Monday 27 February 2017

कविताः जबसे झूठी हंसी चढ़ी है...

जबसे झूठी हंसी चढ़ी है,मेरे सच्चे होंठों पर।
इक इक पल इक इक युग सा,हर बात चुभे ज्यों कानों में।
हैं अलग-थलग अपनों में यूं ज्यों बैठ गए अनजानों में।
नयन न जाने राह तके क्यों,बरबस इधर उधर उड़कर,
चलते ठहरे पाँव,शीश देखे जाने किसको मुड़कर।
तबसे किस्मत छिड़क रही है नमक हमारे चोटों पर।
जबसे झूठी हंसी चढ़ी है,मेरे सच्चे होंठों पर।
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राघवेंद्र शुक्ल

Friday 24 February 2017

'शंकर' को हम किसलिए पूजें!



'शंकर' को हम किसलिए पूजें!
इसलिए कि शंकर के पास तीसरी आँख है,जिसके खुलने से सारा संसार मुट्ठी भर राख में तब्दील हो सकता है!इसलिए कि महाकाल के प्रसन्न रहने से मृत्यु (एक शाश्वत सत्य) आस-पास नहीं फटक सकती!इसलिए कि शिव विनाशक हैं,उन्हें अप्रसन्न नहीं रखना चाहिए!पूजन के इन विभिन्न कारणों से आपको एक भय की गन्ध नहीं आ रही।और 'डर' से उत्पन्न 'भक्ति' दासता या गुलामी या परतंत्रता की प्रतीक नहीं है!
शिव की विभिन्न स्थितियों के अलग अलग सम्बोधन हैं।इसलिए Samar अगर कहते हैं कि 'महाकाल' को नही 'प्रेम' को पूजे,तो उसका ये कतई अर्थ नहीं कि यह शंकर की पूजा के खिलाफ ज़ारी कोई फतवा है।
हमारे गुरूजी बताया करते हैं कि 'शंकर के गले में सर्प की माला है,और कार्तिकेय का वाहन मोर है,सर्प मोर का भोजन है।शंकर का वाहन बैल है,पत्नी दुर्गा का वाहन शेर है,बैल शेर का ग्रास है।शंकर के कण्ठ में ज़हर है,शीश पर चन्द्रमा है,चन्द्रमा में पीयूष है,अमृत है,सभी परिवार में साथ हैं।इसलिए जब शेर-बैल,मोर-सांप,अमृत-ज़हर एक साथ एक परिवार का हिस्सा हों,तो ऐसी संभावना को वास्तविकता का जो अकार देता है वो 'शंकर' है।
हम इस शंकर को क्यों न पूजें!प्रेम के पावन प्रतीक 'शिव'।
हम उस शंकर को क्यों न पूजे जिसने सारे संसार को हलाहल के विध्वंशकारी प्रभाव से बचाकर संसार को अभयदान दिया था,बजाय इसके कि तांडव करने वाले विध्वंशक शिव को।जब शिव को पूजने के लिए हमारे पास इतने सारे ऐसे कारण हैं जिनसे किसी भय की,किसी मजबूरी की,किसी परतंत्रता की गन्ध न आती हो,बल्कि प्रेम की,परोपकार की,निर्भयता की,और पवित्रता की महक आती हो,तो फिर हम ऐसा कारण क्यों नहीं चुनते,जो शिव को भी पसन्द है।निःस्वार्थ प्रेम और भक्ति का!शिव से विभक्त न होने की 'भक्ति' और शिवमय हो जाने वाले 'प्रेम' का।

ख़ैर!महाशिवरात्रि की असंख्य बधाईयाँ😊

Saturday 11 February 2017

कविताः अधर तुम्हारे भूल गए थे...


पल भर पतझर क्या आया,था टूट गया उद्यान।
अधर तुम्हारे भूल गए थे,फूलों सी मुस्कान!

निशा ओढ़ तम-शीत-सितारे,शीतल वायु प्रवाह।
एक एक कर गिरे पात सब,ढाँक लिए थे राह।
समय पथिक सा चला कुचलता,उनके पीले पात।
रहा झेलता बुरे दौर की,वृक्ष घात पर घात।
यूं टूटी थी हिम्मत उनकी,यूं टूटी थी आस।
खत्म हो गया था तरु तन में,जीवन का आभास।
रुका नहीं संघर्ष,थपेड़े सहे,करम में लीन।
हिम्मत हारी नहीं वृक्ष ने होकर धैर्यविहीन।
एक दिवस ऐसा भी आया महक उठा संसार।
पल्लव फूटे नवल,बाग़ में आई लौट बहार।

किया ज्योति की तम पर जय का स्थापित प्रतिमान।
अधर तुम्हारे भूल गए थे फूलों सी मुस्कान।
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राघवेंद्र शुक्ल

Friday 10 February 2017

फिर लौटेगा प्रवचन वाला बसंत!

