Tuesday, 11 February 2020

कल्पना में अनहद स्वतंत्रता

निर्मल वर्मा मुझे उदासी के माहौल में ज्यादा समझ आते हैं। कुलदीप नैयर की किताब खत्म हुई तो निर्मल को पढ़ना था लेकिन आज शुरू नहीं किया। कई पत्रिकाएं भी ले आए थे। उन्हें भी नहीं पढ़ा गया। कारण सबका एक है। आज हृदय पर उदासी का चश्मा नहीं लगा पाए। अपनी उदासी कुछ देर के लिए कहीं चली गई है। शायद, कल लौट आए, तब पढ़ेंगे। उसके लौट आने का पक्का विश्वास है क्योंकि वही तो है जो कभी कोई वादा नहीं करती मगर लौट आती है अपने आप। जैसे मेरे हृदय के अलावा उसका कहीं घर न हो।

अपनी उदासी से अक्सर मुझे अपनी गइया याद आ जाती है। हमारे घर की गाय, जिसके साथ की बचपन की कई यादें हैं। खेतों में जब फसलें नहीं होती थीं तब बाबा उसे सुबह चरने के लिए छोड़ देते थे। पगहा खुलते ही वह तेजी से भागती। खेतों में दूर तक चरने के बाद वह शाम को अपने आप घर भी लौट आती। ऐसा भी हुआ कई बार कि वह वापस नहीं आई। दो दिन बीतते। तीन दिन बीतते। फिर अचानक एक सांझ वह फिर लौट आती। जैसे, उसे पता हो कि उसका ठिकाना यही है। उसका घर यही है। कई बार नहीं आती तो उसे ढूंढने के लिए जाना पड़ता। पगहा लेकर हम गांव के प्रांतरों में घूमते। वह हमें देखते ही भागने लगती। हम उसके पीछे दौड़ते। वह हमसे तेज भाग सकती थी लेकिन कुछ देर बाद जैसे उसे अपराधबोध हो जाता हो और वह रुक जाती। फिर हम पगहा उसके गले में डाल देते और उसे घर वापस ले आते।

गइया को तब मैं जब भी देखता था थोड़ा-सा द्रवित हो जाता था। मेरी नज़र उसके आंसुओं पर जाकर टिक जाती थी। आंसू होते थे या नहीं, मुझे इसकी जानकारी नहीं है लेकिन उस श्वेतकाय की आंखों के कोरों पर एक दाग था। जिसे हम आंसू का दाग ही मानते थे। हमें लगता था कि जब हम सब सो जाते हैं तब वह अंधेरे में अकेले बैठकर रोती है। उसका दर्द क्या है, यह पता नहीं है लेकिन ऐसा लगता था कि कुछ तो है जिससे वह दुखी रहती है। जिसकी वजह से वह रात के अंधेरे में अकेले बैठकर रोती भी है।

गइया को देखकर लगता कि सांझ की तरह उसके जीवन में कैसी उदासी पसरी हुई है। उसकी भौहें ऐसी लगतीं जैसे वह निराश हो लेकिन कुछ बेहतर होने की आशा को भी छोड़ न पा रही हो। मैंने सिर्फ अनुमान लगाया कि उसके जीवन का दुख उसकी पराधीनता भी हो सकती है। वह दिन भर पगहे से तो बंधी रहती है। मड़ई के प्रतिकूल वातावरण में एक खूंटे के इर्द-गिर्द जीना उसकी विवशता है। उसके पास दुखी होने के पर्याप्त कारण हैं क्योंकि वह स्वतंत्र उतनी ही है जितना उसका स्वामी उसे स्वतंत्रता की इजाजत देता है।

बोनसाई बना दी गई स्वछंदतात्मक चेतना
मैं अक्सर यह सोचता था कि वह चरने के लिए छोड़े जाने के बाद वापस क्यों आ जाती थी? उसके पास भाग जाने का अवसर होता था। बाबा को भी कभी डर नहीं लगा कि वह जाएगी तो वापस नहीं आएगी। क्या वह दिन भर के भरपेट भोजन के बाद और थोड़ी-सी स्वतंत्रता का भी स्वाद चख लेने के बाद पगहे से बांधे जाने की वेदना भूल जाती थी? अपने उदास अन्तःस्थल से क्या वह सर्वथा निरपेक्ष हो जाती थी? या फिर बोनसाई बना दी गई उसकी स्वछंदतात्मक चेतना उसे भयभीत कर देती थी, जिससे बचने के लिए उसे वापसी के अलावा कोई दूसरा रास्ता नहीं सूझता था।

भाग क्यों नहीं जाती?
मुझे कई बार लगा कि अगर वह मेरी भाषा समझती तो उसके कान में धीरे से जाकर कह देता कि क्यों लौट आती है, पागल? स्वतंत्र होना दो जून के भूसे-चोकर की नियमित व्यवस्था के आश्वासन से कहीं ज्यादा श्रेष्ठ और सुंदर है। इसे क्यों नहीं समझती! पगहा छूट जाने के बाद यह धरती वहां तक तेरी है जहां तक तू अपने चार पैरों से जा सकती है। अपनी अनहद हद को पहचानती क्यों नहीं? मैं तुझे बता रहा हूँ, तेरे इस मालिक ने तेरी स्वतंत्रता को प्रशिक्षित कर दिया है। तेरी प्रशिक्षित आज़ादी बार-बार गांव के सीमांत चारागाह से वापस लौट आती है। वह फिर-फिर ग़ुलाम हो जाती है। यह बार-बार की ग़ुलामी से आज़ाद क्यों नहीं हो जाती। तू भाग क्यों नहीं जाती?

लेकिन, हमारे बीच सम्प्रेषण के लिए भाषायी व्यवधान हमेशा ही बना रहा। फिर, एक दिन गइया ने एक बछरू को जन्म दिया। प्यारा- सा बछरू अपनी मां के पास अचेत पड़ा था। सोया हुआ। लालिमायुक्त मस्तक। श्वेतार्द्र शरीर। बग़ल में सद्यप्रसूता मां भी अचेत। बछरू का नाम हमने 'मिन्टन' रखा। मिन्टन का जाने क्या अर्थ होता है लेकिन उसका नाम यही था। पैदा होने के कुछ ही घंटों बाद उसने धमाचौकड़ी मचाना शुरू कर दिया। पूरा दुआर नाप लिया। दुआर से बाहर भी चला गया।


तंत्र-भंग की संभावना
एक पल को लगा कि यह नवजात, नव गोवंश, नई प्रजाति, उदास-मजबूर गइया की नई पीढ़ी अपने समुदाय की अधीनता के सारे तंत्रों को तोड़ देगा। वह अपनी मां की तरह न तो रुकेगा और न वापस ही आएगा। बंधन इसकी प्रवृत्ति के प्रतिकूल की चीज होगी और वह भाग जाएगा। वह अपनी माँ की तरह पगहे से बंधने की बेवकूफी नहीं करेगा।

मैं खुश हो रहा था और उसकी उछलकूद का आनंद ले रहा था। साथ ही इंतज़ार भी कर रहा था कि वह अपनी प्रजाति-अपनी गायता की स्वतंत्रता के बोन्साईत्व को ध्वस्त कर दे और बंधन की ओर कभी न लौट आने के लिए भाग जाए। फिर एक दिन पता चला कि बछरू भाग गया। बाबा के आदेश पर हम सभी भाई उसे ढूंढने खेतों की ओर चले गए। खूब ढूंढा लेकिन वह नहीं मिला। इस बीच गइया दुआर पर लगातार उसे पुकारती रही। उसकी भाषा में सिर्फ एक ध्वनि थी। उसी ध्वनि में अलग-अलग भाव होते थे।

उसकी भौहें और चढ़ गईं। आंखें गीली हो गईं। उसकी रोजाना के रम्भाने की ध्वनि आज थोड़ी-सी द्रवित थी। वह अपने नवजात को पुकार रही थी। मैंने उसकी एकध्वन्यात्मक भाषा के उस अकेले वाक्य में चिंता के कई सेंटेंस सुने। उसकी उस चिंता में हमारे खिलाफ भी रोष था कि हमने उसके अभी जन्मे बच्चे का ख्याल क्यों नहीं रखा।

गइया की आवाज़ दूर तक हमारे पीछे-पीछे आई। हम उसी के दबाव में मिन्टन को ढूंढते रहे लेकिन वह कहीं नहीं मिला। कुछ देर बाद गाय की पुकार भी बंद हो गई और शाम भी होने लगी। हम निराश घर की ओर लौटने लगे। गोधूलि की वेला थी। चरने के लिए छोड़ी गईं गांव की सभी गाएं अपनी मड़ई की ओर लौटने लगीं। चरवाहे लाठी हाथ में लिए अपनी भैसों को हांककर घर ले जाने लगे। धीरे-धीरे माहौल में शीतल नीरवता छाने लगी। अंधियार होने लगा। दादी अपनी जपमाली लेकर छत पर चली गईं। बाबा अपना बिस्तर ठीक करने लगे।

