Friday, 12 April 2019

अलविदा 'लाफिंग गैस सिलेंडर' प्रदीप चौबे

माइक्रो कविताएं लिखने वाली 'महाकाया' का महाप्रस्थान, अलविदा प्रदीप चौबे

Image result for pradeep choubey
प्रदीप चौबे को यमराज मिल गया। उन्हें ही मिल सकता था। जिंदा आदमी को यमराज मिलते कभी नहीं देखा-सुना है लेकिन उन्हें मिल गया था। यमराज ने पूछा- चौबे जी नरक जाना चाहेंगे या स्वर्ग। चौबे तपाक से बोले- नरक। क्यों? उत्तर मिला- पब्लिक तो वहीं मिलेगी। हास्य कवि को और क्या चाहिए?

पता नहीं प्रदीप चौबे अभी परलोक के किस मोहल्ले में होंगे, किस देश में होंगे। किस गांव में होंगे। वैसे वह मंचों से यह भी तो कहते रहे हैं कि मैं कॉन्फिडेंस का कवि हूं। तालियों की आदत लगाई ही नहीं। सामने एक भी श्रोता हो तो वह कविता पढ़ जाते हैं। उन्ही के मुताबिक एक किस्सा है जो वह मंचों से सुनाते थे कि किसी बड़े कवि सम्मेलन के आखिर में पंडाल में सिर्फ दो लोग बचे थे। एक श्रोता और एक कवि। प्रदीप चौबे कविता पढ़ रहे थे। उन्होंने उस एक श्रोता से कहा, जरूर आप मेरे लिए बैठे हैं, तो श्रोता ने कहा, अरे नहीं, आप पढ़के उतरिए। आपके बाद हमारा नंबर है।

अभी तक चौबे को कॉन्फिडेंस था कि वह एक श्रोता के लिए भी कविता पढ़ते थे। चाहे वह आखिरी श्रोता उनका उत्तरवर्ती कवि ही क्यों न हो। उस दिन उन्हें एक और शब्द मिला - 'ओवर-कॉन्फिडेंस', जो उनके श्रोता-कवि के पास था। जाहिर है, वह दूसरा कवि भी प्रदीप चौबे ही था। ऐसे में इतने जन-विरल परिसर में रहने वाले कवि की इच्छा के विरुद्ध और उनकी किस्मत की मंशा के समर्थन में इसकी पुरजोर संभावना है कि वह स्वर्ग की किसी शानदार कॉलोनी का बाशिंदा हुआ होगा।

एक तीसरी बात भी जो चौबे अपने बारे में मंचों से कहते थे, वो यह कि कविताएं वह लंबी नहीं लिखते हैं। वह इशारों के कवि हैं। इशारों में कहते-

'आप मुझे सुन रहे हैं यह मेरी खुशनसीबी है, आपकी जो हो'
.......

"पूछताछ काउंटर पर किसी को भी न पाकर 
हमने प्रबंधक से कहा जाकर- 
‘पूछताछ बाबू सीट पर नहीं है उसे कहां ढूंढें? 

जवाब मिला – ‘पूछताछ काउंटर पर पूछें!’"

.........

"पलक झपकते ही हमारी अटैची साफ हो गई 
झपकी खुली तो सामने लिखा था- 

इस स्टेशन पर सफाई का मुफ्त प्रबंध है।"

और, एक कविता में-

"हमारे पिता जी बहुत अच्छे पिताजी थे
उनकी बड़ी तमन्ना थी कि उनके घर में कोई फौज में जाए
उनको मैं ही पसंद आया
एक दिन मुझसे बोले- मैं देश की सेवा करना चाहता हूं
तू कल फौज में भर्ती हो जा"

यह दुनिया 'निंदक नियरे राखिए' की उल्टी दिशा में काफी आगे निकलती जा रही है। मजाक छोड़िए, लोग अपनी आलोचना तक सहन नहीं कर पाते। ऐसे में प्रदीप चौबे अपनी कायिक अवस्था को किसी कमी की तरह नहीं देखते, उस पर अफसोस नहीं करते, रोते नहीं बल्कि उसे हास्य की सामग्री बनाकर अपना ही मजाक उड़ाते हैं। अपने मोटापे पर उन्होंने न जाने कितने चुटकुले बनाए हैं। कितनी कविताएं भी लिखीं। लगभग उनकी हर कविता में यह चीज देखी जा सकती है। चाहे वह रेलयात्रा के कुली का जिक्र हो जिसके लिए

'बाबूजी आप किस सामान से कम हैं'

या फिर वह रिक्शावाला, जो उन्हें दो रुपये किलो के हिसाब से ले जाने की शर्त रखता है। अपना ही मजाक बनाते हुए कवि कहते हैं कि लोग किलोमीटर में यात्रा करते हैं और मैं किलो में करता हूं। ऐसा करते हुए वह अपने आपको डायनासोर तक कहने से गुरेज नहीं करते।

"मैं एक पिच्चर देखने गया जुरासिक पार्क। उसका हीरो डायनासोर था। जैसे ही मैं हॉल में पहुंचा लोगबाग मुझे देखकर ऐसे घूरने लगे जैसे मैं ही डायनासोर हूं। कुछ लोग तो टिकट फाड़कर घर जाने लगे। बोले- अब पिच्चर क्या देखना। हीरो तो यहीं है।"

