Thursday 21 December 2017

कविताः सूरज को कल फिर आना है

सूरज को कल फिर आना है।

तप्त-खिन्न से पत्थर बोले,
तनिक सांस ले, बाँहें खोले।
शीत चांदनी से नहला दो
ऐ चंदा-सर! हौले-हौले।
शीतलता का दीप जला दो, ज्वाल-अंध कल फिर छाना है।

पकड़ कहीं कोना-अँतरा, वह,
रोज सुबकता, पीर-ज्वाल दह।
सामाजिकता के थल से बिछुड़ा
जाता, निजी-पीर में बह-बह।
लक्ष्य-कोष से इतर लक्ष्य को खोकर कहता, क्या पाना है?

दीप अगिन थे कभी जलाए,
उनका अब प्रकाश ना भाए,
चंद्र-खिलौने पर अड़कर, अब
हठवश हो सब दीप बुझाए।
उसे पता क्या नहीं! पूर्णिमा को कुछ दिन में ढल जाना है।

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