Thursday 3 August 2017

कविताः काग़ज़ पर कुछ लिख दूं

काग़ज़ पर कुछ लिख दूं,आखिर,
कुछ दिन से सोच रहा हूँ।

दिल का भूतल उथल-पुथल,
कुछ दबी हुई शै का हलचल,
कुछ पीर, नयन का नीर, कलम का 'मीर'
उगलने में संकोच रहा हूँ।
काग़ज़ पर कुछ लिख दूं, आखिर,
कुछ दिन से सोच रहा हूँ।

जीवन की जाने कौन राह!
जिस पर स्वप्नों का आत्मदाह।
कुछ शोर, जनम का भोर, जुनूनी जोर
के शव को नोच रहा हूँ।
काग़ज़ पर कुछ लिख दूं, आखिर,
कुछ दिन से सोच रहा हूँ।

दिन अंधियारे से लगते हैं,
सोते-सोते भी जगते हैं।
कुछ वर, ह्रदय का स्वर, ज्यों तीखे शर
से फोड़े कोंच रहा हूँ।
काग़ज़ पर कुछ लिख दूं, आखिर,
कुछ दिन से सोच रहा हूँ।

©राघवेंद्र

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