Tuesday, 28 November 2017

कविताः मैं एकांत का पंछी..

फोटो साभार: पीयूष कुंवर कौशिक
मैं एकांत का पंछी अब निज ठौर चला रे! लौट

भीड़ न आयी रास मुझे, यह बंधन हुआ अकाश।
जहाँ नहीं पर फ़ैलाने को, छोटा सा अवकाश।
कितनों के हित के पत्थर से खाकर चोट प' चोट।
मैं एकांत का पंछी अब निज ठौर चला रे लौट!

स्वार्थ यहां सम्मानित होते और समर्पण दुत्कारित।
सद्भावों का मान नहीं है और प्रदर्शन उपहारित।
घाव बड़े सस्ते मिलते हैं, हंसी अधर की महंगी है,
प्रेम छलावा, भाव मिथ्य हैं, दुनिया केवल जंगी है।

रिश्ते यहां स्वार्थ्य-साधन की खातिर केवल ओट।
मैं एकांत का पंछी अब निज ठौर चला रे लौट!

छिले हुए अरमान लिए दिल चीख रहा है विह्वल,
सोच के क्या आए, क्या पाया, रिक्त पड़े हैं करतल।
ख़ुशी बुलबुला है उठती है, फूट कहीं खो जाती है।
ठग है ज़िन्दगी जीवनभर आशाओं से भरमाती है।

स्वप्न नहीं कुछ भी, हैं अभिलाषाओं के धूम-कोट।
अत मैं एकांत का पंछी अब निज ठौर चला रे लौट!

©राघवेंद्र

Monday, 27 November 2017

कविताः मैं डाली से टूट गया हूँ

उद्यानों की राजनीति से बाहर छूट गया हूँ।
मैं डाली से टूट गया हूँ।
गर्दिश में हैं भाग्य-सितारे,
मुरझाते हैं स्वप्न हमारे।
रूप-गन्ध-रस-हास-रास-जस
सब मूर्छित हैं ताल किनारे।
ज्यों जीवन के यक्ष प्रश्न का उत्तर, छूट गया हूँ।
मैं डाली से टूट गया हूँ।।
मन ही जब सब रंग बिसारे।
वन-सरिता किस काम हमारे।
पर्वत-झरना-ताल-तलैय्या
सब सूने बेरंग नज़ारे।
भ्रम का ज्यों गुब्बारा, उड़ता उड़ता फूट गया हूँ ।
मैं डाली से टूट गया हूँ।
दुनिया के बेकार थपेड़े।
नीरव मन को कर्कश छेड़े।
यायावर को नहीं सुभीते
रस्ते, पक्के, आड़े-टेढ़े।
किस्मत क्या रूठेगी अब, खुद उससे रूठ गया हूँ।
मैं डाली से टूट गया हूँ।
©राघवेन्द्र

Sunday, 19 November 2017

मेरा 'पूरा आईआईएमसी' तो नहीं होगा न!

रात से एक बजे के आसपास का समय है। इस वक़्त मुझे हर रात नींद नहीं आती लेकिन फिर भी नींद मेरे आस-पास ही होती है कहीं और जब भी उसका मन किया धीरे से आकर आँखों में समा जाती है चुप-चाप। फिर उसे कोई फर्क नहीं पड़ता कि मोबाइल में यू ट्यूब पर अशोक चक्रधर भाषण दे रहे हैं या फिर मेरे हाथ में नरेंद्र कोहली की किताब शरणम है जिसे दो-एक दिन में खत्म करने का मैंने लक्ष्य रखा हुआ है। वह आती है और मैं गिर पड़ता हूँ ख्वाबों के शीशमहल में। जहां दिन भर के जो किस्से-वाकए चेहरे पर लकीर बनकर जड़ जाते हैं उन्ही की व्याख्या होती है। बिना किसी सार्थक अर्थ के प्रतिबन्ध के।

आज नींद की आहट भी नहीं मिल रही। जाने कहाँ चली गयी है। जाने किससे भयभीत है! शायद वो उस भीड़ से डर गयी है जो अभी दिल से लेकर दिमाग तक उत्पात मचाए हुए है। मैं उसका चेहरा महसूस कर पा रहा हूँ जो सहमा हुआ कहीं दुबका पड़ा होगा। अब जब मैं अगला अक्षर लिखूंगा उस समय घड़ी में रात के 1 बजकर 19 मिनट और 57 सेकंड हो जाएंगे। दिलो-मन में जो स्मृतियों की धमा-चौकड़ी है वह कल के कॉन्वोकेशन प्रोग्राम की वजह से है। कल फिर उसी परिसर में वो सारे साथी दिखेंगे जिन्होंने ईंट पत्थरों की उस लाल इमारत को स्वर्ग से भी ज्यादा वांछित स्थल बना दिया था। सबसे एक बार फिर मिलने को लेकर जो उत्सुकता है, वो बस अब दिल के संभाले नहीं संभल रही है इसीलिए वहां भूकम्प जैसा कुछ महसूस हो रहा है।