अपना मजाक बनाना इतना आसान नहीं था। किसी ने लिखा है-

"इतना आसान नहीं खुद का तमाशा करना
कलेजा चाहिए औरों को हंसाने के लिए।"

औरों को हंसाते-हंसाते सामाजिक-राजनीतिक अव्यवस्थाओं की तस्वीर दिखा जाना प्रदीप चौबे अच्छी तरह से जानते थे। इसका अक्स उनकी खुद की शवयात्रा पर लिखी कविता और रेलयात्रा कविता में देखी जा सकती है। शवयात्रा कविता में बेहद औपचारिक और स्वार्थी हो चुके सामाजिक संबंधों का प्रतिबिंब पेश करते हुए चौबे उनके अंतिम यात्रा में आए लोगों के आपसी संवाद के माध्यम से कितनी बड़ी-बड़ी बातें कह जाते हैं। 

“हम अपनी शवयात्रा का आनंद ले रहे थे
लोग हमें ऊपर से कंधा और अंदर से गालियां दे रहे थे

एक हमारे बैंक का मित्र बोला -
कि इसे मरना ही था तो संडे को मरता
कहां मंडे को मर गया बेदर्दी
एक ही तो छुट्टी बची थी
कमबख़्त ने उस की भी हत्या कर दी

ये थोड़े दिन और इंतज़ार करता
तो जनवरी में आराम से नहीं मरता
अपन भी जल्दी से घर भाग लेते
जितनी देर बैठते सर्दी में
आग तो ताप लेते।”

उनकी रेलयात्रा कविता तो जैसे आम आदमी की खीझ है। 

भारतीय रेल की जनरल बोगी 
पता नहीं आपने भोगी कि नहीं भोगी।

सब जानते हैं कि जनरल बोगी में यात्रा नहीं होती। उसे भोगा जाता है। नरक की तरह। एक जनरल डिब्बे की क्या दुनिया है, क्या व्यथा है, क्या चिड़चिड़ापन है और इन सबसे कैसे हास्य तैयार होता है, वह सब इस कविता में आसानी से देखा जा सकता है। बहुत सी चीजों से हम समझौता कर ले जाते हैं। उस समझौते की हंसी उड़ाकर विद्रोह के बीज बोने का काम भी उन्हें आता है, यह प्रदीप चौबे ने इसी कविता में सिद्ध किया है। 

"किसी ने पूछा- पंखे कहां हैं
उत्तर मिला- पंखों पर आपको क्या आपत्ति है
जानते नहीं, रेल हमारी राष्ट्रीय संपत्ति है
कोई राष्ट्रीय चोर हमें घिस्सा दे गया है
संपत्ति में से अपना हिस्सा ले गया है"

यह व्यंग्य किसी प्रशासन पर नहीं बल्कि जनता पर था। हास्य-व्यंग्य में ज्यादातर निशाना प्रशासनिक संस्थाएं होती हैं। प्रदीप चौबे जरूरत पड़ने पर आम आदमी पर भी व्यंग्य करते हैं।

"टीचर के पास बटुआ
इससे अच्छा मजाक इतिहास में आज तक नहीं हुआ।"

मैं हास्य कवि प्रदीप चौबे से कभी मिला नहीं। यह जानने की बड़ी अभिलाषा थी कि जिस ‘महाकाया’ के कवि सम्मेलन के मंचों पर उपस्थित रहने भर से ही माहौल हंसने-परिहास करने लगता था, उसका व्यक्तिगत जीवन भी क्या ऐसी ही चुहलबाजी, हास-परिहास से भरा था। लेकिन, चौबे से कभी मिलना नहीं हुआ। ग्वालियर उनका घर था। कभी ग्वालियर जाना भी नहीं हो पाया। कवि सम्मेलन में भी कभी उन्हें सामने से नहीं सुना। यू ट्यूब पर उन्हें खूब सुना है। पिछले साल का एक विडियो हाल ही में देखा था। चौबेजी के गुदगुदाने वाले चेहरे पर एक अजीब सी उदासी और असमर्थता थी। देखकर बड़ी तकलीफ हुई। यह तकलीफ आज के शोक के साथ घुल गई है। यह और पीड़ादायक है।

प्रदीप चौबे हमारे बीच नहीं हैं। माइक्रो कविताएं लिखने वाली महाकाया का महाप्रस्थान हो चुका है। हास्य का आकाशदीप सशरीर बुझ चुका है लेकिन अपने हिस्से की जिम्मेदारी निभाते हुए संसार को मुस्कुराने-हंसने के तमाम बहाने देकर हमारा पूर्वज विदा हुआ है। उसके लगाए हास्य के पौधे हंसी की हवाएं न जाने कितनी नस्लों तक फैलाते रहेंगे। हम हंसते रहेंगे और प्रदीप चौबे को जीवनभर याद करते रहेंगे।

विदा हास्यकवि

मौत आई तो ज़िंदगी ने कहा-
'आपका ट्रंक काल है साहब' 

