Monday 22 May 2017

पत्रकारीय संगठन की निष्ठा सत्य के प्रति है न कि राष्ट्र के

लोकप्रिय पत्रिका यंग मीडिया के अक्टूबर 2016 के अंक में 1983 के फॉकलैंड वार के दौर का एक उद्धरण छपा हुआ था। इस युद्ध के दौरान रिपोर्टिंग करते हुए बीबीसी बार- बार इंग्लैंड की सेना को हमारी सेना लिखने की बजाय ब्रिटिश सेना या इंग्लैंड की सेना लिखता था। बीबीसी की इस बात से ब्रिटेन के तत्कालीन प्रधानमंत्री काफी नाराज हुए थे। उनकी नाराजगी पर बीबीसी के महानिदेशक(डीजी) जॉन ब्रिड ने जो जवाब दिया था वो पत्रकारिता के विद्यार्थियों और गुरुओं को रट लेना चाहिए। ब्रिड ने अपने ही देश के प्रधानमंत्री को जवाब देते हुए कहा था कि पत्रकारीय संगठन राजनैतिक सत्ता का एक्सटेंशन नहीं है। उनकी निष्ठा राष्ट्र या राज्य के प्रति नहीं बल्कि सत्य के प्रति है। पत्रकारिता से जब-जब सत्ता इस तरह की नाराजगी का प्रश्न उठाएगी तब तब बीबीसी का यह महनिदेशक इसी जवाब के साथ हमेशा कोट किया जाएगा। अपने संस्थान के महानिदेशक से भी हम किसी ऐसे कोटेशन की उम्मीद इसलिए भी कर रहे थे क्योंकि आईआईएमसी के शुरुआती दौर की एक कक्षा में मुस्कुराते हुए जब संस्थान के महानिदेशक हमारी क्लास में आए थे और निष्पक्ष तथा वस्तुनिष्ठ पत्रकारिता पर जो लेक्चर दिया था उसने कुछ पल के लिए हम लोगों को यकीन दिला ही दिया था कि संस्थान भी सही हाथ में है और बतौर संस्थान के छात्र, हम भी सही हाथ में हैं। 

जॉन ब्रिड का जिक्र करना आज इसलिए भी जरुरी हो गया था क्योंकि बीते 20 मई को पत्रकारिता के भारत के सबसे बड़े संस्थान में वर्तमान परिप्रेक्ष्य में राष्ट्रीय पत्रकारिता विषयक सेमिनार यज्ञरुपी बोनस के साथ आयोजित किया गया था। हमारे महानिदेशक देवऋषि नारद को आदि पत्रकार मानते हैं। मतलब भारत में पत्रकारिता के इतिहास की आदि सीमा अनंतकालीन हो गई। 1983 में जॉन ब्रिड ने पत्रकारिता को राष्ट्रनिष्ठ से सत्यनिष्ठ बना दिया और पत्रकारिता का इतना पुराना इतिहास लिए भारत अब भी वर्तमान में राष्ट्रीय पत्रकारिता के विमर्श पर अटका हुआ है। हम उन्नति कर रहे हैं या अवनति यह मेरी समझ से बाहर की  बात होती जा रही है।

40 से 50 श्रोताओं के साथ संस्थान के अंदर चल रहे राष्ट्रीय पत्रकारिता पर विमर्श के विरोध में तकरीबन इतने ही लोग संस्थान के गेट नंबर दो से नारे लगा रहे थे कल्लूरी गो बैक, आदिवासियों का हत्यारा कल्लूरी वापस जाओ, केजी सुरेश मुर्दाबाद, तानाशाही नहीं चलेगी वगैरह वगैरह। विरोध प्रदर्शन कर रहे लोगों में कुछ संस्थान के वर्तमान छात्र थे, कुछ पूर्व छात्र, कुछ पत्रकार और कुछ पड़ोसी विश्वविद्यालय के छात्र थे। विरोधियों का विरोध कई बातों को लेकर था। पहला ये कि एक सरकारी संस्थान में यज्ञ जैसे धार्मिक अनुष्ठान क्यों हो रहे हैं? दूसरा ये कि बलात्कार, फर्जी मुठभेड़, मानवाधिकार हनन जैसे गंभीर मामलों का अपराधी कल्लूरी को संस्थान में बतौर वक्ता क्यों बुलाया गया? तीसरा संस्थान के वर्तमान छात्र जिनके पास 31 मई 2017 तक वैध रहने वाला संस्थान का पहचान-पत्र है, उन्हे अंदर सेमिनार को अटेंड करने की अनुमति क्यों नहीं दी जा रही है?