बोनसाईत्मक स्वतंत्रता में वापसी
तभी हम घर पहुंचे तो देखा कि मिन्टन अपनी मां के पास आंखे बंद किए बैठा है। मैं ठहरकर उन्हें देखने लगा। बहुत देर तक देखता रहा। मन में आया कि यह क्या दृश्य है? इसे किस तरह से देखा जाए। ममता का गुरुत्वाकर्षण, जिसके ईर्द-गिर्द बंधित होकर अंतरिक्ष की समस्त स्वतंत्रता को चक्कर लगाना ही पड़ता है। अभी तो मैं गाय की नस्ल की इस नई पीढ़ी की सम्भावनाओं को लेकर कैसा आशान्वित था। यह आशा भी बहुत दूर नहीं चल पाई। वह भी लौट आई। अपने बोनसाईत्मक स्वतंत्रता में। मिन्टन भी।

कुछ दिन बाद से मिन्टन के लिए नया पगहा आ गया। वह एक अलग खूंटे में बांधा जाने लगा ताकि अपनी मां का दूध न पी सके। गृहस्वामी का परिवार भी तो गइया के दूध का अधिकारी था। सारा दूध मिन्टन के ही पी जाने पर मनाही थी। आह! एक तो पराधीनता। वह भी सशर्त। मिन्टन के आने के बाद गइया में एक परिवर्तन आया कि वह अब कभी घर का रास्ता नहीं भूलती। आखिर वह मां है। अपने बच्चे को किसी और के भरोसे नहीं छोड़ सकती थी। वह दिन में चरने जाती और शाम ढलने से पहले लौट आती। यह उसकी परतंत्रता का नया संस्करण था और इस परतंत्रता का कोई विरोध न था। इसमें उदासी का स्वरूप एक संतोष में बदल जाता है। एक संतोष, जो ममता, स्नेह और जिम्मेदारी के संयोजन से बनती है और यह तो विश्वविदित है कि संतोष कभी भी स्वतंत्रता के खिलाफ ही होता है।

उदासी की तानाशाही
आत्मावलोकन करें तो पाएंगे कि एक अंतहीन उदासी का आना-जाना हमारे जीवन में भी है। इस उदासी में जो असंतोष है उससे हम मुक्ति की ओर नहीं जाना चाहते। हम संकुचित होते जाना चाहते हैं, संतोषित होते जाना चाहते हैं। हम जब उदासी के परिसर में होते हैं तो वह हमारे ऊपर किसी तानाशाह की तरह होती है। हम वही करने लगते हैं जो वह चाहती है। आप सोचिए तो पाएंगे कि उदासी के माहौल में आप ऐसी ही चीजें देखना-पढ़ना-सुनना चाहने लगते हैं, जो उसी के मिजाज की हो। इसीलिए, डॉक्टरों ने कहा कि उदास महसूस कर रहे हो तो हंसी-खुशी वाली चीजें देखो। उदासी से बाहर आने का यही तरीका है। उन्हें उदासी से कोई दुश्मनी नहीं है बल्कि वह आपको उदासी का दास बनने की अवस्था में फंसने से बचाने की कोशिश करते हैं।

निर्मल वर्मा इसीलिए उदासी के वक्त ज्यादा समझ आते हैं क्योंकि उनके साहित्य में किसी उदासमना के अनुकूल भरपूर बातें मिलेंगी। वह कई बार इस स्थिति से निकलने के बारे में भी बात करते हैं लेकिन यह बात समझने के लिए आपको उस स्थिति में होना भी तो पड़ेगा। अपने एक उपन्यास में वह लिखते हैं, 'इस दुनिया में कितनी दुनियाएँ ख़ाली पड़ी रहती हैं, जबकि लोग ग़लत जगह पर रहकर सारी ज़िंदगी गँवा देते हैं।'

गइया की दुनिया की कितनी जगहें सच में खाली थीं लेकिन वह उन जगहों को देख नहीं सकती थी क्योंकि स्वतंत्रता की उसकी कल्पना में पगहे से छूट जाना और गांव के अंतिम छोर के खेत तक घास चर आने से ज्यादा कुछ नहीं था। हमारी स्वतंत्रता का परिसर गइया से थोड़ा ज्यादा है इसलिए हमारे लिए पगहे से बंधी वह करुणा की पात्र बन जाती है जबकि हम खुद भी किसी दूसरे तरह के पगहे से बंधे हैं।

जीवन की गइया-गति
हम ठीक से देखें तो अपने जीवन की गइया-गति को भी ढूंढ सकते हैं। स्वतंत्रता की जो कल्पना हमारे मन में है, जिसको हम छूना चाहते हैं, जहां से लौटकर हम उसके सुंदर स्वप्नों के आनन्द में खो जाते हैं, क्या वह बस उतनी सी ही है? क्या हम अपने पगहे की पीड़ा को भूलकर बार-बार अवसरों की पुकार से मुंह नहीं मोड़ लेते और लौट नहीं आते उस मड़ई की ओर जहां जीवन के सुचारु संचालन की बेहतर व्यवस्थाएं हैं लेकिन आज़ादी नहीं है? पगहा है, खूंटा है, सांझ जैसी पसरी उदासी है और आंखों के नीचे आंसुओं के दाग!

मुझे ऐसा लगता है कि आज़ादी अभी भी कुछ वो है जिससे हमारी कल्पना का भी सम्पर्क नहीं है और कोई तो है जो इस चीज को देख रहा है लेकिन वह भी संप्रेषण के भाषायी व्यवधान के आगे विवश है। वह भी हमारे पास आकर हमारे कान में यह रहस्य नहीं बता सकता कि तुम्हारी आजादी तुम्हारे आकलन, तुम्हारी कल्पना से कहीं बड़ी है। जैसे ही पगहा छूटे, भाग जाओ और कभी वापस न आओ क्योंकि स्वतंत्रता दो जून के भूसे-चोकर की नियमित व्यवस्था के आश्वासन से कहीं ज्यादा श्रेष्ठ और सुंदर है।

Wednesday, 22 January 2020

लखनऊ के 'शाहीन बाग' में

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स्मार्टफोन नहीं था, सो फोटो नहीं ले पाए। यह फोटो ट्विटर से साभार

"मुझको जालिम का तरफदार नहीं लिख सकते।
कम से कम वो मुझे लाचार नहीं लिख सकते।।
जान हथेली पर लिए बोल रहा हूँ जो सच।
उसको इस देश के अखबार नहीं लिख सकते।"

राजधानी लखनऊ के हुसैनाबाद इलाके के घंटाघर कैंपस में रस्सियों से घेरे गए परिसर में सैकड़ों महिलाएं नागरिकता संशोधन ऐक्ट के खिलाफ प्रदर्शन कर रही थीं और उसके बगल में एक छोटे से परिसर में एक दादाजी और उनके साथ आफताब आलम बैठे थे। ऊपर जो शेर लिखा गया है, आलम वही दादाजी को सुना रहे थे, जब मैं उनके पास रुक गया और वहीं जमीन पर उनके साथ बैठ गया। दादाजी मेरी ओर देखकर मुस्कुराए और पूछा कि क्या मैं प्रोटेस्ट में हिस्सा लेने आया हूं। मैंने कहा, यही मान लीजिए और यह कहते हुए मैंने मेरी ओर बढ़ाए उनके हाथ को अपने हाथों में थाम लिया।

मैंने दोनों से बातचीत शुरू करने के लिए मजाकिया लहजे में सवाल किया, 'आप लोग अलग से प्रोटेस्ट कर रहे हैं क्या?' दोनों हंसने लगे। फिर दादाजी बोले, हां, ऐसा ही समझ लो। प्रदर्शनस्थल पर हमे तो जाने नहीं देंगे। पता नहीं कौन-सी धारा लगाकर ये पुलिसवाले जेल में डाल दें, इसलिए हम यहीं बाहर बैठे हैं। आलम ने बताया कि उन्होंने चाचा को यहां बैठे देखा तो वह भी उनके पास आकर बैठ गए। दोनों काफी देर से बातें कर रहे होंगे। उनकी बातचीत में शामिल होते हुए मैंने कहा कि काफी लोग जुट गए हैं तो मेरी बात काटकर आलम बोले, अरे अभी तो और भीड़ होगी।

रात के 8-9 बजे के बाद संख्या दोगुनी के लगभग होने का दावा करते हुए आलम बोले, 'कई महिलाएं ऐसी हैं जो काम पर जाती हैं। वह अभी नहीं आ पाई हैं। कुछ ऐसी हैं जो वापस चली गई हैं और घर में बच्चों और परिवार के लिए खाना बनाकर वापस लौटेंगी।' उन्होंने ही बताया कि रात के 8-9 बजे के बाद यहां हर धर्म के लोग दिखेंगे। आलम बोले, 'अभी सिर्फ मुस्लिम महिलाएं ही दिख रही हैं। रात होने तक यहां काफी मात्रा में गैर-मुस्लिम लोग भी जुटेंगे।' वह आगे बोले, 'यह लड़ाई केवल मुसलमानों की थोड़ी है। अभी मुस्लिमों की बारी है। इसके बाद ये लोग (केंद्र सरकार) दलितों पर टूटेंगे और फिर धीरे-धीरे सबका नंबर आएगा। यह किसी को नहीं छोड़ेंगे। बचेंगे तो सिर्फ उनके अंधभक्त।'