Thursday, 11 April 2019

डरिए नहीं, डराने वालों को कीजिए रिजेक्ट

Image result for rwanda mass genocide

डर हमेशा कमजोरी का पर्यायवाची नहीं होता। दुनिया की सबसे बड़ी विभत्सताएं इसी के साए में पली-बढ़ी और घटित हुई हैं। डर का इस्तेमाल सत्ता एक्सीलरेटर की तरह करती है। जितना ज्यादा जोर देंगे, उनकी गाड़ी उतनी ही आगे बढ़ेगी। यह सच नहीं है क्या कि डर इंसान के अंदर एक अबूझ, बर्बर और अनजान ताकत पैदा कर देता है। इस बारे में उस डरे हुए इंसान को भी पता नहीं होता। दुनिया भर में धर्म संरक्षण, जाति संरक्षण और राष्ट्रीयता संरक्षण के नाम पर जितने भी नरसंहार हुए हैं, उनके मूल में क्या इसी डर के बीजरोपण का मंत्र नहीं है।

'तुम प्रतिकार करो, प्रहार करो, नहीं तो तुम्हारा अस्तित्व खत्म हो जाएगा।' यह ध्येय वाक्य किसे उन्मादी नहीं बना देगा। आखिर हर कोई बच जाना तो चाहता ही है। सत्ताएं यही डर आपके भीतर बोती हैं। आप अपने ही देश को लीजिए। चुनाव का मौसम चल रहा है। वादों-दावों के बीच अक्सर दलों के नेता इस बात पर जोर डालना नहीं भूलते कि 'फलां पार्टी सत्ता में आएगी तो आपको बरबाद कर देगी। देश को विनष्ट कर देगी। आपके धर्म को खत्म कर देगी। आपके बीच खाई पैदा कर देगी। आपके समुदाय के लोगों का खात्मा कर देगी', वगैरह-वगैरह। यह डर का बीज नहीं है तो क्या है।

डर के आधार पर आपसे वोट ही नहीं मांगे जाते, आपको भड़काया जाता है। आपके मन में नफरत बोई जाती है। दो घरों के बीच दीवार नहीं खड़ी की जाती, खाई खोदी जाती है। सत्ताएं आपके सामाजिक साहचर्य की क्षमता, योग्यता, विवेक और प्रतिभा पर सवाल उठाती हैं। वे लगातार आपके अंदर प्रेम के साम्राज्य को चुनौती देती हैं। वे वहां नफरत की कॉलोनियां बनाती हैं और आपका हृदय उन्माद का उपनिवेश होता जाता है। इसलिए, गुलामी से बचना है तो विवेक जगाइए। प्रेम बढ़ाइए। डरिए नहीं क्योंकि डर बर्बरता को जन्म दे सकता है, संरक्षण की गारंटी नहीं।

Image result for voting
डर के बीज से उगी वीरता कभी सार्थक और उपयोगी नहीं हो सकती। अफ्रीका के रवांडा में 25 साल पहले एक भीषण नरसंहार हुआ था। उसकी बुनियाद नफरत थी और नफरत की जड़ में था लोगों के मानस में बोया गया डर का रक्तबीज। हुतु समुदाय के लोगों में यह डर भरा गया कि तुत्सी लोग गैर-ईसाई हैं और वह तुत्सी-साम्राज्य कायम करना चाहते हैं। रवांडा के एक रेडियो स्टेशन ने यह आह्वान किया था कि तुत्सियों का सफाया करने का वक्त आ गया है क्योंकि हमें अपना अस्तित्व बचाना है। तकरीबन 8 लाख लोग इस डर की भेंट चढ़ गए। उनकी बेरहमी से हत्या कर दी गई। इनमें केवल अल्पसंख्यक तुत्सी ही नहीं थे बल्कि हुतु समुदाय के वे लोग भी शामिल थे जो शांति की बात करते थे। जो थोड़े नरम थे।

हमारे देश में अभी ऐसा माहौल नहीं है कि हम नरसंहार तक पहुंचे लेकिन यह जानने-समझने वाली बात तो जरूर है कि चिंगारियों की तीव्रता ज्यादा नहीं होती लेकिन असावधानी उनके विकराल रूप को आमंत्रण दे सकती है। बीज और फिर पौध कोई विशालकाय पदार्थ नहीं होता लेकिन धीरे-धीरे पोषण मिलने पर वह हमारी बेखबरी के पीछे एक बड़ा वृक्ष बन जाता है। इसलिए, बेखबर न रहिए। हवा की गंध को सूंघिए, पहचानिए और कोशिश कीजिए कि जितनी मात्रा में लोग आग बो रहे हैं, हम उस हिसाब से उस पर पानी डालें। मन की मजबूती में भय नहीं पनपता। भय की अनुपस्थिति में हिंसा नहीं जनमती। ऐसे में चुनाव प्रचार में वादों-दावों और उकसाए जाने वाले भाषणों में डराने की भाषा को पहचानिए।

नेताओं की उकसाने वाली भाषाएं अराजकत तत्वों को अभयदान देती हैं। वह जिस भीड़ की आड़ लेते हैं, वह ऐसे ही कथित संरक्षणजन्य भय के बहकावे में आकर उनके साथ होती हैं। पहलू खान, अखलाक, जुनैद और ऐसे ही न जाने कितने ही अल्पसंख्यक समुदाय के निर्दोष रवांडा की तर्ज पर बहुसंख्यक समुदाय की भीड़ का शिकार हो रहे हैं। दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि केवल निजी राजनैतिक फायदे के लिए सामाजिक सद्भाव में भय का यह जहर घोला जाता है। नयति इति नेता के भावार्थ से उपजने वाले शब्द को धारण करने वाले लोग समावेशी राजनीति करने की बजाय सामुदायिक और विभाजनकारी राजनीति को ज्यादा तरजीह दे रहे हैं।

