Tuesday 8 March 2022

मैं मनुष्य को जानता हूँ

मैं संसार को नहीं जानता लेकिन मैं मनुष्य को जानता हूँ। मनुष्य को जान लेना बहुत कुछ जान लेना है। कम से कम इतना जान लेना तो है कि जान लिए गए मनुष्य से संवाद करके सारे संसार से संवाद कैसे किया जा सकता है। विनोद कुमार शुक्ल संसार से ऐसे ही तो संवाद करते हैं। अपनी मोहक भाषा, शांत लहजे और अर्थपूर्ण दृश्य-शब्दों के जरिये वह संसार ही की तो बात करते हैं। मैं से शुरू होते हैं और संसार तक विस्तृत हो जाते हैं। 

मानुष मैं ही हूँ
इस एकांत घाटी में
यहां मैं मनुष्य की 
आदिम अनुभूति में सांस लेता हूँ।

विनोद शुक्ल अपनी कविता में आधुनिक को उठाते हैं और कहते हैं कि इस आधुनिक के जरिये वह आदिम को उठा रहे हैं। एक पत्थर उठाकर वह पाषाणकाल का कोई पत्थर उठाते हैं। देशकाल का ऐसा समय-शब्द-सम्बन्ध जानने की ऐसी प्रक्रिया है, जिसके जरिये चीजों को उसके भौतिक पहचान के बरअक्स उसकी तात्विकता या मौलिकता में जान लिया जाता है। जैसे, वह कहते हैं:

"चारों तरफ प्रकृति और प्रकृति की ध्वनियां हैं, 
यदि मैंने कुछ कहा तो 
अपनी भाषा नहीं कहूंगा 
मनुष्य ध्वनि कहूंगा।"

'अपनी भाषा नहीं बल्कि मनुष्य ध्वनि कहूंगा' में कवि सृष्टि के वैराट्य में सम्पूर्ण मनुष्यता को एक इकाई के रूप में प्रस्तुत करता है और हमें आभास होता है कि अंतरिक्ष के परिवार में हम किसी राष्ट्रीयता से नहीं बल्कि अपनी मनुष्यता से ही पहचाने जाएंगे। यह अपने पहचान पत्र को लेकर कवि की व्यापक दृष्टि है, जो उसे सभी मनुष्यों को समान समझने और उनके भावों, अभीप्साओं, अभिव्यक्तियों को समझने में सहूलियत देती है। तभी कवि कहता है कि मैं संसार को नहीं जानता लेकिन मनुष्य को जानता हूँ। मनुष्य को जानने की कई कविताएं विनोद शुक्ल के यहां मिलेंगी।

हताशा से एक व्यक्ति बैठ गया था,
व्यक्ति को मैं नहीं जानता था 
हताशा को जानता था।

जान-पहचान के लिए या सम्बन्ध के लिए क्या ज़रूरी होता है? शायद कोई एक उभयनिष्ठ धरातल। वह हताश व्यक्ति को नहीं जानते थे लेकिन हताशा को जानते थे। ऐसे ही, उन्होंने उसकी ओर हाथ बढ़ाया। वह कवि को नहीं जानता था लेकिन हाथ बढ़ाने को जानता था। दोनों एक दूसरे को नहीं जानते थे लेकिन साथ चले क्योंकि साथ चलने को जानते थे। 

ज़ाहिर है, केवल संज्ञा (पहचान) जानने से सम्बन्ध नहीं बनते। विनोद शुक्ल अपनी कविता से साबित करते हैं कि क्रिया से भी सम्बन्ध बन सकते हैं। लोगों को उनकी पीड़ाओं से, उनके आनंद से, सहयोग भाव से भी जाना-पहचाना और अपनाया जा सकता है। इस भावना में कैसा संतत्व है! कैसी समावेशिता है। कैसा वसुधैव कुटुम्बकम का भाव है!

