Wednesday 5 October 2016

कविताः स्याह पृष्ठ पर

स्याह पृष्ठ पर श्वेत रश्मि के विकिरण को साकार करा लूँ।
ऐ रात!ठहर जा ज़रा आज,मैं सपनों का विस्तार करा लूँ।

जाने कब किससे अनबन में,कुछ टूटा है मेरे मन में?
गुमसुम दिल,है श्रांत उमंगें,जाने क्या छूटा जीवन में?
पल पल भारी जाने क्यों है?कुछ लाचारी,जाने क्यों है?
मन बैठा है झील किनारे,लहरों को पत्थर से मारे।
कैसा चित्र बनाती नज़रें,किसके गीत ज़बान उचारे?
जाने क्या इन सबका उत्तर,दिल को करना होगा पत्थर!
कितना भी हो दूर किनारा,चप्पू भले धार से हारा।
किन्तु हवा के हाथ थामकर,नौका अपनी पार करा लूँ।
ऐ रात!ठहर जा ज़रा आज,मैं सपनों का विस्तार करा लूँ।

विश्व नयन के द्वार बंद कर, काल-घड़ी की धार मंद कर।
सेजों पर विश्राम रहा है, पर मेरा मन थाम रहा है,
हाथ अनिर्मित लीक-पथों की, डोर विकल्पित अश्व-रथों की, 
जिसमें कम आराम लिखा है, जिसमें सुख-रस वाम लिखा है।
जो विरलों का कार्य कहा है, कम ही को स्वीकार्य रहा है।
निशा उपनिषद की साखी से, स्वप्न उड़ेंगे नभ पाखी-से।
रवि को रण में भूशायी कर, कैसे नभ में तू छायी? पर,
इससे पहले जान सकें हम, तीर कोई संधान सकें हम,
बन क्योंकर दुर्भाग रही है, जल्दी से क्यों भाग रही है।

सहगामी बन शूल पथों की, या फिर प्रस्तर हो जा जिस पर, 
घिस-घिस रगड़-रगड़ मैं अपने पैने सब हथियार करा लूँ।

ऐ रात! ठहर जा, ज़रा आज मैं, स्वप्नों का विस्तार करा लूँ।।

No comments:

Post a Comment

बनारसः वहीं और उसी तरह

फोटोः शिवांक बनारस की चारों तरफ की सीमाएं गिनाकर अष्टभुजा शुक्ल अपनी एक कविता में कहते हैं कि चाहे जिस तरफ से आओ, लहरतारा, मडुआडीह, इलाहाबा...