Saturday 11 August 2018

परंपरागत धार्मिकता पर राजनीति-प्रेरित धार्मिकता हावी होने लगी है

फोटोः इंटरनेट से साभार

समर्थन-विरोध की बाइनरी से हटकर लिखना आसान तो है लेकिन समझा पाना बड़ा मुश्किल है। कांवड़ यात्रा को लेकर दो तरह के पक्ष दिख रहे हैं। एक तो सम्पूर्ण कांवड़िया समुदाय को हिंसक, उग्र और बद्तमीज़ लिख रहा है। दूसरा धार्मिक स्वतंत्रता के नजरिये से तथा कुछ कु-अपवादों से परे होकर कांवड़िया शब्द के सम्मान की बात कर रहा है। यह सच है कि जजमेन्ट देने के लिए आपको दोनों पक्षों पर निष्पक्ष विचार करना चाहिए। पिछले कुछ दिनों से जारी धार्मिक आवरण वाले उपद्रव की कुंठाओं से बाहर निकलकर।

धार्मिक आस्थाएं बेहद ही शालीन, पवित्र और भली होती हैं। नरम भाव। कल्याण की शुभेच्छा। किसी भी प्राणी को तकलीफ न पहुँचाना। हर समुदाय की धार्मिक आस्था की परिभाषा इन दो-चार बिंदुओं के साथ ही पूरी होती है। हमारे समाज का एक वक्त ऐसा भी था जब अधिकांश युवा वर्ग दिवा स्वप्नों, 'पथभ्रष्ट' गतिविधियों और नास्तिक विचारधाराओं के लिए लगातार कोसा जाता रहा था। भगवान से दूरी, धार्मिक मान्यताओं, विधि-विधानों को ख़ारिज कर देने की उसकी प्रवृत्ति की वजह से घर के बुज़ुर्ग उन्हें हिकारत से देखते थे। हमारे परिवार में भगवद्भजन या धर्म से जुड़े कामों में संलग्न कोई भी बच्चा बहुत ही संस्कारी, शिष्ट और सभ्य माना जाता था। लेकिन फिर आखिर ऐसा क्या हुआ कि जो युवा वर्ग बढ़ती उम्र के साथ 'नास्तिकता' की दहलीज पर बढ़ता था वही धर्म ध्वजा उठाकर हिन्दू सुरक्षा और राष्ट्र बचाने के अभियान में शामिल हो गया?

अभियान भी यूं कि दुर्गा पूजा, जन्माष्टमी, दीवाली से लेकर कांवर यात्रा जैसे उत्सवों की शालीनता सड़कों पर गुंडागर्दी का तांडव करने लगी। दुर्गा पूजा में अराजकता और फूहड़ता का जो प्रदर्शन होता है कि दुर्गा-काल के राक्षस भी शर्मा जाएं। कांवर यात्रा में जो कुछ भी हो रहा है उसे हम देख ही रहे हैं। भक्तों से कौन डरता था? लेकिन आज हम डर रहे हैं। पहले भक्तों का समूह निकलता था तो सारा समाज धार्मिक और जातिगत बाधाओं के पार आकर उनकी सेवा में लग जाता था। क्या कि, यही धर्म है। पुण्य मिलता है। भगतजन भी सेवा करवाने को हमेशा तैयार नहीं रहते थे। क्या कि, हमारे समस्त अर्जित पुण्य कहीं सेवा करके ये न ले जाएं। ऐसे भक्त अब नहीं दिखते। कारण यही नए भक्त हैं।

पूजा-पाठ निहायत व्यक्तिगत मामला है। प्रदर्शन की इसमें कोई जगह नहीं है। दादी बताती हैं कि पूजा-पाठ, दया-दान-पुण्य आदि का प्रदर्शन करने पर उसका फल नहीं मिलता। गुप्त-दान को इसीलिए महत्वपूर्ण माना गया है। दादी का कहना है कि धर्म का पालन करना बहुत कठिन है। जो धर्म का पालन नहीं करता वह धर्म की रक्षा क्या करेगा? लेकिन, हमारे देश के युवाओं ने धर्म की रक्षा का भार अपने ऊपर ले लिया है। उन्होंने चोला तो पहन लिया धर्म का लेकिन धर्म को धारण नहीं कर पाए। इसलिए, धार्यते इति धर्म: की परिभाषा से बाहर हो गए। आजकल अधार्मिकों ने धर्म की रक्षा का ठेका ले लिया है। हम चुप होकर उन्हें अपनी सहमति भी प्रदान कर रहे हैं।

फोटोः इंटरनेट से साभार
धर्म के राजनीतिकरण ने धार्मिक कृत्यों का चरित्र बदला है। राम मंदिर आंदोलन का इसमें उल्लेखनीय योगदान है। धर्म जब मंदिरों से बाहर आया तब युवाओं ने उसे हाथों हाथ लेना शुरु कर दिया। धार्मिक अभिवादन जब राजनीतिक नारों में तब्दील हुए तब भगवान और धार्मिक कार्यों से हमेशा विमुख रहने वाला युवा वर्ग अलग तरह की आस्तिकता की ओर बढ़ने लगा। इस आस्तिकता में धर्मग्रंथों का अध्ययन कितना है यह रिसर्च का विषय है। इस आस्तिकता में शालीनता और समावेशी भाव के साथ एक घृणाभाव, एक अलगाव, उग्रता और आक्रामकता भी शामिल हो गई है। राजनीतिक रैलियों और धार्मिक यात्राओं के नारे लगभग एक होने लगे हैं। राजनीति के साथ धर्म में भी रोमांच मिलने के साथ ही युवाओं का आकर्षण इस ओर तेजी से बढ़ने लगा है। फलस्वरूप, दशहरे में जागरण के मंच और मूर्ति स्थापना समितियों की संख्या बढ़ने लगी है। मूर्ति स्थापना तथा विसर्जन के दौरान डीजे पर बजते कनफोड़ू संगीत के बीच की अराजकता सामान्य घटना होने लगी है। कांवड़ यात्रा में भी इसी तरह के दृश्य दिखने लगे हैं। धर्म उन्माद हो गया है। राजनीति प्रेरित धार्मिकता परंपरागत धार्मिकता पर हावी होने लगी है।

