Wednesday 1 February 2017

कविताः हरखू तोहरे खेत में



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हरखू तेरे खेत में,लगे हुए थे धान।
आशा बांधे था खड़ा,पूरा 'हिन्दुस्तान'।

हरखू तेरे खेत में,बड़े हुए जब धान।
देख के इत्ती ख़ुशी भा,गूँज उठे थे गान।

हरखू तेरे खेेत से,रूठी बरखा बूँद।
तू घुटने पे आ गया,अपनी आँखें मूँद।

हरखू तेरे खेत में,सूख गए जब धान।
आँखें मूंदे सो गया,सारा हिन्दुस्तान।

हरखू तेरे खेत में,जीवन था बरबाद।
मंत्री कौड़ी फेंककर,हो गए 'ज़िंदाबाद'।

हरखू तेरे खेत में,सूखा था विकराल।
भू पर सूखा धान था,भीगे तेरे गाल।

हरखू तेरे खेत में,बढ़े नहीं अन्नाज।
पर 'करजा' था बढ़ गया,और बढ़ गए 'ब्याज'।

हरखू तेरे खेत में,सन्नाटा घनघोर।
दुनिया अब थी कह रही,तुमको कर्जाख़ोर।

हरखू तेरे खेत में,दफन हो गए ख्वाब।
तेरे टूटे अंस भी,सहते कितना दाब।

हरखू तेरे खेत में,मिली तुम्हारी लाश।
दुनिया को धिक्कारता,बगल गिरा 'सल्फास'।

हरखू तेरे खेत में,मिली तुम्हारी लाश।
संसद में होती रही,'उन्नति' पर बकवास।
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-राघवेंद्र शुक्ल

1 comment:

  1. जबरदस्त राघवेन्द्र जी। क्या खूब चित्र खींचा

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