Monday 27 February 2017

कविताः जबसे झूठी हंसी चढ़ी है...

जबसे झूठी हंसी चढ़ी है,मेरे सच्चे होंठों पर।
इक इक पल इक इक युग सा,हर बात चुभे ज्यों कानों में।
हैं अलग-थलग अपनों में यूं ज्यों बैठ गए अनजानों में।
नयन न जाने राह तके क्यों,बरबस इधर उधर उड़कर,
चलते ठहरे पाँव,शीश देखे जाने किसको मुड़कर।
तबसे किस्मत छिड़क रही है नमक हमारे चोटों पर।
जबसे झूठी हंसी चढ़ी है,मेरे सच्चे होंठों पर।
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राघवेंद्र शुक्ल

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