Friday 16 February 2018

कविताः भावों का अपराधबोध

वह मन था मेरा,
डूब नहीं पाया जिसमें
सूरज अब तक।
वह मन था मेरा
जहाँ झरोखों से रक्तिम
आकाश हमेशा दिखलाई पड़ता है।
वह मन था मेरा
निशा तिमिर में स्वप्नदीप
जो बाल,
दिवाली हर दिन जीता है।
वह मन था मेरा
सागर तट पर बनी रेत की ढूह।
नहीं वह पुष्प, जिसे
शूलों के पहरे मिले हुए हैं,
वह मन था मेरा
अगिन बार लुटता है जिसका पराग।
वह मन था मेरा,
दहक रहा जो प्राची नभ
के ललाट पर
दुनिया कहती जिसे आग।
वह मन था मेरा
हर अ-अपराजित सङ्गर-सैनिक।
सागर तट की,
आगे बढ़ती
बढ़कर पीछे वापस जाने वाली
धारा।
वह मैं था, मन था मेरा, जिसमें
सब जीते, मैं हारा।

बड़ी वेदना है
सरिता का तट में बंधित होना,
कि रहे सुरक्षित
ग्राम्य-विपिन की मर्यादा।
बड़ी वेदना है
सूरज का जलना,
शशि का शीतल होना।
बड़ी वेदना है
निद्रित आँखों का
स्वप्नलोक-प्रतिरोध।
बड़ी वेदना है
अपनी ही
राहों में अपना अवरोध।
बड़ी वेदना है
ख़ारिज करना ह्रदय पत्र
पर लिखित शोध।
बड़ी वेदना है
अपने ही
भावों का अपराधबोध।
बड़ी वेदना है
दिल के मीठे मंथन का
जल खारा।
बड़ी वेदना है,
मेरे ही दांव, मेरे चौसर-पासे पर
सब जीते..
...मैं हारा।

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