Friday 2 June 2017

द्रविड़नाडुः यह अलगाववाद की नई आहट है

नई सरकार अब तीन साल पुरानी हो चुकी है। हाल ही में तीन साल पूरे होने का जश्न देश के अलग-अलग हिस्सों में मनाया गया। इस सरकार के आने के बाद से कुछ एक मुद्दे ऐसे हैं जो बार-बार मीडिया से लेकर संसद और सड़क तक अनावश्यक रुप से उछल कूद रहे हैं। इन सबके दुष्परिणाम की आशंका तो थी ही लेकिन इस आशंका के गर्भ में इस तरह की जटिल समस्या फन काढ़े प्रकट होगी, इसका अंदाजा भी किसी को नहीं था। लोगों के खान-पान और उनके सांस्कृतिक मामलों पर लगातार बढ़ रहे हस्तक्षेप से भयातुर होकर दक्षिण भारतीय गलियारे के एक खेमें ने एक बार फिर से अपने अलग देश द्रविड़नाडु की चर्चा छेड़ दी है। गैर-ब्राह्मणवादी विचारधारा की बुनियाद पर खड़े एक दक्षिण भारतीय संगठन ने जिस ‘द्रविड़नाडु’ की मांग दशकों पहले की थी, आज फिर वही शब्द सोशल मीडिया पर ट्रेंड करने लगा है। लोगों का कहना है कि अगर सरकार उन पर ब्राह्मणवादी संस्कृति थोपना चाहती है तो बेहतर होगा कि हमें स्वतंत्र कर दे। समुंदर किनारे से अलगाववाद की यह नई आहट है।

दरअसल ‘द्रविड़नाडु’ शब्द आजादी से पहले के वातावरण की उपज है। बात 1916 की है जब टीएम नायर और राव बहादुर त्यागराज शेट्टी दक्षिण भारतीय राजनीति में गैर-ब्राह्मणवादी राजनीति का सबसे सशक्त चेहरा बनकर उभरे थे। मद्रास प्रांत की 95 प्रतिशत जनसंख्या के प्रतिनिधित्व का दावा करने वाले एक गैर-ब्राह्मण संगठन ‘दक्षिण भारतीय उदारवादी संघ’ (South Indian LIberal Federation) की नींव रखी गई जो लोगों में ‘जस्टिस पार्टी’ के नाम से जानी जाने लगी।  नायर पार्टी के अध्यक्ष बनें और शेट्टी उपाध्यक्ष। पार्टी के प्रतिनिधित्व में ‘तमिल वल्लाल’, ‘मुदलियाल’ और ‘चेट्टियार’ के साथ साथ ‘तेलुगु रेड्डी’, ‘कम्मा’, ‘बलीचा’ ‘नायडू’ और ‘मलयाली नायर’ भी शामिल थे। इनका प्रारंभिक उद्देश्य कई प्रतिष्ठित और प्रशासनिक पदों पर डेरा जमाए ब्राह्मणों जिनकी संख्या प्रांत में 3 प्रतिशत के आस पास थी, उनका वर्चस्व कम करना तथा इन गैर-ब्राह्मण जातियों को उन पदों पर प्रतिनिधित्व दिलाना था।


पार्टी के सीएन मुदलियार, सर टीपी चेट्टी जैसे अनेक कार्यकर्ताओं ने बड़ी मेहनत की और जस्टिस पार्टी को एक राजनैतिक पार्टी के तौर पर स्थापित किया। पार्टी ने 1921 में पहली बार स्थानीय चुनाव लड़ा और जीत भी हासिल की। 1920 से लेकर 1937 तक सत्ता में रहने के बाद पार्टी ‘जस्टिस पार्टी’  से ‘द्रविड़ कड़गम’ हो गई। 1938 में पार्टी के अधिवेशन में द्रविड़ों के लिए एक अलग देश की मांग का मुद्दा उठा। सिर्फ इतना ही नहीं यह मांगपत्र उसी साल लंदन में बैठे ब्रिटिश साम्राज्य के प्रधान अधिकारियों तक पहुंचा दिया गया और कहा गया कि दक्षिण भारतीयों की पहचान उत्तर भारतीयों से काफी अलग है इसलिए उनके लिए व्यवस्थाएं अलग से की जाएं तो बेहतर होगा। 1940 में पेरियार ने ‘तमिल’, ‘तेलुगु’, ‘कन्नड़’ और ‘मलयालम’ यानी कि द्रविड़भाषी परिवारों के लिए अलग देश का नक्शा प्रस्तुत किया और द्रविड़ों के लिए अलग देश द्रविड़नाडु की मांग की। 40 से 60 के दशक में इस मांग ने खूब जोर पकड़ा था, लेकिन 1963 में नेहरु सरकार ने संविधान के 16वें संशोधन से इस मांग पर पूर्ण विराम लगा दिया। दरअसल इस संशोधन में यह प्रावधान था कि देश में संवैधानिक पदों पर रहने वाले प्रत्येक व्यक्ति या फिर संगठन को अखण्ड भारत की संप्रभुता की शपथ लेनी होगी। इस संशोधन ने देश में राजनीतिक दलों के लिए अलग देश की मांग को प्रतिबंधित कर दिया। फलस्वरुप जस्टिस पार्टी जैसे संगठनों को अपने संविधान में सुधार करना पड़ा और द्रविड़नाडु की मांग ठंडे बस्ते में चली गई।

