Friday, 17 November 2017

"अबकी अगर लौटा तो मनुष्यतर लौटूंगा": कुंवर नारायण


'स्वांत:सुखाय तुलसी रघुनाथगाथा।' रामचरितमानस के बालकांड के शुरुआती चरण में रामचरित के सबसे बड़े महाकव्य के रचयिता गोस्वामी तुलसीदास यह घोषणा करते हैं कि इस महाकाव्य की रचना स्वांतःसुखाय यानी कि अंत-करण के आनंद के लिए की जा रही है। आज इस तथ्य का वर्णन इसलिए आवश्यक है कि लगभग इसी वैचारिक गोत्र का एक आधुनिक तुलसीदास बुधवार को दुनिया को अलविदा कह गया और साहित्य से लेकर बौद्धिक विमर्श के हर मंच पर उसे उसके इसी गुणधर्म के आधार पर याद किया जा रहा है। 19 सितंबर 1927 को फैजाबाद में पैदा हुए कुंवर नारायण के लिए कविता कर्म शायद स्वांतः सुखाय की धारणा की परिधि से बाहर नहीं था। एक संपन्न व्यावसायिक घराने से संबंध रखने वाले कुंवर नारायण अपने कवित्व को बाजार के प्रभाव से पूरी तरह से मुक्त रखने के लिए पारिवारिक धंधे में भी उतरते हैं और इससे साहित्य के प्रति अपने समर्पण को हर तरह से अप्रभावित रखने की कोशिश में सफल भी होते हैं। खुद कुंवर नारायण के लहजे में इस बात को आसानी से समझा जा सकता है जिसमें वे कहते हैं कि साहित्य का धंधा न करना पड़े इसलिए मोटर का धंधा करता हूं।

कुंवर नारायण को हिंदी साहित्य में शांति और संतुष्टि के साथ बिना विवादों के जाल में उलझे अपना काम करने वाले साहित्यकार के रूप में जाना जाता है। राजनीति या फिर समाजनीति की विसंगतियों पर बिना विवादित हुए चुपचाप करारा प्रहार कर सकने की जो क्षमता कुंवर नारायण में थी वो शायद किसी भी कलात्मक विधा के शिखर पुरुषों में दुर्लभ है। 90 साल का जीवनकाल जिसमें तकरीबन आधी सदी का वक्त उनकी साहित्यिक-साधना का साक्ष्य है और जिसमें उनके नाम तमाम श्रेष्ठता के भौतिक प्रतिमानों वाले पुरस्कारों की एक बड़ी संख्या शामिल है, इन सबके बीच उनकी यथार्थपरक जीवनशैली, सादगीपूर्ण आचार और सामाजिक दायित्वबोध ने उन्हें किसी भी तरह के व्यर्थ विवादों से काफी दूर रखा हुआ था। कोमल भावनाओं को सरलतम शब्दों में अभिव्यक्त करने की उनकी क्षमता ही उनके रचनात्मक उत्पादों के उपभोक्ता-परिसर के दायरे को बहुत व्यापक बनाती है। कुंवर फैज़ाबाद के हैं। वही फैज़ाबाद जहाँ वह अयोध्या है जिसका शाब्दिक अर्थ उसके सनातन अजेयता के घोषणा की तरह है। शायद इसीलिए अयोध्या के दर्द को उनसे बेहतर उस दौर में कोई नहीं समझ सकता था। इसीलिए कवि कुंवर नारायण स्वयं अयोध्या बनकर शायद नारायण से कहते जान पड़ते हैं कि

हे राम!..
अयोध्या इस समय तुम्हारी अयोध्या नहीं
योद्धाओं की लंका है,
'मानस' तुम्हारा 'चरित' नहीं
चुनाव का डंका है !
हे राम, कहां यह समय
कहां तुम्हारा त्रेता युग,
कहां तुम मर्यादा पुरुषोत्तम
कहां यह नेता-युग !
सविनय निवेदन है प्रभु कि लौट जाओ
किसी पुरान - किसी धर्मग्रन्थ में
सकुशल सपत्नीक....
अबके जंगल वो जंगल नहीं
जिनमें घूमा करते थे वाल्मीक !

कुंवर नारायण की काव्यगत विशेषताओं में शीर्ष पर है उनकी इतिहास और मिथकों की आँख से समकालीन परिदृश्य को देखने की दृष्टि। उपर्युक्त काव्यांश उनकी इस काव्यगत शैली का एक छोटा सा नमूना भर है। कुंवर जी की अन्य रचनाएं उनके विषय में इस धारणा को और पुष्ट करती दिखाई पड़ती हैं। 'आत्मजयी' प्रबंध काव्य में जहाँ उन्होंने कठोपनिषद के 'नचिकेता प्रसंग' की आधार-भूमि पर आधुनिक मनुष्य के जटिल मनः स्थितियों की शानदार अभिव्यक्ति की है वहीं 'वाजश्रवा के बहाने' पिता-पुत्र की दो पीढ़ियों के बीच के अंतर के द्वन्द को प्रकट करने की कोशिश है।

"अच्छा हुआ तुम लौट आए,
मेरे जीवन में
लेकिन जानता हूँ
नहीं आ सकोगे
-चाहकर भी नहीं-
वापस मेरे युग में।।"
इसी संदर्भ में उनकी इस कविता को कौन केवल कृष्ण-सुदामा की मिथक कथा मानेगा जबकि इसमें आधुनिक परिप्रेक्ष्य का दर्शन साफ़-साफ़ दिखाई दे जाता है-

"कैसी बांसुरी? कैसा नाच? कौन गिरिधारी?
जिस महल को तुम
भौंचक खड़े देख रहे हो
वह तो उसका है
जिसकी कमर की लचकों में
हीरों की खान है।
बहुत भोले हो सुदामा
नहीं समझोगे इस कौतुक को.."

कुंवर उस दौर में कलम उठाते हैं जब वैश्विक इतिहास द्वितीय विश्वयुद्ध, भारतीय स्वाधीनता संग्राम और गांधी युग जैसे उल्लेखनीय घटनाक्रमों से साक्षात्कार कर रहा था। 11वीं तक विज्ञान के विद्यार्थी रहने के बाद उन्होंने लखनऊ विश्विद्यालय से 1951 में अंग्रेजी लिटरेचर में एमए की डिग्री हासिल की। 1956 में उनका पहला काव्य संग्रह चक्रव्यूह प्रकाशित हुआ, जिसके बाद कुंवर नारायण तत्कालीन शिखर साहित्यकारों की नज़र में आ गए। उनकी इसी कृति से प्रभावित होकर 1959 में अज्ञेय ने जब तीसरा सप्तक प्रकाशित किया तब केदारनाथ सिंह, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना और विजयदेव नारायण साही के साथ इनकी रचनाओं को भी उसमें शामिल किया। यहीं से कुंवर नारायण की लोकप्रियता के प्रकाश ने अपनी तीव्रता बढ़ायी। 1965 में उनका दूसरा प्रबंध काव्य संग्रह 'आत्मजयी' प्रकाशित हुआ। कुंवर जी की प्रतिभा का प्रसार साहित्य की हर विधाओं की ओर था। निबन्ध, उपन्यास, कहानी आदि में भी उनकी कलम खूब चलती लेकिन कविताओं से उन्हें ज्यादा लगाव था और इसीलिए जीवन पर्यंत उनकी रचनाधर्मिता का केंद्र बिंदु कविताएं ही बनी रहीं। कुंवर नारायण अपनी कविताओं में जीवन की बात करते हैं, मृत्यु की बात करते हैं, प्रेम की बात करते हैं, मनुष्यता की पैरोकारी करते हैं लेकिन राजनैतिक सन्दर्भों से जुड़ी कविताएं उनके हुजरे में काम ही दिखाई पड़ती हैं। इससे यह कतई सिद्ध नहीं हो जाता कि कुंवर अपने समकालीन राजनैतिक विसंगतियों का प्रत्युत्तर देने के कर्तव्यबोध से पीछे हटने वाले कवि हैं बल्कि जब-जब उन्हें ऐसी प्रतिक्रियाओं की आवश्यकता महसूस हुई है उन्होंने मुखर होकर अपनी प्रतिक्रिया दी है। साम्प्रदायिक-जातिगत-भाषायी और क्षेत्रीय आधारों पर नफरत की राजनीति को जवाब देते हुए कुंवर नारायण ने अपने अंदाज़ में लिखा है कि

