Monday, 28 July 2025

तीस की पूर्व संध्या


और ये एक संध्या है जब जीवन तीन दशक को पूरा करने को तैयार है। यह सोचना अजीब लगता है कि चीजें अपने अपरिवर्तित खोल में भी कितनी ज़्यादा बदल गई हैं। कई अप्रत्याशित को जीवन के पृष्ठ पर दर्ज होते देखा है। कल्पना भी जहाँ तक नहीं जा सकती थी, उधर मुड़े। उधर बढ़े। कहीं तो घाट पर लगे। कहीं नहीं भी लगे। 


तीस साल का होना बड़ी बात है। बचपन याद आता है। जब हर क्षण लगता था कि जीवन आज ही खत्म हो गया तो? वो इंसेफेलाइटिस के कहर का दौर था। रोज़ बच्चों को मरते देखता बाल मन सोचता था कि आख़िर कब तक बचा जाएगा। लगता कोई हादसा किसी पर गिरता है तो उसकी भी आशंकित कल्पना में यह कभी न रहा होगा। फिर वो क्या कवच है जो हमे बचा लेगा। 


इतने हादसे, इतनी बीमारियां, इतनी निराशाएँ। मृत्यु के इतने कारण और जीवन का सिर्फ़ एक। सासों की लय के एक कारण पर खड़ा जीवन समय और भाग्य की आँधी से टकराता तिनका। कब तक बच पाएगा?


यह बचा रहा। तीस साल तक। चाहे जैसे बचा हो। चाहे मृत्युशील ही बचा हो लेकिन जब तक साँस है इस जीवन का बोझ हमेशा एक जैसा ही भारी रहेगा। जीवन के उत्कर्ष की संभावना भी तभी तक सतत है। 


सोचता हूँ दस साल पहले जब बीस बरस का हो रहा था तब मन में क्या चलता था। वह इलाहाबाद के दिन थे और गंगा यमुना के संगम की रेती पर बैठकर जैसे नदी के पार नहीं, वर्तमान के पार देखता था। कभी भविष्य तो कभी अतीत। 


अतीत जिसके हिस्से में सिर्फ़ सूक्ष्म बीज था। या पौधा भर। भविष्य जिसमें था अपार संभावनाओं का आकाश। ऊर्जा का एक निरंतर सूर्य उधर धधकता रहता था। 


दस वर्ष बाद जीवन ने पूर्णतः युवावस्था ओढ़ ली है और अब शायद एक परिपक्व आदमी होने की कगार पर हैं। एक पीढ़ी सामने से गुज़र गई है। अब संगम की वह रेती नहीं है। अवसर की एक खेती ज़रूरी सामने है। वहाँ से समय के पार देखने पर अतीत थोड़ा वज़नी दिखता है। असंख्य अनुभव। असंख्य लोग। असंख्य आवाजाही। असंख्य किस्म की भावनायें। असंख्य दुख किंतु संख्य सुख। असंख्य निराशाएँ किंतु संख्य आशाएं। सब मिलजुलकर बादल बन गए हैं। उम्र की शैल पर घिरे हुए मंडराते हैं। उन्हीं में से कहीं से दादी की आवाज़ आती है। कभी बाबा गाते हैं श्रीमन्नारायण नारायण नारायण। कभी लगता है नाना का न्योता है जिसे इस साल भी असफल हो जाना है। अभी-अभी पहुँची बाघ सी आँखों वाली नानी चिट्ठी के बारे में पूछ रही हैं। 


अतीत किसी बादल की तरह ही दिल पर बैठता जा रहा है। भार ऐसा कि एक कदम भर टसकना मुश्किल। 


और समय के पार कोई भविष्य अब नहीं दिखता। असंख्य रेत के टीले दिखते हैं। भरभराकर ढहते हुए अपने होने की व्यर्थता का उद्घोष करते हैं। क्या यही मानव नियति है? यही जीवन का रहस्यमय स्वाद है? बस इतना ही?


तीन दशक कोई बड़ा कालखंड नहीं है। लेकिन सोचिए अपना यह संसार तीन दशक भर ही तो है। तीस साल पहले तक कोई ‘मैं’ नहीं था। लेकिन अब हूँ। आगे भी रहूँगा। नहीं रहूँगा तो भी ईश्वर के किसी धूल खाते बही-खाते में नाम तो रहेगा। अपठित ही सही। व्यर्थ ही सही। दिया जलने के पहले नहीं। बुझने के बाद के अंधकार की तरह।


सदियों पुराना इतिहास और दशकों बाद की योजनाएं स्मृति के असीम आकाश में इस तीस साल के कालखंड की सीमा में ही तो भरी हैं। मुट्ठी भर का यह समय है लेकिन यह सोच पाना कितना रोचक है कि यही अपना पूरा जीवन है। यही अपना पूरा अस्तित्व। यही अपना पूरा अर्थ। 


भविष्य आशंकाओं की भित्ति से टकराकर भित्तिचित्र बन जाता है जबकि उसे सचमुच का पहाड़ होना था। पहाड़ से गिरती नदी। उसके शीश पर चंद्रमा की तरह चमकता सूर्य होना था और सूर्य से आती हुई सड़क। प्रकाश को ऐसे ही जीवन में उतरना था। 


रात्रि को इतना सुंदर नहीं लगना था। हालाँकि लगती है तो अच्छा ही है। तीस वर्ष के जीवन में आज भी अंधेरी से अंधेरी रात में श्रीमन्नारायण का जाप गूंजता है। बाबा दिखते हैं। घर के उत्तर कोने में तखता पर बिछौना लगाए। अंधेरे में अपने राम की टोह लेते। सिरहाने खूँटी पर लटकी मद्धम प्रकाश वाली लालटेन के पीले मृतप्राय उजाले में। यह आवाज न होती तो भयानक चुप्प रात जाने क्या क्या करती। 


ख़ैर, तीस का होना इतना निराशाजनक नहीं होना चाहिए। दुख की वजह भी नहीं होना चाहिए। कम से कम इस संदर्भ में कि बचपन के भय पर जीत का ऐलान है तीस का होना। कम से कम यहाँ तक तो आ गए। सकुशल। कुछ उखड़े-जुड़े। टूटे-बने। 


आगे भले बचपन के भय का आकार छोटा और उसके सच होने की आशंका आकाश हो जाती हो लेकिन यह यात्रा भी एक सफलता ही लगती है। 


और लगता है कि कुछ भी चाहना या इच्छा करना या उसे प्राप्त करने के लिए अकुलाना मनुष्य जीवन की तरह ही आभासी और नश्वर है। यह सराब है जिसके नज़दीक जाते ही लगता है कि ये वो नहीं है जो चाहिए था। यह अनंत यात्रा हमारी जीवन की सुंदर लघु यात्रा को नीरस,बेरंग और संक्षिप्त कर देती है। 


तीस का होने पर ये बात ठीक हुई कि प्राप्ति का उन्माद भाप हो रहा है। भागने का दुराग्रह पत्थर बन रहा है। लेकिन यह प्रश्न तीव्र होता जा रहा है कि यह जो भी यात्रा है। सभय-अभय। यह किसके सापेक्ष है। सही है या नहीं है। अभी और कितने तीस लगेंगे इस पर आश्वस्त होने में। 

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