Wednesday, 31 March 2021

बहस पर थोड़ी बहस


बहस-मुबाहिसा मानव समाज से बहुत गहरे जुड़े हैं। मानव संस्कृति और संचार में अटूट संबंध है। इंसान संचार करता है तो बहस भी करता है। अंग्रेजी के कम्युनिकेशन को हिंदी में साधारीकरण कहा गया। विद्वानों ने बताया कि यह शब्द ही अंग्रेजी के कॉमन, कम्युनिस, कम्युनिकेशन को तकरीबन-तकरीबन अभिव्यक्त कर पाता है। यह सही भी है। हमारे संचार का प्रमुख उद्देश्य एक कॉमन ग्राउंड ही खोजना तो है, जहां पर हम सहमत हों। जहां पर हम विभिन्न धरातलों से उतर-चढ़कर एक साथ खड़े हो सकते हैं। किसी भी विषयवस्तु का सही अर्थ निर्धारण कर सकते हैं। 

आज के समय में संचार का यह स्वरूप सिर्फ परिभाषाओं की बात हो गई है। यह सिर्फ सिद्धांत की बात है। व्यवहारिकता में इसका स्वरूप बहुत ज्यादा भिन्न है। व्यवहारिकता में मानव समाज का किसी पर प्रभुत्व स्थापित करने का आदिम चरित्र संचार को न सिर्फ प्रभावित करता है बल्कि साधारीकरण का विशिष्टीकरण कर एकतरफा, पक्षपातपूर्ण और अन्यायपूर्ण समाधान सामने रखता है।

क्यों जरूरी है वाद-विवाद?

यह ऐसा दौर है, जब विमर्श या बहस को लेकर लोगों के मन में कोई सकारात्मक या अच्छी भावना नहीं है। लोग इससे बचते नजर आते हैं। एक समय में मैं इसके खिलाफ था कि बहस-विमर्शों से भागना नहीं चाहिए। उनसे आमना-सामना करना चाहिए। इससे न सिर्फ ज्ञान की बढ़त होती है बल्कि विचारों के आदान-प्रदान से कोई न्यायपूर्ण और सर्वमान्य बात निकलकर सामने आती है। कोई भी किसी भी विषय पर संपूर्ण जानकारी नहीं रखता है। 

बहसों से यह संभावना होती है कि सूचनाओं, जानकारियों के आदान-प्रदान से ज्ञान की दिशा में प्रगति का मार्ग खुले। हजारी प्रसाद द्विवेदी के 'अनामदास का पोथा' में रैक्व आख्यान के संदर्भ में इससे जुड़ी एक महत्वपूर्ण बात कही गई है। रैक्व के पास निजी साधना की बदौलत काफी ज्ञान है लेकिन उसका सामाजिक संपर्क शून्य है। संचार की अनुपस्थिति के कारण वह अपने ज्ञान को ही अंतिम सत्य मानने लगता है। फिर उसे शुभा मिलती है और उसे लगता है कि वह कुछ नहीं जानता बल्कि जो कुछ भी जानती है वह शुभा जानती है। 

विचारों का परिष्कार

रैक्व अपने गुरू से मिलते हैं। उनका यह कहना होता है कि रैक्व को ज्ञान तो पर्याप्त है लेकिन अन्य विद्वानों की संगत से, विचार-विमर्श करके, बहस करके, उन्होंने अपने ज्ञान का कसौटी पर परीक्षण नहीं किया है। उसे कसौटी पर नहीं कसा है। अगर वह ऐसा कर पाते, तो उनका ज्ञान किसी परिष्कृत रत्न की तरह होता, जो अभी एक अनगढ़ रत्न के रूप में है। कहने का अर्थ यह है कि सामाजिक या फिर व्यक्तिगत (या फिर आत्मिक ही) संवाद से ज्ञान का परिष्कार होता है। उसमें न सिर्फ शुद्धता आती है बल्कि वह ज्यादा प्रामाणिक  और साधारणीकरण की ओर बढ़ता जाता है। बहस-विमर्श इसलिए भी जरूरी होते हैं। 

बहसों में उग्रता

मौजूदा समय के विमर्शों को देखें तो अंतरवैयक्तिक संचार में भी (व्यक्ति-व्यक्ति के संचार में भी) एकतरफा यानी कि वन-वे कम्युनिकेशन के दृश्य दिखते हैं। द्विपक्षीय बहस में प्रभुता की यह भावना और उग्रता संचार की भाषा में 'नॉइज़' या फिर शोर ही है, जो किसी भी संदेश को न तो ठीक तरह से संप्रेषित कर पाती है और न ही बहस को किसी सर्वमान्य निष्कर्ष पर ही पहुंचने देती है। मेरे व्यक्तिगत अनुभव ने भी इस वक्त में बहसों से बचने की वकालत की है, जबकि मेरा पहले ऐसा मानना नहीं था। 

हो सकता है कि अपनी बात रखने का मेरा कौशल इतना बढ़िया न हो और इसलिए ही मैं बहस-विमर्श के खिलाफ ये बातें कह रहा हूं। लेकिन, इसके इतर भी किसी विषय पर बहस के दौरान जो मैंने महसूस किया है, वह मेरी धारणा को मजबूती देती है। (एक बात यहां स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि मेरा जो भी विरोध है, वह बहस की मौजूदा खास तरीके की शैली के खिलाफ है। मैं बहस-विमर्श और संवाद की सनातन प्रक्रिया का विरोध न तो कर रहा हूं और न ही करना चाहता हूं। बहस एक संवेदनापूर्ण ज्ञानी और स्वस्थ लोकतांत्रिक समाज के लिए बेहद आवश्यक चीज होती है।)

मौजूदा बहस-विमर्श की नकारात्मक बातें

मौजूदा समय में बहसों के मंच के रूप में विभिन्न प्रकार की डिबेट प्रतियोगिताओं, टीवी चैनलों के कार्यक्रमों या संसद-विधानसभाओं की कार्यवाही को देखा जा सकता है। इनमें बहस का जो सबसे विद्रूप पर्यावरण दिखता है, वह टीवी चैनलों की डिबेटों में दिखता है। संसद की कार्यवाही के दौरान बहसों में अभी सभ्यता देखी जा सकती है और उसका कारण सदन की कार्यवाही के लिए पहले से स्थापित नियम-कायदे हैं। 

हालांकि, वहां पर बहस भी किसी मुद्दे पर फैसले को प्रभावित करने में हमेशा सफल नहीं होता। वहां बहसों से इतर बहुमत की राजनीति है, जो अंत में किसी प्रभुत्वशाली न्यायाधीश की तरह तय कर देती है कि क्या सही है और क्या गलत? इसके बाद बहस की सारी प्रक्रिया बेमानी हो जाती है। हाल ही में भारतीय संसद में कृषि कानूनों को पास कराने को लेकर राज्यसभा में जो स्थिति बनी, वह इस बात को काफी हद तक समझा देती है।

टीवी चैनलों के डिबेट

टीवी चैनलों के डिबेटों को लोगों ने अब खारिज करना शुरू कर दिया है। इसका कारण है कि वहां अलग-अलग 'पेंडुलमी' राजनीतिक विचारधाराओं के लोगों के बीच युद्ध जैसे माहौल के बावजूद कोई सार्थक निष्कर्ष निकलकर सामने नहीं आता। एक कारण यह भी है कि उस बहस का उद्देश्य शुद्ध रूप से व्यावसायिक है, जिसमें इस तरह के निष्कर्षों का महत्व भी स्वीकार नहीं किया जाता। लिहाजा, वहां ज्यादा से ज्यादा शोर को प्राथमिकता दी जाती है और संचार के विद्यार्थी जानते हैं कि किसी भी संवाद में शोर सिर्फ बाधा है, जिसका काम संदेशों को सही तरीके से रिसीवर तक नहीं पहुंचने देना होता है।


डिबेट प्रतियोगिताएं बहस की ठीक संस्कृति का पालन करती दिखती हैं लेकिन वह किसी निर्णायक भूमिका के रूप में एकदम से अप्रभावी होती हैं। उनका किसी भी परिवर्तन में कोई योगदान नहीं होता बल्कि वह एक अकादमिक कौशल विकसति करने का महज साधन भर हैं। इसमें लोगों को तार्किक अभिव्यक्ति और चिंतन-मंथन की प्रक्रिया को सीखने का अवसर दिया जा सकता है, इससे कोई क्रांति या कोई ठोस प्रभावी निष्कर्ष नहीं लाया जा सकता।