"एक अजीब-सी मुश्किल में हूं इन दिनों
मेरी भरपूर नफरत कर सकने की ताकत
दिनोंदिन क्षीण पड़ती जा रही है।
अग्रेंजो से नफरत करना चाहता
( जिन्होने दो सदी हम पर राज किया)
तो शैक्सपीयर आड़े आ जाते
जिनके मुझ पर न जाने कितने एहसान हैं।
हर समय
पागलों की तरह भटकता रहता
कि कहीं कोई ऐसा मिल जाए
जिससे भरपूर नफरत कर के
अपना जी हलका कर लूं!
पर होता है इसका ठीक उल्टा
कोई-न-कोई, कहीं-न-कहीं, कभी-न-कभी
ऐसा मिल जाता
जिससे प्यार किए बिना रह ही नहीं पाता!
दिनोंदिन मेरा यह प्रेम-रोग
बढ़ता ही जा रहा
और इस वहम ने पक्की जड़ पकड़ ली है
कि यह प्रेम किसी दिन मुझे
स्वर्ग दिखाकर ही रहेगा"

नफरत और दुर्भावना से भरी दुनिया में कवि की एक और हसरत की बानगी देखिये जिसमें वह कहता है कि

"इन गलियों से बेदाग गुजर जाता तो अच्छा था
और अगर दाग ही लगना था तो फिर
कपड़ों पर मासूम रक्त के छींटे नहीं
आत्मा पर किसी बहुत बड़े प्यार का जख्म होता
जो कभी न मरता।"

साहित्य से जुड़े तमाम प्रतिष्ठित पुरस्कार मसलन साहित्य अकादमी पुरस्कार, कबीर सम्मान, व्यास सम्मान, हिंदी अकादमी का शलाका सम्मान के साथ कुंवर नारायण को सर्वोच्च साहित्य सम्मान ज्ञानपीठ पुरस्कार से भी नवाजा गया लेकिन पुरस्कार उनके लिए केवल प्रोत्साहन का स्रोत बने रहे। कविताओं में प्रयोगधर्मिता के पक्षधर और हमेशा लीक से हटकर चलने वाली प्रवृत्ति के बावजूद भी उनका किसी भी वाद-विवाद से आजीवन पाला नहीं पड़ा और इसीलिए साहित्यकारिता के शीर्ष पर होते हुए भी जीवन भर अविवादित बने रहने वाले कुंवर नारायण के जाने से पूरा साहित्यिक गलियारा शोक-संतप्त है। उनके प्रयाण से उपजे शून्य की भरपाई उन्हीं के भरोसे इसलिए भी छोड़ी जा सकती है क्योंकि कुंवर नारायण लौट आने वाले कवि हैं, वो भी जैसे गए थे वैसे नहीं बल्कि उससे भी बेहतर, उससे भी बृहत्तर, उससे भी मनुष्यतर।

अबकी अगर लौटा तो
बृहत्तर लौटूंगा
चेहरे पर लगाए नोकदार मूँछें नहीं
कमर में बांधें लोहे की पूँछे नहीं
जगह दूंगा साथ चल रहे लोगों को
तरेर कर न देखूंगा उन्हें
भूखी शेर-आँखों से।
अबकी अगर लौटा तो
हताहत नहीं
सबके हिताहित को सोचता
पूर्णतर लौटूंगा।

अंतिम प्रणाम!