अभी अचानक मुझे वो शाम याद आ गई जब हम, विवेक और शताक्षी ब्रह्मपुत्रा हॉस्टल के लॉन में बैठे चाय पी रहे थे। तभी मातुल यानि कि प्रशांत महतो का फोन आया शताक्षी के पास और उसने उन्हें अकेले आने का निर्देश दिया और ये नहीं बताया कि हमलोग वहीं मौजूद हैं। वो विवेक को ढूंढ रहे थे और उन्हें फोन भी लगा रहे थे। विवेक हम लोगों के सामने ही फोन इग्नोर कर रहे थे। ऐसा करने के लिए हम लोगों ने ही उनसे कहा था। फिर क्या था, वो आते हैं और हम लोगों को वहां पाकर नीचे से कुछ मारने के लिए उठाते हैं और विवेक की ओर निशाना लगाकर फेंकते हैं। लक्ष्य का संधान चूक जाने के लिए ही था सो चूक गया। हम खूब हँसते हैं। वह पत्थर आने वाले दिनों में हर बार इस स्मृति की खुमारी से निकालने वाला धमाका होगा, यह तो तय है। अकस्मात इस स्मृति के आगमन का कोई कारण नहीं लेकिन बिन बुलाए मेहमान की तरह यह दिमाग में आई और फिर से गुज़रे वक़्त के लौटने की असंभाव्यता की विवशता का तमाचा जड़कर चली गयी।

कल के कॉन्वोकेशन में सब होंगे, मतलब कि 'पूरा आईआईएमसी'। लेकिन मेरा 'पूरा आईआईएमसी' तो नहीं होगा न! विवेक भी नहीं होंगे और शताक्षी भी नहीं होगी। इस अभाव ने सारे उत्साह पर पानी फेर दिया है। अब जो भी है सब औपचारिकता भर है जो कल पूरी करनी है। ऐसा भी नहीं है कि कल का पूरा दिन नीरस रहने वाला है। कुछ अच्छा भी होगा, शायद बहुत कुछ अच्छा हो। एक तरह से ठीक ही है, सुखद स्मृतियों का भार थोड़ा और बढ़ने से बच गया। नहीं तो यह भार अघोषित रूप से पृथ्वी के भार से भी ज्यादा भारी होता है।

Friday, 17 November 2017

"अबकी अगर लौटा तो मनुष्यतर लौटूंगा": कुंवर नारायण


'स्वांत:सुखाय तुलसी रघुनाथगाथा।' रामचरितमानस के बालकांड के शुरुआती चरण में रामचरित के सबसे बड़े महाकव्य के रचयिता गोस्वामी तुलसीदास यह घोषणा करते हैं कि इस महाकाव्य की रचना स्वांतःसुखाय यानी कि अंत-करण के आनंद के लिए की जा रही है। आज इस तथ्य का वर्णन इसलिए आवश्यक है कि लगभग इसी वैचारिक गोत्र का एक आधुनिक तुलसीदास बुधवार को दुनिया को अलविदा कह गया और साहित्य से लेकर बौद्धिक विमर्श के हर मंच पर उसे उसके इसी गुणधर्म के आधार पर याद किया जा रहा है। 19 सितंबर 1927 को फैजाबाद में पैदा हुए कुंवर नारायण के लिए कविता कर्म शायद स्वांतः सुखाय की धारणा की परिधि से बाहर नहीं था। एक संपन्न व्यावसायिक घराने से संबंध रखने वाले कुंवर नारायण अपने कवित्व को बाजार के प्रभाव से पूरी तरह से मुक्त रखने के लिए पारिवारिक धंधे में भी उतरते हैं और इससे साहित्य के प्रति अपने समर्पण को हर तरह से अप्रभावित रखने की कोशिश में सफल भी होते हैं। खुद कुंवर नारायण के लहजे में इस बात को आसानी से समझा जा सकता है जिसमें वे कहते हैं कि साहित्य का धंधा न करना पड़े इसलिए मोटर का धंधा करता हूं।

कुंवर नारायण को हिंदी साहित्य में शांति और संतुष्टि के साथ बिना विवादों के जाल में उलझे अपना काम करने वाले साहित्यकार के रूप में जाना जाता है। राजनीति या फिर समाजनीति की विसंगतियों पर बिना विवादित हुए चुपचाप करारा प्रहार कर सकने की जो क्षमता कुंवर नारायण में थी वो शायद किसी भी कलात्मक विधा के शिखर पुरुषों में दुर्लभ है। 90 साल का जीवनकाल जिसमें तकरीबन आधी सदी का वक्त उनकी साहित्यिक-साधना का साक्ष्य है और जिसमें उनके नाम तमाम श्रेष्ठता के भौतिक प्रतिमानों वाले पुरस्कारों की एक बड़ी संख्या शामिल है, इन सबके बीच उनकी यथार्थपरक जीवनशैली, सादगीपूर्ण आचार और सामाजिक दायित्वबोध ने उन्हें किसी भी तरह के व्यर्थ विवादों से काफी दूर रखा हुआ था। कोमल भावनाओं को सरलतम शब्दों में अभिव्यक्त करने की उनकी क्षमता ही उनके रचनात्मक उत्पादों के उपभोक्ता-परिसर के दायरे को बहुत व्यापक बनाती है। कुंवर फैज़ाबाद के हैं। वही फैज़ाबाद जहाँ वह अयोध्या है जिसका शाब्दिक अर्थ उसके सनातन अजेयता के घोषणा की तरह है। शायद इसीलिए अयोध्या के दर्द को उनसे बेहतर उस दौर में कोई नहीं समझ सकता था। इसीलिए कवि कुंवर नारायण स्वयं अयोध्या बनकर शायद नारायण से कहते जान पड़ते हैं कि

हे राम!..
अयोध्या इस समय तुम्हारी अयोध्या नहीं
योद्धाओं की लंका है,
'मानस' तुम्हारा 'चरित' नहीं
चुनाव का डंका है !
हे राम, कहां यह समय
कहां तुम्हारा त्रेता युग,
कहां तुम मर्यादा पुरुषोत्तम
कहां यह नेता-युग !
सविनय निवेदन है प्रभु कि लौट जाओ
किसी पुरान - किसी धर्मग्रन्थ में
सकुशल सपत्नीक....
अबके जंगल वो जंगल नहीं
जिनमें घूमा करते थे वाल्मीक !

