Saturday 21 January 2017

सामाजिक सत्ता के खिलाफ यही हमारा ‘वामपंथ’ है...


सवाल सिर्फ बैडमिंटन के खेल में मिली लगातार हार का नहीं है,सवाल सिर्फ एक भावनात्मक प्रतिस्पर्धा में अपने किसी दोस्त के जीतने और हमारे हारने का नहीं है,सवाल है कि किसी भी मनचाहे लक्ष्य के प्रति कितनी तन्मयता,कितना प्रयास,कितनी लगन और कितना जुनून आपके अंदर है।उस कार्य की साधना में आपकी सक्रियता किस स्तर की है।हर बार किस्मत को कोसकर और लोगों की सहानुभूति बटोरकर सिर्फ और सिर्फ दिल को तसल्ली मिल सकती है,मन को शांति मिल सकती है,हौसलों को धोखा मिल सकता है,मंजिल नहीं मिल सकती,दौड़ की आखिरी लाइन के पार का स्थायित्व,सुकून और आनंद नहीं मिल सकता।अच्छा लगता है,आपकी हार पर आपके कंधे पर हाथ रखकर कोई आपको दिलासा दे,आपके दुख को अपना समझ दो बूंद आंसू भी बहा दे औऱ आपके प्रयासों की सराहना करते हुए उन तमाम व्यवस्थाओं पर दोषारोपण कर दे जिसकी परिधि में आपके सारे दांव-पेंच,आपके सारे प्रयासों ने घुटने देक दिए हों।लेकिन उस वक्त की सच्चाई यही है कि आप हार चुके होते हैं,आप उस सकून और आनंद से वंचित हो चुके होते हैं जिसके साथ आता है गर्व करने का क्षण,शीश उठाकर चलने का अधिकार और जीवन में अब तक की हर असफलता,हर गलती का अनकहा जवाब!इसके अलावा कुछ भी सत्य नहीं होता,कुछ भी नहीं।आप हार चुके होते हैं अपने दोस्त से,आप हार चुके होते हैं अपने उस प्रतिस्पर्धी से जो अभी कुछ देर पहले आपके साथ चाय पी रहा था,और अब आपकी हार पर तमाम तंज कसते हुए हंस रहा है।अगर आप इस सच्चाई को स्वीकार करने में हिचकिचा रहे हैं,अगर आप उसके हर तंज पर उठने वाले आस-पास के ठहाकों को पचा ले रहे हैं,तो आई एम सॉरी,आप एक किसी ईंट उठाने जैसे काम को पूरा करने के भी लायक नहीं है।और अगर ये बातें आपके दिल पर नहीं लगती तो जम गया है आपका खून,और मर गए हैं उसमें पलने वाले जोश और जुनून के सारे आरबीसी और डब्ल्यूबीसी।

संसार अकेले लोगों का एक सार्वभौमिक समुच्चय’(universal set) है।आपके अपने कर्तव्यों की परिधि में कोई आपके साथ नहीं है।आप अकेले हैं।इसलिए जीवन में किसी के साथ की उम्मीद मत कीजिए क्योंकि ये उम्मीद आपके सारे हौसलों,आपके सारे उत्साह और यहां तक की आपके संपूर्ण अस्तित्व को तहस-नहस करने का आधार तैयार करती है।ये उम्मीद जीवन के मरूस्थल में सिर्फ एक मृग मरीचिका है,एक छलावा है,एक स्वर्ण-मृग है,जिस पर मोहित आपका हृदय आपके सपनों का सीता-हरण करवा सकता है।

यही व्यवस्था मिली है न  हमको और आपको विरासत के रूप में,थाती के रूप में,धरोहर के रूप में!और इसी व्यवस्था को जीना हमारी और आपकी मजबूरी है। दुनिया के सारे लक्ष्य,दुनिया की हर प्रतिस्पर्धा आपने नहीं बनाई,लेकिन आप चाहकर भी इनसे दूरी नहीं बना सकते।आपके दुनिया में आने से पहले ही आपके साथ एक अनौपचारिक लेकिन काफी हद तक व्यवहारिकता में औपचारिक अनुबंध किया जाता है।इसलिए आप पैदा ही परतंत्र होते हैं।