सोशल मीडिया का संवाद

बहस का जो तीसरा और आधुनिक मंच है, वह है सोशल मीडिया। सोशल मीडिया पर कई तरह के प्लैटफॉर्म हैं, जहां पर किसी भी विषय को लेकर वाद-विवाद किया जा सकता है। यहां फीडबैक देने की व्यवस्था है। टू-वे कम्युनिकेशन का भी विकल्प है लेकिन यहां भी प्रत्युत्तर या कहें कि प्रतिवाद के मौके बेहद नियंत्रित और सीमित हैं। फेसबुक-ट्विटर पर कोई भी किसी भी मुद्दे पर अपनी राय रख सकता है लेकिन अगर उस पर असहमति आती है तो कहने वाला इस असहमति का जवाब देने के लिए बाध्य नहीं है। वह असहमति जताने वाले को 'ट्रोल' कर सकता है, ब्लॉक कर सकता है, या फिर कोई जवाब नहीं देने का भी फैसला कर सकता है। हालांकि, फिर भी यहां स्वस्थ बहस की काफी संभावना है।

यूट्यूब पर भी बहस का एक स्वस्थ वातावरण बनाया जा सकता है लेकिन यहां भी फीडबैक या प्रतिक्रिया के लिए स्वतंत्रता बहुत अधिक नहीं है। बढ़ती बेरोजगारी के खिलाफ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के रेडियो कार्यक्रम 'मन की बात' को कई यूजर्स ने डिसलाइक कर अपना विरोध जताने की कोशिश की थी। बाद में कार्यक्रम के आधिकारिक चैनल ने यह विकल्प ही बंद कर दिया। इस प्रकार से हम देखते हैं कि यहां भी एकतरफा संचार का ही बोलबाला है। 

संचार में रिसीवर का गायब होना

आधुनिक बहसों खासतौर पर समाज में पृथक-पृथक समूहों के बीच या व्यक्ति-व्यक्ति के बीच या टीवी चैनलों पर बहसों की सबसे बड़ी समस्या ये है कि यहां से 'रिसीवर' गायब है। आमतौर पर संचार की प्रक्रिया तीन बिंदुओं से संपन्न होती है। एक सोर्स, जिससे संदेश प्रेषित किया जाता है। एक मैसेज जो भेजा जाता है और एक रिसीवर, जो कि संदेशों को सुनता है। यह प्रक्रिया दोनों ओर से होती है। यानी कि प्रेषक प्रापक भी होता है और फिर प्रापक प्रेषक भी हो जाता है। यह टू-वे कम्युनिकेशन की व्यवस्था है, जो किसी विषय पर किसी निष्कर्ष तक पहुंचने के लिए की जाती है। या कह लें कि साधारीकरण की ओर ले जाती है। लोकतंत्र की नींव में इस प्रकार के संवादों और विमर्शों का महत्व है। 

मौजूदा समय के ज्यादातर बहसों में रिसीवर अनुपस्थित है और हर कोई ही स्पीकर यानी कि सोर्स यानी कि प्रेषक बना हुआ है। सबसे पास बोलने के लिए बहुत कुछ है, लेकिन सुनने के लिए बिल्कुल भी धैर्य नहीं है। सुनना भी ऐसा नहीं कि सिर्फ कान की स्वर-तंत्रिया फड़फड़ाकर रह जाएं और हमने सुने हुए को अपने चिंतन-मंथन की फैक्ट्री में डाला ही नहीं।

स्क्रिप्टेड वन-वे कम्युनिकेशन

आजकल के संवाद की यह सबसे बड़ी समस्या है, जो समाज में सबसे निचले स्तर से लेकर राजनीति के सबसे ऊंचे स्तर पर बैठे लोगों तक में आसानी से देखा-महसूस किया जा सकता है। संवाद के नाम पर स्क्रिप्टेड कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं। एकतरफा संवाद के प्रोग्राम तय किए जाते हैं। लोग केवल बोलना चाहते हैं। श्रोता अगर कोई है तो सिर्फ इसलिए कि वह या तो कमजोर है या फिर मजबूर। राजनीतिक कारणों के अलावा अन्य विषयों पर भी सुने न जाने के कई अभिशाप हमारे समाज में आए दिन सामने भी आते रहते हैं। 

संचार के अलग-अलग माध्यमों (फेसबुक, ट्विटर इत्यादि) पर बहसों की हालत देखकर मैंने तय किया था कि बहसों में हिस्सा न लेने की कोशिश करना है। हालांकि, यह सोच मूल तौर पर लोकतांत्रिक नागरिक के अनुकूल नहीं माना जा सकता लेकिन निजी मानसिक स्वास्थ्य और शांति की आशा में यह फैसला लिया गया। लेकिन अगर आप समाज में रहते हैं तो आप इससे बचकर नहीं रह सकते। 

केवल सुनने का नुकसान

एक बार मैं किसी विषय पर 'बहस में फंस गया' था। चूंकि मैं संचार के सिद्धांतों को जानता हूं और मैं उस खास विषय पर किसी निष्कर्ष पर भी पहुंचना चाहता था, इसलिए मैंने सोचा कि सामने वाले को सुनना जरूरी है और फिर उसके आधार पर जवाब दिया जाएगा। काफी देर की बहस के बाद मुझे लगा कि यह फैसला गलत था। कारण कि इस तरह की बहसों में अब सुने जाने वाले लोगों की कोई जगह नहीं है। मैं सुन रहा था तो सामने वाले की बात ही खत्म नहीं होती थी। उसे लगा कि सामने वाला सुन रहा है तो इसका मतलब कि उसके पास कोई ठोस तर्क नहीं बचा।

बहसः जंग का मैदान

इस मानसिकता के कई कारण हैं। एक तो आजकल की बहसों को जीत-हार के सांचों में ढालकर देखा जाने लगा है। दूसरा, लोगों अपने वाद को जस्टिफाई करने और अपने फ्रेम ऑफ रिफरेंस को अंतिम सत्य मानकर उसका आवरण सामने वाले पर चढ़ाने की कोशिश के लिए बहस करते हैं। वह किसी एक मान्य निष्कर्ष पर नहीं पहुंचना चाहते। ज्ञान या जानकारी इन बहसों का उद्देश्य नहीं रहा बल्कि अपनी स्थापित धारणाओं, पूर्वाग्रहों और अपने समर्थन की विचारधाराओं का प्रभाव छोड़ देने का दुराग्रह इन संवादों का केंद्रीय उद्देश्य बन गया है। इसके अलावा अधकचरा जानकारियों को सत्यापित करने की कोशिश की जाती है। उसे इज्जत का सवाल बना लिया जाता है।

बहस के दौरान धैर्य और सहनशीलता की कमी भी एक प्रकार की बाधा की भूमिका निभाती है। अगर आप किसी को सुनने की शक्ति नहीं दिखाते या इसकी कोशिश भी नहीं करते तो यह एक प्रकार से आपकी अधिनायकवादी मानसिकता को उजागर करती है। बहस को लेकर मैं अपना अनुभव बता रहा था, जिसमें मैंने यह फैसला किया कि किसी भी राजनीतिक या किसी भी प्रकार के मुद्दे पर किसी से भी बहस करने लगने से बचना है। 

मैं जिससे बहस कर रहा था, मैं उसकी एक भी बात से सहमत नहीं था क्योंकि उनके विचारों का सोर्स बहुत अस्पष्ट और अनुमान पर आधारित था। फिर भी मुझे लगा कि इसे सुनना चाहिए। बहसों में आपको कई चीजें अनुमान के आधार पर कहनी पड़ती हैं। अकादमिक सिद्धांतों और सामाजिक बहसों में यही अंतर है। बहसों में आप भावनात्मक हो सकते हैं, अकादमिक जानकारियों या सिद्धांतों के शिल्प में इनकी कोई जगह नहीं होती।

हमने उस बहस में सामने वाले के विचारों को सुनने का फैसला किया। थोड़ी देर बाद यह समझ में आया कि मेरा विपक्षी इसे एक युद्ध की तरह ले रहा है और उसे लग रहा है कि मैं उसे सुन रहा हूं तो इसका मतलब है कि मेरे पास उसके तर्क(?) को काटने के लिए कुछ भी नहीं है और उसने मुझे लाजवाब कर दिया है। मुझे जब इसका भान हुआ तो मैंने अपनी बात कहनी शुरू की। इस पर उसकी आवाज बुलंद हो गई। जैसे वह मेरी आवाज को कुचल देना चाहता हो। 

इस तरह की बहस में अगर आप सुनने का फैसला करते हैं तो आपको असीम धैर्य रखना ही होगा। हो सकता है कि इन बहसों में आपको अपनी बात भी न रखनी पड़े। इससे फायदा इतना हो सकता है कि आप सिर्फ एक विचार बना सकते हैं कि उस विशेष विषय पर और क्या-क्या सोचा जा रहा है। आप अपने विरोधी को सुनने लगेंगे तो वह सिर्फ आपको सुनाता जाएगा। आपको बोलने ही नहीं देगा। आप इंतजार करते रह जाएंगे और फिर थोड़ी देर बाद ही सामने वाला अपनी जीत की घोषणा कर देगा और आप अपने तमाम तर्कों और विचारों के साथ उसके सामने सरेंडर को विवश हो जाएंगे।

