Saturday 30 December 2017

कविताः अबकी आना तुम पाँव दबाकर नवल वर्ष

अबकी आना
तुम पांव दबाकर नवल वर्ष!

हमने कितनी आशा बांधी
थी, आए तुम बनकर आंधी,
खबर हो गई लोग-बाग को,
दिया कान भर, तुम प्रतिकूल।

हम बैठे थे दीप जलाए,
शंकित, चिंतित, मन घबराए,
माथे का भूगोल हुआ ज्यों
मुरझाता है कोई फूल।

तुम आए! या फिर आ धमके!
आते ही बिजली सा चमके,
मन के चंद्राशाओं को ज्यों
निगल गया बादल स्थूल।

सहमा-सहमा दीप बेचारा,
तड़क-भड़क से हारा-हारा
सोच रहा था कहीं प्रलय तो
नहीं आ गया है, मग भूल।

फिर तुमने क्या रंग दिखाया,
तहस-नहस का दृश्य बनाया,
ज्यों बरगद पर इधर फिर उधर
अपना जीवन रहा झूल।

पर जीवन तो हरी दूब है,
रगड़ी-मसली गयी खूब है,
झेल-ठेल तूफान, जी उठे
शीश तान हर बार तूल।

हे नवल भाग्य लेखनीकार!
हूँ थका हुआ, इसलिए यार!
जीवन के नवल सदन में तुम
तज अपने सारे धूल-शूल,

मत रिसियाना
करना प्रवेश सकुशल-सहर्ष।
अबकी आना
तुम पाँव दबाकर नवल वर्ष।

©राघवेन्द्र

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