कुंवर नारायण की काव्यगत विशेषताओं में शीर्ष पर है उनकी इतिहास और मिथकों की आँख से समकालीन परिदृश्य को देखने की दृष्टि। उपर्युक्त काव्यांश उनकी इस काव्यगत शैली का एक छोटा सा नमूना भर है। कुंवर जी की अन्य रचनाएं उनके विषय में इस धारणा को और पुष्ट करती दिखाई पड़ती हैं। 'आत्मजयी' प्रबंध काव्य में जहाँ उन्होंने कठोपनिषद के 'नचिकेता प्रसंग' की आधार-भूमि पर आधुनिक मनुष्य के जटिल मनः स्थितियों की शानदार अभिव्यक्ति की है वहीं 'वाजश्रवा के बहाने' पिता-पुत्र की दो पीढ़ियों के बीच के अंतर के द्वन्द को प्रकट करने की कोशिश है।

"अच्छा हुआ तुम लौट आए,
मेरे जीवन में
लेकिन जानता हूँ
नहीं आ सकोगे
-चाहकर भी नहीं-
वापस मेरे युग में।।"
इसी संदर्भ में उनकी इस कविता को कौन केवल कृष्ण-सुदामा की मिथक कथा मानेगा जबकि इसमें आधुनिक परिप्रेक्ष्य का दर्शन साफ़-साफ़ दिखाई दे जाता है-

"कैसी बांसुरी? कैसा नाच? कौन गिरिधारी?
जिस महल को तुम
भौंचक खड़े देख रहे हो
वह तो उसका है
जिसकी कमर की लचकों में
हीरों की खान है।
बहुत भोले हो सुदामा
नहीं समझोगे इस कौतुक को.."

कुंवर उस दौर में कलम उठाते हैं जब वैश्विक इतिहास द्वितीय विश्वयुद्ध, भारतीय स्वाधीनता संग्राम और गांधी युग जैसे उल्लेखनीय घटनाक्रमों से साक्षात्कार कर रहा था। 11वीं तक विज्ञान के विद्यार्थी रहने के बाद उन्होंने लखनऊ विश्विद्यालय से 1951 में अंग्रेजी लिटरेचर में एमए की डिग्री हासिल की। 1956 में उनका पहला काव्य संग्रह चक्रव्यूह प्रकाशित हुआ, जिसके बाद कुंवर नारायण तत्कालीन शिखर साहित्यकारों की नज़र में आ गए। उनकी इसी कृति से प्रभावित होकर 1959 में अज्ञेय ने जब तीसरा सप्तक प्रकाशित किया तब केदारनाथ सिंह, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना और विजयदेव नारायण साही के साथ इनकी रचनाओं को भी उसमें शामिल किया। यहीं से कुंवर नारायण की लोकप्रियता के प्रकाश ने अपनी तीव्रता बढ़ायी। 1965 में उनका दूसरा प्रबंध काव्य संग्रह 'आत्मजयी' प्रकाशित हुआ। कुंवर जी की प्रतिभा का प्रसार साहित्य की हर विधाओं की ओर था। निबन्ध, उपन्यास, कहानी आदि में भी उनकी कलम खूब चलती लेकिन कविताओं से उन्हें ज्यादा लगाव था और इसीलिए जीवन पर्यंत उनकी रचनाधर्मिता का केंद्र बिंदु कविताएं ही बनी रहीं। कुंवर नारायण अपनी कविताओं में जीवन की बात करते हैं, मृत्यु की बात करते हैं, प्रेम की बात करते हैं, मनुष्यता की पैरोकारी करते हैं लेकिन राजनैतिक सन्दर्भों से जुड़ी कविताएं उनके हुजरे में काम ही दिखाई पड़ती हैं। इससे यह कतई सिद्ध नहीं हो जाता कि कुंवर अपने समकालीन राजनैतिक विसंगतियों का प्रत्युत्तर देने के कर्तव्यबोध से पीछे हटने वाले कवि हैं बल्कि जब-जब उन्हें ऐसी प्रतिक्रियाओं की आवश्यकता महसूस हुई है उन्होंने मुखर होकर अपनी प्रतिक्रिया दी है। साम्प्रदायिक-जातिगत-भाषायी और क्षेत्रीय आधारों पर नफरत की राजनीति को जवाब देते हुए कुंवर नारायण ने अपने अंदाज़ में लिखा है कि

"एक अजीब-सी मुश्किल में हूं इन दिनों
मेरी भरपूर नफरत कर सकने की ताकत
दिनोंदिन क्षीण पड़ती जा रही है।
अग्रेंजो से नफरत करना चाहता
( जिन्होने दो सदी हम पर राज किया)
तो शैक्सपीयर आड़े आ जाते
जिनके मुझ पर न जाने कितने एहसान हैं।
हर समय
पागलों की तरह भटकता रहता
कि कहीं कोई ऐसा मिल जाए
जिससे भरपूर नफरत कर के
अपना जी हलका कर लूं!
पर होता है इसका ठीक उल्टा
कोई-न-कोई, कहीं-न-कहीं, कभी-न-कभी
ऐसा मिल जाता
जिससे प्यार किए बिना रह ही नहीं पाता!
दिनोंदिन मेरा यह प्रेम-रोग
बढ़ता ही जा रहा
और इस वहम ने पक्की जड़ पकड़ ली है
कि यह प्रेम किसी दिन मुझे
स्वर्ग दिखाकर ही रहेगा"

नफरत और दुर्भावना से भरी दुनिया में कवि की एक और हसरत की बानगी देखिये जिसमें वह कहता है कि