मानसिक विभाजन का युग

यह एक प्रकार के बहस की बात है। इसी तरह के कई और भी डिबेट के विषय हैं, जिस पर संवाद की कोई गुंजाइश नहीं बचती। कट्टरपंथी विचारकों के साथ आपको अक्सर ऐसा अनुभव होगा। लोग अपनी धारणाओं से बाहर नहीं आना चाहते। अगर कोई लाना चाहता है तो उसका पुरजोर विरोध करते हैं। इसका नुकसान ये है कि इन सबमें सत्य और असत्य के बीच की रेखा मिटती जा रही है। दोनों एक-दूसरे में मिलकर खिचड़ी होते जा रहे हैं। हर किसी का पक्ष सत्य लगता है और हर किसी का पक्ष असत्य भी लगता है। 

ऐसा लगता है कि विश्व के भौगोलिक विभाजन के बाद आने वाली सदियों में मानसिक विभाजन के साथ एक ही देश में कई प्रकार के वैचारिक राष्ट्र बन जाएंगे। और राष्ट्रवाद में तो किसी भी प्रकार के तर्क-बहस आदि का सख्त निषेध होता ही है। मानव सभ्यता में कई स्तरों का यह विभाजन दुनिया की जाने कौन सी सूरत बनाएगा? 

Tuesday, 23 March 2021

व्यंग्यः 'कड़ी निंदा' कितनी कड़ी होती है?


हम उस युग में हैं जिसमें निंदा एक मुख्य प्रतिभा है। हर किसी में यह प्रतिभा होनी वैसे ही ज़रूरी है, जैसे शरीर में मल का बनते रहना। किसी में भी अगर निंदा भाव नहीं है तो वह आदमी स्वस्थ तो नहीं ही माना जा सकता। निर्णय क्षमता के वैयक्तिक गुणों के अवसान के इस दौर में निंदा क्षमता बौद्धिकता और सार्थक परिवर्तनों के लिए ज्यादा आवश्यक है। यह ज़रूरी नहीं कि फैसला लेने में किसी प्रकार की बौद्धिकता या विवेक का सहारा लिया गया हो लेकिन यह बेहद ज़रूरी है कि व्यक्ति अपना समस्त विवेक, बुद्धि और ज्ञान निंदा करने में लगाए।

सरकार की किसी लोकप्रिय नीति की निंदा करने वाले एक सज्जन से मैंने पूछ लिया कि अगर आप सरकार होते तो इस नीति को कैसे लागू करते? वह बोले, 'मैंने कभी किसी नीति के निर्माण को लेकर सोचा ही नहीं है। मेरा अभ्यास ही नहीं है कि मैं कोई नया फैसला या नीति सृजित करूं। हां, यह ज़रूर है कि अगर कोई फैसला ले लिया गया है, या कोई नीति बनाई जा चुकी है तो मैं उसमें यह बता सकता हूँ कि कहां पर ऐसा नहीं होना चाहिए था और कहां पर ऐसा होना चाहिए था। हम स्वतन्त्र रूप से कोई फैसला जारी नहीं करते बल्कि फैसलों में तोड़-फोड़ कर उसे दुरुस्त करने का खूब हुनर रखते हैं।' ऐसे फैसला-मिस्त्री के 'पुनर्निर्माणक' विचार सुनने के बाद ही मुझे ख्याल आया कि आधुनिक युग कितना ज्यादा आधुनिक हो गया है।

यह ऐसा युग है कि समाज अब निंदा के लिए फैसले या नीतियों के बनने का इंतज़ार भी नहीं करना चाहता। कई बार तो निंदाएं पहले आती हैं और फैसले बाद में लिए जाते हैं। ऐसा भी हुआ कि निंदा से प्रेरित होकर फैसले ले लिए गए। एक ज़माना था जब कहा जाता था कि कोई भी फैसला सोच-विचार कर लेना चाहिए। अब कम से कम फैसलों के बारे में तो ऐसा नहीं कहा जाता है। जिस तरह से निंदा फैसलों के लिए प्रेरणा बनती जा रही है, वैसी हालत में आने वाले दिनों में समझदार लोग यह नसीहत देते पाए जाएंगे कि कोई भी निंदा सोच-समझकर करनी चाहिए। यह निंदात्मक क्रिया का स्वर्ण काल होगा और निर्णयात्मक क्रिया का कोयला काल।

त्वरित प्रतिक्रिया के इस दौर में निंदा साहित्य लिखे-लिखाए रखे गए हैं। 'यह संस्कृति के खिलाफ है', 'यह मानवता के खिलाफ है', 'यह राष्ट्र के खिलाफ है', 'यह लोकतंत्र के खिलाफ है', जैसे वाक्यांशों को लोगों ने अपनी बुद्धि के पत्थर पर खुदवा रक्खे हैं। दिलचस्प ये है कि 'लोकतंत्र के खिलाफ है' कहने के लिए यह बिल्कुल ज़रूरी नहीं है कि आप लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में विश्वास रखते हों। गांधी के पुतले को गोली मारने वाले लोग राजघाट पर फूल बेचते हुए शांति-अहिंसा को राष्ट्र के खिलाफ बता सकते हैं। कभी-कभी लगता है कि संविधान में वर्णित 'अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता' में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता उतनी नहीं है जितनी की निंदा की स्वतंत्रता है। कोई भी, किसी की भी, कभी भी, किसी बात पर भी, किसी भाषा में भी, (किसी मुंह से भी) निंदा कर सकता है।

निंदा के तीर आलोचना के खोल में इधर से उधर, उधर से इधर खूब तैर रहे हैं। वे एक दूसरे को काटते नहीं हैं। टीवी में देखा होगा कि इधर से अर्जुन ने तीर चलाया। उधर से कर्ण ने। दोनों तीर एक-दूसरे से लड़कर खत्म हो गए। निंदा के तीर ऐसे नहीं चलते। वे कभी एक दूसरे के बगल से निकल जाते हैं। कभी ऊपर-नीचे से लेकिन कभी एक दूसरे को काटते नहीं हैं क्योंकि काटना इनका उद्देश्य होता भी नहीं है। इन तीरों की शक्ल कभी-कभी कुछ ऐसी समान होती है कि समझ ही नहीं  आता कि इसे अर्जुन ने छोड़ा है या कर्ण ने। 

निंदा के अश्वत्थामा

निंदा के तीरों का कुरुक्षेत्र बहुत विशाल है। कोई जयद्रथ की भाषा में निंदक है तो कोई शिखंडी बना हुआ है। फिर अश्वत्थामा जैसा दुख लिए भी लोग घूम रहे हैं कि योग्य तो सबसे ज्यादा मैं था। फिर भी सेनापति क्यों नहीं बना। ऐसे लोग अपने स्वामियों को प्रसन्न रखने के लिए अबोध बच्चों का शीश काटने से भी बिल्कुल गुरेज़ नहीं करते। बल्कि इनके दुर्योधन तक बाद में इनके जघन्य कर्मों पर पश्चात्ताप करते प्राण त्याग देते हैं। निंदा का ऐसा अश्वत्थामा अपने माथे से समालोचना की मणि निकालकर सदैव-सदैव के लिए जीवित रहने को अभिशप्त है।

निंदा का साहित्य

कभी कभी लगता है कि हिंदी लिटरेचर के हिंदी 'साहित्य' नामकरण के समय विद्वानों ने इसकी निंदा धनी प्रवृत्ति को विशेष ध्यान में रखा होगा। सबके सहित निंदा का यह विशेष गुण ही तो है जिससे इस छोटी सी विशाल दुनिया में हलचल बनी रहती है। कई लेखक अपनी लेखन प्रतिभा का 80 प्रतिशत इस्तेमाल निंदा साहित्य लिखने में करते हैं। कई इस निंदा की निंदा लिखने में करते हैं। कुछ हैं जो यह कहने में खर्च हो जाते हैं कि जिताना समय लेखक निंदा लिखने में खर्च कर रहा है, उतना समय किसी रचनात्मक काम को देता तो साहित्य को कुछ नया प्राप्त होता। 

यहीं से निंदा के सहोदर 'आलोचना' की उत्पत्ति हुई मानी जा सकती है। हर किसी का लोचन दूसरे पर है कि वह कोई कालजयी कृति लिखे। इससे दो बातें होनी है। या तो वह उस कालजयी कृति की निंदा कर गुट सापेक्षता की दुनिया में तहलका मचा सकता है या फिर वह इस कृति का गुणगान कर 'यह हिंदी साहित्य की अनुपम कृति है' जैसे कोटेशन का सृजन कर सकता है जिसे आने वाले समय में आलोचक अपने-अपने लेखों में दर्ज करेंगे।