संसद में विपक्ष का सत्ता का विरोध करने का तरीका और सास-बहू में होने वाले झगड़े,इन दोनों में अगर आप अंतर निकाल ले गए,तो समझिये भौतिकी और रासायनिकी दोनों का नोबल पुरस्कार पक्का।
सारी बहस,सारे विरोध,सारी नौटँकी एक ऐसे मुद्दे के आस-पास सिमटकर रह जा रही है,जिसके सॉल्व हो जाने से न तो वैश्विक पटल पर हिन्दुस्तान चमकने ही लगेगा,और न तो किसी झोपड़ी की ठण्डे-बुझे चूल्हे में आग ही जल पाएगी।
'रेनकोट' बयान पर इतना हंगामा क्यों हो रहा है!पता नहीं।शायद यह दिखावा करने की कोशिश हो कि भारतीय संसद इस तरह के 'असभ्य' बयानों के प्रति बहुत ज्यादा 'असहिष्णु' है,वो इस तरह के शब्दों को कतई बर्दाश्त नहीं कर सकता।लेकिन भाई!सड़क पर जो 'ज़ाहिल' दरी बिछाकर सोया है न,जिसे नेतई भाषा में 'जनता' कहते हैं,वो जब इन तथाकथित 'परम विद्वानों' के बयानों के 'शीशमहल' देखता है न,तो दोनों के घरों के शीशे एक दूसरे के पत्थरों से फूटे हुए दिखाई पड़ते हैं।
बन्द कर भाई ई सब!क्या संसद और क्या संसद की मर्यादा!क्या प्रधानमन्त्री और क्या प्रधानमन्त्री की गरिमा!लोकतंत्र को रोज़ ज़लील करने वाले लोगों से लोकतांत्रिक प्रतिष्ठानों की इज़्ज़त करने की उम्मीद करने से अच्छा है,गधे के सर पर सींग खोजो!
अउर हाँ!रोज शाम को टीवी पे 'प्राइम टाइम' में 'ताल ठोक के दंगल' देख देख के मज़ा लेने की बजाय आप सब अपना अपना काम करो,और उनको भी करने दो।आप सब से भी अब कुछ होने से रहा।चुनाव का मौसम है,अपने आदर्श,अपने सिद्धांत और अपनी आत्मा के पत्ते झाड़ डालो इस पतझड़ में।और ऐसे ही प्रतिष्ठित,मर्यादित,गरिमामयी लोगों को स्थापित कर देना फिर,मर्यादा और गरिमा की रक्षा के लिए।उसके बाद तो कर्तव्य,आदर्श,अधिकार पर बहस,प्रवचन और ज्ञान के नए पत्ते आएंगे ही,किसी और 'गरिमामयी' के कार्यकाल में,बसन्त की तरह।😑😐

Tuesday 7 February 2017

कविताः कोई तो शिकायत रही

नहीं जोड़कर के मोहब्बत के तिनके,
कभी नीड़ मैत्री का हम बुन सके थे।
कहाँ किस फ़लक़ पर हमारा दिवाकर-
उगेगा,न वो आसमां चुन सके थे।
क्यों बढ़ती गयी दूरियां दो दिलों की,
क्यों बढ़ते गए फासले ज़िन्दगी से।
कोई तो शिकायत रही दरमियाँ जो,
न हम कह सके थे,न तुम सुन सके थे।

न कोई गलतियां,न तो कोई झगड़े,
न तुम रूठ पाये,न हमने मनाया।
हमारी मोहब्बत में दिल पिस रहा था,
जो तेरी-मेरी ज़िद की ज़द में था आया।
उधर तुम तड़पते,इधर हम मचलते,
न सो पाते तुम,हम भी करवट बदलते।
बहुत बातें मन में हैं कहने को तुमसे,
मगर पहले तुम कुछ कहो,हम भी कहते।
यही जंग अपनी अना की या ज़िद की,
हमारी मोहब्बत की दुश्मन बनी है।
तुम्हारे अधर की ये हड़ताल अब तो,
हमारे भी होठों का अनशन बनी है।
हुआ ज़िन्दगी का है तख़्तापलट यूं,
तुम्हे हार बस अपना सर धुन सके थे।
कोई तो शिकायत रही दरमियाँ जो,
न हम कह सके थे,न तुम सुन सके थे।