मीडिया पर गुस्सा
यह सब बोलते हुए आलम काफी उग्र हो गए। थोड़ी देर चुप्पी रही और फिर दादाजी हमारी ओर मुखातिब हुए और बोले, 'बेटा, मोहम्डन हो?' मैं कुछ देर शांत रहा फिर बोला, 'मेरा नाम राघवेंद्र है।' दादाजी आलम की ओर देखकर खुशी से मुस्कुराए और बोले कि देखो, 'जो गलत है उसके खिलाफ सब लोग आएंगे।' मुझे अब जाकर अंदाजा हुआ था कि आलम के अलावा दादाजी भी मुसलमान हैं। मैंने उनसे पूछा कि आप रोज यहां आते हैं। वह बोले, 'हां। मैं यहां बैठता हूं और मेरी बहू वहां ( प्रदर्शनस्थल की ओर इशारा करते हुए)।' उन्होंने बताया कि वह कल भी यहां आई थी और आज भी आई है। मुझसे मेरे काम के बारे में पूछा गया तो मैंने कहा, 'पत्रकार हूं।' इस पर दोनों ने एक-दूसरे की ओर देखा और उनकी आवाज में थोड़ा और तेज आ गया।

आलम बोले, 'आप हम लोगों की बात छापेंगे?' हमने उन्हें आश्वासन देते हुए कहा कि अगर हमें छापना होगा तो हम उसके साथ वैसा नहीं करेंगे जैसा आप अभी मीडिया को लेकर सोच-बोल रहे थे। आलम जैसे फट पड़े। बोले, 'मीडिया पर भरोसा नहीं किया जा सकता। मीडिया को नरेंद्र मोदी ने खरीद लिया है। सब उन्हीं की बातें फैला रहे हैं। जी न्यूज-आज तक, हर जगह हमारे आंदोलन को बदनाम किया जा रहा है।' उनकी इस बात पर दादाजी ने हामी भरी तो मुझे वहीं की एक घटना याद आ गई। मैंने उन्हें भी सुनाया।

'मैं घास हूं'
जहां महिलाएं प्रदर्शन कर रही हैं, उसी बाड़े में तीन लोग वीलचेयर पर बैठे थे। इनमें दो पुरुष और एक महिला शामिल थी। महिला ने अपने हाथ में एक पोस्टर लिया था, जिस पर लिखा था, 'मैं घास हूं, आपके हर किए-धरे पर उग आऊंगा।' उसके नीचे लिखा था, 'पाश'। मैंने उनके पास जाकर पूछा कि आपने पाश की कविता लिखी है तो आप पाश को जानती होंगी। वह मुस्कुराने लगीं और अपने बगल में बैठे मोहम्मद (नाम पूछा था लेकिन याद नहीं रहा, इसलिए काल्पनिक) की ओर इशारा कर बोलीं, 'इन्होंने इस पोस्टर को बनाया है और वह मेरे पति हैं।' इतने में मोहम्मद बोल पड़े कि हां अच्छी तरह से जानता हूं पाश को।

मैंने पूछा कि आपको साहित्य में रूचि है? वह जवाब देते कि वहां एक युवती आई और उसने मुझसे पूछा कि आप मीडिया से हैं? उसके गले में वॉलंटियर का कार्ड टंगा था। मैं वहां रिपोर्टिंग के लिए नहीं गया था लेकिन वहां थोड़ी देर रुकने के लिए मेरा मीडियावाला होना जरूरी था, ,सो मैंने कह दिया कि हां, नवभारत टाइम्स से हूं। फिर युवती वहां से चली गई। अब जब मैं मोहम्मद से मुखातिब हुआ तो वह मीडिया को लेकर काफी उग्र थे। बोले कि मीडिया वाले हमको बदनाम करना चाहते हैं। मैंने जानना चाहा कि क्या हुआ तो वह बगल में वीलचेयर पर बैठे दिव्यांग सज्जन की ओर इशारा करते हुए बोले कि यह भाई साहब कुछ देर पहले उनके पास यह पूछने के लिए आए थे कि जिस बैटरी वाले वीलचेयर पर उनकी पत्नी बैठी हैं, वह कहां और कितने में मिलता है?

मोहम्मद ने बताया कि इतने में एक टीवी रिपोर्टर वहां आया और दिव्यांग शख्स से पूछने लगा कि आप किसलिए प्रोटेस्ट कर रहे हैं और आप सीएए के बारे में क्या जानते हैं? उन्होंने जब इस पर जानकारी न होने की बात बताई तो रिपोर्टर ने उन पर लांछन लगाना शुरू कर दिया। उसने कहा कि इन लोगों को पैसे देकर प्रोटेस्ट के लिए लाया गया है। इन्हें यह भी नहीं पता कि यह जिसके लिए प्रोटेस्ट कर रहे हैं वह क्या है? मोहम्मद यह बताते हुए काफी क्रोधित हो गए। उन्होंने बताया कि इसके बाद वह लगभग चिल्लाते हुए रिपोर्टर से बोले कि जो भी जानना चाहते हो, हमसे पूछो। हम बताएंगे। इस पर भी वह रिपोर्टर बिना सवाल पूछे वहां से चला गया।

क्रोधित मोहम्मद बोले कि वह अब मीडिया वालों पर बिल्कुल भरोसा नहीं कर सकते। उन्होंने कहा कि वह अब किसी मीडिया वाले को इंटरव्यू नहीं देंगे। चार दिन से कई मीडियाकर्मियों ने उनका इंटरव्यू लिया लेकिन वह उन्हें कहीं पर भी दिखा नहीं। हालांकि, उन्होंने यह भी कहा कि केवल रवीश कुमार अगर उनसे बात करना चाहेंगे तब वह उनसे बात करेंगे क्योंकि वह निष्पक्ष हैं। यह घटना सुनकर आलम मीडिया पर और क्रोधित हो गए और मुझे बाकी मीडिया से (न जाने क्यों) अलगाते हुए बोले कि लोग केवल आंदोलन को बदनाम करना चाहते हैं।

'चोर' पुलिस
आलम पुलिस के रवैये से भी दुखी थे। वह बोले कि पुलिस चोरों जैसा बर्ताव कर रही है। परसो, उसने रात में प्रदर्शनस्थल पर जल रहे अलाव पर पानी डाल दिया। महिलाओं का कंबल छीनकर ले भागे। सुनने में आया कि पास के सुलभ शौचालय में ताला भी लगवा दिया। उन्होंने कहा कि पुलिस बिल्कुल गुंडो जैसा बर्ताव कर रही है। बीते दिनों के प्रदर्शन की याद दिलाते हुए आलम बोले कि योगीजी ने कहा कि पुलिस ने गोली नहीं चलाई जबकि विडियो में साफ दिखा कि पुलिस ने गोली चलाई। दादाजी ने मुझसे पूछा कि क्या लगता है कि इन सबका क्या हासिल होगा?

मैंने उनसे कहा कि अभी तो सरकार अपने फैसले पर अड़ी हुई है। कल (मंगलवार को) अमित शाह ने लखनऊ में ही कहा था कि चाहे जितना विरोध हो वह कानून को वापस नहीं लेंगे। इस पर आलम बिफर उठे। बोले, 'कैसे नहीं लेंगे वापस। उन्हें वापस लेना पड़ेगा। इतने लोग विरोध कर रहे हैं।' आलम बोले, 'अमित शाह-नरेंद्र मोदी झूठे हैं।' नरेंद्र मोदी पर तंज कसते हुए उन्होंने कहा कि प्रधानमंत्री को भी नहीं पता है कि वह देश में एनआरसी लागू करने की योजना बना रहे हैं? आखिर, बिना उनसे पूछे यह योजना कैसे बन सकती थी? ये लोग केवल मुसलमानों को निशाना बना रहे हैं।

लंबी बातचीत के बाद मैं वहां से जाने को हुआ तो दादाजी ने मुस्कुराते हुए हाथ मिलाया और बोले कि आपसे मिलकर बहुत खुशी हुई। मैंने भी 'मुझे भी' कहकर वहां से विदा ली। आगे बढ़ने पर रैमॉन मैग्सेसे पुरस्कार विजेता संदीप पांडेय चरखा कातते दिखे। सफेद कुर्ता-पायजामे में संदीप चरखे पर सूत कात रहे थे और उन्हें कुछ मीडिया वालों ने घेर रखा था। वह केंद्र सरकार के बारे में बोल रहे थे और केंद्र सरकार के रवैये की तुलना अंग्रेजी सरकार से कर रहे थे। संदीप ने कहा कि बीजेपी सरकार के लोग अंग्रेजी हुकूमत की तरह बर्ताव इसलिए कर रहे हैं क्योंकि आजादी के आंदोलन में इनकी कोई भूमिका नहीं थी।