अगर हमें यह लगता है कि ऐसे लोगों की भारतीय राजनीति में जगह नहीं है तो इन डराने वाले नेताओं को रिजेक्ट कीजिए और डरना भी बंद कर दीजिए। अपने विवेक पर भरोसा रखिए। सामाजिक विश्वास बनाए रखिए क्योंकि बांटना अगर सत्तालोलुपता की जिम्मेदारी है तो नागरिकता की जिम्मेदारी है कि वह पुल बने। ताकि, सारी घृणा, सारे षड्यंत्र उसके नीचे से बह जाएं और लोगों का एक-दूसरे के गांव-देश में आना-जाना बना रहे।

अपनी नागरिकताओं की ओर लौटें

Image result for voter
◆ जरूरत है कि हम अपनी नागरिकताओं की ओर लौटें

मतदान सामूहिक हिस्सेदारी नहीं है। यह व्यक्तिगत दायित्व है। अपने लिए बेहतर के चुनाव का। इसके आपके अपने मापदंड हों। आपकी प्राथमिकताएं तय करें कि आपके क्षेत्र का प्रतिनिधित्व कौन बेहतर कर सकता है। किसी को वोट देने का आधार यह न हो कि 'उसकी लहर है' या 'वह जीत रहा है'। ग्रामीण क्षेत्रों में अक्सर लोगों से यह कहते सुना जा सकता है कि जो जीत रहा है उसे वोट देकर अपना वोट खराब करने से बचा जाए। उन्हें यह समझने की जरूरत है कि वोट आपने चाहे हारने वाले को दिया या जीतने वाले को, वह खराब नहीं होता। या तो आप सत्ता चुनते हैं या विपक्ष। महत्वपूर्ण दोनों हैं।

आपका वोट आपकी अभिव्यक्ति है। लोकतांत्रिक अभिव्यक्ति, जिसमें एक विचार, दृष्टि या नेतृत्व की सार्थकता या असार्थकता पर आप अपने विचार की मुहर लगाते हैं। यह कतई गोपनीय होना चाहिए। परिवार में ही अलग-अलग सदस्यों के मतांतर हों तो कोई दिक्कत नहीं लेकिन आपको अपने मापदंडों के आधार पर प्रत्याशी चुनने चाहिए। यही तो चुनाव की मूल आत्मा है। अलग-अलग लोगों के मापदंड पर सबसे बेहतर कौन है? सामूहिक सलाह से वोट डालने में एक नुकसान है। उभयनिष्ठ सहमति बनाने के दौरान आपके अपने कई मापदंड हटाने पड़ते हैं। इसलिए अपने स्केल पर प्रत्याशियों को मापिए और फिर मतदान किसे करना है, इसका फैसला लीजिए।

चुनाव प्रचार का अधिकार प्रत्येक प्रत्याशी को संविधान देता है। वह किस तरह से अपना प्रचार करते हैं इसे सेंसर करने के लिए बहुत कसौटियां निर्धारित नहीं हैं। ऐसे में सुप्रचार और कुप्रचार के अंतर को अपने विवेक से समझना भी हमारे लिए चुनौती है। कोरी घोषणाओं से प्रभावित हुए बिना उनके शोध और उनकी व्यवहारिकता को ध्यान में रखकर ही किसी के समर्थन अथवा विरोध का फैसला लेना चाहिए। चुनाव का वक्त केवल नेताओं की परीक्षा का मौसम नहीं होता। यह मतदाताओं के लिए उससे ज्यादा कठिन परीक्षा की घड़ी होती है।

असीमित दल बनाने के संवैधानिक अधिकार ने दलों की गिनती में बेतहाशा वृद्धि की है। जाति-धर्म-विचारधारा-लिंग-समुदाय के आधार पर बने अनेक दल चुनाव के दौरान अपनी दावेदारी पेश करते हैं। हममें से ज्यादातर देशवासियों की राजनैतिक निष्ठाएं पहले से ही निर्धारित हैं। हमारी प्रतिबद्धता घोषित है। हमने समाज को कुछ खांचों में विभाजित कर दिया है। यहां अपने विचारों के आधार पर लोग दलों के निष्ठावान कार्यकर्ता घोषित कर दिए जाते हैं। निष्पक्ष, जनहितकारी और पारदर्शी सरकार के चुनाव के लिए हमें इन पूर्वागर्हों से बाहर निकलना होगा। हमें अपनी नागरिकताओं की ओर लौटना होगा। भाजपाई, कांग्रेसी, सपाई या बसपाई होने से पहले नागरिक जिम्मेदारी के अनुच्छेदों पर दृष्टि डालनी होगी।

नागरिक होंगे तभी अपने देश के लिए नेता चुन पाएंगे। दल का समर्थक होकर हम सिर्फ दल का नेता चुनने की ही योग्यता रखते हैं। एक बात और, राजनैतिक दलों के निर्णयों में हमारी सहभागिता नहीं होनी चाहिए। सरकार बनेगी कैसे? आंकड़े कैसे पूरे होंगे? प्रधानमंत्री कौन बनेगा? जैसी चिंताएं हमारी नहीं हैं। हमारी चिंता है कि हम अपने क्षेत्र से सबसे बेहतर प्रतिनिधि कैसे भेज सकते हैं। अगर हर कोई अपने क्षेत्र से बेहतर प्रतिनिधि भेजता है, कर्मठ सांसद भेजता है तो निश्चित रूप से जो भी सरकार बनेगी वह बेहतर ही होगी। दलों के दलदल में फंसे लोकतंत्र को कुछ ऐसे ही उपायों से उबारा जा सकता है।
●●●