राजनैतिक धर्मवाद के साथ एक और चीज का जन्म हुआ है। हिन्दू राष्ट्रवाद का। मतलब हिन्दवी संस्कृति ही असल राष्ट्रवाद का चरित्र है। इतिहास के शब्दकोष में हिन्दू के कई अर्थ हैं। हिन्दू धर्म भी है, संस्कृति भी, पंथ भी और भौगोलिक पहचान भी। हम सबको एक ही अर्थ में समेटकर राष्ट्रीयता का प्रमाणपत्र तैयार करने पर तुले हैं। हिन्दू धर्म का प्रसार भारत से बाहर भी है। क्या संसार भर के हिन्दू भारतीय हैं? हिंदुत्व को राष्ट्रवाद में सम्मिलित कर उसके दायरे को 32 लाख वर्गकिलोमीटर के इस देश की सरहदों में समेट नहीं रहे क्या हम! इस देश में कोई बाहरी नहीं है इस सत्य को कब स्वीकार किया जाएगा। हज़ारों साल पहले कौन कहाँ से आया था इस आधार पर लड़ाई झगड़े कब ख़त्म होंगे। आदिकाल में यायावरी सभ्यता थी। सब कहीं न कहीं से आए-गए हैं। अब स्थायी सभ्यता है। सब स्थिर हैं। पलायन नहीं होता। वक़्त बदला, सभ्यता बदली तो सोच भी बदलनी चाहिए कि नहीं?

खैर, हम युवाओं की आधुनिक धार्मिक सहभागिता पर बात कर रहे थे। धर्म के साथ जुड़ने, पूजा-पाठ करने से कोई नुकसान नहीं है। हां, आप विज्ञान से थोड़े दूर होते जाते हैं। लेकिन उसका भी संतुलन बना हुआ है। वैज्ञानिक सोच जिनमें विकसित हो जाती है फिर वो किसी की नहीं  सुनते। आप आस्तिक बनिए। पूजा कीजिये। नमाज कीजिये। शिव को पूजिए। राम को पूजिए। अल्लाह, बुद्ध, जीसस, महावीर का पूजन कीजिये। कांवर यात्रा पर जाइये। बद्रीनाथ केदारनाथ, हज यात्रा। यात्राओं से आपकी सोच का विस्तार होगा। तमाम जीवनशैलियों और अनुभवों से गुजरेंगे। भगवद भजन से मानसिक शांति भी मिलेगी। लेकिन, धर्म रक्षा की ध्वजा न उठाइये। इसके बदले आप अपने अन्तर्धर्म की रक्षा कीजिये।

कांवड़ यात्रा आज की नहीं है। बहुत पुरानी है। तबकी जब कार नहीं होते थे और प्लास्टिक की कांवड़ भी नहीं होती थी। हॉकी और बेसबॉल स्टिक भी नहीं होती थी। गुंडे खद्दर पहन लें या भगवा ड्रेस। वे गुंडे ही रहेंगे। बद्तमीज़ और आवारा ही रहेंगे। धूर्त और दुष्ट ही रहेंगे। कपड़े बदलकर वह कांवड़िए या जननेता नहीं बन जाएंगे। धर्म अगर व्यक्तिगत है तो अधर्म भी व्यक्तिगत ही है। आपके जजमेन्ट और प्रतिक्रियाओं में शिव के असल भक्तों के साथ न्याय भी दिखना चाहिए। समस्त कांवड़ियों को गुंडा कहा जाना एक बचकाने फैसले जैसा है। जो उपद्रव कर रहे हैं वो भक्त नहीं अपराधी हैं। धर्म और कानून दोनों इसकी इजाजत नहीं देते। इनका समर्थन करने वाले न तो देश के साथ हैं और न ही धर्म के। इनका बहिष्कार ही धर्म है। इनका समर्थन ही अधर्म। इसलिए, कांवड़ियों से होने वाली दिक्कतों पर आपकी कानून और धर्म व्यवस्था जिम्मेदार है। सवाल उन पर उठाइये। कि अगर वो इन्हें नहीं रोक पा रहे हैं तो इनका समर्थन कर रहे हैं। अपनी जिम्मेदारी भी तय कीजिए।

धर्म और धार्मिक मान्यताएं आधुनिक युग में कितनी आवश्यक हैं यह अलग विमर्श का विषय है। लेकिन फिलहाल, सोशल मीडिया के त्वरित फैसले एक बड़े समूह की धार्मिक भावनाओं का अपराधीकरण करने पर आमादा हैं। इसे रोका जाना चाहिए। सामाजिक सौहार्द के लिए भी यह जरूरी है और धर्म और राष्ट्रवाद जैसी पावन और निश्छल भावनाओं के उद्दंडों द्वारा इस्तेमाल पर रोक लगाने के लिए भी यह बहुत जरूरी है।

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