पांडेय सीएए को लेकर बोले कि अमित शाह ने बहुमत के बल पर नागरिकता संशोधन कानून भले ही संसद से पास करा लिया लेकिन उन्हें यह भी ध्यान देना चाहिए कि उन्हें केवल 37 फीसदी वोट ही मिले हैं जबकि लोकतंत्र 100 प्रतिशत लोगों को साथ लेकर चलने का नाम है। इतने व्यापक विरोध के बाद भी सीएए पर अपने रुख पर अडिग शाह की उन्होंने जमकर आलोचना की। प्रदर्शनस्थल को लगातार स्थानीय और बाहरी लोगों ने भी घेर रखा था। सब अपने-अपने हिसाब से इस ज्वलंत मुद्दे पर बात कर रहे थे।

विरोध की काली नदी
कुछ देर वहां रहने के बाद मैं प्रदर्शन परिसर से बाहर निकल आया। महिलाओं के बीच वालंटियर खाने-पीने के सामान बांटने लगे थे। लड़कियां लगातार छोटे माइक्रोफोन पर लोगों से बैठने की अपील कर रही थीं। इस दौरान बुर्का पहने प्रदर्शनकारी महिलाएं विरोध की काली नदी की तरह लग रही थीं। जिनमें छोटे-छोटे समूहों के तीन-चार टापू भी थे।

कई लड़कियों ने हाथ में तिरंगा थाम रखा था। कई ने हाथ में तख्तियां ले रखी थीं, जिस पर सांप्रदायिक सद्भावना और सर्वधर्म बंधुत्व के संदेश लिखे थे, जिस पर संविधान की प्रस्तावना लिखी थी, जिस पर संविधान का चित्र बना था, जिस पर लिखा था, 'तानाशाह आएंगे-जाएंगे लेकिन हम कागज नहीं दिखाएंगे।' सामने सबसे आगे, मंच के नजदीक, परिसर के सबसे अंतिम छोर पर और दाहिने छोर पर भी कुछ महिलाओं का हुजूम था, जो लगातार नारेबाजी कर रहा था।

मैं वापस गोमतीनगर की ओर लौट रहा था और पीछे किसी बैकग्राउंड म्यूजिक की तरह गगनचुंबी नारों का अवरोही स्वर मुझे विदाई दे रहा था। चारों तरफ जेएनयू गूंज रहा था। मेरे कानों में अब भी वे स्वर वैसे ही बज रहे हैं। लड़कियों का-महिलाओं का सम्मिलित स्वरः 'हमें चाहिए आजादी', 'हम लेके रहेंगे आजादी', 'है हक हमारा आजादी', 'लाठी बरसा लो', (आजादी) 'तुम डंडे मारो (आजादी)' 'हम नहीं हटेंगे (आजादी)' हम लेके रहेंगे...

Tuesday, 31 December 2019

कविताः नया साल

नया साल है तो नए हाल के स्वप्न-
के पास स्तुति की भाषाएँ तो हैं।
मुझे है पता तुम नए तो नहीं हो
मगर जो भी हो तुमसे आशाएँ तो हैं।

वही सूर्य जो आज डूबा, उगेगा,
वही वायु चलती रहेगी निशा भर,
वही एक मेरा उदासी भरा गीत
कल भी विकल ही रहेगा तृषा भर।

वही चीख़ होगी, वही शोर होगा
वही रात ओढ़े हुए भोर होगा
सवालात होंगे, हवालात होंगे
बिना बात के फिर वबालात होंगे।

ज़रा और गर्मी बढ़ेगी धरा की
ज़रा और कॉलर चढ़ेगा गुमाँ का।
ज़रा और धरती धँसेगी नए साल
ज़रा शीश तन जाएगा आसमाँ का।

वही प्रार्थनाएँ भटकतीं गगन में
वही बहरे ईश्वर की सत्ताएँ होंगी।
वही सब पुकारों की प्रतिध्वनि मिलेगी
वही काम भर की महत्ताएँ होंगी।

वही दौर बदले हुए पैरहन फिर
उसी रास्ते से चला जाएगा ही,
नियति की उदासी का दीया नया फिर
निकलते-निकलते जला जाएगा ही।

तो क्या है नया कि नया साल आए?
तुम आओ, कि आना तो यूँ भी है तुमको,
लिखे हैं गए पृष्ठ पर जो तुम्हारे
वो सब कुछ सुनाना तो यूँ भी है तुमको।

भला हाथ में है क्या मेरे कि रोकूँ!
अगर रोक सकता तो स्वागत भी करता।
पुराना सभी ध्वस्त हो लेता पहले
नया फिर जो आता तो यूँ न अखरता।

विवश है बनाता तेरा आगमन कि
मैं द्वार खोलूँ ही, स्वागत करूँ ही।
अभी क्या नए की ज़रूरत, बताओ?
पुराने को कैसे मैं निर्गत करूँ ही।

तुम आओ कि सब (शेष मैं) हैं ख़ुशी में
सराबोर, तुमको नया जान कर ही।
तुम आओ कि अब तो निकल ही चुके हो
पुनः आगमन की पुनः ठान कर ही।

तुम आओ चलो, मान्यता है मेरी भी
नया ही कहूँगा तुम्हारा ये आना।
नए साल हो तुम तो कुछ तो है तुममें
तुम्हारी नवलता को भी मैंने माना।

तुम आओ कि तुम आ भी सकते हो, जा भी
ठहर तो नहीं जाओगे आह बनकर,
तुम आओ कि हम भी चलें साथ, साथी!
कहीं तो दबे पाँव हमराह बनकर।

Thursday, 26 December 2019

पहले तुम बताओ

साभार इंटरनेट
कौन हो तुम!
रहनुमाई के मेरे उम्मीदवारों?
कौन हो तुम
देश का अपने
मुझे कह, मुझपे कृत्रिम भावनाएं लादने वालों?
तुम बताओ
कौन हो तुम?
'मेरे तुम!'
'हमारे तुम!'
मुझसे कब पूछा कि
हो सकता तुम्हारा हूँ?

तुमने मुझको कब कराया
है कोई अनुभव
कि तुम हो मानते अस्तित्व मेरा है जरा भी?
मौन मेरा, विश्व!
तुमने वाक्य माना ही नहीं,
यह तुम्हारी राज्यवादी लालसा है
या मेरी स्वच्छन्दता का अपहरण!
तुम बताओ
मैं तुम्हारे देश के भूगोल में
उग गया तो क्या मेरा यह था चयन?

तुम बताओ
क्या तुम्हारी मांग का उत्पाद हूँ मैं?
तुम बताओ
ये जो सीमाएं बनाई हैं सभी ने घेरकर
धरती के काग़ज़ पर
तो इसकी अनुमति ली थी
कि मेरे भाग की धरती को भी
अपने में शामिल कर लिया तुमने?
मेरे हिस्से के पानी-फूल-सूरज-वायु-नदियां-पेड़-पौधे
कब बताओ मैंने तुमको
राज्य में अपने मिलाने को कहा था?

मेरी रातें-दिन-दोपहरी-शाम की चर्या
तुम्हारी नीतियों से तय न होगी,
यह भी तुमने था सुना क्या?
तुमने क्यों बांधा मेरी आँखों को
कुछ रंगों के परचम से?

तुम बताओ
तुम जिसे अपनी जमीं-अपना वतन कह
गर्व से फूले नहीं समाते
उसमें कितनों के निजी राष्ट्रीय
स्वाभिमान के धड़ से अलग हैं शीश?
तुम बताओ विश्व में,
यह जो तुम्हारा विश्व है, उसमें
मेरे देश का अस्तित्व क्या है?
इसमें मेरे देश का भूगोल क्या है?
तुम बताओ
इसमें मेरा देश
मेरा 'मैं' कहाँ है?

तुम बताओ
मैंने तुम्हारे 'देश' को अपना बनाने के लिए
कब कहा था?
या कहा भी था तो वह काग़ज़ कहाँ है?
पहले
तुम
यह
बताओ?

Tuesday, 10 December 2019

सिर्फ वही जीता

"सिर्फ वही जीता जो हारा"

एक स्पीड ब्रेकर जैसी यह पंक्ति कुछ देर रोक तो देती ही है कि एक बार और पढ़ो। सिर्फ वही जीता। जो हारा। कवि के कहन के मूल में शायद प्रेम की महत्ता पर ज्यादा जोर है। जीत मतलब विराम। विराम मतलब पूर्णता। पूर्णता मतलब संतुष्टि। संतुष्टि मतलब मोक्ष। मोक्ष मतलब मुक्ति। इस तरह जीत का अर्थ मुक्ति तक पहुंच रहा है। प्रेम तक नहीं। कवि का जोर प्रेम पर है। लक्ष्य से प्रेम। जो जीता वह तो पूर्णकाम हो गया। संतुष्ट हो गया और संतुष्टि में प्रेम का जीवन नहीं है। जैसे, विकास के शिखर पर फूल के मुरझाने की शुरुआत हो जाती है। वैसे ही, प्रेम की पूर्णता में उसके पतन की आधारशिला हो सकती है।

जो हारा, वह इस पूर्णता से वंचित रह गया। वह अपने अभाव के साथ अभी जीवित है। वह अभी सरस प्रेम की संभावनाशीलता में जीवित है। वह प्रेमोन्मुख है। अपने लक्ष्य के प्रेम में। शायद इसलिए वही जीत गया है। क्योंकि, उसकी हार में एक अभाव की जीत है। यह अभाव भावना की सबसे सुंदर मूर्ति प्रेम में प्राण भरता है। वह हारकर भी इसीलिए जीत गया।