Monday, 4 March 2019

कविताः सब कुछ अभिनीत है

धैर्य
Image result for sun dark hd

सब कुछ अभिनीत है,
नेपथ्य में होना
किनारे लग जाना नहीं होता,
सुकून की वह दहलीज होता है
जहाँ यह आश्वासन है
कि सत्य क्या है! यह ज्ञात है।
आवरण के रंज में खपता है पसीना
कि दुनिया की घड़ी
और किताबों की लिखावट के बीच
बनती ही नहीं है।
सभी प्रतिमान-सभी दृष्टांत
अपने सत्य में
मध्यकालीन यूरोप के राजाओं की
राजाज्ञाओं की तरह क्रूर और अभिनीत हैं,
कि जिनके आसनों के चार पायों से
कुचल जाते हैं गैलिली।
यह सत्य भी कि
जो धरा का भेष
नित धीरज की सूक्ति बांचता है,
मुझे आकाशगंगा की
किसी डॉल्फिन ने बोला,
'कि रवि के ताप के आगे
उसी धरती का धीरज
महज़ हिलता नहीं है, नाचता है।'

Sunday, 10 February 2019

चिट्ठियां मौन का अनुवाद होती हैं


मेल पर दोस्त की चिट्ठी आई है। यह कतई आश्चर्य की बात हो सकती है कि फोन, वाट्सऐप, मैसेंजर के दौर में चिट्ठी की क्या जरूरत थी? चिट्ठी में ऐसी कौन सी बात हो सकती है जो आप फोन पर नहीं कह सकते? आप चैट पर नहीं लिख सकते। मुझे नहीं पता। ऐसा इसलिए भी कि जिंदगी में न तो कभी किसी को चिट्ठी लिखने की जरूरत लगी और न ही चिट्ठियों को लेकर कोई आकर्षण रहा। हम सेलफोन्स के दौर में पैदा हुए हैं लेकिन चिट्ठियों के सौंदर्य से, उनके वैभव से अपने आपको अलग रख पाना भी ऐसे वक्त में संभव नहीं है जब चिट्ठियों के युग की सांझ हो रही हो। कि सांझ में भी तो दिन का कुछ अंश शेष होता है।

जीवन में मैंने दो बार चिट्ठी लिखी है। यह दोनों बार की चिट्ठी बहुत अनिवार्य कारणों से लिखी गई हो ऐसा नहीं है। ऐसा भी नहीं है कि चिट्ठी न लिखते तो इससे इतर कोई संसाधन ही नहीं था कि अपनी बात चिट्ठी के प्रापक तक पहुंचाई जा सके लेकिन चिट्ठी लिखी गई। एक नहीं दो बार लिखी गई। शायद 21वीं सदी के दो-चार साल के भीतर ही मां के पास फोन मौजूद था लेकिन फिर भी इन चिट्ठियों के लिखे जाने की अहमियत अपनी जगह है।

पहली बार चिट्ठी लिखी गई पिता को। कक्षा 6 में रहे होंगे शायद। पापा बनारस में थे और हम रुद्रपुर में। हिंदी की पाठ्यपुस्तक में पत्र लिखने के तरीके के बारे में बताया गया था। पापा से अक्सर शाम को फोन पर बात हो जाती लेकिन शायद ही कभी हिम्मत हो पाई हो कि उनसे यह पूछ पाएं कि वह कैसे हैं? उनकी तबीयत कैसी है? पापा बोलते और हम जवाब देते। यही हमारी बातचीत थी और आज भी हमारा संवाद ऐसे ही होता है। चिट्ठी लिखे जाने जैसी कोई बात नहीं थी। मां को परीक्षा देने बनारस जाना था। पापा के पास ऐसी क्या चीज भेजी जा सकती है? बहुत सोचने के बाद चिट्ठी का आईडिया आया था।

कॉपी के बीच से दो पन्ने फाड़े गए और कुछ ही देर में हिंदी की किताब की उंगली थामकर कागज की सड़क पर शब्दों के पांव टहलने लगे। कि धीरे-धीरे चलते-चलते पापा के पास पहुंच जाना है। क्या सवाल करेंगे उनसे?

प्रिय पिताजी,
सादर प्रणाम
मैं यहां सकुशल हूं। आशा है कि आप भी सकुशल होंगे..

