Thursday 15 June 2017

लोकतंत्र में अगर आपको अपनी खुद की विचारधारा से डर लगने लगे तो समझ जाइए कि लोकतंत्र वेंटीलेटर पर है

सरकारी स्वायत्त संस्थान केवल नाम भर के स्वायत्त होते हैं। सरकार बदलते ही उनके पदों पर सरकार की भक्ति और गुणगान गाने वालों के कूल्हे टिक जाते हैं। इसके लिए उनके पास उस पद की योग्यता के नाम पर कुछ सालों की चाटुकारिता की डिग्री भर होना अनिवार्य है, बाकी नियमों को ताक पर रखकर कैसे उन्हें उनकी औकात से बड़ा पद देना है ये सब सरकार को तय करना होता है। इस देश में सरकार बदलने की पहचान पता करने का यह भी बड़ा नायाब तरीका है कि उसके किसी संस्थान में चल रही विचारधारा की हवा का श्रोत पता कर लो, वहीं रहनुमा की कुर्सी और उस पर बैठा हुआ सत्ताधिपति आपको मिल जाएगा। पिछले कुछ सालों से कई शिक्षण संस्थानों में ऐसी छीछालेदर मची हुई है कि देश के इतिहास ने सरस्वती के साधनास्थलों पर इतनी थू-थू आज से पहले कभी नहीं देखी होगी। कई संस्थानों के उच्च पदों पर चाटुकार अयोग्यों को प्रतिष्ठित करने का मसला हो या प्रतिरोधी विचारधारा के विद्यार्थियों को देशद्रोही बनाने का अभियान देश के प्रबुद्ध और विचारशील तबके में अब एक प्रकार का भय पैदा कर रहे हैं। वो भय जो कि एक स्वतंत्र संप्रभु लोकतांत्रिक राष्ट्र की लोकतांत्रिकता के स्वास्थ्य के लिए घातक है।
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मार्च 2016 में दूरदर्शन न्यूज के तत्कालीन वरिष्ठ सलाहकार संपादक श्री केजी सुरेश को देश के सबसे बड़े मीडिया संस्थान का महानिदेशक नियुक्त किया जाता है, जिस प्रस्ताव का कैबिनेट सचिवालय यह कहकर विरोध करता है कि केजी में एडमिनिस्ट्रेटिव एक्सपीरियंस यानी कि प्रशासनिक अनुभव की कमी है। सूचना और प्रसारण मंत्रालय को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता। उसने अगर विवेकानंद इंटरनेशनल फाउंडेशन के वेबसाइट एडिटर और उसके मुखपत्र के संपादक केजी सुरेश का चयन मीडिया के सबसे बड़े संस्थान के सबसे बड़े पद के लिए कर लिया है तो उसे कोई नियम कायदे ऐसा करने से नहीं रोक सकते हैं। एक स्वायत्तशासी संस्थान की इतनी बड़ी मजबूरी आपने कहां देखी होगी जहां वह कहने को स्वतंत्र है लेकिन असल में ऐसा बिल्कुल नहीं है। संस्थान के इस सबसे बड़े पद के लिए जो योग्यता निर्धारित है वह कहती है कि एक गैर सरकारी उम्मीदवार जिसके पास कम से कम 25 साल का जर्नलिस्टिक अनुभव हो, फिल्म के क्षेत्र में, मीडिया एकेडमिक्स में कोई प्रशासनिक अनुभव हो, किसी राष्ट्रीय यूनिवर्सिटी में या फिर किसी प्रोफेशनल संस्थान में काम करने का एक्सपीरियंस हो ऐसा व्यक्ति ही इस प्रतिष्ठित संस्था का सर्वोच्च पदस्थ अधिकारी हो सकता है। इस पद पर नियुक्ति के लिए जिम्मेदार संस्था ने जब सूचना प्रसारण मंत्रालय से केजी के प्रशासनिक अनुभव संबंधी दस्तावेज मांगे तब मंत्रालय ने उन्हें केजी के एडमिनिस्ट्रेटिव एक्सपीरियंस की बजाय एडमिनिस्ट्रेटिव स्किल्स के प्रमाण-पत्र सौंप दिये थे। सारे दांव-पेंच लगाकर किसी तरह से कृष्ण गोपाल सुरेश भारतीय जनसंचार संस्थान के डायरेक्टर जनरल बना दिए गए।

