शरद वही है जिसके बारे में कहा गया, 'जीवेम शरदः शतम्'.. मतलब कि सौ शरद जीओ। यह नहीं कहा गया कि सौ वसंत जीओ.. वसंत के लिए कहते हैं कि जीवन के इतने बसंत बीत गए। बसंत बीतने का बोध है और शरद संभावना का। शरद और वसंत में यही अंतर है। एक शीत के आगमन की भूमिका है और दूसरा शीत के प्रस्थान की। एक के सम्मुख दीवाली है और दूसरे के सम्मुख होली। शरद श्रेष्ठ है या नहीं इसकी घोषणा नहीं की जा सकती लेकिन शरद जो है, वह कोई और नहीं है।
वैसे, अक्टूबर कोई महीना नहीं है। यह एक ऋतु है। जैसे शरद एक ऋतु है। उत्तर भारत में अक्टूबर एक फीलिंग है, अनुभूति है। कुहरे और धुंध से भरा आसमान और उसकी अद्भुत गंध। वातावरण में लगातार घुलती जाती नीरवता। बरसात की उमस भरी गर्मी से राहत देते सबको भाती है लेकिन इसी में जब हरसिंगार फूलने लगते हैं तो भावनात्मक जमीन पर जीने वाले लोगों के हृदय भी खिल उठते हैं। इसी में धान काटा जाता है। नई फसल घर आती है। किसान परिवार में इसके बाद उदासी नहीं होती। इसके बाद वहां जीवन फूलने लगता है।
मानस में शरद के श्वेत प्राधान्य को राम ने अलग ही उपमा दी है। सुग्रीव को किष्किंधा का राजा बनाने के बाद राम लखन के साथ वर्षाकाल बीतने का इंतज़ार करने चले जाते हैं। प्लान है कि वर्षा बीतते ही सुग्रीव की बानर सेना सीता की खोज में फैल जाएगी। सीता से मिलन की प्रतीक्षा में राम को वर्षाकाल एक पूरा जीवन की तरह दिखने लगता है। इसीलिए ही जब शरद आता है तो लखन से कहते हैं, 'जनु बरखा कृत प्रगट बुढ़ाई।' कास ऐसे फूल गए हैं कि लगता है वर्षा ऋतु ने अपना बुढ़ापा प्रगट कर लिया है। अब एक उम्र की तरह खड़ी प्रतीक्षा का अवसान होने वाला है। ऐसा शरद राम के लिए भी तो विशेष है, कि इसमें सीता से मिलन का संयोग बनने वाला है।
अक्टूबर डैन के उस एक सवाल की तलाश की तरह भी है कि शिउली ने उसके बारे में यह क्यों पूछा कि 'वेयर इज़ डैन?' यह सवाल जिसमें पता नहीं कोई हल्की-सी खुशी है या एक विराट दुख और उदासी। यह शिउली के जीवन की तरह कभी तो खाली-खाली सा और क्षणभंगुर लगता है लेकिन डैन के सवाल की बेचैन उदासी भी इसी मौसम में महसूस होती-सी है।
अक्टूबर हरसिंगार की ऋतु है, जो रात में फूलता है। रात और फूलने का सम्बंध अपने आप में एक रूहानी संयोग है। संसार के नियमों के विपरीत। रात तो विश्राम का पहर है। इसमें नवीन आरम्भ अपने-आप में एक विरोधाभासी मेल है। अंधेरे की सभा में शेफालिका के श्वेत फूल न सिर्फ खिलते हैं बल्कि महकते भी हैं और जीवन से ऐसी अनासक्ति की मुरझा जाने तक पौधों से लिप्त रहने की कोई इच्छा नहीं रखते। डाली से टूटते हैं और अपने ही वृक्ष की छाया से दूर जाकर बिखर जाते हैं। अक्टूबर सौंदर्य के इस अनासक्त भाव के लिए भी तो विशेष है।
(शिउली और डैन शुजीत सरकार की बहुचर्चित फ़िल्म 'अक्टूबर' के किरदार हैं)
दिलचस्प लेख
ReplyDelete✨✨👍🙂
ReplyDeleteBhut hi khubsurat lekh likha hai aapne..!
ReplyDeleteअच्छा लिखा है। अक्टूबर सचमुच इश्क है। ज़मीन की महक का मज़ा है अक्टूबर में और शरीर को सहलाती हल्की सर्द हवा इन भावनाओं को नमी के साथ लंबे समय तक स्थायी करके जाती है।
ReplyDeleteबहुत बढ़िया राघव भाई, बहुत अच्छा लिखा है. बसंत बीतने का बोध है और शरद संभावना का.वाह
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