Monday, 13 November 2017

'पूँजी से जुड़ा हुआ हृदय बदल नहीं सकता': मुक्तिबोध

मुक्तिबोध की साहित्यिक यात्रा के बारे में कुछ लिखना चाह रहा था, इसीलिए पिछले कई दिनों से उन पर लिखे लेखों का एकत्रीकरण करने के साथ-साथ अपने झोले में उनकी किताब 'चांद का मुंह टेढ़ा है' लेकर घूम रहा था। कुछ पढ़ा, कुछ नहीं पढ़ पाया, अलग-अलग कारणों से। उनकी प्रसिद्ध कविताएं 'अंधेरे में' 'ब्रह्मराक्षस' आदि पढ़ने-समझने की कोशिश अब भी जारी है। लेकिन एक ऐसे लेखक को इतने कम समय में समझने की जल्दबाजी एक भयंकर मूर्खता से बढ़कर कुछ नहीं हो सकती जिसका सही तरीके से बोध होने को लेकर आज भी हिंदी साहित्य-समाज 'लेकिन-किंतु-परंतु' के प्रश्नजाल से पूरी तरह मुक्ति नहीं पा सका है। कविता की लय और प्रवाह कविता-पाठ का सबसे मजबूत आकर्षण हैं। कविता की भाषा और भावार्थ की जटिलता पसीने छुड़ा देने के लिए पर्याप्त है।
गजानन माधव मुक्तिबोध लेखकों की उस विरल जमात में से हैं जिसनें अपनी लोकप्रियता का एक बड़ा हिस्सा अपनी अनुपस्थिति से देखा है। मरणेतर लोकप्रियता के गिने-चुने उदाहरणों में मुक्तिबोध का सम्मिलन उनकी रचनाओं की दिव्यता के प्रमाण-पत्र की तरह है। जीते जी उन्होंने अपनी दो ही रचनाएं प्रकाशित अवस्था में देखीं जिनमें पहली है- 'कामायनी एक पुनर्विचार' और दूसरी 'भारतीय इतिहास और संस्कृति' पर एक पाठ्य पुस्तक। जिस रचना ने आगे चलकर उनकी पहचान का प्रतिनिधित्व धारण किया उसका प्रकाशन उनके जीते जी संभव नहीं हो पाया था। कालजयी रचना अंधेरे में और उनका पहला काव्य संग्रह 'चांद का मुंह टेढ़ा है' उनके निधन के दो साल बाद प्रकाशित हुआ। कविता को कालजयी बनाने के लिए प्रकाशित पृष्ठों पर अपना नाम देखने की लालसा को छोड़ना ही पड़ता है और जनरूचि की जगह कलम में यथार्थ की स्याही भरने की हिम्मत करनी ही पड़ती है। साठ के दशक में अभिव्यक्ति पर आखिर कौन सा बड़ा खतरा रहा होगा! लेकिन आजादी के बाद से ही लगातार गिरते हुए स्वतंत्रता संग्राम के आधार-मूल्यों को मुक्तिबोध बड़े उद्विग्न मन से देख रहे थे। उसी क्रम में उन्होंने आज की तारीख का भी अनुमान लगाया होगा और लिखा होगा -
"अब अभिव्यक्ति के सारे ख़तरे
उठाने ही होंगे।
तोड़ने होंगे ही मठ और गढ़ सब।
पहुँचना होगा दुर्गम पहाड़ों के उस पार
तब कहीं देखने मिलेंगी बाँहें
जिसमें कि प्रतिपल काँपता रहता
अरुण कमल एक
ले जाने उसको धँसना ही होगा
झील के हिम-शीत सुनील जल में।"
ये वो अनुमान था जो नरेंद्र दाभोलकर, कुलबुर्गी और और गौरी लंकेश की हिम्मत का स्रोत भी बना और स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति को बंधक बनाने वाली शक्तियों से लड़ने की घोषणा करने वाला सेनापति-वाक्य भी। उनकी 'अंधेरे में' कविता वास्तव में प्रकाश है। प्रकाश वह जो तमाम ऐसे हकीकत को प्रकाशित करता है जिस पर भ्रम और षडयंत्र की दुरभिसंधियों के अंधकार का आवरण हो। विचारधारा से वामपंथी होना ही सिर्फ उन्हें इन पंक्तियों का लेखक नहीं बनाता कि
"कविता में कहने की आदत नहीं, पर कह दूँ
वर्तमान समाज में चल नहीं सकता।
पूँजी से जुड़ा हुआ हृदय बदल नहीं सकता।
स्वातन्त्र्य व्यक्ति वादी
छल नहीं सकता मुक्ति के मन को,
जन को।"
बल्कि मुक्तिबोध के अनुभव की दृष्टि ने इस कविता के आशय को यथार्थ में झेला और महसूस किया था, इसलिए वो ऐसा लिख पाए। मुक्तिबोध के बारे में कहा जाता है कि वह आत्माभियोग के कवि थे, अपना अंतर्द्वंद, आत्मसंघर्ष और अंतःकरण का प्रतिबिंब उन्होंने अपनी कविताओं में उतारा है। मुक्तिबोध के विषय में इतना कुछ टिप्पणी करने का सामर्थ्य मेरा अपना अध्ययन अब तक नहीं प्राप्त कर सका है लेकिन कहीं-कहीं उनकी कलम लोगों की इस आशंका पर शत प्रतिशत खरी उतरती है। जैसे यहीं देख लें कि गजानन माधव कितने चौराहों का दर्शन कर मुक्तिबोध बने थे-
मुझे कदम-कदम पर
चौराहे मिलते हैं
बाँहे फैलाए !
एक पैर रखता हूँ
कि सौ राहें फूटतीं,
व मैं उन सब पर से गुजरना चाहता हूँ
बहुत अच्छे लगते हैं
उनके तजुर्बे और अपने सपने...
सब सच्चे लगते हैं;
अजीब सी अकुलाहट दिल में उभरती है
मैं कुछ गहरे मे उतरना चाहता हूँ,
जाने क्या मिल जाए !
अगर मुक्तिबोध होते तो जीवन की एक सदी के आखिरी बिंदु पर खड़े आने वाले न जाने कितनी सदियों के रहस्य अपनी दूरदर्शिता से खोल गए होते। जैसे उन्होंने तब खोल दिया था और कहा था कि "अभिव्यक्ति के खतरे उठाने ही होंगे, तोड़ने होंगे ही मठ और गढ़ सब।" लेकिन ऐसा नहीं है। मुक्तिबोध हमारे बीच सशरीर नहीं हैं लेकिन केवल सशरीर नहीं हैं बाकी शायद उनके अस्तित्व को खत्म करने के लिए किसी भी तरह के काल का मात्रक असहाय ही हो सकता है।

Wednesday, 8 November 2017

8 नवंबरः "ये इन लोगों ने क्या कर दिया"

आठ नवंबर की तारीख को कौन भूल सकता है। आठ नवंबर छोड़िए, 9 नवंबर याद करिए। एक बुरे वक्त की तरह था वह दौर, जिसको याद करते ही आपके चेहरे पर एक सुकून भाव तैर जाएगा कि चलो बीत गया किसी तरह वह वक्त। मोदी सरकार की आर्थिक नीतियों के तहत लिए गए एक फैसले ने समूचे देश के लोगों की समस्त अर्थव्यवस्था को हिलाकर रख दिया था। रिजर्व बैंक के गवर्नर की जगह 'सुधार' और 'प्रहार' के स्वयंभू पुरोधा और देश के प्रधानमंत्री के 'मितरोंमय' संबोधन ने तीन कारणों को गिनाते हुए देश पर नोटबंदी का 'थोपनीकरण' कर दिया। पहला कारण था कि इससे काले धन की समाप्ति सुनिश्चित होगी, दूसरा जाली नोटों पर लगाम लगेगी और तीसरा कारण था आतंकवाद की अर्थव्यवस्था के स्रोत बंद हो जाएंगे। जब देश में इस फैसले को लागू किया गया था उसके कुछ दिन बाद राज्यसभा में बोलते हुए पूर्व प्रधानमंत्री और निस्संदेह एक मंजे हुए अर्थशास्त्री डॉ मनमोहन सिंह ने कहा था कि नोटबंदी जीडीपी के गिरावट का कारण बनेगी और यह सरकार द्वारा कानूनन चलाई जा रही व्यवस्थित लूट है। आज मनमोहन सिंह की बातें थोड़ी बहुत स्पष्ट जरूर हो रही होंगी। राहुल गांधी ने एक भाषण में बोलते हुए कहा था कि नोटबंदी की घोषणा के तुरंत बाद जब उन्होंने मनमोहन सिंह से बात करते हुए उन्हें इसकी जानकारी दी थी तब वह एकदम शॉक्ड हो गए थे। कुछ मिनट बाद जब मनमोहन सिंह बोले तो उनके शब्द थे - "ये इन लोगों ने क्या कर दिया।"