यज्ञ को लेकर संस्थान के डीजी का रुख एकदम साफ था। उनका कहना था कि उन्हे धर्मनिरपेक्षता का पाठ न पढ़ाया जाए। जिन्हे इस अनुष्ठान की वजह से धर्मनिरपेक्षता खतरे में दिखती है उन्हे यह मालूम होना चाहिए कि हमने देश में सभी धर्मों को समाहित किया है। दो बातें, यहां पता नहीं हमने से इनका मतलब केजी सुरेश था या फिर कुछ और। दूसरा इनके बयान सुनने के बाद धर्मनिरपेक्षता की परिभाषा पर मुझे नए सिरे से सोचना पड़ेगा। सरकारी संस्थान में यज्ञ  के साथ साथ नमाज, सिखों और इसाइयों के भी धार्मिक अनुष्ठान करने की अनुमति होना धर्मनिरपेक्षता है या फिर इनमें से किसी को भी अनुमति न मिलना धर्म निरपेक्षता है?

छात्रों का कहना है कि उन्हे यज्ञ से कोई दिक्कत नहीं है। संस्थान में होली और लोहिड़ी जैसे कार्यक्रम इसी साल मनाए गए। उनका कोई विरोध नहीं हुआ क्योंकि वो व्यक्तिगत आयोजन थे। इस आयोजन में तो संस्थान यानी कि स्टेट सीधे-सीधे शामिल है। एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र में यह न सिर्फ गैरकानूनी है बल्कि नैतिक आधार पर भी सही नहीं है। इस बाबत संस्थान के कुछ वर्तमान छात्र डीजी से मिलने उनके कार्यालय में गए। उनका फोन बाहर रखवा लिया गया। छात्रों के सवालों पर डीजी का मूड गड़बड़ हो गया। पूरे साल संस्थान को अपनी राजनीति से अस्थिर रखने वाले डीजी साहब ने छात्रों से कहा कि तुम लोग नेता बन रहे हो। सुनने में यह भी आया कि उन्होने तैश में आकर यह तक कह दिया कि हां मैं संघी हूं। हालांकि एक छात्र के इसे कैमरे पर बोलने को कहने पर उन्होने अपने बयान से मुकरना ही ठीक समझा।

बस्तर के विवादित आईजी कल्लूरी के पास पत्रकारों पर- वकीलों पर हमले , पत्रकारों की गिरफ्तारियां, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं पर मुकदमें सहित अनेक आरोपों के साथ साथ 2006 में भारत सरकार द्वारा दिया गया वीरता के लिए पुलिस मेडल भी है। इसके अलावा इंटरनेट पर कल्लूरी के विषय में पढ़ते वक्त उन पर लगा एक और गंभीर आरोप दिख गया कि उन्होने रमेश नगेशिया नामक कथित माओवादी को समर्पण के नाम पर थाने में बुलाकर उसका एनकाउंटर कर दिया। यह आरोप तो कल्लूरी को फिल्मों में दिखाए जाने वाले खतरनाक खलनायकों के रुप में चित्रित करती है जो फर्जी मूठभेड़ में माहिर होते हैं और एनकाउंटर स्पेशलिस्ट कहलाते हैं। कल्लूरी समर्थकों का कहना है कि उन पर आरोप साबित नहीं हुए हैं इसलिए जब तक कि आरोप साबित न हो जाएं कल्लूरी निर्दोष हैं और वह सेमिनार में बोलने की योग्यता रखते हैं।

सोशल मीडिया से चला यज्ञ और कल्लूरी का विरोध जमीन पर भी उतरा लेकिन न तो यज्ञ रुका और न कल्लूरी की जबान। अरुणा आसफ अली मार्ग पर आईआईएमसी के गेट नंबर दो के सामने तमाम प्रदर्शनकारी तख्ती लेकर कल्लूरी के वापस जाने संबंधी नारे लगा रहे थे।अंदर संस्थान के महानिदेशक अपने ही संस्थान के छात्रों को असुर सिद्ध कर रहे थे। यज्ञ रोकने वाले मूर्खों को हिंदुओं का सेक्यूलरिज्म याद दिलाते हुए केजी ने कहा कि भारत में केरल में चर्च बनाने के लिए सबसे पहले जमीन हिंदू राजाओं ने दी थी। उन्होने उन्ही के अनुसार आदि पत्रकार नारद से पत्रकारिता सीखने की सलाह दी जो दैत्यों और देवों दोनो से मिलते थे। अब इसमें उन्होनें कल्लूरी साहब को कौन सी कैटेगरी में रखा वही जाने।

