के बलबूते हिंदी, अंग्रेजी, उर्दू, संस्कृत आदि भाषाओं का ज्ञान प्राप्त किया था। इन सबके इतर भारतेंदु का सामाजिक व्यवहार भी काफी तरल था। करूणा और दानशीलता उनके नसों में लहू की तरह प्रवाहित होता था। अपनी इन्हीं प्रवृत्तियों की वजह से उनके जीवन का आखिरी दौर काफी तकलीफों से भरा हुआ था। क्षय रोग की पीड़ा उनसे बर्दाश्त नहीं हुई, और 1850 में पैदा हुआ हिंदी माता का यह अनन्य पुत्र सन् 1885 में महज 35 वर्ष की आयु में स्वर्गवासी हो गया।

Monday 4 September 2017

आज के दौर में गुरू-शिष्य परंपरा का चित्र किसी दरकते सांस्कृतिक खंडहर से कम नहीं


Image resultभारत एक प्राचीन देश है। इस प्राचीन देश की छाया में अनेक परंपराओं को प्रश्रय मिला है। बहुत सी परंपराएं आज तक निबाही जा रही हैं, तो बहुत सी ऐसी हैं, जो काल की हवाओं से घर्षण करतीं समाप्त हो गईं। गुरू-शिष्य परंपरा इस प्राचीन देश की ऐसी ही एक परंपरा है, जो एक जमाने में विश्व शिक्षा समुदाय के बीच अपनी आदर्श स्थिति की वजह से काफी आदरणीय रही है। पुराणों ही नहीं, विश्व के अर्वाचीन इतिहास के पृष्ठों में भी भारतीय गुरू - शिष्य परंपरा का जो अनुपम उदाहरण मिलता है वह सारे विश्व के लिए अनुकरणीय है। 


गुरू वशिष्ठ और उनके शिष्यों के बीच के संबंधों की बात करें या फिर द्वापर युग के कृष्ण संदीपन, द्रोण-अर्जुन के आपसी आदर-प्रेम-वात्सल्यपूर्ण दृष्टांतों की, भारत की इस परंपरा ने हमेशा से शिष्यों को गुरू के भगवान से भी ऊपर सम्माननीय होने की धारणा के पालन के प्रति प्रेरित किया है। गुरू शिष्यों की इस परंपरा में द्वापर के ही एकलव्य की भक्ति और समर्पण की कहानी अद्वितीय और अद्भुत है, जहां एक ऐसे गुरू को दक्षिणा स्वरूप एक महान धनुर्धर ने अपना अंगूठा सौंप दिया जिसने दीक्षा देने के नाम उसके जातिगत परिचय के आधार पर उसे धनुर्विद्या सिखाने से इंकार कर दिया था। यह शिष्य का गुरू के प्रति समर्पण का सर्वोच्चतम बिंदु है।

इसके बाद की बात करें तो हाल के इतिहास में भी चाणक्य और चंद्रगुप्त के बीच शिक्षक और शिष्य के बीच उल्लेखनीय संबंधों का उदाहरण मिलता है। यहां एक गुरू के सामर्थ्य और एक शिष्य की लगन का परिचय ऐतिहासिक है। शिवाजी और उनके गुरू समर्थ गुरू रामदास के बीच के संबंधों की कहानी तो सर्वविदित है, जहां शिवाजी ने अपना समस्त राज्य अपने गुरू को समर्पित कर दिया था। गुरू-शिष्य संबंधों के इस गौरवशाली इतिहास के आधार पर अगर आज के दौर के गुरू-शिष्य संबंधों का विश्लेषण करेंगे तो कहीं न कहीं इस परंपरा के आधार-स्तंभ उखड़ते से दिखाई पड़ेंगे।