निंदा का धर्मयुद्ध

निंदा के इस धर्मयुद्ध में आप विदुर या फिर बलराम बनकर निकल नहीं सकते। आप जंगल में चले जाएं और शांति से रचना कर्म करते रहें, निंदा के युद्ध में आप घसीट लाए जाएंगे। इस दुनिया में तो लोग यह भी कहते हैं कि जिस पर कोई टिप्पणी नहीं की जा रही है, वह भी एक प्रकार से निंदित ही किया जा रहा है। 

एक सज्जन बड़े मुखर होकर श्री एबीसीडी की निंदा कर रहे थे। हमने पूछा कि आप उनकी किस नीति में तोड़-फोड़ करना चाह रहे हैं। वह बोले, नीति में नहीं, मैं तो उसके शरीर में तोड़ फोड़ करना चाहता हूँ। बताइये, यह भी भला क्या बात हुई कि आप ऐसे वस्त्र पहने, जो हमारे संस्कृति और संस्कारों की जीन्स फाड़ दे। हमारे मोहल्ले में कोई ऐसा कुसंस्कारी नहीं है। यह अलग किस्म की निंदा थी। वस्त्र पहनने के लिए कोई न तो फैसला लेता है और न ही नीति बनाता है लेकिन हमारा निन्दाजीवी मन पत्थरों में से भी घास की तरह उगने की प्रतिभा से सम्पन्न है। 

निंदा रूपी कड़क चाय

बहुत समय से एक बात अज्ञात रही। या फिर किसी की कल्पना वहां तक पहुंची ही नहीं कि निंदा की उपमा चाय से दे सके। अगर पहुंची भी होगी तो लोकतांत्रिक देश की तमाम 'ईमानदार' और 'अन्तरात्मायुक्त' संस्थाओं के भय से यह उपमा देने से वह बचता होगा। ऐसा इसलिए क्योंकि निंदा की उपमा चाय से देने पर 'चायवाले' का अर्थ बदल जाता है। यह किसी मधुमक्खी के छत्ते पर पत्थर मार देने और अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारने तथा 'आ बैल मुझे मार' जैसे प्राचीन मुहावरों के अलावा किसी और ज्यादा खतरनाक आत्मघाती कृत्य जैसा माना जाए तो ग़लत नहीं है। यह निंदा ऐसी है जैसे 'आ पुलिस गिरफ्तार कर' या 'अपने घर पर सीबीआई मारना' या 'ईडी के छत्ते में हाथ डालना' आदि।

चाय रूपी निंदा को कड़क भी बनाया जा सकता है, यह इसकी खासियत है। इसके लिए सिर्फ उंगलियों को खास तरह से फेरते हुए सिर्फ इतना कहना होगा कि 'मैं फलां की कड़े शब्दों  में निंदा करता हूँ।' हालांकि, ये 'कड़े शब्द' हिंदी के किस शब्दकोश में पाए जाते हैं इसका खुलासा आज तक नहीं हो पाया है। क्या ऐसे शब्द होते भी हैं? इस पर भी संदेह है। सरस्वती नदी की तरह विलुप्त 'ऐसे शब्द' कोई खोजने भी नहीं जाता और मान लेता है कि ज़रूर वो काफी कड़े होते होंगे, तभी तो उनको उस खास सेंटेंस में फिट नहीं होते। 

कड़ी निंदा का कड़ापन

फिर भी एक बड़ा सवाल तो है कि ये शब्द कितने कड़े होते होंगे। क्या इसकी प्रतियोगिता 'प्रचारमंत्री' के 56 इंच सीने के भीतर छोटे से हृदय से हो सकेगी। या यह उतनी कड़ी होगी, जितनी दिल्ली में दिसम्बर-जनवरी में ठंड पड़ती है। लेकिन अगर यह उतनी कड़ी नहीं है, जितनी कि दिसम्बर-जनवरी की ठंड में भी तंबू ताने ट्रैक्टर वाले लोगों के हौसले और इरादे हैं, तो यह किस काम की है।

निंदक नियरे देखिए

'निंदक नियरे राखिये' लिखने वाले कबीरदास को पता नहीं था कि उनके जमाने की तरह हमेशा और हर युग में निंदक दूर-दूर नहीं होंगे। निंदकों के जनसंख्या विस्फोट ने इस दोहे को लोगों की निजी फैसले से ज्यादा निजी मजबूरी बना दिया है। यह अपने आप ही अनायास चरितार्थ हो गया है। अब किसी को 'निंदक नियरे' राखने के बारे में सोचना ही नहीं है। इस ज़माने में वह सदैव ही आपके आसपास होते हैं। 'आंगन-कुटी छवाने' के बारे में क्या ही कहा जाए। 

अगर वर्गीकरण के संबंध में ऐसा कहा जाए कि भले लोगों के इस संसार में आदमी या तो निंदक है या निंदनीय तो मेरे ख्याल से इसे गलत नहीं कहा जा सकता। निंदा के लिए खास योग्यता की आवश्यकता न होना ही निंदकों की उर्वरता का सबसे बड़ा कारण है। अगर किसी को निंदा भी करनी नहीं आती, तो उसका ज़िंदा होना ही संदिग्ध है।

Tuesday, 29 December 2020

बुद्ध का 'अकथ' निर्वाण



निर्वाण ऐसे प्रयाण का नाम है जिसमें चीजें जहां से आईं, वहीं विलीन हो गई हैं। जैसे बूंद सागर में, ज्योति अनंत में और आत्मा कथित तौर पर परमात्मा में। यह वापस लौटना भी नहीं है। प्रत्यागम नहीं है, उत्तरागम है। चलते-चलते एक यात्रा पूर्ण चक्र में वहीं समाहित हो जाए, जहां से शुरू हुई। दिया जलते-जलते अचानक बुझ जाए। अज्ञात से आती है ज्योति और अज्ञात में ही विलीन हो जाती है। निर्वाण यही है। मनुष्य जीवन एक विराट अनंत का हिस्सा है। 

सिद्धार्थ मृत्यु के भय का इलाज ढूंढने घर से भागे और जब गौतम बुद्ध हो गए तो मृत्यु के सामने इतिहास के समस्त धर्म संस्थापकों में सबसे ज्यादा निर्भीक होकर सामने आए। अपने निर्वाण का दिन निर्धारित कर लिया। सदियों पहले किसी बैसाख की पूर्णिमा से बुद्ध कुशीनारा में ऐसे ही चिर ध्यानस्थ लेटे हुए हैं। ऐसा लगता है कि ध्यान की ऐसी गहराई में उतर गए हैं कि शरीर का सारा भौतिक चैतन्य किसी गहरे तालाब की तरह शांत हो गया है। वैज्ञानिक अध्यात्म के इस महान नेता की सदेह अंतिम लीला का यह पाषाणवत् दृश्य दुःखी नहीं करता बल्कि निर्वाण-लब्ध अरिहंत के सामने आशादीप के प्रकाश में गहरे अंतर का दिव्य आनन्द मुस्कान बनकर फूट पड़ना चाहता है।

अच्छा, निर्वाण का यह तो अनुमानित अर्थ है। बौद्ध धर्म दर्शन में जाएंगे तो इसकी व्याख्या मिलेगी। असल में बुध्द ने तो निर्वाण का अर्थ ही नहीं बताना चाहा है। वह तो अप्प दीप होने के प्रेरक थे। दुनिया के सभी धर्मों ने निष्कर्ष को महत्ता दी है। जीसस, पैगम्बर से लेकर कृष्ण तक ने कहा कि आत्मा के लिए परमात्मा की शरण ही श्रेष्ठ प्राप्य है। सभी पंथों में तो परमात्मा की बकायदा परिभाषा भी है। बुद्ध ने इस परिभाषा के स्थान पर एक रिक्ति छोड़ दी है। यह रिक्ति दरअसल बुद्धत्व की ही रिक्ति है, जो गेरुआ चोंगा पहनने से तो नहीं ही भरने वाली है।


बौद्ध धर्म वैज्ञानिक अध्यात्मवाद का पंथ है। वैज्ञानिक यूं कि यहां परमात्मा कोई मानवीकृत ईश्वर जैसा विश्व संचालक नहीं बल्कि एक व्यवस्था, बल या चेतना है, जिससे संसार चल रहा है। जिसमें चीजें जनम रही हैं और फिर मृत हो रही हैं। यहां नष्ट कुछ नहीं हो रहा है। सब ट्रांसफॉर्म हो रहा है। अनंत से कहीं से ज्योति आती है। फूंक मारने पर वह गायब हो जाती है। कहां जाती है? समाप्त नहीं हो जाती। जिस अज्ञात से आती है, उसी अज्ञात में लय होना ही उसकी नियति है। यही व्यापार ही तो संसार है। इन सबकी जो केंद्रीय संचालक ताकत है, वहीं तक तो पहुंचना वैज्ञानिक अध्यात्मवाद का उद्देश्य है। 