जो बात कभी सामने नहीं कह पाए वह चिट्ठी में भी तो नहीं कह पा रहे थे। वहां भी आशा कर ली थी कि वह सकुशल होंगे। ऐसा इसलिए भी कि पापाओं को अकुशल होने का कोई अधिकार नहीं होता। 23 साल के जीवनकाल में पापा को कुछ गिने-चुने बार अकुशल देखा-सुना है। खैर, जो भी मंतव्य रहा हो लेकिन किताब ने पत्र लिखने का यही ढांचा दिया था। पिता के नाम पत्र अगर मांगपत्र न हो तो आपके पुत्र होने में संदेह होने लगे। सो किताब मांगी गई थी पिता से पत्र में। पत्र का लिफाफा नहीं था। उसे चार बार मोड़ा और मां के पर्स में डाल दिया। अगले दिन फोन से सूचना मिली जो पापा ने खुद दी कि उन्हें मेरी चिट्ठी मिल गई है। मुझे आज भी वह वाक्य और वह लहजा तक याद है और मुझे आज भी लगता है कि 'तुहार चिट्ठी मिलल' बोलते हुए तब पापा मुश्किल से अपनी हंसी दबा पाए होंगे।



दूसरी चिट्ठी हिंदी में नहीं लिखी गई थी। यह संस्कृत में थी। सभी विषयों में संस्कृत और हिंदी से विशेष प्रेम था। यह चिट्ठी भी प्रशिक्षणजन्य चिट्ठी थी। संस्कृत की चिट्ठी लिखने के अभ्यास में लिखी गई। पत्र छोटे भाई शशांक के नाम लिखा गया था। वह गांव में रहता था। उससे मिलने के लिए हम छुट्टियों का इंतजार करते कि घर जाएंगे और उससे मुलाकात होगी। यह मुलाकात इसलिए भी बहुत रोमांचक और खुशनुमा होती थी क्योंकि हमारी मनमर्जियां, हमारा सारा बचपना या क्रिएटिविटी कह लें या खुराफात,शरारत चंचलता, मनबढ़ई या जो कुछ भी। उन सबमें वह हमारा एक मजबूत साझीदार था।

संस्कृत में लिखी चिट्ठी या ऐसे कह लें कि किताब से नकल कर लिखी गई चिट्ठी में घर और गांव का हालचाल पूछा गया था। किताब में लिखी चिट्ठी में किसी बड़े भाई ने अपने छोटे भाई के लिए चिट्ठी लिखी थी। शायद बड़ा भाई घर से किसी वजह से बाहर रहता था। नकल कर लिखी गई चिट्ठी में मैंने संस्कृत में लिखा, जिसका अनुवाद होता है, 'जब मैं घर से आया था तब मां कुछ बीमार थीं। अब उनकी तबीयत कैसी है?' यह तो नकल के साइड इफेक्ट का जीता-जागता उदाहरण बन गया था क्योंकि मां तो मेरे पास ही थीं रुद्रपुर में। नकल कर मैंने लिख दिया कि मां बीमार थीं कैसी हैं? हालांकि, पत्र प्रेषण से पहले प्रूफरीडिंग के लिए मां के पास ले जाई गई। तब मां की नजर इस लाइन पर गई। उन्होंने होशियारी दिखाई और केवल 'मां' की जगह 'तुम्हारी मां' (संस्कृत में) लिखकर पत्र में सुधार कर दिया।

वाक्य सही और सार्थक हो गया। पत्र में ज्यादा काट-पीट नहीं करनी पड़ी। घर से आते वक्त चाची सचमुच बीमार थीं। उनका हाल-चाल लेना तो बनता ही था। तो इस तरह से दूसरी चिट्ठी लिखी गई। इसका जवाब भी आया था। जवाबी चिट्ठी भोजपुरी में लिखी गई थी। इसे पढ़कर भाई-बहनों को बहुत हंसी आई लेकिन हमारे लिए तो उस वक्त यह अमोल थी। क्योंकि गांव से आई थी और इसमें उस मक्के की फसल की खबर थी जो हमने घर के सामने दुआर पर सरकारी नल के ठीक बगल में थोड़ी सी खाली जमीन पर बो दी थी और जिसके लिए मास्टर पापा से डांट भी सुनी थी।

इन दो पत्रों के बाद कोई पत्र नहीं लिखा गया। हां, तीसरे पत्र की भूमिका जरूर बनी। आईआईएमसी छोड़ने के बाद एक बेहद करीबी मित्र हैदराबाद चले गए। एक दिन फोन पर बातचीत के दौरान उन्होंने प्रस्ताव रखा कि हम एक दूसरे को चिट्ठी लिखेंगे। हमारा पता भी लिया। हमने यह भी सुनिश्चित किया कि हम इस पत्र के पहुंचने या इसमें लिखी बातों के बारे में चैट पर या फोन पर चर्चा नहीं करेंगे। उसका जवाब पत्र से ही दिया जाएगा लेकिन यह योजना पूरी नहीं हो पाई। न तो हमारी चिट्ठी हैदराबाद गई और न तो हैदराबाद से ही कोई चिट्ठी आई। लेकिन, आज दिल्ली से एक डिजिटल चिट्ठी आई है।

इस चिट्ठी को देखकर पहली बार लगा कि चिट्ठी में क्या चीजें होनी चाहिए? और यह भी कि चिट्ठी क्यों जरूर लिखनी चाहिए। अब एक चीज तो तय है कि चिट्ठी लिखने के लिए किताब की जरूरत नहीं पड़ेगी इसलिए इस चिट्ठी के जवाब में जो चिट्ठी लिखी जाएगी वही मेरे लिए सही मायने में पहली चिट्ठी होगी। चिट्ठी में पल्लवी ने एक ही बार में सारी बातें कह दी हैं जो अक्सर आमने-सामने की बातचीत में न कही जा सकें। यह चिट्ठी सुंदर है। इसने जरूर आंखे भिगो दी हैं जो आमतौर पर चिट्ठियां अक्सर करती रही हैं।