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केजी सुरेश, महानिदेशक, आईआईएमसी
एक अनुभवहीन प्रशासक का सबसे पहला शिकार प्रतिरोध की आवाजों का वो चेहरा होता है जिससे उसको अपनी कुर्सी के पाए हिलते दिखाई देने लगते हैं। आईआईएमसी इससे अछूता नहीं रहा। केजी शासन में साल भर उनकी प्रशासनिक अपरिपक्वता का ढोल बजता रहा। शुरुआत कहां से हुई ठीक-ठीक नहीं बता सकते लेकिन पहली सरगर्मी तब बढ़ी थी जब संस्थान के कुछ कर्मचारियों को उनके कांट्रेक्ट के पूरा होने पर काम से बेदखल कर दिया गया। केजी शायद पहली बार तभी निशाने पर आए थे। हालांकि बाद में उन्होंने सारे बेदखल कर्मचारियों को पुनः बहाल करके अपने पहले प्रतिरोध पर जीत हासिल कर ही ली थी। दिसंबर में पहले सेमेस्टर की परीक्षा के समापन के बाद लगभग संस्थान के सभी छात्र छुट्टी होने के कारण घर निकल गए थे। ऐसे समय में संस्थान के एसोसिएट प्रोफेसर नरेन सिंह राव बिना कारण बताए सस्पेंड कर दिए गए। मामला सबज्यूडिस है। सोशल मीडिया पर रेडियो एंड टीवी विभाग के कई छात्र नरेन सिंह के समर्थन में खुलकर लिखने लगे। इंद्रदेव को अपना आसन हिलता दिखने लगा तो पांच छात्रों को चिन्हित किया गया। आरटीवी विभाग के अभिक देब, वैभव पलनीटकर, अंकित सिंह, सचिन शेखर और साकेत आनंद को कॉलेज प्रशासन ने नोटिस भेजकर तलब किया। मामला चेतावनी भर देकर रफा-दफा कर दिया गया।

कुछ दिन बाद अंग्रेजी न्यूज वेबसाइट न्यूज लांड्री पर संस्थान के ही हिंदी पत्रकारिता के छात्र रोहिन वर्मा का आईआईएमसी में केजी के प्रशासनिक फैसलों पर एक आलोचनात्मक लेख प्रकाशित हुआ। लेख में रोहिन ने सबज्यूडिस नरेन सिंह वाले मामले पर सवाल उठा दिए। इससे पहले भी रोहिन सोशल मीडिया पर लगातार संस्थान के बारे में आलोचनात्मक लहजे में कुछ न कुछ लिखते रहते थे। खुन्नस खाए प्रशासन नें उनके फेसबुक प्रोफाइल से फोटो आदि निकालकर उनका सस्पेंशन लेटर तैयार किया। रोहिन वर्मा लेख लिखने की वजह से सस्पेंड हो गए। फरवरी के आसपास जी मीडिया के मालिक सुभाष चंद्रा का मशहूर शो द सुभाष चंद्रा शो के एक एपिसोड के लिए आईआईएमसी के ऑडिटोरियम को वेन्यू के तौर पर निश्चित किया गया। छात्रों के पुरजोर के विरोध के बाद पहले तो कार्यक्रम टला फिर रद्द ही कर दिया गया। द्वितीय सेमेस्टर परीक्षाओं के बाद जब सभी छात्र परीक्षा देकर संस्थान से रुखसत हो चुके थे तब संस्थान में यज्ञ सहित राष्ट्रीय पत्रकारिता पर सेमिनार आयोजित किया गया। विवादित आईजी कल्लूरी को बतौर वक्ता आमंत्रित किया गया। समूचा मीडिया जगत राष्ट्रीय पत्रकारिता की उत्पत्ति को लेकर थोड़ा सा आशंकित था। विरोध हुआ, लेकिन कार्यक्रम निर्विघ्न संपन्न हुआ। लगातार विरोधियों के निशाने पर रहे केजी सुरेश अपने आकाओं के विचारधाराओं को आईआईएमसी की पुरातन स्वतंत्र अभिव्यक्ति वाली संस्कृति पर प्रतिस्थापित करने से पीछे नहीं हट रहे थे।
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शाश्वती गोस्वामी, पूर्व विभागाध्यक्ष, आरटीवी विभाग, आईआईएमसी 

अनुमान के मुताबिक नंबर उन सबका लगना था जो भी केजी विचारधारा के साथ नहीं था। जिन लोगों की लिस्ट इस अंदेशे के साथ बनाई जा रही थी उनमें शाश्वती गोस्वामी का नाम तो था ही। किसी भी तरह की गलत गतिविधियों के प्रति सबसे असहिष्णु शिक्षकों में शाश्वती शामिल थीं। अपने छात्रों को सही के लिए सदैव आवाज उठाने को प्रेरित करने वाली शाश्वती 2008 से भारतीय जनसंचार संस्थान का हिस्सा हैं और तभी से उन्हें संस्थान में रहने के लिए एक क्वार्टर की व्यवस्था की गई है। बीते एक जून को शाश्वती को अपना क्वार्टर खाली करने को कहा गया जिसमें वो अपने बच्चे के साथ पिछले 9 सालों से रह रही थीं। उसके क्वार्टर खाली करने के फरमान के कुछ ही दिन बाद उन्हें संस्थान के रेडियो एंड टेलीविजन डिपार्टमेंट के विभागाध्यक्ष पद से भी हटा दिया गया। कारण क्या है, अभी किसी को नहीं पता। आरटीवी विभाग की अध्यक्षता अब स्वयं केजी सुरेश सम्हालेंगे। आम छात्रों में या जिसे जनरल पब्लिक डोमेन कहते हैं, उनमें चर्चा है कि विभाग में प्रवेश प्रक्रिया पर अपना नियंत्रण रखने के उद्देश्य से केजी ने ऐसा कदम उठाया है। इस बार के आरटीवी के छात्रों ने पूरे साल उनके नाक में दम कर रखा था, शायद इसलिए इस बार प्रवेश में अपने मुताबिक अभ्यर्थियों को प्रवेश दिलाने के उद्देश्य से उन्होंने अतिरिक्त पदभार के तौर पर आरटीवी विभाग को हथिया लिया है। ऐसा संस्थान के निवर्तमान छात्रों का कहना है। संस्थान के एक छात्र (उनसे अनुमति नहीं ली है, सो नाम नहीं लेंगे) कहते हैं कि केजी को लगता है कि विभाग के कुछ छात्रों को शाश्वती संस्थान के खिलाफ प्रोवोक करती रहीं जिससे वो लगातार प्रशासन के विरोध में कुछ न कुछ गतिविधियों को अंजाम देते रहे। उनका यह भी कहना है कि शाश्वती नॉर्थ-ईस्ट कम्युनिटी से संबंध रखती थीं, केजी जिसके प्रति अच्छी भावना नहीं रखते। इन्हीं सारी बातों के आधार पर उन्होंने शाश्वती को कैंपस और विभागाध्यक्ष के ऑफिस के बाहर का रास्ता दिखाया है।