वंचित आदिवासियों के उत्पीड़न और यहां तक कि उनकी हत्या का आरोप झेल रहे कल्लूरी को वंचितों से ही जुड़े विषय पर अपना विचार रखना था। उनकी गणित के अनुसार बस्तर के 40 लाख लोगों में से महज 5 लोग उनके विरोधी हैं। उनका कहना शायद ठीक हो अगर वो यह कहना भूल गए हों कि महज 5 लोग बचे हैंपुलिस और नक्सलियों के बीच आदिवासी पिस रहे हैंजैसे गंभीर मुद्दों पर बोलने के अलावा उन्होने पति-पत्नी पर बहुत सारे जोक्स भी सुनाए। इस पूरे मसले पर पत्रकारिता की नई पौध किस तरह से आमने सामने थी और उनकी आज की प्रतिक्रियाएं भविष्य में पत्रकारिता कैसी तस्वीर बनाएंगी इसकी झलक सोशल मीडिया पर उनके पोस्ट्स जरुर दे देते हैं।

विरोधियों को जवाब देते हुए संस्थान के वर्तमान छात्र राघवेंद्र सैनी लिखते हैं कि मार्क्स और मैकाले के पुत्रों से मुकाबला हो रहा है। इसके साथ वह आईआईएमसी 20 मई  का हैशटैग भी लगाते हैं। संस्थान के डीजी केजी सुरेश को चुनौती देते हुए अंकित सिंह लिखते हैं कि डीजी साहब घबराइए नहीं,आपके अश्वमेध का घोड़ा आपके ही छात्र रोकेंगे। दीपांकर पटेल लिखते हैं भारत के सबसे बड़े पत्रकारिता संस्थान आईआईएमसी में सरकारी विचारधारा का शंख बज चुका है। जश्न मनाइए आप गूंगे हो रहे हैं।

इस पूरे प्रकरण में खिंची रेखाओं ने तीन पालों का निर्माण किया था। एक उनका था जो कार्यक्रम के समर्थन में थे। दूसरे वे जो विरोध में थे। तीसरे वो थे जिन्हे इस मसले से कोई लेना देना नहीं था। केजी सुरेश ने संस्थान में आने के बाद से कई ऐसे कार्यक्रम आयोजित करवाए थे जिनसे छात्रों को काफी फायदा हुआ। एक छात्रवत्सल डीजी के तौर पर उनकी प्रतिष्ठा संस्थान में थी। लेकिन एक विशेष विचारधारा के प्रति उनका झुकाव और उनका अभिमान उनके सारे सकारात्मक पक्षों को तहस-नहस कर देता है। संस्थान के पांच छात्रों को उन्होने सिर्फ इसलिए नोटिस थमा दिया था कि उन्होने सोशल मीडिया पर उसी संस्थान के ऐसे शिक्षक के समर्थन में पोस्ट लिख दी थी जिन्हे बिना कारण बताए या नोटिस दिए संस्थान से सस्पेंड कर दिया गया था। चर्चा थी कि सस्पेंड होने वाले अध्यापक नरेन सिंह राव वामपंथी गलियारे की विचारधारा मानते थे। सिर्फ इतना ही नहीं हमारे ही एक सहपाठी रोहिन वर्मा को डीजी साहब ने इसलिए सस्पेंड कर दिया कि उन्होने सोशल मीडिया पर अपने एक आलेख में संस्थान को गोबर लिख दिया था। एक अंग्रेजी न्यूज वेबसाइट के लिए लिखे अपने लेख में रोहिन ने संस्थान से बिना नोटिस सस्पेंड नरेन सिंह का जिक्र कर दिया था। यह बात भी डीजी साहब को नागवार गुजरी। संस्पेंड करने के ये कारण खुद डीजी साहब ने क्लास में आकर लगभग सफाई देते हुए बताया था। ये वो सारी घटनाएं हैं जिन्होने यह लगातार सिद्ध किया है कि संस्थान के महानिदेशक उन विचारधाराओं को बर्दाश्त करना अब तक नहीं सीख पाए हैं जो उनके पक्ष से इतर होती हैं जबकि पत्रकारिता के प्रोफेशन में उन्होने तीन दशक से ज्यादा समय बिताया है।

