Tuesday 27 December 2016

कविताः भैया! हमने चलना सीखा...

भैया! हमने चलना सीखा।
फूंक-फूंककर कदम बढ़ाना,
देखके मौका पलटी खाना।
दरबारों में गीत सुनाना।
तुमने कहा,यही सत्य है,
तुमने किया,सही कृत्य है,
तुमने सोचा,अच्छा होगा,
तुमने देखा,सच्चा होगा,
शीशा-दर्पण कभी न देखूं,
पंकज बनकर कीचड़ फेंकूं,
आग लगाकर काया सेकूँ,
फेंके दानों को खा-खाकर,
पेट फुलाकर,बांह चढ़ाकर,
पांख दिखाकर,आंख दिखाकर,
नए वक़्त में नए ढंग से,
छांव के नीचे पलना सीखा,

भैया! हमने चलना सीखा।
--राघवेंद्र शुक्ल

No comments:

Post a Comment

बनारसः वहीं और उसी तरह

फोटोः शिवांक बनारस की चारों तरफ की सीमाएं गिनाकर अष्टभुजा शुक्ल अपनी एक कविता में कहते हैं कि चाहे जिस तरफ से आओ, लहरतारा, मडुआडीह, इलाहाबा...