आज गुरू-शिष्य संबंधों में वो समर्पण कम ही दिखाई पड़ता है। शिष्य जहां गुरू के सम्मान के प्रति अब प्रतिबद्ध दिखाई नहीं देते, वहीं आज के गुरूजनों में शिष्यों के प्रति वात्सल्य कम ही दिखाई पड़ता है। देश के शिक्षालयों की हाल की घटनाएं काफी व्यथित करती हैं। कुछ साल पहले इलाहाबाद विश्वविद्यालय के कुछ छात्रों ने मिलकर अपने ही एक शिक्षक को बुरी तरह से पीट दिया था। कुछ दिनों पहले की ही घटना है कि दिल्ली विश्वविद्यालय के एक कॉलेज में कुछ छात्रों की पिटाई से गुरूजी कोमा में चले गए थे। सिर्फ इतना ही नहीं, देश के कई शिक्षालयों में छात्रों की बुरी तरह पिटाई करते शिक्षकों की तस्वीर भी सामने आई थी। यह कहीं न कहीं, शिक्षा-शिक्षक और शिक्षार्थी की गौरवशाली परंपरा पर सिर्फ प्रश्नचिंह्न ही नहीं हैं, बल्कि आत्मविश्लेषण और आत्मविमर्श का विषय है। परंपराओं को सहेजकर रखने के जिम्मेदार समुदाय से उनके विध्वंस की आशा नहीं की जाती। इसलिए समस्त गुरूकुल समुदाय को इस पर फिर से सोचने और इसमें सुधारात्मक परिवर्तन करने की आवश्यकता है।

Friday 1 September 2017

दुष्यंत कुमारः सत्ता के गिरेबान पर हाथ रखने वाला शायर जिसके शेर क्रांति के शंखनाद से कम नहीं

1933 के वक्त के भारत की बात करें तो आजादी का संग्राम और देशभक्ति से ओत-प्रोत साहित्य अपने पूरे उफान पर था। ऐसे माहौल में स्वातंत्र्योत्तर हिंदी साहित्य की आवाज में हिंदुस्तान की पीड़ा को गाने के लिए एक गीतकार का सृजन जारी था। बर्तानवी हुकूमत के खिलाफ विद्रोह और हिंदुस्तान के गौरवशाली इतिहास के गायन के उस दौर में इस देश के वर्तमान की हकीकत पर उंगली रखने का साहस रखने वाले दुष्यंत कुमार त्यागी इसी साल 1 सितंबर को  बिजनौर जिले राजरुपपुर नवादा में पैदा हुए थे। बिजनौर वही धरती है जहां महर्षि कण्व का आश्रम है, और जहां से भारत नाम के इस प्राचीनतम भूमि-भाग के नामकरण की पटकथा का शुभारंभ हुआ था। महाराज दुष्यंत और शकुंतला के दिव्य प्रेम का गवाह और महाराज भरत जैसे साहसी,वीर और निर्भय बालपन का साक्षी।

तपस्या, प्रेम और वीरता के इतिहास से सिंचित इस धरती पर अगर दुष्यंत कुमार जन्म लेते हैं तो उनकी रचनाओं में निर्भयता और साहस का प्रतिबिंब होना स्वाभाविक है। अब इन पंक्तियों पर ही गौर कीजिए -

मैं इन बेपनाह अंधेरों को सुबह कैसे कहूं,
मैं इन नज़ारों का अंधा तमाशबीन नहीं।

इस नदी की धार में ठंडी हवा आती तो है
नाव जर्जर ही सही, लहरों से टकराती तो है।

दुख नहीं कोई कि अब उपलब्धियों के नाम पर
और कुछ हो या न हो, आकाश-सी छाती तो है।

मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही, 
हो कहीं भी आग लेकिन आग जलनी चाहिए।