मेरे पत्र व्यवहार में हर जगह डाकिया अनुपस्थित है। जिन्होंने डाकिए का कर्तव्य पूरा किया वह पेशे से डाकिया नहीं थे। इस बार भी जो चिट्ठी आई है वह ईमेल पर आई है। उसका भी कोई डाकिया नहीं है लेकिन पत्र व्यवहार के इस तरीके ने एक तरह से चिट्ठी लेखन को परंपरा, पर्व या फिर रीति-रिवाज की कतार में खड़ा कर दिया है। हम एक ऐसी दुनिया में अब भी हैं, जहां भाषा के शरीर से आप भले हर किसी से 1-2 सेकंड दूर हों लेकिन मन के शरीर से आज भी उतनी ही दूरी है जितनी एक कबूतर के कहीं चिट्ठी पहुंचाने या फिर किसी साइकिल वाले बूढ़े डाकिया चाचा के पत्र लेकर घर पहुंचने वाले जमाने में लोगों के बीच होती थी। चिट्ठियों की जरूरत इसीलिए आज भी खत्म नहीं होती बल्कि बढ़ जाती है। चिट्ठियां मौन का अनुवाद भी हो सकती हैं।

चिट्ठी के लिए शुक्रिया, पल्लवी! वह चिट्ठी पढ़कर यह सारी ही स्मृतियां एक झटके से चलचित्र की तरह दिमाग में चलने लगी थीं। तुम्हारे पत्र में कुछ शिकायतें हैं, कुछ स्मृतियां हैं और कुछ सवाल भी। उम्मीद है कि जल्दी ही तुम्हें जवाबी चिट्ठी लिखें।

Tuesday, 22 January 2019

आत्मलेखन: संवादशून्यता की ओर


जब आप बिलकुल अमहत्वपूर्ण होते हैं तो बहुत खाली रह सकते हैं। आपके रहने या न रहने से संसार का बहुत कुछ बदल नहीं जाता। आपके नाराज होने या खुश होने की कोई कीमत नहीं रह जाती। आप अपनी ही ज़िन्दगी के दोयम दर्जे के नागरिक होते हैं। आप अपने दोस्तों के दोयम दर्जे की दोस्ती होते हैं। आप अपने चाहने वालों के लिए दोयम दर्जे के चाहने वाले होते हैं। आप अपने परिवार के लिए दोयम दर्जे के सदस्य होते हैं। मतलब यह कि आप किसी की भी प्राथमिकताओं में नहीं होते। कोई भी आपके बर्ताव को समझने की कोशिश को समय की बर्बादी समझता है। आपके निराश होने को, दुखी होने को, खुश होने को या और भी किसी असामान्य हरकत को समझने में थोड़ी भी दिलचस्पी नहीं लेता।

ऐसा जीवन भार लगता है। अपने आप पर भी और अगर एक मिनट के लिए अपने आप से बाहर निकलकर संसार बनकर अपने आपको देखा जाए तो संसार के लिए भी। केवल भार। निरुद्देश्य जीवन। अज्ञात राहें। विचलित मन। क्षतिग्रस्त योजनाएं और पहाड़ सी सामने खड़ी उम्र। जीवन में सदैव दो पक्ष होते हैं सामाजिक रूप से। पहला उन लोगों का जिन्हें आप अपने आसपास देखना चाहते हैं। उनसे संपर्क में रहना चाहते हैं। उनसे बात करना चाहते हैं। दूसरा उन लोगों का जिनके जीवन में आप स्वयं ऐसी लिस्ट में हों। अपनी वर्तमान अवस्था को देखता हूँ तो दो दृष्टियों से देखा जीवन दिखाई देता है। एक वह दृष्टि है जहाँ से देखने पर लगता है कि जिन लोगों से साथ की उम्मीद करता था वह सभी मुझे अकेला छोड़कर चले गए हैं। दूसरी दृष्टि ऐसी है जिसमें मैं उन तमाम लोगों से पीछा छुड़ाकर भाग आया हूँ जो मुझे अकेला नहीं छोड़ना चाहते। दोनों ही स्थितियों की परिणति में मेरा अकेलापन है। दोनों एक ही श्रृंखला के हिस्से ऐसे हो जाते हैं कि बीच में अग्रोन्मुख गतिशील मैं हूँ, मेरे आगे पहली दृष्टि वाले लोग और मेरे पीछे दूसरी दृष्टि वाले।

यह अकेलापन भारी है। मेरे जीवन से संवाद निरंतर शून्य की ओर बढ़ते जा रहे हैं। मेरी संवादशैली व्यवहारिक न होकर पुस्तकीय होती जा रही है। मैं लोगों से ज्यादा किताबों से बातें करने लगा हूँ। किताबों के किरदारों से भी। उनमें अपने आप को ढूंढता हूँ। उनकी तरह सोचता हूँ। उनकी तरह बोलता हूँ। उनकी ही तरह सुनता भी हूँ। हर दुखी, संतप्त और अकेला किरदार मुझे अपने जैसा लगता है। बिल्कुल उस जैसा हो जाने की कवायद में मैं यह बिलकुल भूल जाता हूँ कि उनमें से ज्यादातर कल्पना की जमीन से पैदा होते हैं। व्यवहारिक जीवन में उनसे केवल उपहास उपजता है। शायद मेरा उपहास ही होता हो और मुझे इसकी जानकारी न हो।

