Friday, 29 December 2017

कविताः मैं टटोल रहा हूं अक्षयपात्र

रिक्तता

जीवन के अक्षयपात्र की रिक्तता
दुर्वासा और उनके सौ शिष्यों की
उपस्थिति से भयभीत है।
प्राण की वेदना
द्रौपदी की प्रार्थना में शरणागत है,
और मैं टटोल रहा हूं अक्षयपात्र
कि तुम मिल जाओ कहीं
चावल के तिनके की तरह..

Thursday, 28 December 2017

कविताः सवालों के इंतजार में

तेज हवाओं से
अमरुद के सूखे हुए पत्ते
ज़मीन पर फ़ैल गये थे,
बारिश ने उन्हें जमीन से और चिपका दिया है,
मिट्टी की सुगंध
मेरे पांवों तले दबी
उन पीले-गीले पत्तों से छनकर
मुझ तक पहुँच रही है।
डाल से लगे
पत्तों पर अटके बूँद को चीरकर आती
अस्ताचलगामी सूरज की किरणें
सामने के नींबू की
हरी पौध पर पड़ रही हैं,
और उसकी छाँव का अँधेरा
उस पतली किरण से टकरा टकराकर
चूर हो रहा है।
गीली हवाओं ने
डूबते सूर्य की आग से उठने वाले
सांझ के धुएं को यहां-वहां
फैला दिया है।
और मैं
यूकेलिप्टस के शिखर पर बैठे
उस कोयल की कूक में
तुम्हारे उन 'सवालों' को महसूस कर रहा हूँ
जो तुमने कभी पूछा ही नहीं,
और जिसके इंतज़ार में
मेरे 'जवाबों' ने भी जवाब दे दिया है।

©राघवेंद्र

Thursday, 21 December 2017

कविताः ढहे-पड़े आवास

पृष्ठ भरे, बहुचित्र सजाए,
उनको अब तक रंग न पाए
थे, जीवन के विविध रंग ने थाम लिया संन्यास।

विह्वल, अन्यमनस्क, व्यथित मन,
ज्यों क्षतिग्रस्त महल, यूं जीवन।
खंडहरों में ढूंढ रहे हैं, ढहे-पड़े आवास।

यूं हैं बलवती आशाएं,
मरुथल में नीरज पुष्पाएं,
घना तिमिर, दामिनी देख, हो प्रातः का आभास।

पाप बना शर-शब्दभेद,
सब ज्ञान नियति पर करे खेद,
दशरथ की आत्मग्लानि पर पकता रघुवर का वनवास।

कविताः सूरज को कल फिर आना है

सूरज को कल फिर आना है।

तप्त-खिन्न से पत्थर बोले,
तनिक सांस ले, बाँहें खोले।
शीत चांदनी से नहला दो
ऐ चंदा-सर! हौले-हौले।
शीतलता का दीप जला दो, ज्वाल-अंध कल फिर छाना है।

पकड़ कहीं कोना-अँतरा, वह,
रोज सुबकता, पीर-ज्वाल दह।
सामाजिकता के थल से बिछुड़ा
जाता, निजी-पीर में बह-बह।
लक्ष्य-कोष से इतर लक्ष्य को खोकर कहता, क्या पाना है?

दीप अगिन थे कभी जलाए,
उनका अब प्रकाश ना भाए,
चंद्र-खिलौने पर अड़कर, अब
हठवश हो सब दीप बुझाए।
उसे पता क्या नहीं! पूर्णिमा को कुछ दिन में ढल जाना है।