दुष्यंत कुमार साहित्य के उन कुछ चुनिंदा रत्नों में से एक हैं जिनका जीवनकाल बेहद छो़टा रहा है। मात्र 42 साल तक जीने वाले हिंदी के इस अनुपम और आदि गजलकार ने अपने छोटे से जीवन के बड़े अनुभवों को कुछ इस कदर शब्दों में बांधा कि उससे बनी उनकी हर गजल या कविता सामाजिक और राष्ट्रीय भावनात्मक पीड़ा का प्रतिनिधित्व करने लगीं। लोग उनकी हर गजल को खुद से जुड़ा हुआ मानने लगे। उससे निकटता महसूस करने लगे। यही कारण है कि हिंदी गजल की दुनिया में जितना दुष्यंत सराहे गए और जितनी उन्हें लोकप्रियता मिली वो आज तक कोई हिंदी का कवि या गजलकार हासिल नहीं कर पाया है। दुष्यंत मनमौजी किस्म के व्यक्ति थे। प्रतिकूलता के माहौल में भी सच की नब्ज पर उंगली रखने की उनकी हिम्मत ही उन्हें साहित्यकार के साथ-साथ क्रांतिकारी साहित्यकार की संज्ञा देती है। समाज के सबसे निचले तबके के लोगों के कंधों पर हाथ रखती उनकी गजलों ने उन्हें हिंदुस्तान का सबसे लाडला गीतकार बना दिया।

भूख है तो सब्र कर रोटी नहीं तो क्या हुआ।
आजकल दिल्ली में है जेरे बहस ये मुद्दआ।

दुष्यंत देश के उन करोड़ों वंचित लोगों की आवाज का प्रतिनिधित्व करते हैं जिनके हितों के दावों पर इस देश ने आजादी हासिल की और जिनकी भलाई के दावे आज भी सरकारों की कुर्सियों के तख्त बनते हैं-

मुझमें रहते हैं करोड़ों लोग चुप कैसे रहूँ,
हर ग़ज़ल अब सल्तनत के नाम एक बयान है।

दुष्यंत की एकमात्र गजल कृति साए में धूप है। इसकी लोकप्रियता के बारे में मेरे लिए कुछ भी कहना सूरज के परिचय पर प्रकाश डालना होगा। तारीख की दीवारों पर दर्ज हर क्रांति की मशाल और हर क्रांतिकारी का सबसे ज्वलंत नारा उनकी एक ग़जल, जिसके बिना आज भी कोई भी बड़ा आंदोलन अपनी पूर्णता को सोच भी नहीं सकता-

हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए,
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।

सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
सारी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।

मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।

हिंदी साहित्य के पहले गजलकार माने जाने वाले दुष्यंत ने गीत, कविता, नवगीत आदि साहित्यिक विधाओं में भी हाथ आजमाया था। लेकिन उनके गजलों के प्रचंड तेज के आगे उनकी छवि धूमिल पड़ गई। दुष्यंतकाल में अज्ञेय और मुक्तिबोध अपनी लोकप्रियता के मामले में चरम पर थे। यह वो दौर था जब गीतों और नवगीतों पर नई कविता अपनी धौंस जमाने की कोशिश कर रही थी। ऐसे दौर में हिंदी साहित्य में गजलों को न सिर्फ शामिल कर बल्कि सरल और सुबोध्य शब्दों में सजाकर उन्हें जनमानस की जिह्वा पर स्थापित करने का कारनामा दुष्यंत ही कर सकते थे। दुष्यंत के लिए मशहूर उर्दू गजलकार निदा फाजली कहते हैं कि उनकी नजर उनके युग की नई पीढ़ी के गुस्से और नाराजगी से बनी है। यह गुस्सा और नाराजगी उस अन्याय और राजनीति के कुकर्मो के खिलाफ नए तेवरों की आवाज थी, जो समाज में मध्यवर्गीय झूठेपन की जगह पिछड़े वर्ग की मेहनत और दया की नुमानंदगी करती है। इस बात की पुष्टि को आप उनकी इन रचनाओं में देखिए -