"इन गलियों से बेदाग गुजर जाता तो अच्छा था
और अगर दाग ही लगना था तो फिर
कपड़ों पर मासूम रक्त के छींटे नहीं
आत्मा पर किसी बहुत बड़े प्यार का जख्म होता
जो कभी न मरता।"

साहित्य से जुड़े तमाम प्रतिष्ठित पुरस्कार मसलन साहित्य अकादमी पुरस्कार, कबीर सम्मान, व्यास सम्मान, हिंदी अकादमी का शलाका सम्मान के साथ कुंवर नारायण को सर्वोच्च साहित्य सम्मान ज्ञानपीठ पुरस्कार से भी नवाजा गया लेकिन पुरस्कार उनके लिए केवल प्रोत्साहन का स्रोत बने रहे। कविताओं में प्रयोगधर्मिता के पक्षधर और हमेशा लीक से हटकर चलने वाली प्रवृत्ति के बावजूद भी उनका किसी भी वाद-विवाद से आजीवन पाला नहीं पड़ा और इसीलिए साहित्यकारिता के शीर्ष पर होते हुए भी जीवन भर अविवादित बने रहने वाले कुंवर नारायण के जाने से पूरा साहित्यिक गलियारा शोक-संतप्त है। उनके प्रयाण से उपजे शून्य की भरपाई उन्हीं के भरोसे इसलिए भी छोड़ी जा सकती है क्योंकि कुंवर नारायण लौट आने वाले कवि हैं, वो भी जैसे गए थे वैसे नहीं बल्कि उससे भी बेहतर, उससे भी बृहत्तर, उससे भी मनुष्यतर।

अबकी अगर लौटा तो
बृहत्तर लौटूंगा
चेहरे पर लगाए नोकदार मूँछें नहीं
कमर में बांधें लोहे की पूँछे नहीं
जगह दूंगा साथ चल रहे लोगों को
तरेर कर न देखूंगा उन्हें
भूखी शेर-आँखों से।
अबकी अगर लौटा तो
हताहत नहीं
सबके हिताहित को सोचता
पूर्णतर लौटूंगा।

अंतिम प्रणाम!

Monday, 13 November 2017

'पूँजी से जुड़ा हुआ हृदय बदल नहीं सकता': मुक्तिबोध

मुक्तिबोध की साहित्यिक यात्रा के बारे में कुछ लिखना चाह रहा था, इसीलिए पिछले कई दिनों से उन पर लिखे लेखों का एकत्रीकरण करने के साथ-साथ अपने झोले में उनकी किताब 'चांद का मुंह टेढ़ा है' लेकर घूम रहा था। कुछ पढ़ा, कुछ नहीं पढ़ पाया, अलग-अलग कारणों से। उनकी प्रसिद्ध कविताएं 'अंधेरे में' 'ब्रह्मराक्षस' आदि पढ़ने-समझने की कोशिश अब भी जारी है। लेकिन एक ऐसे लेखक को इतने कम समय में समझने की जल्दबाजी एक भयंकर मूर्खता से बढ़कर कुछ नहीं हो सकती जिसका सही तरीके से बोध होने को लेकर आज भी हिंदी साहित्य-समाज 'लेकिन-किंतु-परंतु' के प्रश्नजाल से पूरी तरह मुक्ति नहीं पा सका है। कविता की लय और प्रवाह कविता-पाठ का सबसे मजबूत आकर्षण हैं। कविता की भाषा और भावार्थ की जटिलता पसीने छुड़ा देने के लिए पर्याप्त है।
गजानन माधव मुक्तिबोध लेखकों की उस विरल जमात में से हैं जिसनें अपनी लोकप्रियता का एक बड़ा हिस्सा अपनी अनुपस्थिति से देखा है। मरणेतर लोकप्रियता के गिने-चुने उदाहरणों में मुक्तिबोध का सम्मिलन उनकी रचनाओं की दिव्यता के प्रमाण-पत्र की तरह है। जीते जी उन्होंने अपनी दो ही रचनाएं प्रकाशित अवस्था में देखीं जिनमें पहली है- 'कामायनी एक पुनर्विचार' और दूसरी 'भारतीय इतिहास और संस्कृति' पर एक पाठ्य पुस्तक। जिस रचना ने आगे चलकर उनकी पहचान का प्रतिनिधित्व धारण किया उसका प्रकाशन उनके जीते जी संभव नहीं हो पाया था। कालजयी रचना अंधेरे में और उनका पहला काव्य संग्रह 'चांद का मुंह टेढ़ा है' उनके निधन के दो साल बाद प्रकाशित हुआ। कविता को कालजयी बनाने के लिए प्रकाशित पृष्ठों पर अपना नाम देखने की लालसा को छोड़ना ही पड़ता है और जनरूचि की जगह कलम में यथार्थ की स्याही भरने की हिम्मत करनी ही पड़ती है। साठ के दशक में अभिव्यक्ति पर आखिर कौन सा बड़ा खतरा रहा होगा! लेकिन आजादी के बाद से ही लगातार गिरते हुए स्वतंत्रता संग्राम के आधार-मूल्यों को मुक्तिबोध बड़े उद्विग्न मन से देख रहे थे। उसी क्रम में उन्होंने आज की तारीख का भी अनुमान लगाया होगा और लिखा होगा -
"अब अभिव्यक्ति के सारे ख़तरे
उठाने ही होंगे।
तोड़ने होंगे ही मठ और गढ़ सब।
पहुँचना होगा दुर्गम पहाड़ों के उस पार
तब कहीं देखने मिलेंगी बाँहें
जिसमें कि प्रतिपल काँपता रहता
अरुण कमल एक
ले जाने उसको धँसना ही होगा
झील के हिम-शीत सुनील जल में।"
ये वो अनुमान था जो नरेंद्र दाभोलकर, कुलबुर्गी और और गौरी लंकेश की हिम्मत का स्रोत भी बना और स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति को बंधक बनाने वाली शक्तियों से लड़ने की घोषणा करने वाला सेनापति-वाक्य भी। उनकी 'अंधेरे में' कविता वास्तव में प्रकाश है। प्रकाश वह जो तमाम ऐसे हकीकत को प्रकाशित करता है जिस पर भ्रम और षडयंत्र की दुरभिसंधियों के अंधकार का आवरण हो। विचारधारा से वामपंथी होना ही सिर्फ उन्हें इन पंक्तियों का लेखक नहीं बनाता कि
"कविता में कहने की आदत नहीं, पर कह दूँ
वर्तमान समाज में चल नहीं सकता।
पूँजी से जुड़ा हुआ हृदय बदल नहीं सकता।
स्वातन्त्र्य व्यक्ति वादी
छल नहीं सकता मुक्ति के मन को,
जन को।"
बल्कि मुक्तिबोध के अनुभव की दृष्टि ने इस कविता के आशय को यथार्थ में झेला और महसूस किया था, इसलिए वो ऐसा लिख पाए। मुक्तिबोध के बारे में कहा जाता है कि वह आत्माभियोग के कवि थे, अपना अंतर्द्वंद, आत्मसंघर्ष और अंतःकरण का प्रतिबिंब उन्होंने अपनी कविताओं में उतारा है। मुक्तिबोध के विषय में इतना कुछ टिप्पणी करने का सामर्थ्य मेरा अपना अध्ययन अब तक नहीं प्राप्त कर सका है लेकिन कहीं-कहीं उनकी कलम लोगों की इस आशंका पर शत प्रतिशत खरी उतरती है। जैसे यहीं देख लें कि गजानन माधव कितने चौराहों का दर्शन कर मुक्तिबोध बने थे-
मुझे कदम-कदम पर
चौराहे मिलते हैं
बाँहे फैलाए !
एक पैर रखता हूँ
कि सौ राहें फूटतीं,
व मैं उन सब पर से गुजरना चाहता हूँ
बहुत अच्छे लगते हैं
उनके तजुर्बे और अपने सपने...
सब सच्चे लगते हैं;
अजीब सी अकुलाहट दिल में उभरती है
मैं कुछ गहरे मे उतरना चाहता हूँ,
जाने क्या मिल जाए !
अगर मुक्तिबोध होते तो जीवन की एक सदी के आखिरी बिंदु पर खड़े आने वाले न जाने कितनी सदियों के रहस्य अपनी दूरदर्शिता से खोल गए होते। जैसे उन्होंने तब खोल दिया था और कहा था कि "अभिव्यक्ति के खतरे उठाने ही होंगे, तोड़ने होंगे ही मठ और गढ़ सब।" लेकिन ऐसा नहीं है। मुक्तिबोध हमारे बीच सशरीर नहीं हैं लेकिन केवल सशरीर नहीं हैं बाकी शायद उनके अस्तित्व को खत्म करने के लिए किसी भी तरह के काल का मात्रक असहाय ही हो सकता है।