थोड़ा दूसरी दृष्टि से भी देखते हैं। आप प्रेमियों का इतिहास उठाकर देखिए। विजेताओं का इतिहास नहीं, इतिहास के विजेताओं को देखिए। आप देखेंगे तो पाएंगे कि सभी विजेता दरअसल जीते हुए लोग नहीं हैं। वे सब हारे हुए हैं। अशोक की जीत-हार के अर्थ पर आज भी विवाद है। यह विवाद न हो अगर मान लिया जाए कि प्रेम की आधारभूमि पर उसकी समस्त जीत दुनिया की सबसे बड़ी हार है।

बड़े विजेता हुए कृष्ण। विजेताओं के इतिहास में भी वह दर्ज हैं लेकिन उल्लेखनीय वह इसलिए भी हैं क्योंकि वह इतिहास के विजेताओं में भी शामिल हैं। उनके जीवन की अपूर्णता और उनकी हार युगों बाद भी भावना की पराकाष्ठा के दृष्टान्त के रूप में याद की जाती है। क्या वह हारे? यीशु संसार के सबसे बड़े पराजितों में गिने जाते हैं। उन्हें उनके दौर के कथित विजेताओं ने सूली पर चढ़ा दिया। सुकरात को उनके दौर के शाहों ने ज़हर पिला दिया। मीरा को भी लोगों ने ज़हर दे दिया। इन लोगों ने अपने जीवन के लक्ष्यों से मुलाकात नहीं की थी। वह अपूर्ण मरे थे। हारे हुए-से लेकिन क्या वह हारे?

हम सोचें कि क्या इनकी असफलताओं को हार कहेंगे? क्या एक फूल के पौधे को उखाड़कर दावा किया जा सकता है कि उस पुष्प की नस्ल ख़त्म कर दी गई? नहीं। थोड़ी देर के लिए लोगों को अंदेशा हो सकता है कि ऐसा हुआ लेकिन उखड़े हुए पौधों के फूल सूखते हैं, झरते हैं और बीज बनकर फिर उग जाते हैं। उनमें सृजनशीलता होती है। भगत सिंह को कौन विजेता कहेगा? सांसारिक हार-जीत के मानकों पर तो वह पराजित योद्धा ही हैं लेकिन क्या ऐसा है? भगत सिंह से बड़ा विजेता क्या स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में कोई है? गांधी भी नहीं हैं। इतिहास कहेगा कि गांधी ने स्वतंत्रता आंदोलन जीत लिया। वह विजेता हैं लेकिन यह बात केवल गांधी ही जानते थे कि वह कितने बड़े पराजेता थे।

इस तरह सभी हारे हुए लोग मूलतः प्रेमी रहे और प्रेम में हारे हुए लोगों की हार बंजर नहीं रही। वह उपजाऊ रही। सृजनशील रही। उसने विजय की कोई ज़मीन नहीं जीती, उसने अपनी जमीन पर जीत को उगाया। दुनिया ने समझा कि वे हारे लेकिन असल में सिर्फ वही जीते। यही इस दुनिया का मर्म है। यही शायद इस पंक्ति का मर्म है।
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(सन्दर्भ) कविता

बटोही, तेरी प्यास अमोल,
तेरी प्यास अमोल !
नदियों के तट पर तू अपने
प्यासे अधर न खोल,
बटोही, तेरी प्यास अमोल !

जो कुछ तुझे मिला वह सारा
नाखूनों पर ठहरा पारा,
मर्म समझ ले इस दुनिया का
सिर्फ़ वही जीता जो हारा ।

सागर के घर से दो आँसू-
का मिलना क्या मोल ।

जल की गोद रहा जीवन भर
जैसे पात हरे पुरइन के
प्यास निगोड़ी जादूगरनी
जल से बुझे न जाए अगिन से ।

जल में आग आग में पानी
और न ज़्यादा घोल !
बटोही, तेरी प्यास अमोल,
तेरी प्यास अमोल!

(शतदल)

Sunday, 8 December 2019

भागिए क्योंकि आप 'भाग प्रधान' देश में रहते हैं


भागना सीखो। भागना नहीं जानते तो कुछ नहीं जानते। यह देश बनाया है हमने कि यहाँ भागना नहीं आया तो भोगते फिरोगे। चाहे जो करो। अच्छा-बुरा, ग़लत-सलत लेकिन मुद्रा ऐसी रहे कि भागने को तैयार हो। जैसे ही कोई असंगत संकेत हो भाग निकलो। यह ध्यान रखते हुए कि समय रहते भाग नहीं लिए तो भोगना पड़ेगा। भागने और भोगने का यह अंतर बस इतना ही है। सैकंड-दो सैकंड भर में लिए गए फैसले भर का।

भागने के लिए ज़रूरी नहीं है कि पैर हो या पैर गतिमान हो। एक जगह बैठे-बैठे भी भागा जा सकता है। एक झटके में अपने सहनागरिक, सहग्रामीण, सहपाठी और सहकर्मी के पाले से। एक फैसले भर में झट से काफी दूर भाग सकते हैं। नहीं भागोगे तो भोगोगे। वह सब कुछ जो तुम्हे अभी नहीं भोगना है। दो-चार दिन की तो राहत मिलेगी भाग लेने में तो क्यों न भाग लो।

भागने में दिव्यांगता की भी अपनी भूमिका है। पैरों में हो तो नहीं भाग सकते। ज़ेहन में हो तो उसेन बोल्ट से भी तेज भाग सकते हैं। ऐसे लोग भागते भी वैसे ही हैं। उन्हें बस एक कदम बढ़ाना होता है। फिर तो उन्हें लहर भगा ले जाती है। बिना शक्ति खर्च किये वह ऐसे लोगों से दूर भाग लेते हैं जो भोगने के विकल्प पर सर फोड़ रहे होते हैं। फिर वह उनकी खोपड़ी पर नाच रहे होते हैं। ऐसे भागे हुए लोग एक वक्त के बाद भूल जाते हैं कि भागना कैसे है? या ऐसा हो जाता है कि इनके पांव खींच लिए जाते हैं या फिर इनके नीचे की ज़मीन तोड़ दी जाती है। फिर उन्हें भागने का स्वप्न आता है। हर रोज एक स्वप्न। ऐसे लोग जब खुद भाग नहीं पाते तब भगाने वाले गिरोह में शामिल हो जाते हैं।

भागना कई प्रकार का होता है। छप्पन इंच का सीना लेकर भागने का अपना गौरव होता है। यह राष्ट्रहित में होता है और इसे राष्ट्रीय भाग भी कहा जा सकता है। यह बारम्बार भाग क्रिया होती है। इसमें भागने वाला मधुमक्खी के छत्ते पर बाण मारता है। फिर कुछ देर देखता है। जैसे ही मधुमक्खियों का दल परेड शुरू करता है, धनुर्धर भाग लेता है। फिर वह सीधे जापान या अमेरिका जाकर ही रुकता है। इधर सबके गाल तब तक फूल जाते हैं और जब वह लौटता है तब कोई कुछ बोलने की स्थिति में नहीं रहता।

परिस्थिति चाहे जो कुछ भी हो, मजे राजकुमारों के ही होते हैं। उन्हें क्या पड़ी है कि राजा कौन बने। थोड़ा-बहुत शस्त्र हिलाते-डुलाते हैं फिर थाईलैंड भाग जाते हैं। यह भागने की एकदम नई और अलग विधा है। इसमें आपके पांवों को भी पता नहीं चलता कि आप भागकर कहाँ गए हैं। फिर आप लौटते हैं और भागने की अगली तारीख तक किसी न किसी अभिनय में लग जाते हैं। इससे भी अद्भुत भाग तो स्टूडियो में होती है। वहां एक ही मालिक के बिस्कुट के लिए कई लोग भागते हैं। हड्डी नहीं कहूंगा क्योंकि शाकाहारी हूँ।

एक भाग तो वह भी भागा था। हालांकि, उसे भागना आता नहीं था। वह अपने जीवन की तरह, गेहूं के बीज की तरह धीरे-धीरे का अभ्यासी था। चलता-चलता कहीं न कहीं पहुँच जाने वाले पथिक की तरह। फिर एक दिन भाग गया। जीवन से ही भाग गया। भागना नहीं आता था लेकिन जब पीछे हंटर लगा हो तो बैल हो कि घोड़ा हो कि आदमी। अपने आप भागने लगता है। उसे तो भागने के लिए 32 हज़ार वर्गकिमी क्षेत्रफल की जमीन भी कम पड़ी। सो आकाश की ओर भाग गया। बोला, भय की सीमा से बाहर आने के बाद आकाश ही बचता है। सो उधर ही भागा।