Tuesday, 19 December 2017

पुण्यतिथिः पर्यावरण का अनुपम मित्र - अनुपम मिश्र


भगीरथ ने पितरों के उद्धार के लिए गंगा का धरती पर अवतरण कराया था। ऐसे में अगर अपने परिवार से इतर सोचते हुए एक व्यापक उद्देश्य की परिणति में कोई एक गंगा की जगह पानी की अनेक गंगाएं धरती पर उतार दे तो कहा जाए कि ऐसी शख्सियत भगीरथ से एक कदम आगे है। तब उसे आधुनिक भगीरथ नहीं कहा जाएगा बल्कि भगीरथ को सतयुग का अनुपम मिश्र कहा जाएगा। अनुपम मिश्र की सदेह सांसारिक अनुपस्थिति को आज एक साल हो गए। पिछले साल आज ही के दिन सादगी, शांति और प्रकृति प्रेम की अद्भुत मूर्ति ने दबे पांव संसार को अलविदा कह दिया था। अनुपम मिश्र से मेरा पहला परिचय हुआ था जुलाई 2016 में, जब हम तालाब बचाओ आंदोलन से संबंधित एक कार्यक्रम में शामिल हुए थे। इस दौरान उनकी पुस्तक 'आज भी खरे हैं तालाब' पढ़ने को मिली। तालाबों का पूरा विज्ञान तब पहली बार मेरे सामने आया था। तालाब से जुड़े तमाम शब्द, उनकी परिभाषाएं, तालाब की संरचना, बनाने की तकनीकी आदि सब कुछ उस एक किताब में बड़े ही सरल भाषा में संकलित है। हिंदी के अनन्य कवि भवानी प्रसाद मिश्र की एक कविता है - 'जिस तरह हम बोलते हैं, उस तरह तू लिख/ और इसके बाद भी हमसे बड़ा तू दिख'। अनुपम को शायद कभी भवानी प्रसाद मिश्र से बड़ा नहीं होना था लेकिन अगर भवानी प्रसाद मिश्र के कहे पर जाएं तो अपनी इस किताब से अनुपम सच में भवानी प्रसाद मिश्र से बड़े हो गए थे। भवानी प्रसाद मिश्र, जो अनुपम के पिता थे और जिन्हें अनुपम मन्ना कहकर बुलाते थे।

हिंदी के विख्यात कवि का पुत्र होना अनुपम के लिए गर्व का विषय तो था लेकिन यह उनका परिचायक बनें यह उन्हें पसंद नहीं था। अनुपम के एक मित्र और सहपाठी रहे बनवारी बताते हैं कि जब उन्होंने अनुपम से इसका कारण पूछा था तो सरल सहज अनुपम ने जवाब दिया था कि भवानी जी के पुत्र होने के नाते मुझसे अनायास ही बहुत सी अपेक्षाएं कर ली जाती हैं और मेरी साहित्य में रूचि नहीं है। फिर मैं अनुपम के रूप में ही क्यों न पहचाना जाऊं। लेकिन अपने पिता के प्रति निष्ठा को लेकर अनुपम की भावना को एक और उदाहरण से समझा जा सकता है। अनुपम दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदू कॉलेज में संस्कृत विभाग के विद्यार्थी थे। अपने संस्कृत विभाग में प्रवेश लेने का कारण बताते हुए उन्होंने कहा था कि एक बार उन्होंने अपने पिता को किसी परिचित से बात करते हुए सुना था जिसमें वे कह रहे थे कि मेरी बड़ी इच्छा थी कि मेरा कोई पुत्र संस्कृत सीखता। अनुपम ने उसी दिन स्वयं संस्कृत सीखने का निश्चय कर लिया।

