Sunday 22 January 2017

कविताः जब जागता हूँ मैं


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जब जागता हूँ मैं,
तब चाहता हूँ मैं,
चलती रहे दुनिया,सभी प्राणी-
सड़क-गाड़ी-बसें-जन-जन,
सब भागते हों काम पर अपने
कभी भी जागृति की चिर गति में
हो न अवमन्दन।
जलती रहे बिजली के बल्बों में प्रकाशित श्वेत-पीली रौशनी।
और जिसके साथ चलती ही रहे हलचल
दुकानों पर निशा भर।
बनती रहे मिट्टी के चूल्हों पर
महकती चाय अदरक की सड़क के छोर पर।
चलता रहे सूरज दिवस भर,
रात को भी ना रुके।
इक दूसरे को देख हंसकर
कह पड़ें चन्दा-दिवाकर,
'आपका दिन हो शुभाकर'।
चाहता हूँ मैं,
कि सो जाए भले संसार,
पर ये चाहता हूँ मैं-
न सोये गति जगत की।
चाहता हूँ मैं कि बस मैं घूमता फिरता रहूँ
चौराह-सडकों-बाग़-खेतों और गलियों में शहर की,
चाय के ढाबों पे बैठूं,
चायवाले से भी ऐठूँ,
रोड के नुक्कड़ पे एटीएम के सम्मुख,
मेडिकल स्टोर के आगे बने पत्थर की उस कुर्सीनुमा
आसन पे गप्पे दोस्तों के साथ हाकूं।
और बतियाते हुए हर बार उसका,
हाथ से नमकीन का छीना हुआ हिस्सा,
बड़े ही गर्व से फाकूं।
चाहता हूँ मैं
न जल्दी हो तुम्हे घर लौटने की।
चाहता हूँ मैं,
न मुझको देर हो,
चाहता हूँ मैं,
न बातें छूट जाएँ यूं अधूरी,
रात भर जिनकी वजह से
हो न पाये नींद पूरी।
तब चाहता हूँ मैं,
न रुक जाएँ हमारी हसरतें,
सुनने की तुमको और अपनी भी सुनाने की।
तब चाहता हूँ मैं,
न सो जाएँ तुम्हारी हसरतें,
मेरे कहने पे 'ना-ना' करके भी वह गीत गाने की।
जिसकी वजह से सो न पाता मैं निशा भर,
और इसलिए,
जब जागता हूँ मैं,
तब चाहता हूँ मैं,
चलती रहे दुनिया...
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--राघवेंद्र शुक्ल

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