Wednesday 23 February 2022

हंसो-हंसो जल्दी हंसो

हंसो-हंसो, जल्दी हंसो। इतनी जल्दी क्या है? जल्दी है कि तुम पर निगाह रखी जा रही है। इसलिए जल्दी हंसो। इससे पहले कि तुम्हारी हंसी से गूंजता गोल गुम्बद शांत हो जाए, जल्दी हंसो। अगर चुप मिल गए तो प्रतिवाद के जुर्म में मारे जाओगे। उपाय क्या है? उपाय यही है कि हंसो और ऐसे हंसो कि किसी को जानने मत दो कि किस पर हंसते हो। ऐसे हंसो कि मालूम न पड़े कि खुश होकर हंसते हो। अगर शक हुआ कि हंसने वाला यह शख्स शर्म में शामिल नहीं है, तो मारे जाओगे। इतना ही नहीं, हंसना है लेकिन अपने आप पर नहीं क्योंकि अगर उसकी कड़वाहट पकड़ ली जाएगी तब भी मारे जाओगे। यह हास्य कैसा है? रघुवीर सहाय यह कौन सी हंसी की बात कर रहे हैं?

विवशता की एक ऐसी परिस्थिति है, जब हंसना रोने के 'इज़ इक्वल टू' हो जाता है। संविधान बना कि देश का कोना-कोना मुस्कराये। किसी चेहरे पर रोना न हो लेकिन अपनी व्यवहारिकता में संविधान हमारे चेहरे पर जो हंसी छोड़ता है, रघुवीर सहाय उस हास्य की बात करते हैं। जब आप देखते हैं कि शेर और बकरी एक घाट पर पानी पी रहे हैं और फिर शेर के दांतों से टपकते खून की सच्चाई भी आपसे देख ली जाती है। तब जिस हंसी से आपकी मुलाकात होती है, यह वही हंसी है। कवि की प्रशंसा में कहीं लिखा मिला कि रघुवीर सहाय विडंबना के खोजी कवि हैं। इस पूरे संग्रह में जैसी-जैसी विडम्बना को रघुवीर ने खोजा है, वह हंसी के होते हुए भी हास्यास्पद नहीं है।

यह हंसी तो ऐसी है, जैसे किसी गरीब पर किसी ताकतवर की मार, जहां उस गरीब के सिवाय कोई कुछ नहीं कर सकता। वह भी क्या करता है, अक्सर हंसता है। इस हंसी को समझना है, तो अपने आसपास देखिए। इस कविता का अर्थ आज से ज्यादा प्रासंगिक कभी नहीं हो सकता। क्या कारण है कि जीना मुश्किल होता जा रहा है, और लोग हंस रहे हैं। शब्दों पर सेंसर लगा है, विचारों पर निगरानी है, सोच तक पर पहरे हैं, जीवन की मौलिक आवश्यकताएं हैसियत का दामन छोड़ रही हैं और लोग हंस रहे हैं। इस हंसी में विवशता ज्यादा है क्या? इस हंसी में हास्य कितना है? कहीं ऐसा तो नहीं कि इस हंसी का आवरण ही भर हंसी का है। भीतर फूट पड़ने को उद्यत कोई रुदन तो कैद नहीं है?

रघुवीर सहाय ऐसी ही विडम्बना खोजते हैं। ज़ाहिर है उनके समय में यह विडंबना खोजनी पड़ती थी। हमारे समय में तो सब प्रत्यक्ष है। हमारे समय में तो 'रामदास' खूब प्रासंगिक है। रामदास को बता दिया गया था कि अंत समय आ गया है। उसकी हत्या होगी। अकेला रामदास, सड़क पर निहत्थे, मौन लोगों के बीच भय से किसी संगी को साथ लेने की सोचता चला जाता है। सभी मौन और निहत्थे लोगों को पता है कि उसकी हत्या होगी। लोग उसको आंख गड़ाए देखते हैं, जिसके बारे में तय है कि उसकी हत्या होगी। तभी गली से एक हत्यारा बाहर निकला। नाम पुकारा, हाथ तौलकर चाकू मारा। छूटा लोहू का फव्वारा। लोग कहते हैं, कहा था न इसकी हत्या होगी। किस्सा हत्या तक ही नहीं है। आगे भी है। हत्या के बाद हत्यारे ने क्या किया?

"भीड़ ठेलकर लौट गया वह,
मरा पड़ा था रामदास यह,
देखो-देखो बार-बार कह
लोग निडर उस जगह खड़े रह
लगे बुलाने उन्हें, जिन्हें संशय था, हत्या होगी।"

यह घटनाक्रम भी अपने पीछे एक हंसी छोड़ जाता है। आप तय कीजिये कि इस हंसी का चरित्र क्या है? रघुवीर सहाय सिर्फ कवि नहीं हैं। पत्रकार भी हैं। उनके यहां अखबार कविता का रॉ मटेरियल है। तब के अखबार घटनाओं के दस्तावेज थे। अभी के अखबार चुटकुलों के पन्ने हैं:

"निर्धन जनता का शोषण है
कहकर आप हंसे
लोकतंत्र का अंतिम क्षण है
कहकर आप हंसे।"

यह हंसी तो जीवन का केंद्रीय भाव हुई जा रही है। व्यंग्य, विवशता की इस हंसी के अलावा एक अट्टहास भी होता है। यह अट्टहास ही अपने विश्राम के क्षणों में हंसी पर निगाह रखता है। यहां हंसी का वर्गीकरण है। कैसी हंसी हँसनीय है। हंसते हुए दिखने की राजाज्ञा है। जो नहीं हसेंगे, उन्हें पड़ोसी देश का वीजा जारी कर दिया जाएगा। आज के समय के एक पत्रकार ने इसी हंसी के लिए कह दिया था कि बागों में बहार है।

'हंसो-हंसो' कविता संघर्ष की प्रक्रिया में एक कमजोर की अंतिम पूंजी से अपना शीर्षक बनाती है। यह हंसी वैसी हंसी नहीं है, जैसी हंसी होती है। यह वैसी है कि इसके अलावा कोई चारा नहीं। यह हंसी अकिंचनता, शक्तिशून्यता और बेचारगी की अभिव्यक्ति है। इसी पर निगाह रखी जा रही है कि इधर हंसी थमी और उधर विद्रोह और प्रतिवाद के जुर्म में मार डाले गए।


('हंसो-हंसो जल्दी हंसो' पढ़ने के बाद)

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