संस्कृत का विद्यार्थी, घर का साहित्यिक और पत्रकारीय माहौल और फोटोग्राफी के शौकीन अनुपम तालाब की खोज में क्यों निकल पड़े? पानी से उनका यह लगाव कब और क्यों पुष्पित-पल्लवित हुआ? इस सवाल का जवाब देते हैं दिलीप चिंचालकर अपने एक लेख में। दिलीप बताते हैं कि एक दिन अनुपम राधाकृष्ण जी का पत्रवाहक बनकर वरिष्ठ पत्रकार ओम थानवी जी के यहां जाते हैं। थानवी जी के जवाब लिखने के दौरान अनुपम का ध्यान जमीन पर बनी जालियों की एक आकृति पर जाता है। जिज्ञासा उठती है कि यह क्या है? जवाब मिलता है कि प्रदेश में कम वर्षा की वजह से पानी को सहेजने का यह पुराना तरीका है। छत पर वर्षा के पानी को एकत्रित कर जमीन में सहेजने की यह व्यवस्था साल भर यहां के लोगों के लिए पानी का इंतजाम करती है। जीवन के आधार को इतनी अहमियत देने की यह व्यवस्था अनुपम के संकल्पों में नए युग के एक जल-पुरुष का बीज वपन करती है और आज के समाज को देशज तकनीकी से जल के परंपरागत स्रोतों को पुनर्जीवित करने वाला एक अनुपम संजीवन मिल जाता है। फिर क्या था, यात्राएं, सामाजिक अनुसंधान और परंपरागत तकनीकियों का पुनर्लेखन सबकी परिणति के रूप में एक रत्न निकलकर आता है, जिसका नाम होता है - 'आज भी खरे हैं तालाब'

आज भी खरे हैं तालाब अनुपम मिश्र की पहली कृति है। यह किसी भी तरह के कॉपीराइट के अधीन नहीं है। कोई भी इस पुस्तक को छाप सकता है। तालाबों के लिए लगभग विश्वकोष जैसी यह पुस्तक आधुनिक तकनीकी से मदांध मानवजाति के लिए आंखें खोलने वाली कृति है। अनुपम के लिए तालाब केवल जल-स्रोत नहीं थे बल्कि वह सामाजिक आस्था, परंपरागत कला-कौशल और संस्कारशीलता के उदाहरण सरीखे थे। किताब की शुरुआत होती है कूड़न, बुढ़ान, सरमन और कौंराई नाम के चार भाइयों से। कूड़न की बेटी को पत्थर से चोट लग जाती है और वह अपनी दरांती से पत्थर को उखाड़ने की कोशिश करती है। पर यह क्या! उसकी दरांती तो सोने में बदल गई। दरअसल वह पत्थर नहीं पारस था। कूड़न बेटी के साथ पत्थर को लेकर राजदरबार पहुंचता है लेकिन राजा पारस लेने से इंकार कर देता है और कहता है-  '' जाओ इससे अच्छे-अच्छे काम करते जाना, तालाब बनाते जाना।'' अनुपम किताबी शिक्षा को केवल औपचारिक शिक्षा मानते थे। आधुनिक शिक्षा के पर्यावरणीय अनपढ़पन पर तंज कसते हुए अपनी किताब में अनुपम लिखते हैं - 'सैकड़ों, हजारों तालाब अचानक शून्य से प्रकट नहीं हुए थे। इनके पीछे एक इकाई थी बनवाने वालों की, तो दहाई थी बनाने वालों की। ये इकाई, दहाई मिलकर सैंकड़ा, हज़ार बनाती थीं। पिछले दो-सौ बरसों में नए किस्म की थोड़ी सी पढ़ाई पढ़ गए समाज ने इस इकाई दहाई, सैकड़ा, हज़ार को शून्य ही बना दिया।'