"सिर उठाकर मैं बहुजातीय नहीं, सब जातीय
बहुसंख्यक नहीं, सब संख्यक होकर
एक मनुष्य खर्च होना चाहता हूँ।"

पुस्तक में कई जगहों पर विनोद कुमार शुक्ल भाषा-गणितज्ञ जैसे लगते हैं। उनकी कविता में गणित के समीकरण हल करने जैसा क्रम है। उन्हें धौलागिरी को देखकर धौलागिरी की तस्वीर याद आती है क्योंकि तस्वीर पहले देखी गई थी। तस्वीर से उन्हें पूर्वजों की तस्वीर याद आती है क्योंकि उनके भी चित्र धौलागिरी के चित्र की तरह घर में लगे हैं लेकिन पूर्वजों को प्रत्यक्ष कभी देखा नहीं। पूर्वजों के प्रत्यक्ष याद न आ पाने का अभाव विनोद शुक्ल कैसे पूरा करते हैं? वह जब धौलागिरी को प्रत्यक्ष देखते हैं तो तस्वीरों से बने स्मृति-क्रम की संगत में उन्हें पूर्वजों की तस्वीर नहीं बल्कि पूर्वज प्रत्यक्ष याद आते हैं। यह अभाव को 'एक्स' मानकर समीकरण हल करने की विधि जैसा नहीं लगता है क्या?

धैर्यशील शांति की भाषा से अपनी बात कहने की विधि विनोद शुक्ल की है। विशाल और दृढ़ चट्टानी पत्थरों के छोटे-छोटे रिकस्थानों में निर्झर का जल जैसे भरकर निकल आता है, वैसे ही शुक्ल की अभिव्यक्ति लोगों के हृदय में प्रवेश करती है।

"एक अकेली आदिवासी लड़की को 
घने जंगल जाते हुए डर नहीं लगता 
बाघ-शेर से डर नहीं लगता 
पर महुआ लेकर गीदम के बाजार जाने से 
डर लगता है"

शुक्ल जी की कविता में आदिवासी संरक्षण का भाव लिए कई कविताएं हैं। कवि आदिवासी जीवन को करीब से देखते हैं और यह महसूस करते हैं कि उनकी अपनी प्राचीन सभ्यता है। जीवनशैली है, जो हमसे अलग भले है लेकिन हमसे कमतर नहीं है। हमारी उन्हें सभ्यता (मुख्यधारा) की दौड़ में लाने की मानसिकता किसी औपनिवेशिक महत्वाकांक्षा की तरह लगती है। कवि जंगल में शहरों के अतिक्रमण से चिंतित है। वह अपनी कविता के जरिये जंगल, वन्य जीवों और आदिवासियों के रहन-सहन की आपसी निर्भरता और उनके अन्तर्सम्बन्धों के बारे में बताने की कोशिश करते हैं। वह बताते हैं कि कैसे जंगल मे महुआ बीनते एक आदिवासी लड़की एक बाघ ऐसे देखती है, जैसे जंगल मे एक बाघ दिखता है। वैसे ही बाघ भी एक आदिवासी लड़की को ऐसे महुआ बीनते देखता है, जैसे जंगल मे एक आदिवासी लड़की दिख जाती है। मतलब यह कि दोनों के लिए एक दूसरे का जंगल में दिख जाना बेहद सामान्य घटना है। इसमें न कोई आतंक है, न असामान्यता और न ही कोई हैरानी लेकिन इसी को ध्यान में रखते हुए हम अपनी शहरी सीमा में किसी वनवासी की कल्पना करें। हम उन्हें अपने बीच विचित्र पाते हैं और उसे ऐसे व्यवहृत नहीं करते जैसे जंगल में कोई बाघ किसी आदिवासी लड़की को देखता है या कोई आदिवासी लड़की किसी बाघ को देखती है। हम उन्हें कैसे ट्रीट करते हैं, यह 'जंगल के दिन भर के सन्नाटे में' कविता की इस पंक्ति से स्पष्ट होती है, जिसमें आदिवासी लड़की को घने जंगल मे जाते हुए बाघ-शेर से डर नहीं लगता लेकिन जब वह महुआ लेकर गीदम के बाजार जाती है तो उसे डर लगने लगता है।

शुक्ल जी की भाषा
'सब कुछ होना बचा रहेगा' की कविताएं हों या किसी अन्य संग्रह की, शुक्ल जी की कविताई की भाषा दृश्यात्मक भाषा है। अपनी कविता में वह दृश्यों से ही बात करते हैं। वह परिस्थितियों और मनोभावों का भी दृश्य बनाते हैं और उन्हें संख्यावाचक, भाववाचक या स्थानवचक विशेषणों की तरह भी इस्तेमाल करते हैं। 

दूर से अपना घर देखना चाहिए 
मजबूरी में न लौट सकने वाली दूरी से अपना घर 
कभी लौट सकेंगे की पूरी आशा में 
सात समुंदर पार चले जाना चाहिए।