बुद्ध शायद वहां तक पहुंचे थे। ऐसा भी हो सकता है कि बुद्ध के बाद भी कई लोग वहां तक पहुंचे हों लेकिन बुद्धत्व उस पहुंच का अनुभव बता देने का निषेध करता है। वह उसे अन-बताया छोड़ देता है कि लोग स्वयं वहां पहुंचने की कोशिश करें। स्वतः अनुभूति से तय करें कि वह क्या है? उन्होंने उसे कोई नाम नहीं देना चाहा। बाद में उसे शून्य से संबोधित किया कि कुछ शून्य सा है, जहां अगर जाना है तो अपना दीपक खुद होना पड़ेगा। यही धम्म भी है। यहां तक पहुंचने के लिए गुरु के सहारे को भी गैर-जरूरी बताया गया है। कहते हैं कि गुरु परम्परा से 'अंधविश्वास' जन्मता है। अर्थात इस परम्परा में बिना अनुभव-ज्ञान के निष्कर्ष को मान लेने की बाध्यता-सी होती है, जिससे कुछ खास हासिल नहीं होना है। 

बुद्ध के धर्म में इसीलिए एकांत का महत्व है। एकांत, मौन और ध्यान। एकांत अनुभूति-ज्ञान के मार्ग की आवश्यक शर्त है। मौन एकांत के लिए आवश्यक है, ताकि वाणी के सेतु-भंजन से एकांत घटित हो सके। ध्यान से मौन और एकांत का अभ्यास हासिल किया जा सकता है। यह सब ही निर्वाण के मार्ग हैं। यह सब ही बुद्धत्व के मार्ग हैं। परम् संतोष का मार्ग, परमानंद का मार्ग, जहां पहुंचने वालों ने बताया है कि वहां पहुंचकर कुछ भी पाना शेष नहीं रहता।

(29 दिसंबर 2020 (मंगलवार) को कुशीनगर की यात्रा के बाद)

Saturday, 14 November 2020

जुगनू कथाः उजालों से बढ़ता अंधेरा


अंधकार पर विजय पाने के पर्व के रूप में दिवाली को प्रचारित तो किया गया लेकिन यह विजय-पराजय का पर्व नहीं है, ऐसा मेरा मानना है। दशहरा को एक बार के लिए मान सकते हैं कि रावण पर विजय प्राप्त करने के बाद राम के जीत के जश्न के रूप में त्रेता से लेकर आज तक यह पर्व मनाया जाता है लेकिन दीपावली तो 'प्रत्यावर्तन' का पर्व है। पुनरागमन का पर्व है। राम लंका से अयोध्या लौटते हैं। वह एक युद्ध जीतकर आ रहे हैं लेकिन अयोध्या में दीप इसलिए नहीं जलाए गए कि उन्होंने रावण को पराजित किया है।

अयोध्या में दीप जलाया जा रहा है कि राम वापस आ रहे हैं। 14 साल पहले राजाज्ञा हुई थी कि राम वनवास भोगेंगे। अयोध्या की प्रजा के जीवन में अंधकार छा गया था। प्रजा ने राम को भगवान का अंश तो मान ही लिया था। भगवान की जीत पर संदेह की तो कोई बात ही नहीं रह जाती। तो जिस चीज की संभावना पर संदेह ही नहीं था, उसके होने पर जश्न कैसा? अवध की प्रजा ने तो अवधेश की वापसी की राह में घी के दीपक जलाए थे कि विछोह के अंधकार से मिलन के प्रकाश की ओर ले जाने वाला राम अयोध्या वापस आ रहा है।

दिवाली को अंधेरे पर जीत के तौर पर न जाने कब से प्रचारित किया जाने लगा। ऐसा इसलिए भी होगा कि हम जीवन को युद्ध की शकल में देखने के आदी होते जा रहे हैं। सेनापति है, हथियार हैं, हथियार बनाने वाले हैं और लोग.. लोगों को बताया जा रहा है कि किसके खिलाफ युद्ध लड़ना है। अंधेरा इन सबमें एक पक्ष हो गया है, जिसे खत्म कर देना ही विकल्प मान लिया गया है लेकिन हमारे शास्त्रों से लेकर प्राकृतिक नियमों के संकेत-निहितार्थों तक में अंधेरा हमारा दुश्मन नहीं है। वह हमारी प्रकृति का हिस्सा है।

अंधेरे के आध्यात्मिक अर्थों से बाहर आएं और उसके भौतिक स्वरूपों की ही बात करें तो धरती पर न जाने कितनी ही प्रजातियां हैं, जिनके जीवित रहने के लिए अंधेरा अनुकूल वातावरण है। चमगादड़ और उल्लू तो हमारे प्राकृतिक साहचर्य में ही आते हैं और जुगनू को कैसे भूल सकते हैं?

कुदरती टॉर्च की गुम होती रोशनी

यह अच्छा है कि हम उस दौर में पैदा हुए जहां हमने जुगनू को अपनी आंखों से देखा है। यह जादुई सी दिखने वाली कुदरती लालटेन (जैसा कि 'डाउन टू अर्थ' पत्रिका में उसे कहा गया है) अगर सिर्फ किताबों में पढ़ी गई होती और चित्रों में देखी गई होती तो इस पर भरोसा करना मुश्किल होता कि कोई ऐसा भी जीव होता है, जिसके बदन पर लाइटें जलती हैं और उससे गर्मी नहीं निकलती है। मतलब कि यह प्रकाशित तो होती है लेकिन बहुत ही शीतलता के साथ। उसके पंख भी होते हैं और अमावस की रात में किसी पौधे के इर्द-गिर्द झींगुरों की झंकार से तालमेल करते हुए झिम-झिम जब उनका कोई समूह नृत्य करता दिखाई देता है तो लगता है कि इस कुदरती झालर के आगे दुनिया भर की और सजावटों का क्या ही सौंदर्य है?

पर्यावरण पर लिखने वाली पत्रिका 'डान टू अर्थ' में जुगनू पर एक चिंताजनक लेख आया है। इसे पढ़ते हुए ध्यान आया कि तकरीबन 7 महीने से गांव में रहने के बावजूद मुझे इस बार जुगनू नहीं दिखे जबकि गांव में बचपन की सारी स्मृतियों में जुगनू की जगमगाहट का एक बड़ा हिस्सा है। हम उसे 'भक्जोन्ही' कहते थे। 'जोन्ही' तो हम आसमान के तारों को कहते थे और हमारे अपने बाल-शोध के मुताबिक, भक्जोन्ही भी आसमान की वही जोन्ही है जो चलते-चलते धरती पर आ गई है और अब वापस जाने का रास्ता भी भूल गई है।

कई बार उसे पकड़ने की भी कोशिश की कि जान सकें यह लाइट आखिर जलती कहां है। कई बार वह शरीर से टकरा जाए तो जल जाने का नाटक भी हमने खूब किया है। हमको लगता था कि उसके पेट पर यह जो लाइट जलती है, वह छू देंगे तो जल जाएंगे। लेकिन यह सब बात तो सरासर झूठ निकली। अब पता चला है कि यह 'ठंडा बल्ब' तो जुगनू की पेट का एक हिस्सा है। उसका अंग है। जुगनू जो ऑक्सिजन ग्रहण करता है, उसे अपने शरीर में बनने वाले लूसीफेरिन नाम के तत्व से मिला देता है। इसी से यह जादुई रोशनी बनती है।

ऐसे विचित्र जीव के साथ धरती पर रहना, उन्हें देखना अद्भुत है। कई अन्य दुर्लभ और अद्भुत जीवों के साथ ही जुगनू भी अस्तित्व के संकट के दायरे में आ गए हैं। हर साल शोध सामने आते हैं और बताते हैं कि दुनिया भर से जुगनू लगातार खत्म हो रहे हैं। प्राकृतिक टॉर्च बुझ रही है। शोधकर्ताओं ने ऐसा होने का तीन कारण बताया है। पहला तो खेतों में कीटनाशकों का प्रयोग है, जो कई अन्य लाभदायक कीटों की पूरी नस्ल पर बड़ा संकट बनकर सामने आया है।

दूसरा, तेजी से होते शहरीकरण और जंगल तथा बाग-बगीचों के घटते क्षेत्रफल के कारण उनका पर्यावास सिकुड़ रहा है और जो तीसरा कारण है, वह दीपावली मनाने के हमारे तरीकों और अपने जीवन में अंधेरे के खिलाफ छेड़ गए युद्धमय आचरणों से जुड़ा है। पर्यावरणविद इसे प्रकाश प्रदूषण कहते हैं।

प्रकाश प्रदूषण क्या है?