आज भी खरे हैं तालाब अनुपम मिश्र के जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि नहीं है। यह तो उनकी उपलब्धियों के महान कोष का एक छोटा सा हिस्सा है। दरअसल अनुपम की उपलब्धियों को गिना भी तो नहीं जा सकता है। खुद अनुपम को यह चीज पसंद नहीं थी। अपनी उपलब्धियों के प्रति किसी भी तरह की प्रशंसा की शून्य आकांक्षा और अपने पास आए सुविधा के तमाम अवसरों को अपने अलावा किसी सुयोग्य को सौंप देने की उनकी आदत उनके व्यक्तित्व को वास्तविक अनुपम्यता सौंपती है। हम अनुपम मिश्र को कभी देख नहीं पाए। ऐसे में दिल में इस टीस को रोकना बिल्कुल भी संभव नहीं कि कम से कम एक बार उनसे मिल लेते। इसलिए भी कि उन्हें धन्यवाद दे सकें कि हमारी सांस के साथ हमारे खून में घुलने वाली हवाओं में उन तालाबों के पालों से उठने वाली खुश्बू है जो धरती पर जीवन का फूल खिलाने की तब सबसे बड़ी जरूरत होंगी जब सारे विकल्प खत्म हो चुके होंगे। अनुपम मिश्र के लिए दिवंगत पत्रकार प्रभाष जोशी ने 1993 के अपने एक लेख में जो लिखा था वह आज उनके जाने के बाद और भी प्रासंगिक हो उठा है कि - 'पर्यावरण का अनुपम, अनुपम मिश्र है। उस के जैसे व्यक्ति की पुण्याई पर हमारे जैसे लोग जी रहे हैं। यह उसका और हमारा, दोनों का सौभाग्य है। अपने एक लेख में अनुपम बिनोबा भावे की एक उक्ति दोहराते हैं जिसमें बिनोबा कहते हैं - ' पानी जब बहता है तो वह अपने सामने कोई बड़ा लक्ष्य, बड़ा नारा नहीं रखता, कि मुझे तो बस महासागर से ही मिलना है। वह बहता चलता है। सामने छोटा–सा गड्ढा आ जाए तो पहले उसे भरता है। बच गया तो उसे भर कर आगे बढ़ चलता है। छोटे–छोटे ऐसे अनेक गड्ढों को भरते–भरते वह महासागर तक पहुंच जाए तो ठीक। नहीं तो कुछ छोटे गड्ढों को भर कर ही संतोष पा लेता है। ऐसी विनम्रता हम में आ जाए तो शायद हमें महासागर तक पहुंचने की शिक्षा भी मिल जाएगी।' अनुपम का जीवन बिनोबा भावे की इसी उक्ति का प्रायोगिक संस्करण है।

'न्यूज लॉन्ड्री' में प्रकाशित

Monday, 4 December 2017

श्रीलंकाई क्रिकेटरों के मुंह पर लगे मास्क ने हमारी बोलती बंद कर दी है


 श्रीलंकाई क्रिकेटरों के मुंह पर लगे मास्क ने हमारी बोलती बंद कर दी है

देश में आज का माहौल कुछ ऐसा बना हुआ है कि स्मॉग से ज्यादा राष्ट्रीय चिंतन का विषय विराट कोहली का तिहरा शतक न बना पाना हो गया है। ‘श्रीलंकन टीम को ऐसा नहीं करना चाहिए था’, ‘ये साजिश थी उनकी’। ‘इस ड्रामे पर तो उसे ऑस्कर मिलना ही चाहिए’, (और अखण्ड पाखंड का ‘नोबल’ हमको।) इन सारे बयानों में विमर्श की दिशा देखिये आप! बात स्मॉग पर नहीं होगी, बाकी सब पर होगी। दिल्ली-सरकार और ‘दिल्ली की सरकार’ दिल्ली में ही है, लेकिन दिल्ली का दिल खतरे के निशान पर धड़क रहा है। एक रिपोर्ट में पढ़ रहा था कि हर साल हमारे देश में तकरीबन 6 लाख लोग प्रदूषण की कड़वी हवा की वजह से दम तोड़ देते हैं; लेकिन ये आंकड़े अब चौंकाते नहीं हैं। इन आंकड़ों को गिनना हमारी आदत बनती जा रही है। हम सब भी इन सांख्यिकीय आंकड़ों का घटक बनने से पहले गम्भीर नहीं हो सकते। हमें सब कुछ मजाक ही लगेगा। पटाखों पर बैन को ‘संस्कृति पर हमला’ बोलकर हम न्यायालय पर व्यंग्य हंसी हंसेंगे। ऑड-इवन पर तंज कसेंगे और केजरीवाल पर चुटकुले बनाकर ठहाके लगाएंगे। कितने हंसमुख हैं हम सब!

