Saturday 1 October 2022

गांधी होने के अर्थ

गांधी मनुष्यता के शब्दकोश नहीं हैं। व्याकरण हैं। उनके जीवन के आचरण-शब्दों को शब्दशः उतारकर कोई गांधी नहीं बन सकता। इसके लिए गांधीत्व के मूल में जाना होगा। जहां सत्य, ईमानदारी अपनी पर्वतशील दृढ़ता के साथ मौजूद है। गांधी की नकल करके गांधी बनना बहुत मुश्किल है। उन्हें समझकर यह आसान हो जाना है। यह असंभव कभी नहीं है।

गांधी साधारण मानुषों से इसलिए अलग हो पाए क्योंकि वह कबीरदास की तरह अपना भूत साथ लेकर नहीं चले। वर्तमान को परिस्थितियों की मिट्टी से गढ़ा। नाव से नदी पार की और नाव पीठ पर ढोकर नहीं चले। सत्य, अहिंसा, करुणा, समानता के आधार पर खुद को बदलते रहे। इन्हीं जीवनमूल्यों से उन्होंने समाज में, अध्यात्म में, राजनीति में, अर्थव्यवस्था में, दर्शन में मनुष्य के जीवन को प्रभावित करने वाले हर विभाग में अपने आदर्श तय किये, अपना सिद्धांत बनाया। बोले कि अगर मैं हर क्षण अपने प्रति ईमानदार हूँ तो मेरे कार्यों में किसी भी अनिरंतरता से मुझे कोई आपत्ति नहीं है। 

गांधी उन चुनिंदा लोगों में से थे, जो अपनी प्रसिद्धि के कारणों से प्रभावित हुए बिना अपनी राह तय करते थे। कई बार वह उनके प्रति लोगों की उम्मीद को बेतरह चौंकाते। असहयोग का स्थगन एक उदाहरण है ही। गांधी कभी-कभी कृष्ण, बुद्ध और ईसामसीह के मिश्रण लगते हैं। इसलिए वह गीता को व्यवहार में समझ पाए। निष्काम कर्म के अर्थ को व्यवहार में उद्घाटित किया, जो कहता है कि कर्म वह काम है जो परिस्थिति हमारे लिए आवश्यक बनाती है। वह नहीं जो हम अपनी इच्छा से करते हैं। वह समस्याओं (दुखों) के मूल पर चोट करने की कला सीख पाए। समस्या का सत्य समझा। फिर उसका निवारण। निवारण के भी क्या उपाय हैं, वह स्पष्ट तौर पर सामने रखा। वह करुणा से ओतप्रोत होकर जनजीवन के कष्टों के जंगल में उनके साथ प्रविष्ट हुए। उनके साथ लड़े। अपनी गलतियों का, अपने अनुयायियों की भूलों का खुद प्रायश्चित करने का साहस किया। वह जो कहते, वह उनके जीवन में उतरता दिखता था। तभी लोग उनमें आस्था रखने लगे। भरोसा रखने लगे। 

गांधी की आत्मशक्ति ऐसी सशक्त रही कि दुनिया के सबसे बड़े साम्राज्य को चलाने वाले लोग भी डरते रहे। महात्मा के आंदोलनों को बोल्शेविक तथा दुनिया के अन्य क्रांतियों के मुकाबले ज्यादा खतरनाक बताया। अमेरिकी अखबारों ने उन्हें एशिया का नया प्रकाश पुंज बताया। उनकी धार्मिकता भी तनिक भी विभाजनकारी नहीं थी। वह कहते कि किसी भी धर्म की मूल प्रार्थना यह हो सकती है कि सभी अपने-अपने धर्मों के प्रति निष्ठावान बनें। यह नहीं कि मेरा धर्म श्रेष्ठ है और सभी को हिन्दू या मुस्लिम या ईसाई हो जाना चाहिए। यही वजह थी कि सभी धर्मों के कट्टरपंथी उनसे चिढ़ते रहे। जो सच्चे धार्मिक थे, वो गांधी में अपने आराध्यों के सच्चे पैगम्बर और शांतिदूत का दर्शन करते थे। किसी भी धार्मिक ग्रंथ या धर्म की मुल्लों, पंडितों द्वारा घोषित व्याख्या को अंतिम नहीं मानते थे।

महात्मा का लक्ष्य केवल स्वराज नहीं था। वह थजीवन का उत्थान और मनुष्य का अपने जीवन पर सुराज भी था। अहिंसा, सत्य, समानता, प्रेम की कृषि। यही चीजें थीं, जिनसे दुनिया बेहतर बन सकती थी। मनुष्यता के विकास का पथ यही था। इन्हीं प्रकाशों के जलस्रोत थे बापू, जिनमें अंधेरों से पराजित हर मनुष्य आज भी अपनी अंधेरी आंखें धोने की कोशिश करता है।

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