प्रदूषण किसी भी तंत्र या व्यवस्था को उसकी गुंजाइश से ज्यादा खींचने या उसमें अनुपयुक्त, अनियंत्रित और अनियमित अतिक्रमण के नतीजे का नाम है। हवा की जहरीली गैसों की सहन करने की क्षमता से ज्यादा गैसें जब हमने छोड़ना शुरू किया तो हवा दूषित हुई। पानी के साथ भी हमने ऐसा किया। दुनिया की शांति में जरूरत से ज्यादा शोर मिला दिया तो ध्वनि प्रदूषण जन्मा। वैसे ही अंधेरे के खिलाफ प्रकाश के विस्फोट ने प्रकाश प्रदूषण को पैदा किया है।

वैज्ञानिकों ने कहा कि आकाश में कृत्रिम रोशनी की वजह से जो चमक-दमक दिखती है, वह प्रकाश प्रदूषण है। यह वायु या फिर जल प्रदूषण से कम खतरनाक नहीं है। मानव मनोविज्ञान और दृष्टि क्षमता पर इसका नकारात्मक असर तो है ही, साथ ही यह कई वन्य तथा अन्य ऐसे प्राणियों के अस्तित्व पर संकट पैदा कर देता है, अंधेरा जिनके पर्यावास के काफी अनुकूल होता है। कीड़ों-मकोड़ों की प्रजनन क्षमता पर असर पड़ने की बात भी एक्सपर्ट बताते हैं।

इतना ही नहीं, पेड़-पौधों के विकास में अंधेरे का महत्वपूर्ण योगदान होता है। बताया जाता है कि बीज के फूलने की प्रक्रिया में भी अंधेरा जरूरी होता है। रात के वक्त में ज्यादा रोशनी की वजह से हमारे आसपास रहने वाली चिड़ियां, मेंढक, झींगुर, तमाम कीड़े-मकोंड़ों का बायोलॉजिकल क्लॉक भी गड़बड़ हो जाता है। इससे उनका पूरा जीवन प्रभावित होता है। इन सबमें सबसे ज्यादा नुकसान हमने जुगनू का किया है।

जुगनूओं के शरीर पर जलने वाला प्रकाश उनकी प्रजनन प्रक्रिया का हिस्सा है। विशेषज्ञ बताते हैं कि उनकी चमक का पैटर्न अपने साथी को तलाशने का संकेत होता है लेकिन उजाले की बाढ़ में जुगून का जीवन बहता जा रहा है। ज्यादा रोशनी में वे अपना रास्ता भटक जाते हैं। अंधे हो जाते हैं। अप्रत्यक्ष तौर पर उनका जैविक चक्र भी प्रभावित होता है। प्रकाश प्रदूषण के बाद जुगनू के लिए कीटनाशक भी बड़ा खतरा हैं। जुगनू अपने जीवन का ज्यादा हिस्सा पानी या जमीन के नीचे बिताते हैं। यहां उन्हें कीटनाशकों की वजह से खतरे का सामना करना पड़ता है।

जुगनू एक जरूरी कारण है कि हम अपने आधुनिकता पर पुनर्विचार करें। दीवाली जैसे पर्व के नाम पर घरों को चकमक लाइटों से सजाते वक्त सोचें कि हम मानवेतर जीवों के जीवन में कितना नकारात्मक और गैर-जरूरी अतिक्रमण कर रहे हैं। दीवाली दीपों का पर्व है। मिट्टी के दीये जलाने की इस प्रथा के पीछे वैज्ञानिक तर्क भी हैं। पटाखों-झालरों इत्यादि का इस्तेमाल दीपावली की मूल भावना के खिलाफ है।

दीवाली शांति का पर्व है। अमावस की रात में अद्भुत नीरवता होती है। उसमें दीपों के प्रकाश का साथ सूचना और संचार के विस्फोट के युग में बेचैन और श्रांत मानव मन के लिए एक औषधीय सम्मेल है। इसमें पटाखों का विस्फोट किसी भी तरह से जश्न का प्रतीक नहीं है। यह पर्यावरण के खिलाफ है, हमारी परंपरा के खिलाफ है। त्योहार की मूल भावना के खिलाफ है। झालरों और तेज प्रकाश वाले बल्बों का इस्तेमाल भी दीपावली को ठीक परिभाषित नहीं करते। यह हमारे सहचर जीवों के लिए भी तो हानिकारक हैं।

दीपावली पर मिट्टी के दीए जलाना बेहतर है। घर की लाइटों को इस दिन विश्राम दिया जा सकता है। केवल दीये जलाए जा सकते हैं। वापस लौटने के इस पर्व पर हम अपनी परंपराओं के मूल लक्ष्यों की ओर लौट सकते हैं। दीपावली के अलावा अन्य दिनों में भी प्रकाश यंत्रों का नियंत्रित और आवश्यक इस्तेमाल सुनिश्चित करके जुगनू समेत कई जीवों के जीवन को आसान बनाने में भी अपना योगदान दे सकते हैं। 

प्रकाश पर्व है तो प्रकाश के प्राकृतिक प्रतिनिधियों के संरक्षण के बारे में चर्चा भी जरूरी है। उजाला हमारे लिए बेहद जरूरी है लेकिन केवल उजाला ही जरूरी नहीं और धरती केवल हमारी नहीं है। सारे मसले केवल हमसे संबंधित नहीं हो सकते। वेदसूक्ति है, 'संगच्छध्वं', जिसका मतलब है कि साथ चलें। अब समय है कि अपने इस 'साथ' में धरती के अन्य मानवेतर पुत्रों को भी शामिल करें। दीपावली की शुभकामनाएं इस अपील के साथ कि हम यह ध्यान रखें कि अंधेरा दुश्मन नहीं है, संगी है। प्रकाश का मतलब अंधेरे को नष्ट कर देना नहीं है।  

Friday, 6 November 2020

प्रेमः मैं नहीं तू


मीनाक्षी नटराजन जी ने 'ब्रह्म क्या है', सवाल का जवाब देते हुए एक कथा के हवाले से किसी को बताया कि यह परिभाषाओं की सीमा से बाहर है। इसके लिए शास्त्रों में लिखा गया है कि नेति-नेति मतलब कि ब्रह्म का विस्तार ऐसा है कि सिर्फ यही कहा जा सकता है कि यह-यह ब्रह्म नहीं है। बाकी सब ब्रह्म है। प्रेम भी वैसा ही है। ब्रह्मस्वरूप, जिसकी कोई सीमा नहीं है। जिसको परिभाषाओं में नहीं बांध सकते। प्रेम एक आदर्श स्थिति है, जिस तक पहुंचने के लिए चार सोपान हैं, ज्ञान, भक्ति, करुणा और फिर प्रेम।

यह चारों सोपान एक क्रम में घटित होते हैं, जिसकी चरमावस्था प्रेम पर जाकर प्राप्त होती है। प्रेम जब होता है तो मैं यानी कि अहम् समाप्त हो जाता है। तमाम सूफियों, कवियों और दार्शनिकों ने भी प्रेम को ऐसा ही कहा है। चाहे वह ईश्वर से प्रेम हो, गुरू से हो या किसी अन्य से। प्रेम की पहला घटना यही होती है कि मैं भाव खत्म हो जाता है और तू ही तू दिखने लगता है। जब प्रेम होता है तो संसार की सभी चीजें अच्छी लगने लगती हैं। सब सुंदर लगने लगता है। प्रेम से आनंद उपजता है। प्रणय से जीवन में विनय फूलता है।

प्रेम प्राप्ति की ओर नहीं जाता

प्रेम का मार्ग प्राप्ति की ओर नहीं जाता। प्रेम सर्वथा प्राप्तियों से मुक्त है। इसीलिए प्रेम मुक्त करता है बांधता नहीं है। यहां पाने की अभिलाषा खत्म हो जाती है। जिससे हम प्रेम करते हैं, उसे भी पाने की इच्छा नहीं आती। हम उसे खुश देखकर खुश हो जाते हैं। उसे दुखी देखकर दुखी हो जाते हैं लेकिन उस पर कोई अधिकार भाव नहीं चाहते। जहां अधिकार भावना है, वहां प्रेम नहीं है। किसी को प्राप्त करने की अभिलाषा नियंत्रण रखने को प्रेरित करती है लेकिन प्रेम में ऐसा नहीं होता।

