Saturday 3 June 2017

' हम भी मीडिया से हैं'

उपलब्धियों में 'भ्रष्टाचार' की मिलावट तो आजकल आम बात है। देश के सबसे निचले स्तर का 'बहसबाज बुद्धिजीवी' भी इस बात पर बरगद-पीपल के पेड़ों के नीचे बहस करता आपको मिल जाएगा। ऐसे में कई दशकों बाद मीडिया उसी बहस को 'प्राइम टाइम' पर अब ला रही है, तो अब मुझे सोचने दीजिये कि बुद्धिजीविता की लेवलिंग लिस्ट में भारतीय मीडिया को मैं किस केटेगरी में रखूं। गणेश से सवाल करना उतना ही आसान था जितना उन सवालों का जवाब देना उसके लिए कठिन था। उसे गिरफ्तार करवाना भी उतना ही आसान था जितना कठिन था उसका यह बता पाना कि वह समस्तीपुर में कहां रहता था।

मीडिया को किस बात के लिए बधाई दूं! लगभग पढ़ाई छोड़ चुकने बाद 'सम्मानजनक' नौकरी आशा में उसके लिए आवश्यक डिग्री को पिछले दरवाजे से हासिल करने की कोशिश करने वाले उस छात्र के 'मानमर्दन' के लिए! इसके लिए तो नहीं है बधाई मेरे पास। हाँ, राजनेताओं की नज़र में इंसान की पूंछ की तरह बेकार छात्र समुदाय के भविष्य के साथ जुआ खेलने वाले उन उच्च स्तरीय 'अंक व्यापारियों' की गिरेबान खींचते आपका कोई रिपोर्टर दिखना छोड़िए, सुनने में भी आ जाय तो मेरा नतमस्तक शीश और आपका चैनल।

गणेश से पूछे गए सवालों के अलावा और भी हज़ारों सवाल हैं जो उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों के सरकारी स्कूलों के वृक्षों के नीचे पड़ी कुर्सियों पर पड़े गुरुजनों के खर्राटों से उठती हैं। जो बिना डेस्क बेंच के चलने वाली क्लासों के सन्नाटों से उठती हैं। जो 10 गाँवों के बीच स्थित एक इंटर कॉलेज में ठूंसने की स्थिति तक की छात्रों की संख्या के कोलाहल से उठती हैं। जो धड़ाधड़ 5 कमरों वाले फ़र्ज़ी स्कूलों के इंटर कॉलेज की मान्यता के आदेशपत्रों से उठती हैं। जो शिक्षा के अवैध व्यापार को मौन मंजूरी देने वाली सियासी चुप्पी से उठती हैं। इन सवालों के लिए भी तो 'सबसे पहले हमारे चैनल पर' वाली प्रतिस्पर्धा रखिए। किस माहौल में छात्र गणेश और रूबी बन रहे हैं और क्यों बन रहे हैं, यह सवाल भी तो चैनल के स्क्रॉल पर लिखिए।
सवालों को लेकर यह भेदभाव क्यों है जनाब!

और सुनिए! मैं आपसे यह नहीं कहूंगा कि मेहनत करिए, और गणेश जैसे सॉफ्ट टारगेट को पकड़ने की बजाय उन धनपशुओं को पकड़िये जिनके लिए पैसा-रूपया इस देश के भविष्य की बर्बादी को भी इनका धर्म बना देता है। मैं आपसे ये भी नहीं कहूंगा कि क्षेत्रीय शिक्षा बोर्डों की 'अस्मिता' और उनके 'विश्वास' के साथ खिलवाड़ करना बंद कीजिए। इसलिए भी कि यह आप लोगों से होने वाला भी नहीं है।

आप लोगों से कहना बस इतना है कि टीआरपी और एक्सक्लुसिव खबरों के चलते 'मीडिया' की मूल आवश्यकता को मरने तो मत दीजिए। उसकी 'ताकत' के 'विश्वास' को आम जनता की ताकत बनाने की बजाय उसके लिए मनोरंजन की विषयवस्तु तो मत बनाइए। 'ब्रेकिंग न्यूज़' की पट्टी और प्राइम टाइम की प्रतिष्ठा का वजन थोड़ा तो बढ़ा दीजिए साहब, जिससे आम जनमानस का विश्वास नहीं, भ्रष्टाचारियों का तख़्त हिल सके,उनका ताज गिर सके। बस,इतना कर लीजिये, तो हम भी थोड़ा शीश उठाकर लोगों से कह पाएं कि ' हम भी मीडिया से हैं।'

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