न जाने दिलों पर रखा भार कितना,
जो हम रोज मजबूर हो ढो रहे हैं।
अजब हाल अपना बना आजकल यूं,
न तो हंस रहे हैं न ही रो रहे हैं।
अजब सी बेचैनी,अजब सी बेहोशी।
न जाने क्या अपराध,है कौन दोषी!
न जाने कहाँ तक है विस्तार इसका
जो पीड़ा हृदय में बसी दानवों सी।
न हो संग तुम तो लगे विश्व खाली,
तुम्हारे सहित ही है गर विश्व,तो है।
न जाने कहाँ-कौन रोके खड़ा है,
ह्रदय-जीत के यज्ञ का अश्व जो है।
रिश्ते बरफ हो गए यूं कि अपनी
उपेक्षा से भी हम न जल-भुन सके थे।
कोई तो शिकायत रही दरमियाँ जो
न तुम कह सके थे,न हम सुन सके थे।

है बढ़ती चली जा रही पीर प्रतिदिन,
ये इक दिन का हो मर्ज तो झेल लेते।
ये पल-पल के घुटने से बेहतर था कोई
मरण का हो गर खेल तो खेल लेते।
न मिलता है यादों को विश्राम पलभर,
न दिनभर,न शब भर,न संध्या,न क्षण भर।
न जाने कहाँ खो गये ख्वाब सारे,
न जाने कहाँ खो गयी हसरतें सब।
थे गिरते रहे हौसले,ध्येय,उम्मीद
कट-कट समय की कृपाणों से रण भर।
न आँखों में सपने,न दिल में थी उम्मीद।
न चैनो अमन दिल में,आँखे भी बे-नींद।
था पल-पल मरण ज़िन्दगी का चरण पर,
ज़हर थी दवा,ना ज़हर चुन सके थे।

कोई तो शिकायत रही दरमियाँ जो
न तुम कह सके थे,न हम सुन सके थे।
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राघवेंद्र शुक्ल

Wednesday 1 February 2017

कविताः हरखू तोहरे खेत में



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हरखू तेरे खेत में,लगे हुए थे धान।
आशा बांधे था खड़ा,पूरा 'हिन्दुस्तान'।

हरखू तेरे खेत में,बड़े हुए जब धान।
देख के इत्ती ख़ुशी भा,गूँज उठे थे गान।

हरखू तेरे खेेत से,रूठी बरखा बूँद।
तू घुटने पे आ गया,अपनी आँखें मूँद।

हरखू तेरे खेत में,सूख गए जब धान।
आँखें मूंदे सो गया,सारा हिन्दुस्तान।

हरखू तेरे खेत में,जीवन था बरबाद।
मंत्री कौड़ी फेंककर,हो गए 'ज़िंदाबाद'।

हरखू तेरे खेत में,सूखा था विकराल।
भू पर सूखा धान था,भीगे तेरे गाल।

हरखू तेरे खेत में,बढ़े नहीं अन्नाज।
पर 'करजा' था बढ़ गया,और बढ़ गए 'ब्याज'।

हरखू तेरे खेत में,सन्नाटा घनघोर।
दुनिया अब थी कह रही,तुमको कर्जाख़ोर।

हरखू तेरे खेत में,दफन हो गए ख्वाब।
तेरे टूटे अंस भी,सहते कितना दाब।

हरखू तेरे खेत में,मिली तुम्हारी लाश।
दुनिया को धिक्कारता,बगल गिरा 'सल्फास'।

हरखू तेरे खेत में,मिली तुम्हारी लाश।
संसद में होती रही,'उन्नति' पर बकवास।
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-राघवेंद्र शुक्ल

बनारसः वहीं और उसी तरह

फोटोः शिवांक बनारस की चारों तरफ की सीमाएं गिनाकर अष्टभुजा शुक्ल अपनी एक कविता में कहते हैं कि चाहे जिस तरफ से आओ, लहरतारा, मडुआडीह, इलाहाबा...