Wednesday, 8 November 2017

8 नवंबरः "ये इन लोगों ने क्या कर दिया"

आठ नवंबर की तारीख को कौन भूल सकता है। आठ नवंबर छोड़िए, 9 नवंबर याद करिए। एक बुरे वक्त की तरह था वह दौर, जिसको याद करते ही आपके चेहरे पर एक सुकून भाव तैर जाएगा कि चलो बीत गया किसी तरह वह वक्त। मोदी सरकार की आर्थिक नीतियों के तहत लिए गए एक फैसले ने समूचे देश के लोगों की समस्त अर्थव्यवस्था को हिलाकर रख दिया था। रिजर्व बैंक के गवर्नर की जगह 'सुधार' और 'प्रहार' के स्वयंभू पुरोधा और देश के प्रधानमंत्री के 'मितरोंमय' संबोधन ने तीन कारणों को गिनाते हुए देश पर नोटबंदी का 'थोपनीकरण' कर दिया। पहला कारण था कि इससे काले धन की समाप्ति सुनिश्चित होगी, दूसरा जाली नोटों पर लगाम लगेगी और तीसरा कारण था आतंकवाद की अर्थव्यवस्था के स्रोत बंद हो जाएंगे। जब देश में इस फैसले को लागू किया गया था उसके कुछ दिन बाद राज्यसभा में बोलते हुए पूर्व प्रधानमंत्री और निस्संदेह एक मंजे हुए अर्थशास्त्री डॉ मनमोहन सिंह ने कहा था कि नोटबंदी जीडीपी के गिरावट का कारण बनेगी और यह सरकार द्वारा कानूनन चलाई जा रही व्यवस्थित लूट है। आज मनमोहन सिंह की बातें थोड़ी बहुत स्पष्ट जरूर हो रही होंगी। राहुल गांधी ने एक भाषण में बोलते हुए कहा था कि नोटबंदी की घोषणा के तुरंत बाद जब उन्होंने मनमोहन सिंह से बात करते हुए उन्हें इसकी जानकारी दी थी तब वह एकदम शॉक्ड हो गए थे। कुछ मिनट बाद जब मनमोहन सिंह बोले तो उनके शब्द थे - "ये इन लोगों ने क्या कर दिया।"

