Wednesday 18 October 2017

अगर बच्चों ने पर्यावरण के लिए घातक हथियार थाम लिए हों तो उन्हें उनसे छीन ही लेना चाहिए

धर्म और मजहब बचाने के अनगिनत आह्वान न तो आपके कानों से अछूते हैं और न हमारे। अलग-अलग धर्म अलग-अलग कारणों से संकट में हैं। संरक्षण की गुहार लगाती कभी-कभी हिंसक और अराजक हो जाने वाली इन आवाजों के बीच हर साल एक और आह्वान दबे पांव हमारे बीच आता है और फिर मायूस होकर चला जाता है। दरअसल, सिर्फ एक बार नहीं, बार-बार आता है और हर बार निराश होकर कुछ ऊंची घुड़कती आवाज को सुनकर चुपचाप जमींदोज हो जाता है। जानते हैं वो आह्वान क्या है? अपनी धड़कन सुनिए, अपनी सांसे महसूस कीजिए, अपनी आंखों की रोशनी को देखिए और अपने कानों के पर्दों का कंपन गिनिए। ये आवाज आपके दिल के धड़कनों की अनियमितता, आंखों की रोशनी की चुभन और आपके कानों के पर्दों की थरथराहट का दर्द है। यह आवाज आपके अपने वायुमंडल की आवाज है। यह आवाज उस प्रकृति का रूदन है जिसे इंसानों ने तबाह कर दिया है और अब जब उसे संवारने का दायित्व उठाने का वक्त आया है तब कई तरह के बहाने बनाकर वह उससे अपना पिंड छुड़ा लेना चाहता है।

दिल्ली के अर्जुन गोपाल, आरव भंडारी और जोया राव की ओर से उनके पिताओं द्वारा सुप्रीम कोर्ट में दायर की गई याचिका पर सुनवाई करते हुए अदालत ने दिल्ली-एनसीआर में पटाखों की बिक्री पर बैन लगा दिया है। ये तीनों याचिकाकर्ता 6-14 साल के बच्चे हैं जिनके फेफड़े दिल्ली के प्रदूषण ने खराब कर दिए थे। दिल्ली में ऐसे ही न जाने कितने अर्जुन, आरव और जोया होंगे जिन्होंने अपने फेफड़ों के खराब होने की विभीषिका झेल ली लेकिन वे अदालत नहीं जा सकते। शायद असमर्थ हों। लेकिन इतना तो तय है न कि यह प्रदूषण सामान्य नहीं है। अदालत इस बार यह टेस्ट करना चाहती है कि पटाखों के बैन होने से क्या प्रदूषण कम हो पाएगा। पिछले साल दिवाली के बाद दिल्ली की हालत वो लोग बेहतर बता पाएंगे जो दिल्ली में उस वक्त थे। धुंध और कोहरे से लिपटी दिल्ली प्रदूषण के सबसे उच्चतम स्तर का भी मुंह देख चुकी है। ऐसे में सरकार और अन्य जवाबदेह संस्थाओं द्वारा कुछ कठोर कदम उठाने की उम्मीद तो है ही।

इसी मद्देनजर सुप्रीम कोर्ट का फैसला आया कि शायद इससे कुछ तो प्रदूषण से राहत मिले। फैसला भले समूची मानवजाति के सुरक्षा को ध्यान में रखकर लिया गया हो लेकिन इससे मानवजाति की एक उपजाति की धार्मिक आस्थाएं आहत होने लगी हैं। उनकी सांस्कृतिक चेतना मानवीय अस्तित्व के सबसे बड़े संकट की आहट सुनने के प्रति भटकसुन्न हो चुकी है। यूं तो पर्यावरण संरक्षण से जुड़ा मामला होने के नाते ऐसी उम्मीद थी कि सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले का सब ओर से स्वागत होगा लेकिन कुछ एक बयानों ने कोर्ट के आदेश की तो छोड़िए पर्यावरण को लेकर वैश्विक चिंता का जो मजाक बनाया है और इस भारी-भरकम मुद्दे को कमतर समझने की समझदारी दिखाई है उसे देखकर लगता है कि अभी हम पर्यावरण के लगातार बदलते चेहरे को लेकर गंभीर नहीं हुए हैं।