मोह में होता है। मोह प्रेम का देहरूप है। प्रेम मनुष्यता का तात्विक विषय है। जैसे शरीर का तत्व आत्मा है। देह आवरण है। वैसे ही प्रेम का आवरण मोह है। मोह में लगाव है, लेकिन तकलीफ भी है। मोह भी अंधा होता है और प्रेम में भी अंधा होना कहा गया है। मोह का अंधा होना काला अंधकार है। जिसमें कुछ भी नहीं दिखता। जिसमें तकलीफ और क्रूरता जन्म ले सकती है लेकिन प्रेम का अंधा होना प्रकाश के किसी स्रोत का अनावरित हो जाना है। यह ऐसा है जैसे कि जब आप एक सत्य को जान लेते हैं तो सब कुछ का रहस्य खुल जाता है और अब तक का सब जाना हुआ झूठ हो जाता है। प्रेम में होना ऐसा ही होना है। सब कुछ मिल जाता है। सारी दुनिया ही अपनी लगने लगती है और इस सब कुछ के पा लेने की प्रक्रिया में सब कुछ छूट जाता है। 

मतलब कि जब आप सारी दुनिया को पा लेते हैं तो आपकी सारी दुनिया आपको छोड़नी पड़ती है। इसीलिए प्रेम ऐसा प्रकाश जिसमें सत्य को सही तरीके से जान लिया गया है और बाकी के सारे कथित सत्य झूठ हो जाते हैं या उन्हें छोड़ देना पड़ता है। अंधा प्रेम यानी कि ब्लाइंड लव में नजरअंदाज का भाव नहीं है। इसमें सिर्फ आत्म को नजरअंदाज हो जाना पड़ता है। क्योंकि आत्महंता होने के बाद ही प्रेम का विकास होता है। मैं नहीं तू ही का भाव ही प्रेम है। 

प्रेम के बारे में एक कथा मीनाक्षी जी सुनाती हैं कि कल्पना करें कि नदी में कोई डूब रहा है। उसे तैरना न आता हो और आप तैरना जानते हों। ऐसी अवस्था में आप जाहिर तौर पर उसे बचाने के लिए नदी में उतरेंगे। रेस्क्यू के दौरान ऐसा हो सकता है कि डूबने वाला डर के मारे या अपनी जान बचाने की कोशिश में आपको नोचे-खरोटे, आपको खींचे। हो सकता है कि आप भी डूबे-डूबे हो  जाएं लेकिन फिर भी आप उसे छोड़ते नहीं। आप उसे बचाने की कोशिश में लगे रहे हैं। यह जो उसे बचा लेने का भाव है, वही प्रेम है। वहीं प्रेम घटित होता है।

मोह से मुक्ति कैसे?

मोह से मुक्ति और प्रेम के सृजन को लेकर पूछे गए सवाल में मीनाक्षी जी ने बताया कि मोह को संज्ञान में लेना ही उससे मुक्ति का पहला चरण है। पहले हम यह जान लें कि जो अनुभूति हम जी रहे हैं वह मोह है। मोह को आसानी से पहचाना जा सकता है। जिसमें भी ऐसा लगे कि जिस चीज को हम चाहते हैं, वह हमारा हो जाए। हमारे नियंत्रण में हो जाए। वह हमारे हिसाब से संचालित हो, वह मोह का एक रूप है। अगर हम ऐसा सोचने लगें कि हम जिससे प्रेम करते हैं, वह हमारे बारे में कैसी धारणा रखता है। अगर उसके अंदर हमारे लिए प्रेमभाव नहीं है या है भी तो वैसा नहीं है, जैसा हम चाहते हैं, तो ऐसी अवस्था प्रेम की नहीं हो सकती। वह मोह है।

किसी चीज से हम बाहर न आना चाहें, उसे पकड़कर रखें, यह भावना भी मोह है। विदेहराज के बारे में कहा जाता है कि वह मोह से मुक्त होते हैं। इसीलिए उन्हें वि-देह कहा जाता है। किसी ऋषि से उसके एक शिष्य ने मोह के बारे में सवाल किया तो उन्होंने उसे विदेहराज के पास भेज दिया। शिष्य थोड़ा परेशान तो हुआ कि एक राजा मोह के बारे में क्या जानता होगा। वे तो मोह में फंसे रहने के लिए ही कुख्यात होते हैं, लेकिन गुर्वादेश से प्रेरित शिष्य विदेहराज के पास पहुंचा।

विदेहराज ने उसका सवाल सुना और उसे अपने साथ भ्रमण पर ले गए। आशंकित ऋषि-शिष्य उनके साथ चल पड़ा। तभी विदेह में बाढ़ की घटना हुई और राजा लोगों की मदद में जुट गए। कुछ देर बाद उन्होंने ऋषि-शिष्य से भी लोगों की मदद करने को कहा। इस पर वह राजा से बोला, 'मेरा कमंडल छूट गया है, मैं उसे लेकर आता हूं।' इस पर विदेहराज ने कहा कि यही मोह है। हम अगर कोई चीज न छोड़ना चाहें, उसे पकड़कर रखना चाहें, उसी को मोह कहा जाता है।

आसक्ति के रूप

अपने कर्मफलता के प्रति आसक्ति भी मोह है। जैसे, एक कथा और मीनाक्षी ने सुनाई कि बुद्ध अपने शिष्यों के साथ जा रहे थे। रास्ते में किसी तालाब या नदी में एक कीड़ा डूबता दिखाई दिया। बुद्ध ने उस कीड़े को बचाने के लिए एक पत्ता रख दिया, जिस पर चढ़कर उस कीड़े की जान बची। इसके बाद उनके शिष्यों ने हैरत से बुद्ध से पूछा कि आप तो इन सबसे मुक्ति की बात करते हैं, संन्यास की बात करते हैं। फिर आपनकी इस कीड़े के प्रति आसक्ति क्यों हुई? बुद्ध ने अपने शिष्यों को जवाब दिया, आसक्ति मुझे नहीं तुम्हें है। मैं उसे वहीं छोड़ आया लेकिन तुम उसे अपने मन में अब भी लिए फिर रहे हो। कर्मफल से अनासक्ति की ऐसी ही किसी भावना ने 'नेकी कर कुएं में डाल' की कहावत का सृजन किया होगा।

प्रेम स्वतंत्र करता है

प्रेम ऐसी सभी भावनाओं से स्वतंत्र कर देता है। हम जिससे प्रेम करते हैं, उसका साथ होना पसंद तो आने लगता है। उसे देखते ही आंखें चमक तो उठती हैं लेकिन ऐसा भाव नहीं आता कि ऐसा ही वह भी हमारे लिए महसूस करे या हम उसके चले जाने पर दुखी अनुभव करें। जब ऐसा प्रेम होता है, तब कहीं घृणा भी नहीं रह जाती। तब क्रोध नहीं आता। संसार की सारी चीजों से प्रेम हो जाता है। प्रेम होने का यही लक्षण है। जबकि मोह में लालसाएं और इच्छाएं दुख देती हैं। मोह के साथ तृष्णा आती है। बुद्ध ने इसी तृष्णा के बारे में कहा कि यह सभी दुखों का मूल कारण है। 

प्रेम का सबसे सुंदर उदाहरण कृष्ण का राधा से प्रेम है। कृष्ण या राधा ने कभी एक-दूसरे की चाह नहीं की लेकिन प्रेम खूब किया। उद्धव ने जब प्रेम के विषय में श्रीकृष्ण से प्रश्न किया तो उन्होंने उन्हें वृंदावन भेज दिया। राधा और गोपियों के पास अपना एक पत्र थमाकर उद्धव को भेज दिया। उद्धव जब वहां पहुंचे और राधा से कृष्ण के पत्र के बारे में बताया तो राधा ने वह पत्र फाड़ दिया। उन्होंने कहा कि कृष्ण को राधा से बातचीत के लिए किसी जरिए की आवश्यकता कैसे हो सकती है? वह दोनों प्रेम में एकाकार हो गए हैं। अपने आपसे बातकर अपने प्रिय या प्रियतमा से बात की जा सकती है। बाद में उद्धव ने जब उस पत्र को खोला तो वह कोरी चिट्ठी निकली। बिना शब्दों के कृष्ण ने राधा से बात की। इसीलिए कहते हैं कि प्रेम की कोई भाषा भी नहीं होती। 


(प्रस्तुत साक्षात्कार मीनाक्षी नटराजन जी के साथ एक डिजिटल संवाद पर आधारित है)

Saturday, 31 October 2020

शरदः 'अनासक्त' सौंदर्य


अक्टूबर को लोगों ने उदास महीना कहा। हरसिंगार के फूलने के महीने को ऐसी संज्ञा देने का मन तो नहीं करता लेकिन अगर किसी की भी अनुभूति में अक्टूबर का महीना उदास है तो उसे सीधे-सीधे खारिज कर देना बड़ी क्रूरत होगी। ऐसी धारणाओं को खारिज किए बिना भी मैं यह कह सकता हूं कि अक्टूबर नवजीवन का महीना है। अक्टूबर में ही तो शरद आता है। शरद वही जिसकी पूर्णिमा में आकाश अमृत बरसाता है। शरद की चांदनी को अज्ञेय ने अंजुरी में भरकर पीने के लिए कहा है। शरद चांदनी बरसी, अंजुरी भरकर पी लो।