सच्चाई क्या है, अब शायद इससे दिलचस्पी खत्म होती जा रही है। लगातार ऐसे लोगों को टार्गेट करना जो संस्थान के स्वयंभू सुर से अलग सुर रखते हों, इस धारणा को और पुष्ट करता जा रहा है संस्थान में एक साजिश के तहत विशेष विचारधारा और उसकी मान्यताओं का जबर्दस्ती प्रतिस्थापन का महाअभियान चल रहा है। संस्थान की अनेक मनमानियों पर इन शिक्षकों की चुप्पी भी अब इनके बचाव में काम नहीं आ रही है। सभी को डर है कि अगला नंबर किसका होगा। लोकतंत्र में अगर आपको अपनी खुद की विचारधारा से डर लगने लगे तो समझ जाइए कि लोकतंत्र वेंटीलेटर पर है। मुझे अब समझ आ रहा कि मुस्कुराहटों से भी डरना चाहिए क्योंकि मुस्कुराहट की कीमत पर कोई आपके लिए आंसुओं का इंतज़ाम कर रहा होता है। संस्थान में आने के बाद केजी साहब की मुस्कानें मनोहर लगती थीं, फिर धीरे-धीरे वही मुस्कान अमनोहर लगने लगीं, मतलब अमच-चैन हरने वालीं। संस्थान के चप्पे-चप्पे पर कैमरे लग गए। लाइब्रेरी में आज किसी के भी घुसने पर पाबंदी लग गई। साल भर तमाम तरह के फरमान सुनाई देते रहे।

हालांकि हमें इन सबसे क्या लेना-देना था। हमारी कक्षाएं नियमित चलती थीं, तमाम ज्ञानवर्धक कार्यक्रम होते रहते थे, हमारे लिए संस्थान में विशेष मनोचिकित्सक भी तैनात थे। सारी सुविधाएं तो थीं, हमें क्या प्रशासन के आंतरिक मामलों के चक्कर में पड़ना। जैसा कि हमारे ही अनेक सहपाठी बड़े शान से कहते हैं। वो तो यहां तक कहते हैं, शाश्वती को हटा दिया तो क्या हुआ, रोहिन को सस्पेंड कर दिया तो क्या हुआ, नरेन सिंह को निकाल दिया तो क्या हुआ, कोई और आएगा। हमें भी ऐसा ही सोचकर चुप-चाप किसी पीआर कंपनी को ज्वाइन कर अपने जीवन की समस्त चापलूसी की कला का सदुपयोग करना चाहिए, लेकिन ये सवाल दिखने में जितने सरल हैं उससे कहीं ज्यादा भयानक हैं। कभी इनके अलग-अलग परिणामों के तार पकड़कर जाएं तो अंतिम परिणाम पर आपकी रुह कांप जाएगी। इन सवालियों के लिए तथा इस तरह की घटना को देखकर चुप्पी साधकर अपने आपको सुरक्षित समझने वालों के लिए कोई भी ओपिनियन, कोई भी सलाह या कोई भी निवेदन देने की शायद मेरी कोई औकात नहीं है, बस उन्हें मैं लेख के अंत में नवाज देवबंदी साहब के इस शेर के साथ छोड़ जाना चाहता हूं जिसे वो समझ पाएं तो बेहतर है, उनके लिए भी, हमारे लिए भी, संस्थान के लिए भी और हिंदुस्तान के लिए भी कि-
जलते घर को देखने वालों फूस का छप्पर आपका है।
आग के पीछे तेज हवा है आगे मुकद्दर आपका है।
उसके क़त्ल पर मैं चुप था तो मेरा नंबर अब आया,
मेरे क़त्ल पर आप भी चुप हैं, अगला नंबर आपका है।             

4 comments:

  1. बेहतरीन. सुंदर. सटीक.

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  2. सच प्रताड़ित हो सकता है पर पराजित नही.

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  3. बहुत बढ़िया।

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