नोटबंदी होते ही सारा देश एटीएम की लाइनों में देश के प्रति एक अमूर्त भक्ति के मार्फत कुछ दिनों के लिए फिट हो गया। फिट इसलिए हो गया कि तब एटीएम से पैसा निकालने की सीमा 2500 रुपए थी जो शायद बहुतों की जरूरत के हिसाब से काफी कम थी, इसलिए हर रोज लाइन में लगना उनकी मजबूरी थी। बेर सराय में छोटी दुकानें लगाने वालों की विवशता हम लोगों से बात करते वक़्त साफ़ झलकती थी। लेकिन नोटबन्दी के साथ 'देशभक्ति' का भी मसला था, इसलिए उनके हिसाब से भी 'मोदीजी' का ये बहुत सही फैसला था। 100 से ज्यादा लोगों की जानें गयीं और 'देशभक्तियुक्त उद्देश्यों' की पूर्ति में जान देने वाले 'अघोषित शहीदों' के कफ़न पर देश के नेताओं के विश्लेषण छपते-मिटते रहे। लाखों लोगों को नौकरियों से हाथ धोना पड़ा। साथ ही इसके बाद भी नयी बेरोजगारी खेंप को नौकरियां दुश्वार हो गईं थीं।
प्रधानमंत्री भावुक आदमी हैं। उनसे देश का यह दर्द देखा नहीं जा सकता था। सो वह तो निकल लिए थे जापान। उनके सहयोगियों के पास प्रधानमंत्री के उन्हीं तीन कारणों की परिधि में जनता को सर्वश्रेष्ठ जवाब देने की होड़ लगी थी। बाद में जब एक एक कर उनके कारणों के ये तीनों महल ताश के पत्तों की तरह ढहते गए, तब जापान से लौटे प्रधानमंत्री ने रहस्य से पर्दा उठाया कि नोटबंदी का असली कारण तो देश को कैशलेस बनाना था। ये बयानों के यूटर्न का दौर था और जनता को उसकी मूर्खता का भान कराने का भी।
खैर, पुराने 500 और 1000 के नोटों की आज पहली पुण्यतिथि है। 9 नवंबर 2016 की शुरूआत से ही 500 और हजार के नोट लीगल टेंडर से बााहर हो गए थे। प्रधानमंत्री ने इसके प्रभावों के प्रदर्शन के लिए पचास दिन का वक्त मांगा था। साल भर हो गए और नोटबंदी के चारों लक्ष्य आपके सामने हैं। वक्त ने अपना जवाब हम सबके सामने रख दिया है। पहचानना हमें है कि जवाब क्या-क्या हैं। उसके लिए सबसे पहले राजभक्ति और स्वयं-परिभाषित राष्ट्रभक्ति के चश्मे को उतारना होगा। और देखना होगा कि जिन मच्छरों को मारने के लिए सरकार ने तोप निकाला था, उनकी स्थिति क्या है?
हाल ही में जब बैंक में जमा किए गए सारे पुराने नोटों की गिनती की गई थी तो पता चला था कि तकरीबन 99 प्रतिशत पुराने नोट बैंक में वापस आ गए हैं। सरकार तब दावा करती थी कि नोटबंदी की वजह से अधिकांश काला धन अर्थव्यवस्था से बाहर हो जाएगा। क्या ऐसा हुआ? कहाँ गया काला धन? हालाँकि इसकी आहट तो फैसले के कुछ ही दिनों बाद से आनी शुरू हो गयी थी। तमाम अर्थशास्त्रियों का कहना भी था कि बहुत कम मात्रा में काल धन कैश में होता है।
नोटबंदी के बाद जम्मू कश्मीर में आतंकी घटनाओं में कोई कमी नहीं आई है। फर्स्टपोस्ट में छपे एक लेख में इशफाक़ नसीम ने कुछ आंकड़े पेश किए हैं जो हकीकत से हम सबका थोड़ा बहुत परिचय करवाते हैं। नसीम लिखते हैं कि गृह मंत्रालय और जम्मू और कश्मीर पुलिस के आंकड़ों के मुताबिक, 2013 में 53 सुरक्षा बलों के जवान शहीद हुए थे और 67 आतंकी मारे गए थे। 2014 में यह संख्या क्रमशः 47 और 110 थी। 2015 में यह आंकड़ा 39 और 108 का था। 2016 में यह एक बार फिर बढ़कर 82 और 150 पर पहुंच गया।
प्रधानमंत्री द्वारा जो तीसरा कारण गिनाया गया था वह था इस फैसले के बाद से जाली नोटों के इस्तेमाल पर लगाम लगेगी। नोटबंदी के वक्त बाजार में 500 और 1000 के तकरीबन 85 फीसदी नोट चलन में थे। एक केंद्रीय बैंक के अनुमान के मुताबिक देश में तकरीबन 0.2 प्रतिशत ही जाली नोट प्रचलन में थे। ऐसे में इतनी कम मात्रा में जाली नोटों पर प्रहार करने के लिए 85 फीसदी नोटों को बंद कर देने का फैसला करने की मूर्खता करना बड़ी हिम्मत का काम था।
मेरे गांव से तकरीबन 12 किलोमीटर दूर एक कस्बा है रूद्रपुर, जहां हम रहते थे। रूद्रपुर में इंटरनेट सर्फिंग में कोई खास समस्या नहीं थी। बैंक-वैंक भी पर्याप्त मात्रा में हैं। अधिकांशतः कैशलेस रहने वाले 6-7 एटीएम भी हैं। लेकिन इसी रूद्रपुर से 12 किलोमीटर पर स्थित हमारे गांव में न तो इंटरनेट की सुविधा है, न बैंक हैं और न एटीएम। सिर्फ हमारे गांव में ही नहीं, आस-पास नजदीकी बैंक या फिर इंटरनेट नेटवर्क ढूंढने में आपको तकरीबन 6-7 किलोमीटर तक की यात्रा करनी पड़ सकती है। उत्तर प्रदेश के एक महानगर गोरखपुर से डेढ़ घंटे की दूरी पर स्थित एक गांव कैशलेस इकॉनॉमी के मंसूबों के आधार की सच्चाई बयान करता है। बिना तैयारी किए कैशलेस इकानॉमी के लिए ही अगर नोटबंदी का फैसला लिया गया था तो आप यह सवाल नरेंद्र मोदी से पूछिए कि डिजिटल कैशलेस ट्रांजेक्शन ग्रामीणों की सुविधा के लिए हैं या उन्हें और आर्थिक मुसीबत में डालने के लिए है।
नोटबंदी के उद्देश्यों के कड़वे हकीकत का यह एक उथला विश्लेषण है। तमाम आर्थिक दांवपेंच की तो मुझे कोई जानकारी नहीं है। विमुद्रीकरण का सार्थक, वास्तविक और तार्किक उद्देश्य क्या था यह अभी तक शायद सरकार भी तय नहीं कर पाई है इसीलिए, समय-समय पर जिम्मेदारों के बयान अपने-अपने मानी बदलते रहते हैं। अब तो इस सरकार के किसी भी दावे पर भरोसा नहीं होता। बाकी नोटबंदी के प्रभावों की अगर एकवर्षीय समीक्षा आप भी करना चाहते हैं तो पिछले साल दिसंबर में नोटबंदी के एक महीने बाद की स्थिति की तस्वीर खींचता यह लेख पढ़िए, साथ में संलग्न कर रहा हूं। इससे आप अपने अनुभवों और विवेक के हिसाब से शायद स्थिति का बेहतर विश्लेषण कर पाएं।