फिर एक राष्ट्रीय स्तर का अंतरष्ट्रीय भाग भी होता है। यह पहली बार तब देखा गया था जब वह शाही मछुआरा कई लोगों का भाग लेकर भागा था। उसे भी तो लगा कि अब भाग जाना उचित है। उसे पूर्वाभास हो गया था कि लोग उसकी भागशक्ति छीन लेंगे। वह भी इसी देश का नागरिक था। भागना ही उसने भी सीखा था। बोला, इस देश की शिक्षा का इस्तेमाल करो। भाग लिया। उसके लिए धरती ने जगह दी। यहां धरतियों के पास झंडे होते हैं। ये झंडे बहुत से भगोड़ों को बचा लेते हैं। छिपा लेते हैं। उसने भी भागकर झंडा बदल लिया। हालांकि, उसे आकाश में नहीं भागना पड़ा। यह भी विचित्र रहा कि वह ज़मीन पर ही भागा और आकाश ने रास्ता दिया। पहले वाला जो आकाश में भागा उसे ज़मीन ने रास्ता दिखाया। यह भागने का अभियान था। सब अपनी-अपनी क्षमता, देशकाल के हिसाब से भागे।

वह पहली बार किसी राजनितिक विरोध प्रदर्शन के रिपोर्टिंग के लिए गई थी। वह धरना स्थल पर पहुंची। नेता से कहानी वाले प्रोफ़ेसर के लहजे में पूछा- नेताजी, आपको भाषण देना आता है। नेताजी बोले, ठीक-ठीक तो नहीं। वह बोली, अच्छा, आपको इस मुद्दे पर संविधान के प्रावधान के बारे में पता है? नेताजी बोले, बयान से खूब पलटे लेकिन कभी संविधान का पन्ना नहीं पलटा। वह बोली, अच्छा, यह जुटान किसलिए है, यह तो पता ही होगा! नेताजी लज्जित होने की मुद्रा में आते कि खाकी वाले आते दिखे। नेताजी झट्ट से उठे और रिपोर्टर से इतना ही पूछा, भागना आता है? इसके बाद जब उसने पलक उठाई तो किसी सरकारी अस्पताल में थी। बगल वाले मरीज ने कहा, आपको भागना आता तो यहाँ नहीं होतीं और हम भाग सकते तो यहां नहीं रहते।

यह भागने की महिमा है। भागने की यही महत्ता है इसलिए भागना सीखो। अपनी जिम्मेदारियों से भागो। कर्तव्यों से भागो। अपनी सच्चाई से भागो। अपने ईमानदारी से तीव्र प्रस्थान करो। भागने का युग भी तो है। दुनिया की दौड़ है। भागोगे नहीं तो रौंद दिए जाओगे। पहले भारत कृषि प्रधान देश था। अब भारत भाग प्रधान देश है। आने वाले दिनों में यह भाग्य प्रधान देश हो जाएगा। इसलिए जूते कस लीजिए। दिशा देख लीजिए। अब तय कर ही लीजिए। नहीं भागना चाहने का कोई विकल्प नहीं है। आप चाहें तो सवाल न कीजिए। विरोध न कीजिए। उंगली न उठाइये। चुप मारकर बैठ जाइए। लेकिन भाग आप तब भी रहे होंगे। कहीं न कहीं से। किसी न किसी से। भागिए और सम्पूर्ण भागिए क्योंकि आपका देश अब भाग प्रधान देश बन चुका है। भागेंगे नहीं तो भकोस लिए जाएंगे और भागते हुए रुकेंगे तो रौंद दिए जाएंगे।

नवभारत टाइम्स ऑनलाइन में

Sunday, 24 November 2019

माईः जीवन से स्मृति की ओर


'छोड़ देना' एक स्वतंत्र क्रिया नहीं है। छोड़ देने में कुछ पा लेने की क्रिया भी शामिल है। हम जब कुछ पा लेते हैं तो कुछ छोड़ देते हैं। या फिर ऐसे कह लें कि कुछ छोड़ देते हैं तो कुछ और मिल जाता है। यह 'और' कुछ भी हो सकता है। एक खालीपन भी। एक एकांत भी। एक नई दुनिया भी। एक नई मंजिल भी। कुछ भी न पाने की स्थिति नहीं होती है। मैं सोचता हूं कि माई (दादी) को ऐसा क्या मिला होगा जब उन्होंने एक मानवी की देह छोड़ी थी। क्या उनकी कल्पना के मुताबिक, उन्हें उनके अराध्य का सान्निध्य मिला होगा। या फिर उनकी ऊर्जा-चेतना को नए जड़-शरीर का निवास मिला होगा।

दोनों ही स्थितियां हो सकती हैं। यह भी हो सकता है कि उन्हें कुछ बेहतर मिला हो और ऐसा बेहतर मिला हो कि अपने पार्थिव शरीर को उन्होंने मुड़कर ही न देखा हो। हो सकता है कि वह यह कहते हुए तेजी से काल-पथ पर आगे बढ़ गई हों कि 'चलो, इस नरक से छुटकारा तो मिला।' यह भी हो सकता है कि उनकी चेतना कहीं और ठौर ढूंढने निकल गई हो। नए ठौर-ठिकाने को निकलने से पहले उन्होंने अपने घर को भरपूर नजर से देखा हो। अपना पूरा परिवार देखा हो, जिसे वह छोड़कर जा रही थीं।

एक-एक नातियों का नाम अपने होठों से उचारा हो। उनके चेहरे याद किए हों। भरी आंखों के धुंधले प्रकाश से अपने देवस्थान को नजर भर निहारा हो। अपने पुत्रों के माथे की शिकन देखी हो और फिर आंसू पोंछ लिए हों। दृष्टींद्रिय को छोड़कर आगे की ओर गतिमान उस गैर-शरीरी अस्तित्व को अपनी समस्त शक्ति के साथ अनिच्छा से अग्रसर किया हो।

वह याद भी कर रही हो सकती हैं, मुझे, जिसकी कोई बात उनके अवचेतन से उस दिन निकलना चाह रही थी जब मैं उनके सामने गया और वह तकरीबन बेहोशी की हालत में थीं। उनके शरीर का सोडियम बाधक हो गया। डॉक्टर ने बताया कि कम सोडियम की वजह से उनकी सेंसिबिलिटी पर बुरा असर पड़ा है। वह बातें भूल जाती हैं। मैं अब भी जानना चाहता हूं कि मेरी वह कौन सी बात थी, जो उन्हें ऐसी अवस्था में भी याद थी। उसके बाद से वह कुछ नहीं बोलीं मुझसे। मैं परेशान था। उनके ही साथ अचेत हो गया-सा। मुझे अपनी वे सारी संभावनाएं सच होती दिख रही थीं, जिन्हें लेकर मैं हमेशा भयभीत रहा करता था। हताश भी क्योंकि इतना ज्ञान तो था कि उन्हें एक दिन सच होना है।

वह सच हो गया। मेरे जीवन के सबसे बुरे माह नवंबर की 6 तारीख को। दादी का दिल बंद पड़ गया। इतना बड़ा दिल। साढ़े 8 दशक तक नेमतें बांटता रहा। आशीर्वाद देता रहा और अचानक एक दिन बंद हो गया। उन्हें वेंटिलेटर पर ले जाने की तैयारी थी लेकिन वह तो ऐसा हृदय था, जिसमें कुछ भी कृत्रिम नहीं था। उसे कृत्रिम यंत्र समझते भी कैसे? कृत्रिमता ने उसे कभी स्पर्श न किया था। उस दिन कैसे कर लेता। दादी का हृदय निस्पंद हो गया। लोगों ने कहा कि वह अब नहीं रहीं।

माई चली गईं। सदैव के लिए। हमारे बीच से। हमारे घर से। हमारे गाँव से। हमारे जीवन से? नहीं जा सकतीं जीवन से। मैं उन्हें ही जी रहा हूँ। अब मैं उन्हें और ज्यादा जीने की कोशिश करूंगा क्योंकि अब वह अपने आपको नहीं जी रही हैं। अब उनके हिस्से के जीने का दायित्व भी हम पर है। हम उन्हें और ज्यादा जीने की कोशिश करेंगे।

दादी का यूं तो हमारे जीवन से जुड़े फैसलों में कोई ख़ास हस्तक्षेप नहीं था। घर के मसले भी बिना उनकी राय-मशविरे के हल हो जाते थे लेकिन इससे घर में उनकी उपयोगिता रत्ती भर भी कम नहीं थी। वह घर में एक घर के होने की जरूरत से ज्यादा जरूरी थीं। हम सभी के लिए। बेटों के लिए। बहुओं के लिए। नातियों के लिए। वह 23 लोगों के परिवार का कोई केंद्र-वेंद्र नहीं थीं और वह केवल परिधि भी नहीं थीं। वह जो थीं, उसकी ठीक-ठीक उपमा कैसे दी जाए नहीं जानता। बस ऐसे समझें कि घर के हर हिस्से में थोड़ी-थोड़ी शामिल। ऐसे गुंथी हुई कि जैसे शरीर में नसें।

यह निश्चित रूप से एक कठिन समय है क्योंकि अभी तक दादी को और घर को अलग-अलग सोचा भी नहीं गया था। अब तो इसे जीना है। जाने कब-तक। घर उपस्थित है। दादी अनुपस्थित। रिक्तता का यह झन्नाटेदार सन्नाटा सहनशीलता को भेद ही देता है। मैं दादी के देहावसान के दो दिन बाद लखनऊ भाग आया। क्योंकि यह ऐसा पूर्वज्ञात संभाव्य सत्य था, जिसकी पीड़ा से केवल भागा जा सकता था। उससे लड़ा नहीं जा सकता। यह इतना विशाल था कि हिम्मत ही नहीं हुई।