 उनकी रचनाओं में कई जगहों पर शब्द एक पूरी पृष्ठकथा का अर्थभार लिए आते हैं। जैसे

"घर उसका शिविर है
जहां घायल होकर वह लौटता है"

यहां शिविर शब्द से 'वह' की एक पूरी अनुपस्थित कथा हमारी कल्पना में आती है। घर के शिविर हो जाने का मतलब है कि वह जहां से लौटता है, वह किसी युद्धभूमि से कम नहीं। वहां वह घायल होता है और शिविर में लौटता है। 

विनोद शुक्ल की कहन शैली
हमारे फैसले या हमारी राय या हमारे आचरण सिद्धांत में भले स्याह-सफेद के खांचे में फिट होने की हमेशा जल्दी में हो लेकिन व्यवहारिक ज़िन्दगी इससे अलग है। वहां तो बस परिस्थितियां हैं और घटनाएं प्रतिक्रियाओं का अनुक्रम हैं। कुछ भी पूर्वनिर्धारित नहीं है बल्कि परिस्थितिजन्य ज्यादा है। शुक्ल यह बात जानते हैं। तभी कुछ सपाट या स्पष्ट कहने की बजाय ईमानदारी और द्रष्टाभाव से पूरी स्थिति को चित्रित करते हैं। बाकी का काम वह पाठकों पर छोड़ते हैं।

तालाब के कोने में बर्तन मांजते वह छोटी-सी लड़की रोती जाती है। उसके बाप ने उसकी पीठ पर घूसे और गालों पर थप्पड़ मारे हैं। पर ऐसा क्यों? जबकि वह अपनी बेटी को बहुत प्यार करता था। मां के मरने के बाद भात वही पकाती थी।

पानी भी नहीं छलका कभी 
सिर पर रखे लोटे से 
पर आज, गिर पड़ी कहीं 
गांठ प्याज की पोटली से 
क्या उसको इतनी मार पड़ गई इसलिए?

बाप मजदूर है। पूंजीवादी व्यवस्था के शोषण का पीड़ित है। उसकी कुंठा उसके चिड़चिड़े स्वभाव में जमती चली जा रही है। चिड़चिड़ापन उसके स्वभाव में गांठ की तरह गंठती चली जा रही है। इसमें उसका भी क्या दोष? यह प्रवृत्ति तो एक शोषक व्यवस्था ने उसके मन में रोप दी है। इसका भाजन उसकी बेटी को भी बनना पड़ता है, जो इस पूरे मामले में पूर्णतः निर्दोष है। नहीं तो क्या कारण था कि वह अपनी जिस बेटी से इतना प्यार करता है, उसे सिर्फ प्याज की गांठ गिरने भर की गलती पर निर्मम तरीके से पीटने लगता है। नारीवादी दृष्टि से भी इस दृश्य के कुछ निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं। यह दृश्य सिर्फ भाषायी कौशल या कविता का अंश न होकर समाज शास्त्र से लेकर अर्थशास्त्र और राजनीति की कैसी गहरी जटिलताएं लिए हुए है, यह सोचने योग्य बात है।

यही शुक्ल जी की कहने की शैली है। यथार्थ चित्रण से सच्ची अवस्था-व्यवस्था के अनुमान के लिए कई खिड़कियां खुलती हैं। हालांकि, इसके लिए विचार और दृष्टि के लिए समझ की कसरत ज़रूरी है। अपनी कविता के लिए वह खुद भी कहीं कहते हैं, 'प्रत्येक कविता का लिखना बचा हुआ अभिव्यक्ति का बचा हुआ भी होता है जो पाठक की समझ से पूरा होता है।' कविता लेख नहीं हो सकती। कहानी नहीं हो सकती। शुक्ल जी के हिसाब से हर कविता अधूरी होती है और कविता का जो अधूरापन होता है, वह अनभिव्यक्त अभिव्यक्ति होती है, जिसे पाठक को समझना पड़ता है।

"जाते जाते ही मिलेंगे लोग उधर के 
जाते-जाते जाया जा सकेगा उस पार 
जाते-जाते छूटता रहेगा पीछे 
जाते-जाते बचा रहेगा आगे 
जाते-जाते कुछ भी नहीं बचेगा जब 
तब सब कुछ पीछे बचा रहेगा 
और कुछ भी नहीं में 
सब कुछ होना बचा रहेगा।"

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