नोटबंदी होते ही सारा देश एटीएम की लाइनों में देश के प्रति एक अमूर्त भक्ति के मार्फत कुछ दिनों के लिए फिट हो गया। फिट इसलिए हो गया कि तब एटीएम से पैसा निकालने की सीमा 2500 रुपए थी जो शायद बहुतों की जरूरत के हिसाब से काफी कम थी, इसलिए हर रोज लाइन में लगना उनकी मजबूरी थी। बेर सराय में छोटी दुकानें लगाने वालों की विवशता हम लोगों से बात करते वक़्त साफ़ झलकती थी। लेकिन नोटबन्दी के साथ 'देशभक्ति' का भी मसला था, इसलिए उनके हिसाब से भी 'मोदीजी' का ये बहुत सही फैसला था। 100 से ज्यादा लोगों की जानें गयीं और 'देशभक्तियुक्त उद्देश्यों' की पूर्ति में जान देने वाले 'अघोषित शहीदों' के कफ़न पर देश के नेताओं के विश्लेषण छपते-मिटते रहे। लाखों लोगों को नौकरियों से हाथ धोना पड़ा। साथ ही इसके बाद भी नयी बेरोजगारी खेंप को नौकरियां दुश्वार हो गईं थीं।
प्रधानमंत्री भावुक आदमी हैं। उनसे देश का यह दर्द देखा नहीं जा सकता था। सो वह तो निकल लिए थे जापान। उनके सहयोगियों के पास प्रधानमंत्री के उन्हीं तीन कारणों की परिधि में जनता को सर्वश्रेष्ठ जवाब देने की होड़ लगी थी। बाद में जब एक एक कर उनके कारणों के ये तीनों महल ताश के पत्तों की तरह ढहते गए, तब जापान से लौटे प्रधानमंत्री ने रहस्य से पर्दा उठाया कि नोटबंदी का असली कारण तो देश को कैशलेस बनाना था। ये बयानों के यूटर्न का दौर था और जनता को उसकी मूर्खता का भान कराने का भी।
खैर, पुराने 500 और 1000 के नोटों की आज पहली पुण्यतिथि है। 9 नवंबर 2016 की शुरूआत से ही 500 और हजार के नोट लीगल टेंडर से बााहर हो गए थे। प्रधानमंत्री ने इसके प्रभावों के प्रदर्शन के लिए पचास दिन का वक्त मांगा था। साल भर हो गए और नोटबंदी के चारों लक्ष्य आपके सामने हैं। वक्त ने अपना जवाब हम सबके सामने रख दिया है। पहचानना हमें है कि जवाब क्या-क्या हैं। उसके लिए सबसे पहले राजभक्ति और स्वयं-परिभाषित राष्ट्रभक्ति के चश्मे को उतारना होगा। और देखना होगा कि जिन मच्छरों को मारने के लिए सरकार ने तोप निकाला था, उनकी स्थिति क्या है?
हाल ही में जब बैंक में जमा किए गए सारे पुराने नोटों की गिनती की गई थी तो पता चला था कि तकरीबन 99 प्रतिशत पुराने नोट बैंक में वापस आ गए हैं। सरकार तब दावा करती थी कि नोटबंदी की वजह से अधिकांश काला धन अर्थव्यवस्था से बाहर हो जाएगा। क्या ऐसा हुआ? कहाँ गया काला धन? हालाँकि इसकी आहट तो फैसले के कुछ ही दिनों बाद से आनी शुरू हो गयी थी। तमाम अर्थशास्त्रियों का कहना भी था कि बहुत कम मात्रा में काल धन कैश में होता है।
नोटबंदी के बाद जम्मू कश्मीर में आतंकी घटनाओं में कोई कमी नहीं आई है। फर्स्टपोस्ट में छपे एक लेख में इशफाक़ नसीम ने कुछ आंकड़े पेश किए हैं जो हकीकत से हम सबका थोड़ा बहुत परिचय करवाते हैं। नसीम लिखते हैं कि गृह मंत्रालय और जम्मू और कश्मीर पुलिस के आंकड़ों के मुताबिक, 2013 में 53 सुरक्षा बलों के जवान शहीद हुए थे और 67 आतंकी मारे गए थे। 2014 में यह संख्या क्रमशः 47 और 110 थी। 2015 में यह आंकड़ा 39 और 108 का था। 2016 में यह एक बार फिर बढ़कर 82 और 150 पर पहुंच गया।
प्रधानमंत्री द्वारा जो तीसरा कारण गिनाया गया था वह था इस फैसले के बाद से जाली नोटों के इस्तेमाल पर लगाम लगेगी। नोटबंदी के वक्त बाजार में 500 और 1000 के तकरीबन 85 फीसदी नोट चलन में थे। एक केंद्रीय बैंक के अनुमान के मुताबिक देश में तकरीबन 0.2 प्रतिशत ही जाली नोट प्रचलन में थे। ऐसे में इतनी कम मात्रा में जाली नोटों पर प्रहार करने के लिए 85 फीसदी नोटों को बंद कर देने का फैसला करने की मूर्खता करना बड़ी हिम्मत का काम था।
मेरे गांव से तकरीबन 12 किलोमीटर दूर एक कस्बा है रूद्रपुर, जहां हम रहते थे। रूद्रपुर में इंटरनेट सर्फिंग में कोई खास समस्या नहीं थी। बैंक-वैंक भी पर्याप्त मात्रा में हैं। अधिकांशतः कैशलेस रहने वाले 6-7 एटीएम भी हैं। लेकिन इसी रूद्रपुर से 12 किलोमीटर पर स्थित हमारे गांव में न तो इंटरनेट की सुविधा है, न बैंक हैं और न एटीएम। सिर्फ हमारे गांव में ही नहीं, आस-पास नजदीकी बैंक या फिर इंटरनेट नेटवर्क ढूंढने में आपको तकरीबन 6-7 किलोमीटर तक की यात्रा करनी पड़ सकती है। उत्तर प्रदेश के एक महानगर गोरखपुर से डेढ़ घंटे की दूरी पर स्थित एक गांव कैशलेस इकॉनॉमी के मंसूबों के आधार की सच्चाई बयान करता है। बिना तैयारी किए कैशलेस इकानॉमी के लिए ही अगर नोटबंदी का फैसला लिया गया था तो आप यह सवाल नरेंद्र मोदी से पूछिए कि डिजिटल कैशलेस ट्रांजेक्शन ग्रामीणों की सुविधा के लिए हैं या उन्हें और आर्थिक मुसीबत में डालने के लिए है।
नोटबंदी के उद्देश्यों के कड़वे हकीकत का यह एक उथला विश्लेषण है। तमाम आर्थिक दांवपेंच की तो मुझे कोई जानकारी नहीं है। विमुद्रीकरण का सार्थक, वास्तविक और तार्किक उद्देश्य क्या था यह अभी तक शायद सरकार भी तय नहीं कर पाई है इसीलिए, समय-समय पर जिम्मेदारों के बयान अपने-अपने मानी बदलते रहते हैं। अब तो इस सरकार के किसी भी दावे पर भरोसा नहीं होता। बाकी नोटबंदी के प्रभावों की अगर एकवर्षीय समीक्षा आप भी करना चाहते हैं तो पिछले साल दिसंबर में नोटबंदी के एक महीने बाद की स्थिति की तस्वीर खींचता यह लेख पढ़िए, साथ में संलग्न कर रहा हूं। इससे आप अपने अनुभवों और विवेक के हिसाब से शायद स्थिति का बेहतर विश्लेषण कर पाएं।

http://aksharsindhu.blogspot.in/2016/12/blog-post.html?m=1

Tuesday, 7 November 2017

कविताः जीवन एक विद्रोह तलाशता है..