लौटना सबसे सुकूनजनक क्रिया
केदारनाथ सिंह ने लिखा- 'जाना हिंदी की सबसे खौफनाक क्रिया है।' इसी तर्ज़ पर कहें कि 'लौटना हिंदी की सबसे सुकूनजनक क्रिया है।' हमें लगता है कि यह है। यह उन्हें ही लग भी सकता है, जिनके पास लौटने की कोई जगह न बची हो। दादी जब तक थीं, हम कभी घर नहीं लौटे। हम दादी में लौटते थे। माई के पास। वह घर के अंदर एक घर की तरह थीं। जैसे दुनिया के अंदर लोगों का एक घर होता है, जहाँ वह लौटते हैं। मेरे लिए घर लौटना दादी के पास जाना था।

लौटना व्यापक शब्द है। इसके अर्थ में अपने आप में लौटना भी शामिल है। अपनी पूर्वचेतना को पाने का मंच। दादी घर के अंदर घर-सी थीं। उनके पास होकर हम अपने आप में लौटते थे। अवसाद, उदासी और दुःख में आगे बढ़ आए हम अपनी सामान्य चेतना में लौटते थे। इस क्रूर दुनिया में वही तो थीं, जो सबसे ज्यादा सुरक्षित और स्नेहिल जगह थीं, जहाँ लौटकर नवजीवन मिलता था। किसी सुबह की तरह निर्मल, नवा और सुंदर जीवन।

प्रेम-स्नेह-मोह
प्रेम-स्नेह मोह से अलग परिस्थिति है। एक आदर्श परिस्थिति की तरह उसे देखा जाता है। उससे बाहर भी आया जा सकता है लेकिन मोह से बाहर नहीं आ सकते। मोह को इसीलिए नकारात्मकता में लिया गया। दादी की सालों की साधना इसी बात की थी कि मोह पर विजय पा ली जाए। लेकिन वह किसी दलदल की तरह इसमें धंसती गईं। पहले अपने दादाजी का मोह था। फिर पिताजी का मोह और उसके बाद दो छोटे भाइयों का। फिर इस मोह की सतह पर पुराने लोग नीचे चले गए और नए किरदार आए। इनमें उनके बेटे रहे और सबसे अंत में नाती।

दादी को अक्सर लोगों से यह कहते सुना कि उन्हें अपने बेटों से ज्यादा अब अपने नातियों का मोह होता है। यह कहते हुए हर बार उनकी आंखे भर आती थीं। इससे लगता है कि वह हर दिन जाने को तैयार थीं। उन्हें इस बात का डर नहीं था कि जाना है बल्कि दुख था, कि कितने लोगों को छोड़कर जाना है। मैं अंतिम समय में उनके साथ था। मुझे तब भी उनके चेहरे पर कहीं डर नहीं दिखा। अद्भुत सहनशीलता से उन्होंने अपनी पीड़ाएं छिपा ली थीं। जिसे न हम समझ पा रहे थे, न परिवार और न ही डॉक्टर।

अचेतावस्था में भी उन्हें लगता है कि उनका भगवान अन्य प्राणियों की तरह उनसे छल कर सकता है। उनके स्मरण में, उनकी वाणी पर और उनके अंतर्मन में अपने आप को आने नहीं देगा। उन्होंने कहा, 'हमहीं के बुर्बक बूझत हवें? हम उनसे होशियार हईं।' दादी ने शायद इसी वजह से दशकों की साधना से अपने अराध्य छलिया को अपने अवचेतन में बसा रखा था। कि अंत समय में ज्यादा से ज्यादा क्या करोगे? चेतनाशून्य कर दोगे। अवचेतन तो फिर भी रहेगा न। उनकी साधना निष्फल नहीं थी। अपने अंतिम वक्त में उनके मुंह से जो भी उच्चरित हो रहा था, वह प्रेम-भक्ति-श्रद्धा और साधना की पराकाष्ठा से ही संभव था।

वह लगातार देव मंत्र पढ़े जा रही थीं। सुंदरकांड की चौपाइयां। गीता के गीत। भर्तृहरि की कथाएं सुनाए जा रही थीं। परीक्षित की, सुतीक्षीण की कहानियां बताए जा रही थीं। यह फर्क नहीं पड़ता कि कोई उनके पास है या नहीं? कोई उन्हें सुन रहा है या नहीं! उस वक़्त वह आदर्श कथाओं के किसी रेडियोऐक्टिव पदार्थ की तरह हो गई थीं। उनसे वह सब कुछ विकिरित हो रहा था जो उन्होंने जीवन भर अर्जित किया था। वह अपने ईश्वर को ही उसकी कथाएं सुनाने लगी थीं।

माई का स्वगत
माई का व्यक्तिगत जीवन बहुत उथल-पुथल भरा था। जीवन शुरू हुआ एक समृद्धि के साथ। अगाध वात्सल्य की छाया में। बाबा (दादाजी) से कहानियां सुनते। बाबूजी के स्नेह में भीगते। फिर आया संघर्षों का दौर। विवाह हो गया। एक बड़े परिवार की जिम्मेदारी के अलावा पितृसत्तात्मक समाज के दोषों के अधीन वातावरण में अपनी स्वतंत्र चेतना और अधरों के सदावसंत को बचाए रखने की जद्दोजहद ने दादी को और अधिक विनम्र और स्नेहिल बना दिया। खूब मांज दिया। वह कहतीं कि उनके दादाजी की शिक्षाएं न होतीं तो वह पता नहीं कैसे जी पातीं।

एक कहानी बताती थीं। घर में विपन्नता की स्थिति थी। परिवार आर्थिक समस्याओं से जूझ रहा था। वह उस परिवार की गाड़ी चलाने वाले की साझीदार थीं। पारिवारिक परिस्थितियां भी बहुत अनुकूल नहीं थीं। जिस प्रेम के बसंत में उन्होंने जीवन जीया था, उसके मुकाबले यह जीवन किसी त्रासदी से कम नहीं था। ऐसी स्थिति में किसी व्यक्ति की व्यक्तिगत स्थिति को लेकर एक सामाजिक कल्पना यही होती है कि उसके होठों से हंसी गायब हो जाए। वह दुखी रहे। मुरझाया हुआ। ऐसा नहीं था कि वह दुखी नहीं होती थीं लेकिन हंसी से पीछा नहीं छुड़ा पाती थीं। वह उनके सौंदर्य का अटूट अंग था।



एक दिन दुआर पर किसी की तलाश में टहलते वह 'सामाजिक धारणा' के विपरीत चिंतित नहीं लग रही थीं, बल्कि मुस्कुरा रही थीं। गांव के ही किसी बुजुर्ग की नजर उन पर गई थी। बाद में उसने बाबा (दादाजी) से कहा कि इतनी परेशानियों की बाद भी उन्हें कभी परेशान नहीं देखा। उनके चेहरे पर हमेशा हंसी ही देखी है। दादी को लेकर उनकी छवि ऐसे ही आनायास नहीं बन गई होगी। यह कई बार के ऑब्जर्वेशन का परिणाम था। हमने भी तो दादी को दुखी होते नहीं देखा। हमेशा हंसती-मुस्कुराती।

उस दिन भी तो वह हंस रही थीं, जब भयानक पीड़ा के बीच उन्हें गोरखपुर के फिराक चौराहे के आस्था अस्पताल में ऐडमिट कराने ले गए थे। अब उनकी हंसी याद करके रोना आ जाता है। दादी की हंसी हमारे लिए पुरस्कार जैसी थी। गाय को लाठी से नहीं मारा। अहाते से 'हट्ट-हट्ट' बोलकर भगा दिया और बाद में दादी को आकर बताया। "भला कईलऽ"। यही उनकी प्रतिक्रिया होती।

"चिड़िया खातिर पानी रखनी हईं, छत्ते पर।"
"भला कईलऽ"

"भला कईलऽ" कोई नोबल पुरस्कार जैसा था। यह सुनना भर। इन दो शब्दों ने कितने-कितने अच्छे काम हमसे कराए हैं, इस बारे में अलग से लिखा जा सकता है।

जिज्ञासु मन
सद्भावनाओं से भरे ह्रदय के अलावा उनके पास ऐसा जिज्ञासु मन था कि अंत समय तक वह विद्यार्थिनी रहीं। उन्हें आप कभी भी कुछ नया सिखाएं, वह किसी शिष्या की भांति बड़े ध्यान से सुनने बैठ जातीं। विज्ञान के रहस्यों पर भी उन्हें भरोसा हो जाता और ईश्वर पर तो खैर, विश्वास ही नहीं था, वह उसे ऐसे ट्रीट करतीं जैसे वह उनका कोई पड़ोसी या रिश्तेदार हो, जिससे उनका रोज का हाल-चाल वाला व्यवहार हो। उनके पिता ने उन्हें स्कूल कभी नहीं भेजा। दादाजी ने सिफारिश की। बहुत तेज दिमाग है स्कूल भेजो लेकिन शांति (दादी) कभी स्कूल नहीं गईं। अपने तेज दिमाग से शांति ने सद्भावना सीखी। दया करना सीखा। प्रेम लुटाना सीखा। करुणा सीखी। दूसरों की तकलीफ स्वयं में धारण करना सीखा।