हंसमुख होना बुरा नहीं है। हंसी और ख़ुशी के गोमुख वाली आदतों से विमुख होना भयानक है। पर्यावरण के खतरे की जानकारी से और उसके बचाव के तरीकों से कोई अनभिज्ञ नहीं है। छोटे प्रयास ही बड़े परिणामों की नींव होते हैं। हमें लगता होगा कि इस माहौल में भी केवल हमारे पेट्रोल-डीजल वाले वाहनों के अप्रयोग से क्या फर्क पड़ेगा! ऊर्जा के संसाधनों का बेतरतीब प्रयोग अगर हम छोड़ भी दें तो इससे कहाँ कोई प्रदूषण प्रभावित होने वाला है! पेड़ काटें, न लगाएं और सोचें कि हमारे ही पेड़ लगा डालने से कहाँ पर्यावरण स्वच्छ हुआ जा रहा है! पटाखे भी तो साल में एक बार ही छोड़े जाते हैं, इससे भी क्या इस तरह का भयानक स्मॉग होता है कहीं! हम एक किलोमीटर की दूरी भी साइकिल से या पैदल जाने में कतराते हैं। तर्क होता है कि इतनी दूर में कितना प्रदूषण बढ़ जाएगा! हमारी ज़िम्मेदारियों का यही ‘समझौतीकरण’ श्रीलंकाई क्रिकेटरों के मुंह पर बंधा हुआ वह मास्क है जिसने आज दुनिया के सामने हमारी बोलती बंद कर दी है।

श्रीलंका की टीम भारतीय क्रिकेटप्रेमियों के लिए विलेन बन गयी है।हम विकासशील अर्थव्यवस्था वाले लोग हैं। इस राह पर न जाने कितने स्मॉग्स के हमले हमें झेलने हैं। इन हमलों के विरुद्ध हम सभी एक सैनिक की तरह हैं। हम सभी के पास हमारे हिस्से की जिम्मेदारियों के हथियार हैं। अगर हम अपने दायित्व को समझें, प्रकृति के बचाव के प्रति अपने कर्तव्य का बोध रखें और अपनी क्षमता के मुताबिक इस नर्क के मूल कारणों को अपनी जीवनचर्या से कम करते जाएं तो इस विपदा से निपटना बहुत आसान हो सकता है।

ऊपर हमने कुछ भी नया नहीं लिखा है। यह सब कुछ हम काफी पहले से सुनते-इग्नोर करते आ रहे हैं, इसीलिए इसे बार-बार दोहराने की ज़रूरत पड़ती है। आजकल निराशाजनक विषयों का परिसर बढ़ता चला जा रहा है। कल मीडिया का रवैय्या देखकर बहुत दुःख हुआ। श्रीलंका की टीम भारतीय क्रिकेटप्रेमियों के लिए विलेन बन गयी है। दिल्ली में कल का मौसम सामान्य से तीन गुना खराब था। हम शाम को जैसे ही बाहर निकले, हमारे एक साथी ने बताया कि सरकार ने सुझाव दिया है कि 10 बजे से पहले घर से बाहर न निकलें। हवा खतरनाक स्तर तक खराब है; लेकिन हम लोगों के लिए यह आदत की तरह होती जा रही है। इसलिए हम पर बाहर-बाहर से इसका बहुत ज्यादा असर भी महसूस नहीं होता। श्रीलंकन टीम के लिए ज़रूर दिक्कत हो रही होगी। इसके लिए उन्हें ‘ड्रामा’ ‘नाटक’ जैसे शब्दों से नवाजना ग़लत लगता है।