सोशल मीडिया पर ही सही द्रविड़नाडु का जिन्न एक बार फिर से बोतल से बाहर आने को बेताब है। द्रविड़नाडु के समर्थक फिलहाल मोदी सरकार के रवैय्ये से दुखी हैं। हाल की कुछ घटनाओं ने उन्हे अपने ही देश में असुरक्षित महसूस कराया है। दक्षिण भारत में बीफ खाना सामान्य है। 2015 में अखलाक को और उसके बाद पहलू खां नाम के व्यक्ति को गोरक्षकों ने पीट पीटकर मार दिया। अभी कुछ दिनों पहले भुवनेश्वर में एक शख्स पर गोरक्षकों के हमलों की खबर मीडियो की सुर्खियों में थी। इन सारी घटनाओं ने दक्षिण भारतीय लोगों के मन में भय और निराशा का माहौल तैयार कर दिया है। इसके अलावा जस्टिस कर्णन के अपमान को भी द्रविड़ समुदाय ने उत्तर भारतीय जजों द्वारा एक दक्षिण भारतीय जज को अपमानित करने के तौर पर लिया है। हाल ही में जंतर-मंतर पर हुए तमिल किसानों के आंदोलन को जिस तरह से अनसुना किया गया था, इसको लेकर भी उन लोगों में काफी निराशा और नाराजगी है। उन्हे इन सारी घटनाओं से उत्तर भारतीय समुदाय द्वारा दक्षिण भारतीयों के साथ भेदभाव करने की गंध आती है। जाहिर है इसने मौजूदा सरकार की नाकामियों में एक नया अध्याय जोड़ा है। तथाकथित राष्ट्रवाद के मुद्दे को चुनावी हथियार के तौर पर इस्तेमाल करने वाली सरकार का राष्ट्रवाद अब इस राष्ट्र की अखण्डता पर खतरा बनता जा रहा है।

तीन साल की मोदी सरकार में भ्रष्टाचार हुआ हो या न हुआ हो, अच्छे दिन आए हों या न आए हों लेकिन पिछले कई दशकों का सूखा हुआ अलगाववाद का यह वृक्ष फिर से हरा होने को तैयार है। देश भर में एक विशेष संस्कृति थोपने के अभियान ने देश की अखण्डता की मजबूती में दरारें लानी शुरु कर दी है। मीडिया और सोशल मीडिया के माध्यम से देश के आम नागरिकों के दिमाग में उन्माद और नफरत का जो कूड़ा भरा जा रहा था उसने अपना असर दिखाना शायद शुरु कर दिया है। कश्मीर मुद्दा अभी सुलझा नहीं, पूर्वोत्तर की स्थिति भी कुछ बेहतर नहीं है। ऐसे में भारत के भौगोलिक संरचना के लिए बड़ी चुनौती के रुप में एक नई समस्या के प्रादुर्भाव को गंभीरता से लेना हमारे लिए बहुत जरुरी है। सामाजिक और धार्मिक तनाव किसी भी देश की अखंडता की तबियत बिगाड़ सकते हैं। बहुसांस्कृतिक राष्ट्र के तौर पर भारत की अंतर्राष्ट्रीय प्रतिष्ठा है। अनेक धर्मों और संस्कृतियों के लोगों से मिलकर इस देश का निर्माण होता है। ऐसे में सामाजिक तारतम्य बनाए रखने के लिए जहां विखण्डनकारी गतिविधियों पर अंकुश लगाना बेहद जरुरी है वहीं समाज में प्रेम, सौहार्द और भाइचारे की भावना को बढ़ावा दिए जाने की भी जरुरत है। लोगों में ‘हम’ और ‘हमारा’ की चेतना विकसित करने की आवश्यकता है न कि ‘मैं’ और ‘मेरा’ की। हालांकि सोशल मीडिया पर उठ रही अलग देश की मांग वाली इस आवाज की शक्ति अभी बहुत कमजोर है, लेकिन वर्तमान माहौल अगर इसी तरह का बना रहा तो जिस तरह से यह इस प्रकार की विखण्डनकारी मानसिकता को विचारों में ही सही जन्म दे सकती है उसी तरह यह उसे खतरनाक स्तर तक शक्तिशाली भी बना सकती है, इसमें कोई दो राय नहीं है।

बोलता हिंदुस्तान में प्रकाशित

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