Friday 29 December 2017

कथरी के कबीरः 'बड़ी बड़ी कोठिया सजाया पूँजीपतिया, दुखिया कै रोटिया चोराई-चोराई'


रश्मिरथी में दिनकर ने कहा है - "खिलते नहीं कुसुम मात्र राजाओं के उपवन में/ अमित बार खिलते वे पुर से दूर कुञ्ज-कानन में।" कविता और साहित्य को अभिजनों की परिधि से खींचकर लाने की कोशिश करने वाले तमाम पुरोधा जनश्रुतियों और गांवों की कहानियों में ही कहीं खो जाते हैं लेकिन अनुभूतियों और आवश्यकताओं की जमीन पर उगाए गए उनके सवाल पाश की उस कविता की घास की तरह हैं जो निरंकुशता, मनमानीपन और अनीति के हर किए धरे पर उग आते हैं। जुमई खां आजाद ऐसे ही एक साहित्यिक पुरोधा हैं, ऐसे ही कुसुम हैं जो पुर से दूर कुंज-कानन में खिलते हैं। प्रतापगढ़ जिले के एक छोटे से गांव का यह जनकवि हिंदी खड़ी बोली साहित्य का हाथ थामकर आसानी से मुख्य धारा के साहित्य में स्थापित हो सकता था लेकिन जन-गण मन की चेतना को आवाज देने के मामले में उसे अपनी मिट्टी की भाषा ही सबसे उपयुक्त लगी। वही भाषा, जिसे भाषा नहीं बोली कहा जाता है। वही बोली, जिसके बोलों से जब तुलसीदास रामचरितमानस लिखते हैं तो वह  24 घंटे लगातार गाया जाने वाला दुनिया का पहला महाकाव्य बन जाता है। 

29 दिसंबर 2013 को जनकवि जुमई खान आजाद दुनिया से रुखसत कर जाते हैं। दिन में पांच बार नमाज पढ़ने वाले खान की कथरी कविता संकलन पढ़िए। उसकी शुरुआत ही सरस्वती वंदना से होती है। जुमई खान की इस सद्भावना को वो लोग नहीं समझ पाएंगे जिनके दिलो दिमाग पर राजनीति प्रायोजित सांप्रदायिकता की दहगती आग के कार्बन की परत जमी है। उनके लिए राजनैतिक शब्दावली के हिंदू-मुसलमान क्या हैं, इस कविता से समझिए-

राजनीति पर धरम करम कै कलई गयी चढ़ाई,
देख्या सोन खरा पहिचान्या ओका लेह्या तपाई।
मजहब कहाँ अहै खतरे मां, हमैं तोहैँ बहकवाएँ,
खास लड़ाई जौन चलत बा ओसे ध्यान हटावें।

जुमई 'कथरी के कबीर' कहे जाते हैं। बड़ी मुश्किल से उन्होंने हाई स्कूल की परीक्षा पास की थी, लेकिन उनकी रचनात्मक क्षमता, उनका जीवन-ज्ञान और तत्कालीन समाज में व्याप्त गरीबी, भूखमरी, अशिक्षा, जाति-धर्म भेदभाव आदि विसंगतियों से खिन्न मन उन्हें जनकवि के रूप में प्रतिष्ठित करती है। यह प्रतिष्ठा केवल शाब्दिक नहीं है। यह प्रतिष्ठा कुछ ऐसी थी कि बस पूरा का पूरा जनपद उनके घर जैसा हो गया था। जिले में कहीं भी किसी भी घर के वह एक अस्थायी सदस्य के बतौर जाने जाते थे। उनकी कविताएं समसामयिक हस्तक्षेप की तरह हैं। जैसे- पूंजीवाद के खिलाफ उनके इस लहजे को देखिए-

कतौ बने भिटवा कतौ बने गड़ही,
कतौ बने महला कतौ बने मड़ई।
मटिया कै दियना तुहिं तौ बुझवाया,
सोनवा के बेनवा डोलाय-डोलाय।
बड़ी-बड़ी कोठिया सजाया पूँजीपतिया,
दुखिया कै रोटिया चोराई-चोराई।

कथरी के कबीर केवल अवधी की स्याही से कलम नहीं चलाते थे। खड़ी बोली में भी उनका बराबर हस्तक्षेप था। हां, लिखा उन्होंने ज्यादा अवधी में ही है। उनकी ज्यादातर लोकप्रिय कविताएं अवधी में ही है। आज जुमई खान आजाद की तीसरी पुण्यतिथि है। 5 अगस्त 1930 को प्रतागढ़ जिले के गोबरी नाम के गांव में जन्में जुमई 'अवधी के रसखान','अवधी सम्राट' आदि नामों से भी जाने जाते  हैं। जुमई अवधी अकादमी, लोकबंधु राजनारायण स्मृति सम्मान, सारस्वत सम्मान, मलिक मुहम्मद जायसी पुरस्कार, अवध-अवधी सम्मान, राजीव गांधी स्मृति सम्मान, अवधी रत्न सम्मान आदि पुरस्कारों से भी सम्मानित किए जा चुके हैं। साहित्यिक हलके के पास उन्हें न याद करने के अपने तमाम कारण होंगे, लेकिन हम तो अपने जनकवि को आज के दिन प्रणाम कर ही सकते हैं न। जाते-जाते जुमई खान की एक गजल का अंश पढ़िए और इस बात से आश्वस्त हो जाइए कि जुमई खान और हलधर नाग बनने के लिए प्रकाशित किताबों का सांख्यिकीय इतिहास मायने नहीं रखता, अगर कुछ मायने रखता है तो वह है आपकी रचनात्मकता का जन-मुद्दों से सरोकार. आपकी भावनाओं में संवेदनशीलता की मजबूत जमीन, विनम्रता, सामाजिक घुलनशीलता, सद्भावना, करूणा, आदर्श, ईमानदारी और सबसे ज्यादा जरूरी धर्म-जाति से परे मानवीयता।


नीम के रस में घोला जब ज़हर, मीठा हो गया
झूठ उसने इस कदर बोला कि सच्चा हो गया।

वो इस बात पर मुतमईन है कि दस्तार बच गयी
मुझको मलाल है कि मेरा सर नहीं गया।

कथरी के कबीर को प्रणाम।

No comments:

Post a Comment

बनारसः वहीं और उसी तरह

फोटोः शिवांक बनारस की चारों तरफ की सीमाएं गिनाकर अष्टभुजा शुक्ल अपनी एक कविता में कहते हैं कि चाहे जिस तरफ से आओ, लहरतारा, मडुआडीह, इलाहाबा...