स्मॉग के चलते शायद पहली बार क्रिकेट में ऐसी रुकावट देखने को मिली है। ऐसे में मैच को रद्द करने संबंधी किसी तरह ‘क्रिकेटीय नियम’ भी निश्चित नहीं है। खराब मौसम, कम दृश्यता और बारिश की वजह से तो मैच रोका जा सकता है लेकिन प्रदूषण की वजह से आज तक किसी मैच के बीच में रद्द होने की कम से कम मुझे तो कोई जानकारी नहीं है। हां, पिछले साल रणजी ट्रॉफी के दो मैच स्मॉग के चलते खेले ही नहीं गए थे। कल की घटना को लेकर श्रीलंका क्रिकेट बोर्ड ने बीसीसीआई से नाराज़गी भी ज़ाहिर की है। वैश्विक मीडिया में भी यह खबर भारत की प्रतिष्ठा को बट्टा लगा रहा है। ऐसे में सारी खीज़ विदेशी खिलाडियों पर उतरना सही नहीं है। इस संकट की ज़िम्मेदारी हमें खुद ही लेनी होगी और कल की घटना को लेकर अपनी भाषा भी बदलनी होगी।

इतिहास, संस्कृति और परंपराओं के गुणगान में हमारा कोई सानी नहीं है। इनके लिए हम ‘नाक’ से लेकर ‘गर्दन’ तक काटने को तैयार रहते हैं। हमने अपने चारों ओर की प्रकृति के हैरतअंगेज विशेषताओं को देखकर उनके एक अदृश्य सर्जक की कल्पना कर ली है। उस काल्पनिक अस्तित्व को लेकर हम उन्माद के स्तर तक प्रतिक्रियावादी हैं लेकिन सदृश्य प्रकृति को लेकर हममें कोई गंभीरता नहीं है। यह हमारे पाखंड का पहला अध्याय है। भारतीय इतिहास, परम्परा और संस्कृति की बात करें तो इसके प्रति भी हम केवल पाखंडी ही हैं। हमें अपनी संस्कृति का गुणगान करने में तो खूब मज़ा आता है लेकिन उसे अपने आचरण में उतारने को लेकर हम मुंह छिपाने लगते हैं, एक दूसरे का मुंह ताकने लगते हैं। होली मनाएंगे लेकिन होली के पीछे का विज्ञान नहीं पता होगा और जब कोई खतरनाक रसायनों वाले रंगों के प्रयोग या फिर होलिका दहन प्रक्रिया के निषेध की बात करेगा तो अपने कुतर्क लेकर उस पर चढ़ जाएंगे। हम दीवाली मनाएंगे लेकिन उसकी मूल धारणा से एकदम किनारा कर लेंगे, फिर जब पटाखों पर प्रतिबंध लगेगा तब श्मशान भी छिन जाने का भय दिखाकर लोगों को भड़काने की कोशिश करेंगे। इसी तरीके से हम अपनी परम्पराओं के अच्छे पहलुओं से दूरी बनाकर केवल पाखंड अपनाते रहेंगे।

हमारी संस्कृति, परंपराएं और समस्त त्यौहार पर्यावरण संरक्षण का एक अभियान ही हैं। या फिर यूं कहें कि प्रकृति और पर्यावरण को संरक्षित रखना ही हमारी संस्कृति का मूल लक्ष्य है तो कुछ गलत नहीं। इसलिए अगर ‘संस्कृति-दूत’ बनना ही है, ‘देशभक्त’ बनना ही है तो सबसे पहले अपनी उस प्रकृति की भक्ति कीजिए जिससे विभक्त होकर आपके जीवन की कल्पना भी कल्पित नहीं हो सकती। श्रीलंकन खिलाडियों को कोसकर कुछ नहीं मिलने वाला है, उल्टा यह हमारे एक अन्य संस्कृति-वाक्य के प्रतिकूल आचरण है जिसमें हमारे ऋषि-मुनि अतिथि के देव होने की घोषणा करते हैं।