पूरा जीवन एक दौड़ है।दौड़िए! दौड़िए! और दौड़िए! प्रत्येक क्षण आपके पैरों की टाप लोगों को सुनाई देनी चाहिए।फलां आदमी फलां दूरी तक दौड़ गया,फलां आदमी तुम्हारी दौड़ पूरी करने नहीं देगा,फलां से आगे जाना है तुम्हें, ये वो सारे श्लोक हैं जो इस दौड़ रूपी महाभारत में आपको आपके श्रीकृष्ण लोग सिखाते फिरेंगे।हम भी कम थोड़े हैं,दौड़ते हैं,लगातार,इच्छा नहीं है फिर भी।आखिर दौड़ना जीवन का शाश्वत सत्य जो है।अपने सपने,अपने अरमान,अपनी इच्छाएं,अपनी खुशियां,अपनी भावनाएं सब कुचलते हुए हम दौड़ते हैं।और इस दौड़ में हम कभी-कभार आगे तो निकल जाते हैं,लेकिन इस भाग-दौड़ में पीछे रह जाती है जिंदगी।वो जिंदगी,जो सच में जिंदगी है।जो किसी उद्यान में खिले इक रंगीन सुरभित मृदुल पुष्प के समान ही खूबसूरत है,जिसमें किसी भागा-दौड़ी के कांटे नहीं होते।वही जिंदगी तो जिंदगी है।हमें वही जिंदगी तो जीनी है!

हमें नहीं पसंद है एक ऐसी जिंदगी जिसमें सांस लेने से ज्यादा जरूरी हो सांस लेने के लिए हवा पैदा करना।हमें नहीं पसंद है ऐसी जिंदगी जिसमें अपने एक अनिश्चित सुखद भविष्य के लिए अपने वर्तमान से सौदा करना पड़े।हमें नहीं पसंद है ऐसी जिंदगी जिसमें जिंदगी के लिए जिंदगी से दूर रहने की अपरिहार्यता हो जाए।हम अपनी व्यक्तिगत सत्ता के स्वयं सत्ताधीश हैं।और इस हैसियत से इन सारी व्यवस्थाओं को,इन सारे विधानों को सिरे से खारिज करते हैं।कोई भी स्थापित मान्यता,कोई भी स्थापित व्यवस्था जिसके निर्माण में हम शामिल नहीं थे,उसे स्वीकार करना हमारे अपने विधान,उसूल,सिद्धांतों के खिलाफ है।जो दोस्त हमारी जिंदगी की सांस हैं,जो परिवार हमारी जिंदगी का आधा हिस्सा है,जो हम हमारी जिंदगी का संपूर्ण अस्तित्व हैं उन पर सवाल उठाने वाली जिंदगी मृत्यु से भी बदतर है।जीवन जीने का हमारा अपना तरीका है,हमारी अपनी व्यवस्था है।हम तो उसी तरीके से जिएंगे।हमारी भावनाओं का,हमारे अरमानों का शोषण करने वाली प्रतिस्पर्धात्मक व्यवस्था की जनक इस सामाजिक सत्ता के खिलाफ यही हमारा वामपंथ है।
लाल सलाम!

नोट- ये 'काला-नीला' मेरे मस्तिष्क का अंतर्द्वंद है।वैचारिक उथल-पुथल को यथास्थिति लिखने के पीछे महज एक कारण है कि अब अपने आप से झूठ बोलना अपराध लगता है।इसलिए मन की वास्तविक स्थिति का चित्र खींचना पूरे लेख के संतुलित संपादन से ज्यादा महत्वपूर्ण लगा।


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