एक वक्त पर ऐसा लगता था कि लिखना आ गया है तो सारे दुखों को झेला जा सकता है। यह भ्रम भी था कि हम लेखक लोग अपने दुखों को लिखकर हल्के हो जाते हैं और सबसे बड़ा यह कि हमारे दुःख ही हमें लिखना सिखा रहे हैं। यह सब छलावा है। बहाने हैं कि मन बहल जाए। एक वक्त तक बहलता भी है लेकिन फिर वही ढाक के तीन पात। जीवन इतना महत्वशून्य लगता है कि अगर अभी प्राण निकल जाएं तो संसार के किसी भी हिस्से को कोई बहुत बड़ा नुकसान उठाते हुए नहीं देखता हूँ। श्रेष्ठताओं को पूजने वाले इस संसार में अयोग्यताओं के झुके शीश के साथ जीना स्वाभिमान को चुनौती की तरह लगता है। ऐसा लगता है कि अभी से वास्कोडिगामा या कोलम्बस की तरह किसी और दुनिया की खोज में निकल जाएं जहाँ हम जैसे लोगों को भी सम्मानित ढंग से देखा जाता हो। जहाँ हम निरीह नहीं। जहाँ हम अपराधी नहीं। जहाँ हम अयोग्य नहीं लेकिन श्रेष्ठ भी नहीं। जहाँ जीने की शर्त केवल आपका होना हो। जहाँ आप रहें वही बहुत हो। आपके अंदर किसी गुणवत्ता की, श्रेष्ठता की या किसी महान कौशल की बढ़ोतरी करने की कोई जरुरत नहीं हो।

निराशा कोई रहस्य नहीं है। अपराध भी नहीं और कमजोरी तो बिलकुल नहीं। यह परिस्थिति है। परिस्थिति वह जो यह बताती है कि कितने लोगों की आत्मा में आपकी आत्मा का हिस्सा है। कितने लोग आपकी नसों की गर्मी महसूस करते हैं। कितने लोग हैं जिन्हें आपके पलकों की झपकन और सीने की उथल पुथल के स्वर सुनाई देते हैं। निराशाओं की तीव्रता आपने करीबियों की संख्या के व्युत्क्रम अनुपाती होती है। निराश होने के बाद भी ज़िन्दगी जी जा सकती है। मुझे अकेलापन झेलते हुए अब तक़रीबन 10 साल होने को आए होंगे। परिवार से ऊब होने के बाद से ही दोस्तों में मन बांटने का रास्ता खोजा। दोस्त लेकिन दोस्त ही होते हैं। उनकी अपनी सीमाएं हैं। उन्हें यह नहीं पता होता कि उनसे दोस्ती की उम्मीद में आप परिवार से उम्मीदों के हिस्से की भी उम्मीद कर रहे होते हैं। वह दोस्ती निभाते हैं और आपकी उम्मीदें दोस्ती से कहीं ज्यादा की होती हैं।

विराग बहुत ही कम उम्र में मन में घर कर गया है। समाज से नाता तोड़ लेने का मन करता है। सभी परम्पराएं, रीति रिवाज, जीवन पद्धतियां। सब कुछ छोड़ देने का मन होता है। लगता है जैसे जीवन देने वाले मुझे सभी जिम्मेदारियों से मुक्त कर दें। पता नहीं इसके परिणाम मिलेंगे या सत्परिणाम या दुष्परिणाम। कोई समझाता भी तो नहीं। डर लगता है कि कहीं कोई आकर मेरी अभिलाषा को अपराध न घोषित कर दे। मुझे अक्सर ऐसे किसी अज्ञात शख्स की चीखती आवाज़ सुनाई देती है और डरा सहमा मैं। डरा सहमा इसलिए कि नहीं पता क्यों अक्सर कुछ साबित करते वक़्त दलीलें मेरा साथ छोड़कर चली जाती हैं। मुझे यही डर होता है कि अगर मैं अपने आपको निरपराध सिध्द न कर पाया तो! यह मानसिक उथल-पुथल अब जीने में समस्याएं पैदा कर रहा है।

Wednesday, 19 December 2018

मनीष पोसवाल की कविताः सड़कें धरती की नसें हैं


एक सड़क सही मायनों में
कभी नहीं चलती, आगे बढ़ती।
और कमाल तो ये है कि
ना ही कभी रुकती, खत्म होती।
बस पगडंडियों, दगड़ों और बटियाओ में बंट जाती है,
बंटवारा कर देती है बसवाटों का,
खेतों का, पहाड़ों का ,मैदानों का।
सड़क नहीं खिसकती बिलांद भर भी,
सड़क नहीं सरकती सुई बराबर भी,
दुनिया की तमाम सड़कें
धरती की नसें हैं,
जो जिंदा रख रही हैं उसे,
और इन नसों में दौड रहे हैं हम।
नदी भी सड़कें हैं,
बस वहाँ बहता है पानी
आदमी की जगह।
सड़कें कहीं नहीं आ रही-जा रही,
वो तो हम हैं जो निकले हैं चिरयात्रा पर
जो मरकर ही खत्म होगी।

मनीष पोसवाल
Image result for roads art