Saturday, 2 December 2017

याद-ए-इलाहाबाद: विपिन की कलम से

29जुलाई2017: क्यूंकि आज हमारे #ShuklaJi का बड्डे है...
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हम जितने उलझे हुए हैं शुक्ला जी उससे कई गुना सुलझे हुए व्यक्तित्व हैं। शुक्ला जी, प्रदीप सर, सत्येंद्र सर, विजय सर (बड़के भईया) और हम क्लास की सबसे पीछे वाली सीट पे बैठते-बैठते दोस्त बन गये थे, कमाल की बात ये कि कितनी भी मार-मशक्कत हो जाए सीट के लिए पर हमारी सीट पे कोई पेन तक नहीं रखता था। मैथ की क्लास अलग चलती थी, और पीछे शुक्ला जी और प्रदीप का संसद भवन अलग ही आकार ले रहा होता था, कभी तो बहस में जब हम लोग भी शामिल हो जाते थे तो बाकी स्टूडेंट क्लास में धारा-144 की माँग करने लगते थे।

हम और शुक्ला जी Saturday-Sunday को 3-4 घंटे सिर्फ चाय पिया करते थे, जब तक बुधई जी दुकान से भगा नहीं देते थे तब तक। हमारी प्रेम कहानी में शनिवार-रविवार की चाय का योगदान अतुलनीय है। बहुत झेलते थे शुक्ला जी हमें. मेरी कहानी के लेखक शुक्ला जी थे, निर्माता और निर्देशक राज और शौर्य थे... क्या करना है, कैसे करना है, क्या भूल के भी नहीं करना है, अबकी मिलके क्या कहना, अबकी बुलाये तो रुकना है या चलते जाना है, सबकुछ यही तीनों लोग डिसाइड करते थे। हम तो बस एक्टर थे। कहानी तो इन्होंनें लिखी है। ये बताना इसलिए जरूरी है क्योंकि पिछले 4 साल में वही एक यादगार दौर था, और कुछ तो भुलाए नहीं भूलता (खासकर रिजल्ट). हम लोग दारागंज स्टेशन पर रिजल्ट आने के एक दिन पहले सुसाइड की प्रैक्टिस करने जाते थे, ट्रेन 100 मीटर दूर रह जाती तो कूद के किनारे आ जाते फिर कहते यार लोग कैसे मर जाते हैं??
सब एकदम सही तो नहीं लेकिन सस्टेन करने लायक चल रहा था और फिर एक दिन Shukla Ji भी दिल्ली चले गये।

एक साल से ज्यादा हुए सर आपको गये, और उससे ज्यादा दिन मिले हुए। सर, अब सैटर्डे-संडे की शाम सोते-सोते निकाल देता हूँ, मेरी कहानी सुनने वाला कोई नहीं बचा आपके बाद, राजनीति में क्या 'क्यूं' हो रहा है ये समझाने वाला कोई नहीं है, हर सिचुएशन में आप कोई कविता सुना के जता देते थे कि दुनिया यहीं खत्म नहीं होती।

सर, यकींन मानिये, बहुत याद करते हैं आपको। जैसे आप सबको जोड़ रखे थे, आपके शहर छोड़ के जाते ही सब जाते रहे और हम अकेले होते रहे। आप स्टेशन की ढलान से उतरते हुए अक्सर कहते थे कि मैं एक अच्छा जर्नलिस्ट बन जाऊँ और आप आईएएस.. फिर दिखायेंगे हम वो परिंदे हैं जो उड़ने लगे तो आसमान चीर के पार निकल जाएंगे। सर, बस यही एक सपना अभी टूटा नहीं है।

आपसे 'बड़ी' उम्मीदें हैं, मैं यहाँ आज आपके बारे में कुछ नहीं कहूँगा, कहने लायक हूं भी नहीं, आपके बारे में लिखा नहीं जा सकता, कुछ शब्दों में सीमित कैसे कर दूँ आपको? बस इतना पता है दुनिया सलाम करेगी आपको, ये मेरा विश्वास है।

#HappyBdaySir
#GodBlessYou

(विपिन कुमार त्रिपाठी की फेसबुक वॉल से साभार)