Wednesday 17 January 2018

कविताः गीत गाना चाहता हूँ


गीत जो आशा नहीं हो
गीत गाना चाहता हूँ,

स्वच्छन्द सुर-लय-ताल से,
ध्वनि की अनिश्चित चाल से।
वह गीत जिसका अर्थ भी-
निश्चित न हो,पर गीत हो,
वह गीत जिसमें सुर न हो,
पर स्वर में सुरभित प्रीत हो।
वह गीत जो मैं गुनगुनाऊँ
मैं सुनूँ,मैं ही सराहूँ।
वह गीत जो एकान्त में
खलिहान,खेतों,रास्तों में।
वायु के तन पर लिखूँ,
गाऊँ,लिखूँ लिखकर मिटाऊँ।
वह गीत जो हो क्षणिक पर
हो चिर असर जिसका,मगर।
मैं झाल पत्तों की बजाऊँ,
तरूओं के सुर में सुर मिलाऊँ।
वह छंद,जो स्वच्छंद हो,
जिसमें भरा आनंद हो।
ऐसी कृति,ऐसी नवल
संकल्पना के शिल्प से,
अपने ढहे ख्वाबों के छप्पर
को सजाना चाहता हूँ।

गीत गाना चाहता हूँ।

इक गीत जो सीधा-सरल हो,
ढाल के जल की नकल हो,
गीत जो आशा नहीं हो,
गीत अभिलाषा नहीं हो,
क्लिष्टता की ओट में
या व्यंजना के खोल में
पीर छिप जाएं कहीं
वह गीत की भाषा नहीं हो।
गीत जो बस सच रहे
जैसी गति, वैसी कहे
हर भय, शरम,आलस परे हो
गीत जो हिम्मत भरे हो,
हर बात जिस जिससे अधूरी
कह न पाए, हो जरूरी
उन सभी के भार-श्रम से 
दिल की इच्छा, मन के भ्रम से
और अनवरत स्वप्न-यात्रा
से गिरा का पर लगाकर
मुक्ति पाना चाहता हूं,

गीत गाना चाहता हूं।

यह गीत अब है यूं जरूरी,
ज्यों कि भू-दिनकर की दूरी,
बीज का दबना, सृजन की
नींव है, पर बात मन की
आग है जो जल रही है,
ताप से व्याकुल मही है,
पर नहीं प्रत्यक्ष है वह
ध्वंस के समकक्ष है वह।
इससे पहले फूट जाए,
ज्वाल का मुख टूट जाए।
गीत बनकर बरस जाना
विश्व सारा सरस जाना।
गीत मेरा गीत न हो,
गीत केवल प्रीत न हो,
गीत इक संवेदना हो,
गीत गीतों से बना हो,
गीत में हुंकार भी हो,
गीत में अधिकार भी हो,
गीत ही में अर्चना हो,
गीत ही अवमानना हो,
गीत निर्मिति, शेष भी हो
गीत गलियां, देश भी हो,
गीत केवल तुक न गाए,
गीत छंदन तोड़ जाए,
गीत केवल मैं न गाऊं,
गीत दुनिया गुनगुनाए।
गीत ही से रीतियों की
गीत ही से रूढ़ियों की
गीत ही से सभ्यता की
गीत से निर्लभ्यता की
गीत से तेरे सृजन की
गीत से जीवन-मरन की
गीत से वरदान का भी
गीत से व्यवधान का भी,
गीत से कल्पांतरों की 
गीत से सब प्रांतरों की
गीत से ही हर प्रथा की
हर विधि, हर व्यवस्था की
गीत के ब्रह्मास्त्र से 
धज्जी उड़ाना चाहता हूं।

गीत गाना चाहता हूं।

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