http://aksharsindhu.blogspot.in/2016/12/blog-post.html?m=1

Tuesday, 7 November 2017

कविताः जीवन एक विद्रोह तलाशता है..

हम जीवन भर मुक्त नहीं हो पाते
जीवन एक विद्रोह तलाशता है।
सालों से जमा कर लिया है लावा
अधूरी ख्वाहिशों का,
तिनका-तिनका भरता है
असंतोष का घड़ा, जिसमें
एक-एक बूंद हर पल का वो क्रोध -
या खीझ ही कहें तो न्याय होगा,
शामिल होता जाता है
जो रात के ख्वाब के हकीकत बनने
की संभावना को 
सामने से दूर गुज़रते देखते पनपता है।
ये आसमान दिख तो आसानी से जाता है
लेकिन उसे छूने में 
सिर्फ पसीना नहीं ज़िन्दगी छूट जाती है।

एक खीझ वह भी होती है
जो इस खीझ के भभक न पाने से उठती 
और उसी असंतोष के घड़े में जमा हो जाती है।
मर जाना क्या होता है?
ये अर्थी-शमशान-संगम का पानी
या पोस्टमॉर्टम का बॉक्स 
उतना बेहतर नहीं बताएगा, जितना कि
यह खीझ बताएगी जो
दावा करने, जीतने, पा लेने
मगर अपना न पाने की मजबूरी के बीच 
पिस रही है।
खीझ ही जीवन का हासिल है
और संभावनाओं की नदी में 
घटनाओं की नाव के लिए साहिल भी।

सपने कद से ऊँचे हैं,
देखते देखते गले में ऐंठन आ गयी है।
आशाएं वृक्षों की तरह हैं
जिनके हवाओं की प्रभुता कहीं बंधक है,
स्वतंत्र नहीं है।
इसलिए भीषण धूप की तपन में छाया एक भ्रम 
की तरह लगती है।
शरीर पसीने को बाहर कर देता है
और खाली हुयी जगह पर भर जाती है फिर से
एक बूंद खीझ।

जीवन भर हम जुटाते हैं
छोटी-छोटी असफलताएं और अभाव।
और एक दिन 
बिना जेब वाले आखरी कपड़े की थैली में
हमारे सारे जीवन की पूँजी के नाम पर
कुछ अधूरे सपने, कुछ अपूर्ण इच्छाएं
और मुट्ठी भर खीझ ही बच पाती हैं।।

हम जीवन भर मुक्त नहीं हो पाते,
ऐसा इसलिए नहीं कि हम
आज़ादी नहीं चाहते,
ऐसा इसलिए कि हमें 
आज़ादी की ग़लत पहचान है।
हमारी अधीनता 
हमारे आज़ाद होने की ख्वाहिश से ही
सिद्ध हो जाती है।
कि हमने एक व्यवस्था के अधीन 
आज़ादी का विकल्प चुन लिया है।
हमारी आजादी की बातें
हकीकत की जमीन के ठीक पीछे बुलंद होती है,
हकीकत पर आकर वो आजादी की नई परिभाषा गढ़ती हैं
अनुभव के व्याकरण का सहारा लेकर,
फिर आजादी की सीमा थोड़ी और आगे खिसक जाती है।
हम फड़फड़ाते हैं
कि हमारी आजादी 
बंधक है आजादी की परिभाषा में
हमारी आजादी बंधक है
दर-बदर होने के डर की आशंका में
जब हमारी आजादी बंधक है
तो हमें आजाद होकर भी क्या मिलेगा।
मेरी खीझ के घड़े का आधा हिस्सा
इस सवाल का उद्घोषक है
कि आजाद कैसे हो सकते हैं??

Monday, 6 November 2017

हम भी अगर धारा के लक्ष्य पर हैं तो..