हम जीवन भर मुक्त नहीं हो पाते
जीवन एक विद्रोह तलाशता है।
सालों से जमा कर लिया है लावा
अधूरी ख्वाहिशों का,
तिनका-तिनका भरता है
असंतोष का घड़ा, जिसमें
एक-एक बूंद हर पल का वो क्रोध -
या खीझ ही कहें तो न्याय होगा,
शामिल होता जाता है
जो रात के ख्वाब के हकीकत बनने
की संभावना को 
सामने से दूर गुज़रते देखते पनपता है।
ये आसमान दिख तो आसानी से जाता है
लेकिन उसे छूने में 
सिर्फ पसीना नहीं ज़िन्दगी छूट जाती है।

एक खीझ वह भी होती है
जो इस खीझ के भभक न पाने से उठती 
और उसी असंतोष के घड़े में जमा हो जाती है।
मर जाना क्या होता है?
ये अर्थी-शमशान-संगम का पानी
या पोस्टमॉर्टम का बॉक्स 
उतना बेहतर नहीं बताएगा, जितना कि
यह खीझ बताएगी जो
दावा करने, जीतने, पा लेने
मगर अपना न पाने की मजबूरी के बीच 
पिस रही है।
खीझ ही जीवन का हासिल है
और संभावनाओं की नदी में 
घटनाओं की नाव के लिए साहिल भी।

सपने कद से ऊँचे हैं,
देखते देखते गले में ऐंठन आ गयी है।
आशाएं वृक्षों की तरह हैं
जिनके हवाओं की प्रभुता कहीं बंधक है,
स्वतंत्र नहीं है।
इसलिए भीषण धूप की तपन में छाया एक भ्रम 
की तरह लगती है।
शरीर पसीने को बाहर कर देता है
और खाली हुयी जगह पर भर जाती है फिर से
एक बूंद खीझ।

जीवन भर हम जुटाते हैं
छोटी-छोटी असफलताएं और अभाव।
और एक दिन 
बिना जेब वाले आखरी कपड़े की थैली में
हमारे सारे जीवन की पूँजी के नाम पर
कुछ अधूरे सपने, कुछ अपूर्ण इच्छाएं
और मुट्ठी भर खीझ ही बच पाती हैं।।

हम जीवन भर मुक्त नहीं हो पाते,
ऐसा इसलिए नहीं कि हम
आज़ादी नहीं चाहते,
ऐसा इसलिए कि हमें 
आज़ादी की ग़लत पहचान है।
हमारी अधीनता 
हमारे आज़ाद होने की ख्वाहिश से ही
सिद्ध हो जाती है।
कि हमने एक व्यवस्था के अधीन 
आज़ादी का विकल्प चुन लिया है।
हमारी आजादी की बातें
हकीकत की जमीन के ठीक पीछे बुलंद होती है,
हकीकत पर आकर वो आजादी की नई परिभाषा गढ़ती हैं
अनुभव के व्याकरण का सहारा लेकर,
फिर आजादी की सीमा थोड़ी और आगे खिसक जाती है।
हम फड़फड़ाते हैं
कि हमारी आजादी 
बंधक है आजादी की परिभाषा में
हमारी आजादी बंधक है
दर-बदर होने के डर की आशंका में
जब हमारी आजादी बंधक है
तो हमें आजाद होकर भी क्या मिलेगा।
मेरी खीझ के घड़े का आधा हिस्सा
इस सवाल का उद्घोषक है
कि आजाद कैसे हो सकते हैं??

Monday, 6 November 2017

हम भी अगर धारा के लक्ष्य पर हैं तो..

क्या तुम भी लौटकर आ पाओगे?
(Photo credit: Abhishek Shukla)
धाराएं मोड़ने की कोशिश को दुनिया किस तरह देखती होगी? क्या धाराएं मुड़ती होंगी? क्या तुम भी लौटकर आ पाओगे? अपने उन सभी अवयवों के साथ जिसकी वजह से तुम तुम हो! जिसकी वजह से हम तुम्हें फिर से चाहते हैं, अभी! एक-एक इंच भी उसी तरह वापस, जिस तरह तुम हममें और हमारी तारीख में सम्मिलित हुए जा रहे थे!

क्या सब कुछ वैसे ही गुजरेगा जैसे अभी गुजर चुका है?
(Photo credit: Shatakshi Asthana)
नहीं न! अच्छा, अगर मिल भी गए तो क्या होगा? फिर से हम उसी तरह जिएंगे जिस तरह तुम्हें पहले एक बार जी चुके हैं? क्या फिर वही गलतियां, वही झगड़े, वही प्यार, वही जीत, वही हार एक बार और लिखते जाएंगे अपनी उम्र के कागज़ पर? क्या उसमें हम कुछ भी नहीं बदलेंगे? अच्छा मान लो, तुमने हमारे हिस्से का वक़्त खींचकर फिर एक साल पीछे कर दिया तो क्या सब कुछ वैसे ही गुजरेगा जैसे अभी गुजर चुका है? उन्हीं रास्तों को कुचलते हमारे पदचिह्न बिलकुल भी अपनी जगह नहीं बदलेंगे? ठठा कर हँसते हुए हम जिनके हाथों पर अपने हाथ पीटते थे क्या वे भी वही रहेंगे? तनाव और आंसुओं से भरे दिमाग का बोझ ढोने वाले कंधे भी नहीं बदलेंगे? चाय की एक एक प्याली वही होगी और उसमें चाय भी उतनी ही? ओस से भीगे हुए मौसम के निर्लक्ष्य भ्रमण में हमारे कदम की गिनती भी उतनी ही होगी, जितनी ब्रह्मपुत्रा हॉस्टल से होते हुए इम्यूनोलॉजी वाले गेट से निकलकर आईआईएमसी पहुँचने तक हमने गिनी थी? पीएसआर की पहाड़ियों पर गाए हुए हमारे हर गाने की धुन और उसके भूले-बिसरे शब्द उसी अपूर्णता के साथ हमें वापस मिलेंगे क्या? या फिर उस सड़क पर थिरकते पाँव की हर थाप, आवाज़ की उसी तीव्रता से वापस मिलेगी?



मगर कब तक यह पुनरावृत्ति जारी रहेगी?
क्या ऐसा हो पाएगा! अगर ऐसा हो भी पाएगा तो क्या हमारी चेतना को यह स्मरण रहेगा कि यह वक़्त हम दोबारा जी रहे हैं? अगर ऐसा नहीं होगा तो फिर जब यह वक़्त ख़त्म हो जाएगा तब हम क्या करेंगे? क्या फिर से मांगेंगे यही गुज़रा हुआ वक़्त? मगर कब तक यह पुनरावृत्ति जारी रहेगी? अच्छा, अगर ऐसा नहीं होगा, यानि कि हमें याद होगा कि हमारे वक़्त की रेखा को पीछे खिसकाया गया है और हम सारे पल दोबारा जी रहे हैं तो क्या हम बोर नहीं हो जाएंगे? जब हमें पहले से ही पता होगा कि पीएसआर से हम सनसेट नहीं देखने वाले हैं और इस वजह से अपनी एक दोस्त बहुत ज्यादा नाराज़ हो जाने वाली है, जब हमें पहले से ही मालूम होगा कि हम एक ऐसी स्पर्धा के एथलीट हैं जिसमें आगे जाकर हारने ही वाले हैं, तो क्या सब कुछ मिलकर एक नीरस सी कहानी नहीं बन जाएंगे? अगर ऐसा होगा तो क्या उन वक़्तों की अपनी ये सुखद स्मृतियाँ बकवास नहीं हो जाएंगी? अभी तो कम से कम हमारे पास उस वक़्त की बेहतरीन यादे हैं, वक़्त-बेवक्त जिनके पन्ने खोलकर हम थोड़ा मुस्कुरा लेते हैं और थोड़ा आंसू भी बहा लेते हैं! अगर ये स्मृतियाँ, वो गुजरा वक़्त लौट आए और हम उसे दुबारा जी भी लें तो क्या उससे नफरत नहीं हो जाएगी?