राष्ट्रीय पत्रकारिता पर सेमिनार के समर्थकों नें संस्थान में यज्ञ के विरोध को यज्ञ के विरोध के रुप में प्रचारित करके मामले को सांप्रदायिक बनाने की भरपूर कोशिश की है। सेमिनार के शीर्षक से तो यही संदेश मिलता है कि पत्रकारिता के विस्तृत अस्तित्व को राष्ट्रीयता के पगहे से बांधकर उसके पर कुतरने का अभियान शुरु हो चुका है। अब जो इसके विरोध में हैं उनके राष्ट्रद्रोह का सर्टिफिकेट तो तैयार ही है। यह नए किस्म की पत्रकारिता का केवल नाम नया है। इस पर काम तो बहुत पहले से ही शुरु है।


पत्रकारिता जब अपनी- अपनी राष्ट्रीयता तलाश लेगी और उसकी निष्ठा सीमाओं के खूंटे से बंध जाएगी ऐसे में सत्यनिष्ठा, वस्तुनिष्ठता, निष्पक्षता जैसे पत्रकारीय कर्तव्य सिर्फ पत्रकारिता की किताबों के कंटेंट बनकर रह जाएंगे। सामाजिक सरोकार, वंचित-शोषित वर्ग अपनी आवाज खोकर गूंगा हो जाएगा। सत्ता का अहंकार और मुखर हो जाएगा। ऐसे में जंतर-मंतर पर सिर मुंड़वाकर विरोध करने वाले किसानों से सोनू निगम के सिर मुंड़वाने की खबर ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाएगी। ऐसे में सहारनपुर की घटना से कपिल मिश्रा का खुलासा ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाएगा। ऐसे में माननीयों से सवाल करने से उनका गुणगान ज्यादा अहमियत रखने लगेगा। इन सारी बातों से कोई अनभिज्ञ नहीं है लेकिन इन बातों पर कोई गंभीर भी नहीं है। इन सवालों को केवल विमर्श से उतारकर इनके जिम्मेदारों के चौखट तक पहुंचाना होगा और जरुरत पड़े तो उनके गिरेबान तक भी। पत्रकारिता की सार्थकता तभी है और जरुरत भी। 

सभी फोटो साभारः नरेन सिंह

6 comments:

  1. I am impressed by this piece. Will share it. Just one clarification :- I did not write 'gobar' in the piece for Newslaundry. I used 'gobar' on facebook.

    Keep it up friend. ये बोलिए का ही नतीजा है कि आज बीबीसी के उदाहरण से लेख शुरु हुआ. खूब सारा प्यार.

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    1. बोलिए का दौर अविस्मरणीय है रोहिन। कभी नहीं भूलेगा, न वो दौर, न उस दौर की बातें।।
      गलती सुधार कर दी है,शायद अब सही हो।

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  2. बहुत बढ़िया।

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    1. शुक्रिया साकेत भाई। आप लोगों की हर गलत चीज पर आवाज उठाने की हिम्मत बड़ी प्रेरणा देती है। सदैव सफल होइए।।

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  3. well articulated piece raghavendra.
    पत्रकारिता जब अपनी- अपनी राष्ट्रीयता तलाश लेगी और उसकी निष्ठा सीमाओं के खूंटे से बंध जाएगी ऐसे में सत्यनिष्ठा, वस्तुनिष्ठता, निष्पक्षता जैसे पत्रकारीय कर्तव्य सिर्फ पत्रकारिता की किताबों के कंटेंट बनकर रह जाएंगे।

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    1. शुक्रिया रीतिका। इस पूरे प्रकरण में यह विषय शायद पीछे छूट रहा था। इसका प्रकाश में आना जरुरी था। राष्ट्रीय पत्रकारिता एक खटकने वाला शब्द था। पत्रकारिता में इसकी जरुरत बिल्कुल नहीं है।

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