Sunday 7 May 2017

कर्मक्षेत्रे:नयी पारी

एक नए अनुभव की दहलीज़ पर कदम है आज!नयी पारी भी कह सकते हैं।स्मृतियां आज उन सारे दिनों की तस्वीरों पर रौशनी डाल रही हैं,जब जब आज ही की परिणति को लक्ष्य बनाकर हमारे निर्माण को धार दिया जा रहा था।शिक्षा का सम्पूर्ण उद्देश्य एक अच्छी नौकरी की संभावना की सीमा पार नहीं कर पाता था।
नौकरी तो है नहीं यह,कुछ उसी जैसा है।अब अच्छी है या बुरी है,नहीं पता!अलग-अलग मापदंडों के अलग-अलग फैसले हैं।
अब हर रोज़ ऑफिस जाना होगा।यहां शायद बहाने नहीं चलेंगे।10 बजे का मतलब 10 बजे होगा।अभी तक तो खासकर हमारे लिए 10 बजे मतलब 10 बजे तो बिलकुल नहीं होता था,वह कभी 11 बजे होता,कभी 12 बजे होता तो कभी कभी मूड ठीक-ठाक रहता तो 9 बजे हो जाता।लेकिन अब ऐसा नहीं है।अब 'बॉसवाद' का अनुगामी बनना ही पड़ेगा।अब तक भले किसी भी 'वाद' के विवाद में न पड़े हों,अब तो पड़ना ही पड़ेगा।
पहला अनुभव होगा,जब किसी की स्टाइल शीट हमारे अपने हर अंदाज़ को संचालित करेगी,हो सकता है ऐसा न भी हो,लेकिन लोगों का तो यही मानना है।ख़ैर जो भी हो,जाकर ही तो पता लगेगा कि क्या होना है।
इलाहबाद में था,तब भइया टाइम्स ऑफ़ इंडिया मंगाते थे।हमारी ज़िद थी कि हम पढ़ेंगे तो हिंदी अख़बार, अंग्रेजी तो बिलकुल नहीं।इसलिए हम कॉलेज जाते वक्त 'जनसत्ता' खरीद लेते थे।कई लोगों का सुझाव भी था कि जनसत्ता का एडिटोरियल जरूर पढ़ना चाहिए,इसलिए भी जनसत्ता ख़ास थी।अच्छा!हर जगह मिलता भी नहीं था।यूनिवर्सिटी रोड,abvp कार्यालय के नीचे मिल जाता,वहीं ले लेते थे।तब सोचा भी नहीं था कि आज जो अखबार इतनी शिद्दत से खरीद पढ़ रहे हैं,एक दिन उसी अखबार का कार्यालय अपना ऑफिस होगा।
अच्छा!लोग भी कह रहे हैं।जितने लोगों ने हमको थोड़ा-बहुत(जितना हम लिखते हैं)पढ़ा है,वो यही कहते हैं कि तुम्हारा लेखन था भी जनसत्ता लायक।अब ये तारीफ होती थी या कुछ और,पता नहीं।रोहिन का भी कहना था कि 'जनसत्ता तुम्हारी हिंदी बचा लेगा।'जनसत्ता की जो हिंदी है वो थोड़ी सी क्लिष्ट साहित्यिक हिंदी है।इसलिए भी उसकी भाषा थोड़ी विशिष्ट है,अलग है।एक मानक के तौर पर पत्रकारिता की दुनिया में उसकी प्रतिष्ठा है।'जनसत्ता की हिंदी' एक मानक है,विशिष्ट है,अलग है।अगर ऐसा नहीं होता तो लल्लनटॉप ऑनलाइन के इंटरव्यू में शताक्षी की लिखी हिंदी पर टिप्पणी करते हुए सौरभ द्विवेदी ये न कहते कि 'तुम्हारी हिंदी तो जनसत्ता टाइप है।'और फिर उन तीन चयनित लोगों में शामिल भी कर लेते जिन्हें फाइनल इंटरव्यू देना है।
भाषा जो भी हो,जनसत्ता प्रतिष्ठित है एक ऐसे पत्रकारीय विकल्प के रूप में जिसमें वस्तुनिष्ठता,निष्पक्षता,विश्वसनीयता और पत्रकारिता अपेक्षाकृत बेहतर स्थिति में है।एक ब्रांड भी है,इसलिए मेरे अपने दोस्तों की नज़र में मैं सही जगह पर हूँ।