एक निश्चित दूरी के बाद उसे प्राचीनता का अंतिम चिह्न भी छोड़ना होगा
हर नयी धारा में पुरानी धारा के अवशेष बहुत ही कम मात्रा में ही सही होते तो हैं न! नदी के किसी एक खंड पर हर धारा नयी भी है पुरानी भी। नई वह आगे के लिए है और पुरानी पीछे के लिए। धारा को वहां रुककर अमरता प्राप्त नहीं करनी। जिस दिन वह नवलता के प्रतिरुद्ध ठहरने यानि अमरत्व पाने की कोशिश करेगी उस दिन वह नदी के रूप में मर जाएगी। उसका नद्यत्व इसी में है कि वह आगे बढ़े और नवीन धाराओं में परिणत होती रहे। कि यही उसकी अमरता है। एक निश्चित दूरी के बाद उसे प्राचीनता का अंतिम चिह्न भी छोड़ना होगा ताकि वह नए कलेवर में ढल सके। चाहे-अनचाहे उसे ऐसा करना ही पड़ेगा। हम भी अगर धारा के लक्ष्य पर हैं तो हमें भी ऐसा करना ही पड़ेगा। चाहे या फिर अनचाहे।

Wednesday, 25 October 2017

पुण्यतिथि विशेषः ज़िन्दगी सिर्फ मोहब्बत नहीं कुछ और भी है: साहिर लुधियानवी


फोटो साभारः इंटरनेट
विभाजन के बाद साहिर ने हिंदुस्तान छोड़ दिया और पाकिस्तान चले गए। उस दौर के मशहूर फिल्म निर्देशक थे ख्वाजा अहमद अब्बास। अब्बास साहिर के दोस्त थे। साहिर के जाने से दुखी भी थे इसलिए उन्होंने इंडिया वीकली नाम के मैगजीन में साहिर के नाम खुला पत्र लिखा और उन्हें यह एहसास दिलाया कि जब तक तुम साहिर लुधियानवी हो तब तक तुम हिंदुस्तानी हो। देश बदलने के लिए तुम्हें अपना नाम यानी कि अपनी पहचान बदलनी होगी। दिल भी एक अजीब डाकिया है कि बात अगर वहां से निकले तो सही पते पर पहुंच ही जाती है। अब्बास साहब के दिल से निकली ये पुकार सरहद पार कर लाहौर पहुंच गई। साहिर ने उनका खत पढ़ा और अपनी बूढ़ी मां को साथ लेकर साहिर लुधियानवी भारत लौट आए। उसके बाद जो कुछ भी हुआ वह पूरे एक दौर के इतिहास में सर्वाधिक क्षेत्रफल पर अपनी मौजूदगी रखता है।


कहते हैं कि ग़ज़लों की बहर तभी बनती है जब जिंदगी बे-बहर हो जाए। साहिर का जीवन भी बड़ा बेतरतीब रहा है। 8 मार्च 1921 को लुधियाना में पैदा हुए अब्दुल हय़ी साहिर जब आठ साल के थे तभी माता पिता के अलगाव की दुर्घटना से उनका पाला पड़ा। अदालत में अपने संपन्न पिता के विकल्प को ठुकराते हुए साहिर ने अपनी मां का साथ मंजूर किया और जीवन भर मां के साथ ही रहे। कॉलेज के दिनों में ही उनके शेर उनकी लोकप्रियता को पंख दे रहे थे। उनकी ग़ज़लें उन दिनों काफी लोकप्रिय हो रही थीं। प्रशंसकों का समुदाय तैयार हो रहा था। इन्हीं प्रशंसकों में से एक अमृता प्रीतम भी थीं, जिनसे साहिर को मोहब्बत थी। जीवन भर अविवाहित रहने वाले साहिर की यह पहली मोहब्बत थी जिसके मुकम्मल होने की राह में साहिर का वही नाम आड़े आ गया जिसने उन्हें हिंदुस्तान वापस बुलाया था। साहिर का नाम तो मुसलमान था लेकिन दिल का कहां कोई धरम होता है।

मोहब्बत के लेखकों के लिए ताजमहल का इतिहास एक बेहतरीन विषय है। न जाने कितनी नज़्में और कितनी कविताएं ताजमहल के चमकते संगमरमर पर आशिकों की प्रेमिकाओं का नाम लिखतीं और शाहजहां और मुमताज की मोहब्बत की मिसालें देतीं लेकिन साहिर तो उस पंक्ति से अलग ही थे। तभी तो उन्होंने शहंशाह की मोहब्बत को कुछ इस तरह से कटघरे में खड़ा किया है -

ये चमनज़ार, ये जमुना का किनारा, ये महल
ये मुनक्कश दरो-दीवार, ये मेहराब, ये ताक़
एक शहंशाह ने दौलत का सहारा ले कर
हम ग़रीबों की मोहब्बत का उड़ाया है मज़ाक़।

मोहब्बत के मामले में साहिर दूसरी पारी भी खेलना चाहते थे। तब की मशहूर पार्श्व गायिका सुधा मल्होत्रा के साथ उनका नाम काफी जोर-शोर से जोड़ा जा रहा था। कहा जाता है कि साहिर की तरफ से यह एकतरफा मोहब्बत की कोशिश थी। दूसरी बार दिल की बाजी हारने के बाद ही शायर साहिर के कलम ने लिखा होगा

ज़िन्दगी सिर्फ मोहब्बत नहीं कुछ और भी है।
ज़ुल्फ़-ओ-रुखसार की जन्नत नहीं कुछ और भी है।
भूख और प्यास की मारी हुई इस दुनिया में,
इश्क ही इक हकीकत नहीं कुछ और भी है।

यह इश्क में बार बार असफल होने की वजह से झल्लाए हुए किसी आशिक का ही बयान हो सकता है। कहा जाता है कि इश्क जिंदगी में केवल एक बार ही होता है। अपने प्रेम की श्रेष्ठता को प्रमाणित करने के लिए अक्सर कवियों की कविताएं इसी सिद्धांत का अनुसरण करती हैं लेकिन साहिर ने इस मामले में भी विधान बदल दिया। अमृता से अपने रिश्तों की कहानी के पटाक्षेप को साहिर जिंदगी के एक मोड़ की तरह के देखते हैं, जिसे शायद उन्होंने ही एक खूबसूरत शिल्प दिया है या देने की कोशिश की है।

वो अफसाना जिसे अंजाम तक लाना हो नामुमकिन,
उसे इक खूबसूरत मोड़ देकर छोड़ना अच्छा।
चलो एक बार फिर से अजनबी बन जाएं हम दोनों।

साहिर का मतलब जादू होता है और सच में साहिर जादू ही लिखते थे। "जिंदगी तेरी जुल्फों की घनी छांव में गुजरने पाती तो शादाब हो भी सकती थीं", ये पंक्तियां जिंदगी की एक कसक की तरह हैं जो साहिर को साहिर बनाती हैं। तल्खियां इनकी पहली किताब का नाम है जो 24 साल की उम्र में उन्होंने छपवाई थीं और जो उस नौजवान के तल्खियों से भरे जीवन की भविष्यवाणी की तरह लगती थीं। साहिर ने हिंदी फिल्मों को बहुत सारे हिट गाने दिए। गीतकारों का मूल्य संगीतकारों और गायकों से बिल्कुल भी कम नहीं हैं, इसका आभास सबसे पहले साहिर ने ही बॉलीवुड को करवाया था। संगातकारों और गायकों से एक रुपया ज्यादा मेहनताना लेना साहिर बॉलीवुड में धाक का पैमाना हो सकती हैं।