सवाल अब ये भी है कि है अभी गंभीर नहीं है तो कब होंगे। विकासशीलता अभी और ज़हर उगलेगी ये तो जेनेवा और पेरिस जैसे सम्मेलनों से साफ़ पता चलता है। कार्बन उत्सर्जन को कम करने के कोटे को लेकर हो रही बहसों को विश्व का वातावरण बड़ी गंभीरता और आशा के साथ देख रहा है और इधर मसला ही नहीं सुलझता। विकसित देशों ने अपने हिसाब से कार्बन उत्सर्जन में कटौती का कोटा तय किया जिसके लिए विकासशील देश बिल्कुल तैयार नहीं हो रहे हैं। ये मसला तो इतनी आसानी से सुलझेगा नहीं। आन-बान-शान वाला मामला भी हो सकता है। लेकिन इन सबके बीच क्या किया जाए, दिन प्रतिदिन मौसम के बदलते रंगों से भयभीत होने के सिवा। पटाखों की बिक्री पर बैन पर विमर्श के धुएं भी उठने लगे हैं। यह भी एक तरह का प्रदूषण ही है। तो पर्यावरण के प्रदूषण से पहले लोगों के दिमाग का प्रदूषण दूर करना होगा क्या? शायद हाँ! लोगों को समझाना पड़ेगा। प्रदूषण को देखने वाली उनकी दृष्टि पर माइक्रो लेंस की परत चढ़ानी पड़ेगी। ताकि उनको दिखे कि जब वो कसरत करते हैं तब जोर-जोर से जो अपनी नाक से खींच रहे हैं वो ऑक्सीजन नहीं नाइट्रोजन डाई ऑक्साइड जैसे खतरनाक रसायन हैं जिससे उनके फेफड़े की ऐसी-तैसी हो जाने वाली है। तब शायद बात कुछ समझ भी आए। नहीं तो जैसे ही आप उन्हें बिना समझाए कहेंगे कि भाई होली में होलिका दहन मत करो या फिर दिवाली में पटाखे मत फोड़ो, उन्हें कोई ज्ञानी साहब समझाने लग जाएंगे कि 'देखो, बच्चों के हाथों से पटाखे छीने जा रहे हैं।' या फिर 'देखो, अब ये लोग तुम्हारे शमशान को भी बंद करा देंगे।' वगैरह वगैरह

सनातन संस्कृति से जुड़े पर्व, व्रत, उपासना विधि आदि पर्यावरण के प्रति संवेदनशीलता का श्रेष्ठ उदहारण कही जा सकती हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि इस संस्कृति की मान्यताएं पर्यावरण-संरक्षक विधानों के काफी करीब दिखती हैं। बात चाहे होली की हो या दीवाली की, हर त्योहारों के पीछे की वैज्ञानिक समझ आधुनिकता के तथाकथित समझ से युगों पहले भी बहुत आगे थी। इन त्योहारों की जब शुरुआत हुई रही होगी तब निश्चित रूप से पर्यावरण कोई बड़ी समस्या नहीं रही होगी। होली का त्यौहार हिन्दू कैलेंडर का आखिरी वर्ष होता था। ऐसे में नए साल के स्वागत हेतु घरों की वातावरणीय नूतनता के निर्माण के लिए उनकी साफ़-सफाई की जाती थी। फलस्वरूप सफाई से इकट्ठे कूड़े आदि को होलिका में जलाया जाता था। माना जाता है कि फसलों के कटने के बाद खलिहानों में उनके आगमन का उत्सव गुलाल से मनाया जाता था। आजकल गुलालों की जगह रसायनों से युक्त खतरनाक रंगों ने ले लिया है। दशहरे में मिट्टी की मूर्तियां बनायीं जाती थीं। जिन्हें नदियों में प्रवाहित करने पर मिट्टी तली में बैठ जाती। आजकल रसायनों से बनी मूर्तियां जल-पर्यावरण के लिए कितनी घातक हैं, बताने की जरूरत नहीं है। इसी तरह से दिवाली भी दो ऋतुओं के संधिकाल का पर्व है। ऋतुचक्र के वर्षा ऋतु से शीत ऋतु की ओर प्रयाण करने के संधिबिन्दु पर दिवाली का त्यौहार मनाया जाता है। तमाम विद्वानों का इस मसले पर कहना है कि वर्षा ऋतु में विविध प्रकार के कीट-पतंगों का प्रकोप काफी बढ़ जाता है। ऐसे में लोगों ने अपने घर की छतों पर और अपने दरवाजे पर घी या फिर सरसो के तेल के दिए जलाने शुरू किये। ऐसा माना जाता है कि इससे वर्षा ऋतु में उत्पन्न कीट काफी मात्रा में नष्ट हो जाते हैं। इस तरह से देखा जाए तो हमारे त्यौहार स्वच्छता, उत्सवधर्मिता और निरोगता के एक धार्मिक अभियान की तरह होते हैं। इन पर्यावरण अनुकूल प्रावधानों के बीच ध्वनि और वायु प्रदूषण बढ़ाने वाले पटाखों की परंपरा ने कब घुसपैठ किया, इसका पता किसी को नहीं है।