स्वगत से विश्वगत
स्वार्थ मानवीय गुणों का ऐसा तत्व है, जिससे आप इससे हथियार भी बना सकते हैं और घर भी बना सकते हैं। दादी का स्वार्थ बड़े परिसर में था। वह संकुचित नहीं था। वह फैलता था, जिसमें सारा संसार समाहित हो सकता था। एक कहानी बताती थीं। किसी तीर्थयात्रा से लौट रही थीं। ट्रेन में बैठी थीं। किसी स्टेशन पर ट्रेन रुकी तो एक विद्यार्थी लड़का हांफते हुए डिब्बे में चढ़ गया और जगह ढूंढने लगा। जहाँ भी शरण मांगता, लोग भगा देते। माई यह दृश्य देख रही थीं। बोलीं, "आवऽ, बच्चा। हमरे लग्गे आवऽ। हम देब तुहके जगहि। अइसहीं हमरो नातिया कुल आवत होइहें नऽ, हाँफ़त-परेशान होत। तुहूँ हमारे नतिये खान बाटऽ।" (मेरे पास आओ। हम जगह देंगे। ऐसे ही हमारे पोते भी आते होंगे। तुम भी मेरे नाती जैसे ही हो।) मैं जब भी इस कहानी का दृश्य बनाता हूँ, रो पड़ता हूँ और माई के प्रति कृतज्ञता के एक सागर में गिर पड़ता हूँ।




अजीवन समझदार बच्ची
दादी जीवन भर एक समझदार बच्ची रहीं। उत्सुकता से सबकी बात सुनतीं। जो भी पढ़तीं, उसे सुनाने के लिए बेचैन हो जातीं। जैसे जब हम छोटे थे तब स्कूल में क्या हुआ, रास्ते में क्या देखा, सब मम्मी को बताने के लिए बेचैन हो जाते थे। दादी के भाई का कुछ ही साल पहले कैंसर से निधन हो गया था। वह उन्हें अक्सर बुला लेते थे। अध्ययनशील व्यक्ति थे। बहुत पढ़ते थे। पढ़ा हुआ किसी को समझाना होता था तो वह अपनी दीदी को बुला लेते। दादी उन्हें बड़ी गंभीरता से सुनतीं। याद भी रखती थीं और जब घर लौटतीं तब हमें सुनाती थीं। कुछ तथ्य भूलते तब अपनी याददाश्त को कोसतीं। दूसरे ही पल उन्हें याद हो आता। राजनीतिक बहसें भी दिलचस्पी से सुनतीं। उन्हें किसी भी चीज के बारे में सूचना दी जा सकती थी। इतनी अबोध और अहंकारशून्य की किसी से भी ज्ञान लेने में संकोच नहीं था।

घर के सबसे छोटे बच्चे से लेकर गुरु परिवार के विद्वान लोगों तक के बताई चीजों को ध्यान से सुनतीं। राजनीति पर बात चलती तो पल भर में नरेंद्र मोदी का समर्थन होता और थोड़ी देर में ही उनके खिलाफ हो जातीं। यह निर्भर करता कि कौन उन्हें नरेंद्र मोदी के कामों के बारे में जानकारी दे रहा है। नातियों पर ऐसा भरोसा कि किसी पर भी अविश्वास नहीं करती थीं। मुझे लगता है कि वह ऐसा इसलिए करती थीं कि उन्हें हमें किसी भी तरह से निराश नहीं करना होता था। इसलिए, सबकी बात सही। सब पर प्रतिक्रिया। सबके हिसाब से खुश हो लेना। सबकी हंसी में हंस देना।

अंतिम दिन
वह अंतिम दिन था घर पर उनका। अपने घर पर, जिसके लिए वह कहतीं कि अब यहीं से जाना है। हम उस 'जाना' का अर्थ समझते थे। हम जानते थे कि यह 'जाना' जिस दिन होगा, हम रोक नहीं पाएंगे। वैसे ही जैसे उन्हें रुद्रपुर में नहीं रोक पाते थे। एक दिन भी अतिरिक्त। वह दुग्धेश्वरनाथ मंदिर में पूजा करने गांव से आ जाती थीं। हम लोगों में जैसे उत्साह का नवसंचार हो जाता। एक मुरझाया हुआ जीवन खिल जाता। वह दो-तीन दिन रहतीं, फिर जाने को कहतीं।

बिल्कुल भी जी नहीं चाहता कि उन्हें जाने दें लेकिन वह बेहद करुणा के साथ कहतीं कि उन्हें अब घर जाना है। फिर लगता कि दादी को उनके घर से अलग करना कितनी बड़ी क्रूरता है। वह यहां अपने आपको अडजस्ट नहीं कर पाती थीं। अतिथि की तरह रहती थीं। हम अपनी माई को अपने घर में अतिथि के रूप में कभी नहीं देख सकते थे। इसलिए, अपना आग्रह छोड़ देते और वादा करते कि जल्दी ही छुट्टियों में घर आएंगे।

वह अंतिम दिन था। जब हम घर पहुंचे तो चाची, मां और बुआ उन्हें घेरकर बैठी थीं। दादी लगातार बोले जा रही थीं। कुछ न कुछ सुना रही थीं। जितने संस्कृत श्लोक उन्हें याद थे, सब बारी-बारी से बांचे जा रही थीं। दादी जिंदगी भर अस्पताल नहीं गईं। वह तब भी नहीं जाना चाहती थीं लेकिन हमलोग अचेतन अवस्था में उन्हें वहां से गोरखपुर ले गए। जीवनभर इस पर मन में द्वंद्व रहेगा कि कहीं अस्पताल ले जाकर गलती तो नहीं की गई कि उनकी उस अभिलाषा को भी पूरा नहीं होने दिया, जिसमें वह यहीं से 'जाना' चाहती थीं। लेकिन दादी को उस असहाय अवस्था में देख भी तो नहीं सकते थे। अत्यंत स्वावलंबी, अत्यंत सशक्त और अत्यंत आत्मनिर्भरता की अवस्था में ही हमेशा उन्हें देखा गया था। ऐसी हालत में अपार कष्ट झेलते भी तो नहीं देख सकते।



आराम करना तो उनकी फितरत में था नहीं और वह पूरे दिन बिस्तर पर रहीं। बार-बार उठना भी तो चाह रही थीं। बार-बार हाथ आगे बढ़ाकर सहारा मांगती। हम रोक देते। "माई अब्बे नाईं। बोतल चढ़त बा।" दादी बोलतीं- "अच्छा, अब्बे नाईं?" फिर स्वीकार्यता का संकेत देकर लेट जातीं। यह क्रिया कई बार दोहरातीं। जिद नहीं थी। चिड़चिड़ापन नहीं था। इतना नियंत्रण कैसे था, मुझे नहीं पता। फिर कोई किसी पुराण कथा के बारे में पूछ देता तो तफसील से बताने लग जातीं। ऐसा जीवंत था उस कर्मठी और चिर युवती महिला का अपने घर पर अंतिम दिन।

हालांकि, घर पर अंतिम दिन और संसार में सदेह अंतिम दिन, दोनों घटनाएं एक ही दिन नहीं घटीं। अपने उपन्यास 'अपने-अपने अजनबी' में अज्ञेय लिखते हैं न कि "कुछ भी किसी के बस में नहीं है। एक ही बात हमारे बस की है, और वह है इस बात को पहचान लेना।" इस बात को पहचान लेना चाहिए। दादी का अंतिम क्षण आया कार्तिक की नवमी को। उसे अक्षय नवमी का दिन कहा जाता है। दादी स्वस्थ होतीं तो दिया जलाने के लिए दुग्धेश्वर नाथ मंदिर जातीं लेकिन इस बार उन्हें एक दीया बुझाना था। 'अक्षय' शब्द की संगत वाले दिन को इस शब्द के विरुद्ध जाना था और यह 'जाना' अपने घर नहीं हुआ, जैसाकि वह चाहती थीं।

स्मृतियों तक की यात्रा
"कौन स्वतंत्र है? कौन चुन सकता है कि वह कैसे रहेगा या नहीं रहेगा?" कोई नहीं न! दादी भी इसका अपवाद नहीं बन सकीं। जीवन से स्मृति में स्थापित हो गईं। हमें अंत तक उम्मीद थी कि दादी लौटेंगी। आज तक हम उनमें लौटते थे। आज वह हममें लौटेंगी। लेकिन इस बार लौटना नहीं हुआ। इस बार 'जाना' तय हुआ। स्मृतियों में। हमारी स्मृतियों में। घर की स्मृतियों में। घर की फुलवारी की स्मृतियों में। घर के अहाते की स्मृतियों में। घर के आंगन, छत के देवस्थान की स्मृतियों में। हम याद करेंगे उन्हें हमेशा क्योंकि गीत चतुर्वेदी कहते हैं कि "हम जब तक किसी को याद करते हैं उसकी मृत्यु नहीं होती।"