गुरुदत्त की प्यासा फिल्म के गीतों ने उस दौर में जो तहलका मचाया था उसमें साहिर का बड़ा योगदान था। गुरुदत्त के अवसाद से भरे मुखड़े पर बजने वाले गीत "जाने वो कैसे लोग थे जिनके प्यार को प्यार मिला, हमनें तो जब कलियां मांगी, कांटों का हार मिला" में शायद उनके अपने जीवन की टीस भी शामिल थी। इसी फिल्म में दुनिया को नकारने वाला वह गीत "ये महलों, ये तख़्तों, ये ताजों की दुनिया, ये इनसां के दुश्मन समाजों की दुनिया, ये दौलत के भूखे रिवाज़ों की दुनिया, ये दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्या है", हिंदी फिल्म-गीतों की लीक बदलने वाली कविता थी। आज साहिर की पुण्यतिथि है। 25 अक्टूबर 1980 को साहिर का शरीर मिट्टी में दफ्न हो गया लेकिन उनके गीतों का साहिर और उनके अद्वितीय व्यक्तित्व का जादू न जाने कितनी सदियों की सैर करेगा उनकी उस बात को झुठलाते हुए, जिसमें वो कहते हैं -

कल और आएंगे नगमों की, खिलती कलियां चुनने वाले,
मुझसे बेहतर कहने वाले, तुमसे बेहतर सुनने वाले।
कल कोई मुझको याद करे, क्यूं कोई मुझको याद करे,
मसरूफ जमाना मेरे लिये, क्यूं वक्त अपना बरबाद करे।
मैं पल दो पल का शायर हूं..

Wednesday, 18 October 2017

अगर बच्चों ने पर्यावरण के लिए घातक हथियार थाम लिए हों तो उन्हें उनसे छीन ही लेना चाहिए

धर्म और मजहब बचाने के अनगिनत आह्वान न तो आपके कानों से अछूते हैं और न हमारे। अलग-अलग धर्म अलग-अलग कारणों से संकट में हैं। संरक्षण की गुहार लगाती कभी-कभी हिंसक और अराजक हो जाने वाली इन आवाजों के बीच हर साल एक और आह्वान दबे पांव हमारे बीच आता है और फिर मायूस होकर चला जाता है। दरअसल, सिर्फ एक बार नहीं, बार-बार आता है और हर बार निराश होकर कुछ ऊंची घुड़कती आवाज को सुनकर चुपचाप जमींदोज हो जाता है। जानते हैं वो आह्वान क्या है? अपनी धड़कन सुनिए, अपनी सांसे महसूस कीजिए, अपनी आंखों की रोशनी को देखिए और अपने कानों के पर्दों का कंपन गिनिए। ये आवाज आपके दिल के धड़कनों की अनियमितता, आंखों की रोशनी की चुभन और आपके कानों के पर्दों की थरथराहट का दर्द है। यह आवाज आपके अपने वायुमंडल की आवाज है। यह आवाज उस प्रकृति का रूदन है जिसे इंसानों ने तबाह कर दिया है और अब जब उसे संवारने का दायित्व उठाने का वक्त आया है तब कई तरह के बहाने बनाकर वह उससे अपना पिंड छुड़ा लेना चाहता है।

दिल्ली के अर्जुन गोपाल, आरव भंडारी और जोया राव की ओर से उनके पिताओं द्वारा सुप्रीम कोर्ट में दायर की गई याचिका पर सुनवाई करते हुए अदालत ने दिल्ली-एनसीआर में पटाखों की बिक्री पर बैन लगा दिया है। ये तीनों याचिकाकर्ता 6-14 साल के बच्चे हैं जिनके फेफड़े दिल्ली के प्रदूषण ने खराब कर दिए थे। दिल्ली में ऐसे ही न जाने कितने अर्जुन, आरव और जोया होंगे जिन्होंने अपने फेफड़ों के खराब होने की विभीषिका झेल ली लेकिन वे अदालत नहीं जा सकते। शायद असमर्थ हों। लेकिन इतना तो तय है न कि यह प्रदूषण सामान्य नहीं है। अदालत इस बार यह टेस्ट करना चाहती है कि पटाखों के बैन होने से क्या प्रदूषण कम हो पाएगा। पिछले साल दिवाली के बाद दिल्ली की हालत वो लोग बेहतर बता पाएंगे जो दिल्ली में उस वक्त थे। धुंध और कोहरे से लिपटी दिल्ली प्रदूषण के सबसे उच्चतम स्तर का भी मुंह देख चुकी है। ऐसे में सरकार और अन्य जवाबदेह संस्थाओं द्वारा कुछ कठोर कदम उठाने की उम्मीद तो है ही।

इसी मद्देनजर सुप्रीम कोर्ट का फैसला आया कि शायद इससे कुछ तो प्रदूषण से राहत मिले। फैसला भले समूची मानवजाति के सुरक्षा को ध्यान में रखकर लिया गया हो लेकिन इससे मानवजाति की एक उपजाति की धार्मिक आस्थाएं आहत होने लगी हैं। उनकी सांस्कृतिक चेतना मानवीय अस्तित्व के सबसे बड़े संकट की आहट सुनने के प्रति भटकसुन्न हो चुकी है। यूं तो पर्यावरण संरक्षण से जुड़ा मामला होने के नाते ऐसी उम्मीद थी कि सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले का सब ओर से स्वागत होगा लेकिन कुछ एक बयानों ने कोर्ट के आदेश की तो छोड़िए पर्यावरण को लेकर वैश्विक चिंता का जो मजाक बनाया है और इस भारी-भरकम मुद्दे को कमतर समझने की समझदारी दिखाई है उसे देखकर लगता है कि अभी हम पर्यावरण के लगातार बदलते चेहरे को लेकर गंभीर नहीं हुए हैं।

