Tuesday 23 May 2017

कविताः जीवन आजकल

थके हारे,
तीसरी मंजिल से जब नीचे उतरते हैं,
तब काटती है भागती दुनिया।
यही मन चाहता है,
अंस पर लटका ये काला बैग लेकर
सतत
चलता रहूँ निर्लक्ष्य होकर,
कदम हाथी के जैसे मन्द हों,
ज़रूरत-कामना-दायित्व के बाज़ार मन में
हमेशा के लिए ही बन्द हों।
जो ठहरूं तो,
न सम्मुख हो कभी मेरे,
कहीं से भी कभी से भी,
मुझे पहचानने वाला।
मेरे मन का उलझता तार रख दूं मैं
किनारे कुछ समय।
निरन्तर गति,
अनन्तर राह,
छोटे डग
न कोई चाह।
न कोई यति
कि ऐसी गति
नियति में हो तो मिल जाए।
मेरी बिलकुल भी इच्छा ही नहीं होती
कि ऑफिस के
बड़े ही भव्य बिल्डिंग से
निकलते राह से चलता चला जाऊं
जहाँ कुछ दूर है वो घर,
कि जिसमें है वो कमरा एक बिस्तर
एक तकिया, एक टीवी, एक पँखा
एक एसी से सजा,
जहाँ पकता रहा होगा
कभी खाना,
मगर अब पक रहा हूँ मैं।

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