कहाँ तो तय था चरागाँ हर एक घर के लिए
कहाँ चराग मयस्सर नहीं शहर के लिए।

जिस तरह चाहो बजाओ तुम हमें
हम नहीं हैं आदमी हम झुनझुने हैं।

इस अंगीठी तक गली से कुछ हवा आने तो दो,
जब तलक खिलते नहीं हैं कोयले देंगे धुआँ।

दुष्यंत अपनी रचनाओं में केवल क्रांति ही नहीं करते थे। शायर अपनी गजलों में भले मशाल, आग, क्रांति जैसे भारी-शब्दों का इस्तेमाल कर ले, लेकिन वह भी अपने आपको पूरा तभी मानता है जब उसकी कलम मोहब्बत की स्याही से दिल के अफसाने लिखने लगती है। दुष्यंत की मोहब्बत भी थोड़ी अजीब थी। आप भी देखिए -

एक जंगल है तेरी आंखों में,
मैं जिसमें राह भूल जाता हूं।

तू किसी रेल सी गुजरती है,
मैं किसी पुल सा थरथराता हूं।

वो घर में मेज पे कोहनी टिकाये बैठी है,
थमी हुई है वहीं उम्र आजकल, लोगों।

जियें तो अपने बगीचे में गुलमोहर के तले ,
मरें तो गैर की गलियों में गुलमोहर के लिए।

गजलों की बहर से निकलकर दुष्यंत ने जब छंदों का श्रृंगार किया तो कभी एक हारे हुए को संजीवनी मिली, एक मोहब्बत करने वाले को प्रेमाभिव्यक्ति का गीत मिला तो कभी सृष्टि की सनातन परंपरा में सत्य की जीत की संभाव्यता पर पुनः हस्ताक्षर हुए।

अब तक ग्रह कुछ बिगड़े बिगड़े से थे इस मंगल तारे पर,
नई सुबह की नई रोशनी हावी होगी अँधियारे पर।
उलझ गया था कहीं हवा का आँचल अब जो छूट गया है,
एक परत से ज्यादा राख़ नहीं है युग के अंगारे पर।


तुम्हारा चुम्बन
अभी भी जल रहा है भाल पर
दीपक सरीखा
मुझे बतलाओ
कौन-सी दिशि में अँधेरा अधिक गहरा है !

जा तेरे स्वप्न बड़े हों।
भावना की गोद से उतर कर
जल्द पृथ्वी पर चलना सीखें।
चाँद तारों सी अप्राप्य ऊचाँइयों के लिये
रूठना मचलना सीखें।
हँसें
मुस्कुराऐं
गाऐं।
हर दीये की रोशनी देखकर ललचायें
उँगली जलायें।
अपने पाँव पर खड़े हों।
जा तेरे स्वप्न बड़े हों।

दुष्यंत ने अपने साहित्य में जो कुछ भी लिख दिया है वो आने वाले कई युगों तक लोगों के कंठ से गाए जाते रहेंगे। उनकी प्रांसगिकता कभी खत्म नहीं होगी। इसलिए भी क्योंकि उनकी लिखी हर रचना एक सच्चे हृदय में तमाम दुनियावी विसंगतियों पर उठते प्रश्न की सबसे सशक्त आवाज थी। उनका हर कथन या तो सामाजिक वरीयताओं में छल-कपट से नीचे धकेल दिए गए लोगों की आवाज थी या फिर शिखरों पर बैठे लोगों को उनकी जिम्मेदारियों को याद दिलाने वाला बयान था।

गडरिए कितने सुखी हैं ।

न वे ऊँचे दावे करते हैं
न उनको ले कर
एक दूसरे को कोसते या लड़ते-मरते हैं।
जबकि
जनता की सेवा करने के भूखे
सारे दल भेडियों से टूटते हैं ।
ऐसी-ऐसी बातें
और ऐसे-ऐसे शब्द सामने रखते हैं
जैसे कुछ नहीं हुआ है
और सब कुछ हो जाएगा ।

बनारसः वहीं और उसी तरह

फोटोः शिवांक बनारस की चारों तरफ की सीमाएं गिनाकर अष्टभुजा शुक्ल अपनी एक कविता में कहते हैं कि चाहे जिस तरफ से आओ, लहरतारा, मडुआडीह, इलाहाबा...