सवाल अब ये भी है कि है अभी गंभीर नहीं है तो कब होंगे। विकासशीलता अभी और ज़हर उगलेगी ये तो जेनेवा और पेरिस जैसे सम्मेलनों से साफ़ पता चलता है। कार्बन उत्सर्जन को कम करने के कोटे को लेकर हो रही बहसों को विश्व का वातावरण बड़ी गंभीरता और आशा के साथ देख रहा है और इधर मसला ही नहीं सुलझता। विकसित देशों ने अपने हिसाब से कार्बन उत्सर्जन में कटौती का कोटा तय किया जिसके लिए विकासशील देश बिल्कुल तैयार नहीं हो रहे हैं। ये मसला तो इतनी आसानी से सुलझेगा नहीं। आन-बान-शान वाला मामला भी हो सकता है। लेकिन इन सबके बीच क्या किया जाए, दिन प्रतिदिन मौसम के बदलते रंगों से भयभीत होने के सिवा। पटाखों की बिक्री पर बैन पर विमर्श के धुएं भी उठने लगे हैं। यह भी एक तरह का प्रदूषण ही है। तो पर्यावरण के प्रदूषण से पहले लोगों के दिमाग का प्रदूषण दूर करना होगा क्या? शायद हाँ! लोगों को समझाना पड़ेगा। प्रदूषण को देखने वाली उनकी दृष्टि पर माइक्रो लेंस की परत चढ़ानी पड़ेगी। ताकि उनको दिखे कि जब वो कसरत करते हैं तब जोर-जोर से जो अपनी नाक से खींच रहे हैं वो ऑक्सीजन नहीं नाइट्रोजन डाई ऑक्साइड जैसे खतरनाक रसायन हैं जिससे उनके फेफड़े की ऐसी-तैसी हो जाने वाली है। तब शायद बात कुछ समझ भी आए। नहीं तो जैसे ही आप उन्हें बिना समझाए कहेंगे कि भाई होली में होलिका दहन मत करो या फिर दिवाली में पटाखे मत फोड़ो, उन्हें कोई ज्ञानी साहब समझाने लग जाएंगे कि 'देखो, बच्चों के हाथों से पटाखे छीने जा रहे हैं।' या फिर 'देखो, अब ये लोग तुम्हारे शमशान को भी बंद करा देंगे।' वगैरह वगैरह

सनातन संस्कृति से जुड़े पर्व, व्रत, उपासना विधि आदि पर्यावरण के प्रति संवेदनशीलता का श्रेष्ठ उदहारण कही जा सकती हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि इस संस्कृति की मान्यताएं पर्यावरण-संरक्षक विधानों के काफी करीब दिखती हैं। बात चाहे होली की हो या दीवाली की, हर त्योहारों के पीछे की वैज्ञानिक समझ आधुनिकता के तथाकथित समझ से युगों पहले भी बहुत आगे थी। इन त्योहारों की जब शुरुआत हुई रही होगी तब निश्चित रूप से पर्यावरण कोई बड़ी समस्या नहीं रही होगी। होली का त्यौहार हिन्दू कैलेंडर का आखिरी वर्ष होता था। ऐसे में नए साल के स्वागत हेतु घरों की वातावरणीय नूतनता के निर्माण के लिए उनकी साफ़-सफाई की जाती थी। फलस्वरूप सफाई से इकट्ठे कूड़े आदि को होलिका में जलाया जाता था। माना जाता है कि फसलों के कटने के बाद खलिहानों में उनके आगमन का उत्सव गुलाल से मनाया जाता था। आजकल गुलालों की जगह रसायनों से युक्त खतरनाक रंगों ने ले लिया है। दशहरे में मिट्टी की मूर्तियां बनायीं जाती थीं। जिन्हें नदियों में प्रवाहित करने पर मिट्टी तली में बैठ जाती। आजकल रसायनों से बनी मूर्तियां जल-पर्यावरण के लिए कितनी घातक हैं, बताने की जरूरत नहीं है। इसी तरह से दिवाली भी दो ऋतुओं के संधिकाल का पर्व है। ऋतुचक्र के वर्षा ऋतु से शीत ऋतु की ओर प्रयाण करने के संधिबिन्दु पर दिवाली का त्यौहार मनाया जाता है। तमाम विद्वानों का इस मसले पर कहना है कि वर्षा ऋतु में विविध प्रकार के कीट-पतंगों का प्रकोप काफी बढ़ जाता है। ऐसे में लोगों ने अपने घर की छतों पर और अपने दरवाजे पर घी या फिर सरसो के तेल के दिए जलाने शुरू किये। ऐसा माना जाता है कि इससे वर्षा ऋतु में उत्पन्न कीट काफी मात्रा में नष्ट हो जाते हैं। इस तरह से देखा जाए तो हमारे त्यौहार स्वच्छता, उत्सवधर्मिता और निरोगता के एक धार्मिक अभियान की तरह होते हैं। इन पर्यावरण अनुकूल प्रावधानों के बीच ध्वनि और वायु प्रदूषण बढ़ाने वाले पटाखों की परंपरा ने कब घुसपैठ किया, इसका पता किसी को नहीं है।

दिवाली की मूल प्रज्ञा है, अन्धकार से प्रकाश की ओर, असत्य से सत्य की ओर, अज्ञान से ज्ञान की ओर, मृत्यु से अमरता की ओर। इसीलिए दिवाली को दीप बाले जाते हैं। कि अमावस की चंद्रानुपस्थिति में भी प्रकाश का एक प्रतिनिधि उजाले की अमरता का नेतृत्व कर रहा होता है। इस दृष्टि से पटाखों की परंपरा कहीं से भी दिवाली का प्रतिनिधि तत्व नहीं है। क्या अमावस और शरद की नीरवता में कर्कश शोर का समावेश किसी भी तरह से युक्तिसंगत है? क्या दिवाली शांति से अशांति की ओर जाने का पर्व है? दिवाली का आध्यात्मिक पक्ष भी इसकी इजाज़त नहीं देता। लेकिन पर्यावरणीय चिंतन इस बात का ज्यादा पुख़्ता विरोध करता है। सर्दी के दिनों के दो उत्सव आतिशबाजियों के लिए जाने जाते हैं। पहला दिवाली और दूसरा नववर्ष। बिना पटाखों के इन उत्सवों की कल्पना ने भी लोगों के दिमाग से प्रस्थान कर लिया है। ऐसे में यह एक बड़ी चुनौती है कि कैसे त्योहारों को प्रकृति का दुश्मन बनने से रोका जाए। निश्चित रूप से दिवाली आपकी भक्ति और आपके आस्था से जुड़ा मामला है। लेकिन यह कैसी भक्ति है जिसमें आप उसी प्रकृति से विभक्त हो जाते हैं जिनके संरक्षण की जिम्मेदारी आपके इन्हीं त्योहारों ने उठायी थी। धर्म और धार्मिक आस्थाओं का जब बाजारीकरण होना शुरू हो जाता है तब उनके उद्देश्य बदल जाते हैं। ऐसे में आस्थाएं अपना मूल अर्थ खोने लगती हैं और इनकी दिशाएं इनके लक्ष्यों की विपरीतता का अनुसरण करने लगती हैं।

दिवाली वैसे तो बाजार का ही त्यौहार है। हर त्योहारों की तरह इसके टूल्स का भी बड़ा बाजार सजता है। लाखों लोगों के रोज़गार का सीधा संबंध इस बाजार से होता है। यहीं पर प्रशासन की जिम्मेदारी बढ़ जाती है। एक ऐसा तरीका निकालना जिससे न तो इतनी बड़ी संख्या में मानव संसाधन को नुकसान पहुंचे और न प्राकृतिक संसाधनों को। अभी जो पटाखे इत्यादि इस्तेमाल किये जा रहे हैं, आने वाले दिनों में उनके और खतरनाक होने की पूरी सम्भावना है। ऐसे में इन्हें त्योहारों पर दाग बनने देने से रोकना होगा। बच्चों के हाथों ने अगर आने वाली नस्लों की हवाओं में घोलने के लिए ज़हर थाम लिया हो तो उनके हाथ से वो ज़हर छीन ही लेने चाहिए। अब चाहे वो बच्चे बहुसंख्यक हिन्दू समुदाय के हों या फिर अल्पसंख्यक और तथाकथित पीड़ित मुसलमान समुदाय के हों।