अब वहां जाकर मुझे क्या करना है,नहीं मालूम।टंकण करना है,अनुवाद करना है,न्यूज़ लिखना है,आर्टिकल लिखना है,रिपोर्टिंग करनी है!!पता नहीं।लेकिन कल इंडियन एक्सप्रेस अपार्टमेंट की इस बिल्डिंग में पाँव रखते ही सामाजिक सरोकार,सामाजिक मुद्दे और सारा समाज मेरे प्रति अपना नजरिया बदल देंगे।उस ऊँची बिल्डिंग के किसी कमरे की किसी कुर्सी पर बैठकर हम जो भी करें, सड़क को,गली को,मोहल्ले को,जिले को,प्रदेश को,देश को मुझसे 'कलम से क्रांति' करने की उम्मीद तो जरूरे होगी।देखना होगा कि इस उम्मीद की ज़िन्दगी के लिए अवसर के कितने ख़ुराक़ मुझे नसीब होते हैं।
आदमी जब बुज़ुर्गीयत की ओर बढ़ता है तो उसको नसीहत मिलती है कि 'उमर हो गयी,अब भगवद्गीता का पाठ करो।'जब कोई काम नहीं तब गीता पढ़ो ताकि मोक्ष हो जाए।ज्ञान-कर्म-संन्यास योग की शिक्षा का अनुपम संग्रह यह ग्रन्थ जीवन के उस किनारे पर पढ़ना जब ज्ञान-कर्म का दौर रुखसत हो चुका हो,सही नहीं लगता।गीता पढ़ने का सही समय तब है जब आप जीवन के समरांगण में उतर रहे हों।इसकी सही जरूरत तभी है।इसलिए आज यू ट्यूब पर आधा घण्टा कृष्णरूपी नितीश भारद्वाज से गीता सुने हैं।जो चीजें समझ आयी उन्हें साझा कर रहे हैं।
कृष्ण कहते हैं कि 'सत्पुरुष अपने अधिकारों का अतिक्रमण नहीं करते।कर्म करने के अधिकारी मनुष्यों को कर्म के फल में आसक्त नहीं होना चाहिए।यदि आप विजय से मोहित नहीं होते हैं तो पराजय से घबराएंगे भी नहीं।और वैसे भी बाणों के संधान पर आपका अधिकार हो सकता है,आपकी एकाग्रता-ध्यान पर आपका अधिकार हो सकता है लेकिन उस मृग पर आपका कोई अधिकार नहीं जिस पर आप बाणों का संधान किये हुए हैं।इसलिए कर्मफल की इच्छा मत रखिये।कर्मफल की इच्छा व्यक्ति के गले में बंधा वो पत्थर है जो उसे उसके तहों से उठने नहीं देती।वो व्यक्ति को समाज से काटकर अलग कर देती है और उसे व्यक्तिगत लाभ और व्यक्तिगत हानि के दलदल में धकेल देती है।'
कृष्ण बताते हैं कि 'व्यक्तिगत लाभ से पाप की गली निकलती है।समाज आपसे नहीं है,आप समाज से हैं।इसलिए आप लोकसंग्रह और लोककल्याण को ही अपना प्रथम कर्तव्य मानिए,क्योंकि जो समाज के लिए कल्याणकारी होगा वही आपके लिए कल्याणकारी होगा।'
हालाँकि ये श्रीकृष्ण द्वापर में अर्जुन को संबोधित करते हुए कह रहे हैं।आज के समय में यह कितना प्रासंगिक है,कह नहीं सकते।लेकिन फिलहाल कर्तव्यों और कर्मों के इस दौर में अच्छे-बुरे की पहचान के लिए इससे बेहतर मानक और कोई उपलब्ध भी तो  नहीं है।इसलिए इसे मानना सिर्फ मजबूरी नहीं,सिर्फ ज़रुरत नहीं बल्कि एक प्रयोग एक प्रैक्टिकल भी है जो इस दृष्टान्त को या तो पुष्ट करेगा या फिर नष्ट करेगा।

ख़ैर!नयी पारी है,नये अनुभव होंगे।उत्सुकता,उत्साह और उम्मीद चरम पर हैं।
बाकी आशीर्वाद आप सबका!!

1 comment:

  1. Congratulations.....😋
    Aaj bhi bhaiya 'Times of India' hi mngaate hai...😕

    ReplyDelete

बनारसः वहीं और उसी तरह

फोटोः शिवांक बनारस की चारों तरफ की सीमाएं गिनाकर अष्टभुजा शुक्ल अपनी एक कविता में कहते हैं कि चाहे जिस तरफ से आओ, लहरतारा, मडुआडीह, इलाहाबा...