Thursday 27 October 2016

कविताः गीत गाना चाहता हूँ...










गीत गाना चाहता हूँ।

स्वच्छन्द सुर-लय-ताल से,
ध्वनि की अनिश्चित चाल से।
वह गीत जिसका अर्थ भी-
निश्चित न हो,पर गीत हो,
वह गीत जिसमें सुर न हो,
पर स्वर में सुरभित प्रीत हो।
वह गीत जो मैं गुनगुनाऊँ
मैं सुनूँ,मैं ही सराहूँ।
वह गीत जो एकान्त में
खलिहान,खेतों,रास्तों में।
वायु के तन पर लिखूँ,
गाऊँ,लिखूँ लिखकर मिटाऊँ।
वह गीत जो हो क्षणिक पर
हो चिर असर जिसका,मगर।
मैं झाल पत्तों की बजाऊँ,
तरूओं के सुर में सुर मिलाऊँ।
वह छंद,जो स्वच्छंद हो,
जिसमें भरा आनंद हो।
ऐसी कृति,ऐसी नवल
संकल्पना के शिल्प से,
अपने ढहे ख्वाबों के छप्पर
को सजाना चाहता हूँ।


गीत गाना चाहता हूँ।

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