शरद वही है जिसके बारे में कहा गया, 'जीवेम शरदः शतम्'.. मतलब कि सौ शरद जीओ। यह नहीं कहा गया कि सौ वसंत जीओ.. वसंत के लिए कहते हैं कि जीवन के इतने बसंत बीत गए। बसंत बीतने का बोध है और शरद संभावना का। शरद और वसंत में यही अंतर है। एक शीत के आगमन की भूमिका है और दूसरा शीत के प्रस्थान की। एक के सम्मुख दीवाली है और दूसरे के सम्मुख होली। शरद श्रेष्ठ है या नहीं इसकी घोषणा नहीं की जा सकती लेकिन शरद जो है, वह कोई और नहीं है।

वैसे, अक्टूबर कोई महीना नहीं है। यह एक ऋतु है। जैसे शरद एक ऋतु है। उत्तर भारत में अक्टूबर एक फीलिंग है, अनुभूति है। कुहरे और धुंध से भरा आसमान और उसकी अद्भुत गंध। वातावरण में लगातार घुलती जाती नीरवता। बरसात की उमस भरी गर्मी से राहत देते सबको भाती है लेकिन इसी में जब हरसिंगार फूलने लगते हैं तो भावनात्मक जमीन पर जीने वाले लोगों के हृदय भी खिल उठते हैं। इसी में धान काटा जाता है। नई फसल घर आती है। किसान परिवार में इसके बाद उदासी नहीं होती। इसके बाद वहां जीवन फूलने लगता है।

मानस में शरद के श्वेत प्राधान्य को राम ने अलग ही उपमा दी है। सुग्रीव को किष्किंधा का राजा बनाने के बाद राम लखन के साथ वर्षाकाल बीतने का इंतज़ार करने चले जाते हैं। प्लान है कि वर्षा बीतते ही सुग्रीव की बानर सेना सीता की खोज में फैल जाएगी। सीता से मिलन की प्रतीक्षा में राम को वर्षाकाल एक पूरा जीवन की तरह दिखने लगता है। इसीलिए ही जब शरद आता है तो लखन से कहते हैं, 'जनु बरखा कृत प्रगट बुढ़ाई।' कास ऐसे फूल गए हैं कि लगता है वर्षा ऋतु ने अपना बुढ़ापा प्रगट कर लिया है। अब एक उम्र की तरह खड़ी प्रतीक्षा का अवसान होने वाला है। ऐसा शरद राम के लिए भी तो विशेष है, कि इसमें सीता से मिलन का संयोग बनने वाला है।

अक्टूबर डैन के उस एक सवाल की तलाश की तरह भी है कि शिउली ने उसके बारे में यह क्यों पूछा कि 'वेयर इज़ डैन?' यह सवाल जिसमें पता नहीं कोई हल्की-सी खुशी है या एक विराट दुख और उदासी। यह शिउली के जीवन की तरह कभी तो खाली-खाली सा और क्षणभंगुर लगता है लेकिन डैन के सवाल की बेचैन उदासी भी इसी मौसम में महसूस होती-सी है। 

अक्टूबर हरसिंगार की ऋतु है, जो रात में फूलता है। रात और फूलने का सम्बंध अपने आप में एक रूहानी संयोग है। संसार के नियमों के विपरीत। रात तो विश्राम का पहर है। इसमें नवीन आरम्भ अपने-आप में एक विरोधाभासी मेल है। अंधेरे की सभा में शेफालिका के श्वेत फूल न सिर्फ खिलते हैं बल्कि महकते भी हैं और जीवन से ऐसी अनासक्ति की मुरझा जाने तक पौधों से लिप्त रहने की कोई इच्छा नहीं रखते। डाली से टूटते हैं और अपने ही वृक्ष की छाया से दूर जाकर बिखर जाते हैं। अक्टूबर सौंदर्य के इस अनासक्त भाव के लिए भी तो विशेष है।

(शिउली और डैन शुजीत सरकार की बहुचर्चित फ़िल्म 'अक्टूबर' के किरदार हैं)

Friday, 14 August 2020

जन-गण-मन की आज़ादी


आज़ादी इज़ आल अबाउट आप कितना मनुष्य रह पाते हैं। मनुष्य रह पाने का मतलब यह कि मनुष्यता के आकाश में कितना उड़ पा रहे हैं। कहीं आपके पर तो नहीं कुतरे जा रहे है। पिंजरा धीरे-धीरे छोटा तो नहीं होता जा रहा है। पंखों की करवट भर की जगह से निश्चिंत हो जाने वाले लोग एक दिन अपनी स्वतंत्रता खो ही देते हैं। हमसे कहा जाता है कि हमने गुलामी देखी नहीं, सो स्वतंत्रता की कीमत भी क्या जान पाएंगे। स्वतंत्रता एक ऐसी चीज़ है, जिसकी कीमत महसूस करने के लिए ग़ुलामी ही की ज़रूरत नहीं। यह जन्मसिद्ध मानवीय अधिकार है। सो इसमें जब भी कतरब्योंत होगी, हम वैसे ही महसूस करने लगेंगे, जैसे सांस कम होने पर घुटन महसूस करने लगते हैं। अगर हम परिस्थितियों से समझौता न करें तो स्वतंत्रता की लड़ाई हमे हर पल लड़नी पड़े।

हर क्षण आज़ादी का संग्राम है। पराधीनता धीरे-धीरे ही आती है। ऐसी प्रक्रिया में अस्वतंत्रता की परिस्थिति बनती है। भ्रम बनाने वाले कई पहलू हैं। भौगोलिक रूप से हम संप्रभु हैं। सांस्कृतिक रूप से पहले से ज्यादा स्वतंत्र तो हैं ही। सामाजिक रूप से भी कथित स्वतंत्रता है। आर्थिक आज़ादी भी कही ही जाती है। पारिवारिक स्तर भी स्वतंत्रता की बात अब जोर पकड़ रही है। यह सब कहने की बाते हैं। इसको ऐसे देखें कि भौगोलिक स्वतंत्रता माने भूगोल से हम बंधे हुए रहने को आज़ाद हैं। सांस्कृतिक स्वतंत्रता भी अराजक तरीके से परतंत्रता का एक हंटर लिए दिखती है। स्वतंत्रता तो स्वतन्त्रताओं को बढ़ावा देने की प्रवृत्ति है। जिस आज़ादी की मनः-योजनाओं में औपनिवेशिक गुणधर्म हों, वह कैसी आज़ादी? वह तो पराधीनता का ही एक अन्य रूप है।

सामाजिक आज़ादी का तो कहना ही क्या! यहां एक श्रृंखला है ग़ुलामों की। समाज के विभाजन में कैसा विषम विभाजन है, यह किसी से क्या छिपा है। जातीय श्रेष्ठता का बोध अलग-अलग स्तरों पर साम्राज्यवादी सोच का आश्रयस्थल बना हुआ है। ऐसे में कोई स्वतंत्रता का पक्षधर कैसे हो सकता है। क्या आज़ाद होना आज़ादी की पक्षधरता से भी आज़ादी है। आर्थिक स्वतंत्रता का तो न ही पूछिये। अर्थ एक नए किस्म का साम्राज्य है और हम सब तेजी से इसके उपनिवेश बनते जा रहे हैं। यह सारे संसार की कहानी है। यह केवल हिंदुस्तान की बात ही नहीं। वर्ग का अंतराल खाई में बदलता चला जा रहा है। हमारी स्वतंत्रता के बरअक्स एक और बड़ी भव्य स्वतंत्रता है। यह भव्य स्वतन्त्रता हमें एक अलग तरह की ग़ुलामी की ओर धकेलती है। उधर आज़ादी नहीं होती।

इस माहौल में.. लगातार नीरस बनते मानव जीवन में जहां कथित अच्छे-अच्छों की जीवन प्रत्याशाएँ सबसे लड़ाकू उम्र में दम तोड़ दे रही हैं, स्वतन्त्रता पर बात करना ज़रूरी है। स्वतंत्रता वह नहीं जिसमें 'यह देश है वीर जवानों का' का मिथ्या अभिमान और कर्कश नाद हो बल्कि स्वतंत्रता वह जिसमें जीवन का आकाश थोड़ा और खुले। स्वछंद हवाओं से पाला पड़े। दिशाओं का विस्तार अनन्त हो और वह दिखे। क्योंकि स्वतंत्रता कभी किसी देश से सम्बंधित नहीं होती। स्वतंत्रता कभी भी संसार के मूल तत्वों का मौलिक विषय है। यह जीवन से जुड़ा है। जन-गण-मन से जुड़ा है। अधिनायक से नहीं। 

एक और 15 अगस्त मुबारक!