दिवाली की मूल प्रज्ञा है, अन्धकार से प्रकाश की ओर, असत्य से सत्य की ओर, अज्ञान से ज्ञान की ओर, मृत्यु से अमरता की ओर। इसीलिए दिवाली को दीप बाले जाते हैं। कि अमावस की चंद्रानुपस्थिति में भी प्रकाश का एक प्रतिनिधि उजाले की अमरता का नेतृत्व कर रहा होता है। इस दृष्टि से पटाखों की परंपरा कहीं से भी दिवाली का प्रतिनिधि तत्व नहीं है। क्या अमावस और शरद की नीरवता में कर्कश शोर का समावेश किसी भी तरह से युक्तिसंगत है? क्या दिवाली शांति से अशांति की ओर जाने का पर्व है? दिवाली का आध्यात्मिक पक्ष भी इसकी इजाज़त नहीं देता। लेकिन पर्यावरणीय चिंतन इस बात का ज्यादा पुख़्ता विरोध करता है। सर्दी के दिनों के दो उत्सव आतिशबाजियों के लिए जाने जाते हैं। पहला दिवाली और दूसरा नववर्ष। बिना पटाखों के इन उत्सवों की कल्पना ने भी लोगों के दिमाग से प्रस्थान कर लिया है। ऐसे में यह एक बड़ी चुनौती है कि कैसे त्योहारों को प्रकृति का दुश्मन बनने से रोका जाए। निश्चित रूप से दिवाली आपकी भक्ति और आपके आस्था से जुड़ा मामला है। लेकिन यह कैसी भक्ति है जिसमें आप उसी प्रकृति से विभक्त हो जाते हैं जिनके संरक्षण की जिम्मेदारी आपके इन्हीं त्योहारों ने उठायी थी। धर्म और धार्मिक आस्थाओं का जब बाजारीकरण होना शुरू हो जाता है तब उनके उद्देश्य बदल जाते हैं। ऐसे में आस्थाएं अपना मूल अर्थ खोने लगती हैं और इनकी दिशाएं इनके लक्ष्यों की विपरीतता का अनुसरण करने लगती हैं।

दिवाली वैसे तो बाजार का ही त्यौहार है। हर त्योहारों की तरह इसके टूल्स का भी बड़ा बाजार सजता है। लाखों लोगों के रोज़गार का सीधा संबंध इस बाजार से होता है। यहीं पर प्रशासन की जिम्मेदारी बढ़ जाती है। एक ऐसा तरीका निकालना जिससे न तो इतनी बड़ी संख्या में मानव संसाधन को नुकसान पहुंचे और न प्राकृतिक संसाधनों को। अभी जो पटाखे इत्यादि इस्तेमाल किये जा रहे हैं, आने वाले दिनों में उनके और खतरनाक होने की पूरी सम्भावना है। ऐसे में इन्हें त्योहारों पर दाग बनने देने से रोकना होगा। बच्चों के हाथों ने अगर आने वाली नस्लों की हवाओं में घोलने के लिए ज़हर थाम लिया हो तो उनके हाथ से वो ज़हर छीन ही लेने चाहिए। अब चाहे वो बच्चे बहुसंख्यक हिन्दू समुदाय के हों या फिर अल्पसंख्यक और तथाकथित पीड़ित मुसलमान समुदाय के हों।

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