Sunday 19 November 2017

मेरा 'पूरा आईआईएमसी' तो नहीं होगा न!

रात से एक बजे के आसपास का समय है। इस वक़्त मुझे हर रात नींद नहीं आती लेकिन फिर भी नींद मेरे आस-पास ही होती है कहीं और जब भी उसका मन किया धीरे से आकर आँखों में समा जाती है चुप-चाप। फिर उसे कोई फर्क नहीं पड़ता कि मोबाइल में यू ट्यूब पर अशोक चक्रधर भाषण दे रहे हैं या फिर मेरे हाथ में नरेंद्र कोहली की किताब शरणम है जिसे दो-एक दिन में खत्म करने का मैंने लक्ष्य रखा हुआ है। वह आती है और मैं गिर पड़ता हूँ ख्वाबों के शीशमहल में। जहां दिन भर के जो किस्से-वाकए चेहरे पर लकीर बनकर जड़ जाते हैं उन्ही की व्याख्या होती है। बिना किसी सार्थक अर्थ के प्रतिबन्ध के।

आज नींद की आहट भी नहीं मिल रही। जाने कहाँ चली गयी है। जाने किससे भयभीत है! शायद वो उस भीड़ से डर गयी है जो अभी दिल से लेकर दिमाग तक उत्पात मचाए हुए है। मैं उसका चेहरा महसूस कर पा रहा हूँ जो सहमा हुआ कहीं दुबका पड़ा होगा। अब जब मैं अगला अक्षर लिखूंगा उस समय घड़ी में रात के 1 बजकर 19 मिनट और 57 सेकंड हो जाएंगे। दिलो-मन में जो स्मृतियों की धमा-चौकड़ी है वह कल के कॉन्वोकेशन प्रोग्राम की वजह से है। कल फिर उसी परिसर में वो सारे साथी दिखेंगे जिन्होंने ईंट पत्थरों की उस लाल इमारत को स्वर्ग से भी ज्यादा वांछित स्थल बना दिया था। सबसे एक बार फिर मिलने को लेकर जो उत्सुकता है, वो बस अब दिल के संभाले नहीं संभल रही है इसीलिए वहां भूकम्प जैसा कुछ महसूस हो रहा है।

अभी अचानक मुझे वो शाम याद आ गई जब हम, विवेक और शताक्षी ब्रह्मपुत्रा हॉस्टल के लॉन में बैठे चाय पी रहे थे। तभी मातुल यानि कि प्रशांत महतो का फोन आया शताक्षी के पास और उसने उन्हें अकेले आने का निर्देश दिया और ये नहीं बताया कि हमलोग वहीं मौजूद हैं। वो विवेक को ढूंढ रहे थे और उन्हें फोन भी लगा रहे थे। विवेक हम लोगों के सामने ही फोन इग्नोर कर रहे थे। ऐसा करने के लिए हम लोगों ने ही उनसे कहा था। फिर क्या था, वो आते हैं और हम लोगों को वहां पाकर नीचे से कुछ मारने के लिए उठाते हैं और विवेक की ओर निशाना लगाकर फेंकते हैं। लक्ष्य का संधान चूक जाने के लिए ही था सो चूक गया। हम खूब हँसते हैं। वह पत्थर आने वाले दिनों में हर बार इस स्मृति की खुमारी से निकालने वाला धमाका होगा, यह तो तय है। अकस्मात इस स्मृति के आगमन का कोई कारण नहीं लेकिन बिन बुलाए मेहमान की तरह यह दिमाग में आई और फिर से गुज़रे वक़्त के लौटने की असंभाव्यता की विवशता का तमाचा जड़कर चली गयी।

कल के कॉन्वोकेशन में सब होंगे, मतलब कि 'पूरा आईआईएमसी'। लेकिन मेरा 'पूरा आईआईएमसी' तो नहीं होगा न! विवेक भी नहीं होंगे और शताक्षी भी नहीं होगी। इस अभाव ने सारे उत्साह पर पानी फेर दिया है। अब जो भी है सब औपचारिकता भर है जो कल पूरी करनी है। ऐसा भी नहीं है कि कल का पूरा दिन नीरस रहने वाला है। कुछ अच्छा भी होगा, शायद बहुत कुछ अच्छा हो। एक तरह से ठीक ही है, सुखद स्मृतियों का भार थोड़ा और बढ़ने से बच गया। नहीं तो यह भार अघोषित रूप से पृथ्वी के भार से भी ज्यादा भारी होता है।

1 comment:

  1. हम जब मिलेंगे तो ऐसे ही जैसे तब मिलते थे। जैसे कुछ न बदला हो।

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