क्या तुम भी लौटकर आ पाओगे?
(Photo credit: Abhishek Shukla)
धाराएं मोड़ने की कोशिश को दुनिया किस तरह देखती होगी? क्या धाराएं मुड़ती होंगी? क्या तुम भी लौटकर आ पाओगे? अपने उन सभी अवयवों के साथ जिसकी वजह से तुम तुम हो! जिसकी वजह से हम तुम्हें फिर से चाहते हैं, अभी! एक-एक इंच भी उसी तरह वापस, जिस तरह तुम हममें और हमारी तारीख में सम्मिलित हुए जा रहे थे!

क्या सब कुछ वैसे ही गुजरेगा जैसे अभी गुजर चुका है?
(Photo credit: Shatakshi Asthana)
नहीं न! अच्छा, अगर मिल भी गए तो क्या होगा? फिर से हम उसी तरह जिएंगे जिस तरह तुम्हें पहले एक बार जी चुके हैं? क्या फिर वही गलतियां, वही झगड़े, वही प्यार, वही जीत, वही हार एक बार और लिखते जाएंगे अपनी उम्र के कागज़ पर? क्या उसमें हम कुछ भी नहीं बदलेंगे? अच्छा मान लो, तुमने हमारे हिस्से का वक़्त खींचकर फिर एक साल पीछे कर दिया तो क्या सब कुछ वैसे ही गुजरेगा जैसे अभी गुजर चुका है? उन्हीं रास्तों को कुचलते हमारे पदचिह्न बिलकुल भी अपनी जगह नहीं बदलेंगे? ठठा कर हँसते हुए हम जिनके हाथों पर अपने हाथ पीटते थे क्या वे भी वही रहेंगे? तनाव और आंसुओं से भरे दिमाग का बोझ ढोने वाले कंधे भी नहीं बदलेंगे? चाय की एक एक प्याली वही होगी और उसमें चाय भी उतनी ही? ओस से भीगे हुए मौसम के निर्लक्ष्य भ्रमण में हमारे कदम की गिनती भी उतनी ही होगी, जितनी ब्रह्मपुत्रा हॉस्टल से होते हुए इम्यूनोलॉजी वाले गेट से निकलकर आईआईएमसी पहुँचने तक हमने गिनी थी? पीएसआर की पहाड़ियों पर गाए हुए हमारे हर गाने की धुन और उसके भूले-बिसरे शब्द उसी अपूर्णता के साथ हमें वापस मिलेंगे क्या? या फिर उस सड़क पर थिरकते पाँव की हर थाप, आवाज़ की उसी तीव्रता से वापस मिलेगी?



मगर कब तक यह पुनरावृत्ति जारी रहेगी?
क्या ऐसा हो पाएगा! अगर ऐसा हो भी पाएगा तो क्या हमारी चेतना को यह स्मरण रहेगा कि यह वक़्त हम दोबारा जी रहे हैं? अगर ऐसा नहीं होगा तो फिर जब यह वक़्त ख़त्म हो जाएगा तब हम क्या करेंगे? क्या फिर से मांगेंगे यही गुज़रा हुआ वक़्त? मगर कब तक यह पुनरावृत्ति जारी रहेगी? अच्छा, अगर ऐसा नहीं होगा, यानि कि हमें याद होगा कि हमारे वक़्त की रेखा को पीछे खिसकाया गया है और हम सारे पल दोबारा जी रहे हैं तो क्या हम बोर नहीं हो जाएंगे? जब हमें पहले से ही पता होगा कि पीएसआर से हम सनसेट नहीं देखने वाले हैं और इस वजह से अपनी एक दोस्त बहुत ज्यादा नाराज़ हो जाने वाली है, जब हमें पहले से ही मालूम होगा कि हम एक ऐसी स्पर्धा के एथलीट हैं जिसमें आगे जाकर हारने ही वाले हैं, तो क्या सब कुछ मिलकर एक नीरस सी कहानी नहीं बन जाएंगे? अगर ऐसा होगा तो क्या उन वक़्तों की अपनी ये सुखद स्मृतियाँ बकवास नहीं हो जाएंगी? अभी तो कम से कम हमारे पास उस वक़्त की बेहतरीन यादे हैं, वक़्त-बेवक्त जिनके पन्ने खोलकर हम थोड़ा मुस्कुरा लेते हैं और थोड़ा आंसू भी बहा लेते हैं! अगर ये स्मृतियाँ, वो गुजरा वक़्त लौट आए और हम उसे दुबारा जी भी लें तो क्या उससे नफरत नहीं हो जाएगी?

एक निश्चित दूरी के बाद उसे प्राचीनता का अंतिम चिह्न भी छोड़ना होगा
हर नयी धारा में पुरानी धारा के अवशेष बहुत ही कम मात्रा में ही सही होते तो हैं न! नदी के किसी एक खंड पर हर धारा नयी भी है पुरानी भी। नई वह आगे के लिए है और पुरानी पीछे के लिए। धारा को वहां रुककर अमरता प्राप्त नहीं करनी। जिस दिन वह नवलता के प्रतिरुद्ध ठहरने यानि अमरत्व पाने की कोशिश करेगी उस दिन वह नदी के रूप में मर जाएगी। उसका नद्यत्व इसी में है कि वह आगे बढ़े और नवीन धाराओं में परिणत होती रहे। कि यही उसकी अमरता है। एक निश्चित दूरी के बाद उसे प्राचीनता का अंतिम चिह्न भी छोड़ना होगा ताकि वह नए कलेवर में ढल सके। चाहे-अनचाहे उसे ऐसा करना ही पड़ेगा। हम भी अगर धारा के लक्ष्य पर हैं तो हमें भी ऐसा करना ही पड़ेगा। चाहे या फिर अनचाहे।