Sunday, 10 February 2019

चिट्ठियां मौन का अनुवाद होती हैं


मेल पर दोस्त की चिट्ठी आई है। यह कतई आश्चर्य की बात हो सकती है कि फोन, वाट्सऐप, मैसेंजर के दौर में चिट्ठी की क्या जरूरत थी? चिट्ठी में ऐसी कौन सी बात हो सकती है जो आप फोन पर नहीं कह सकते? आप चैट पर नहीं लिख सकते। मुझे नहीं पता। ऐसा इसलिए भी कि जिंदगी में न तो कभी किसी को चिट्ठी लिखने की जरूरत लगी और न ही चिट्ठियों को लेकर कोई आकर्षण रहा। हम सेलफोन्स के दौर में पैदा हुए हैं लेकिन चिट्ठियों के सौंदर्य से, उनके वैभव से अपने आपको अलग रख पाना भी ऐसे वक्त में संभव नहीं है जब चिट्ठियों के युग की सांझ हो रही हो। कि सांझ में भी तो दिन का कुछ अंश शेष होता है।

जीवन में मैंने दो बार चिट्ठी लिखी है। यह दोनों बार की चिट्ठी बहुत अनिवार्य कारणों से लिखी गई हो ऐसा नहीं है। ऐसा भी नहीं है कि चिट्ठी न लिखते तो इससे इतर कोई संसाधन ही नहीं था कि अपनी बात चिट्ठी के प्रापक तक पहुंचाई जा सके लेकिन चिट्ठी लिखी गई। एक नहीं दो बार लिखी गई। शायद 21वीं सदी के दो-चार साल के भीतर ही मां के पास फोन मौजूद था लेकिन फिर भी इन चिट्ठियों के लिखे जाने की अहमियत अपनी जगह है।

पहली बार चिट्ठी लिखी गई पिता को। कक्षा 6 में रहे होंगे शायद। पापा बनारस में थे और हम रुद्रपुर में। हिंदी की पाठ्यपुस्तक में पत्र लिखने के तरीके के बारे में बताया गया था। पापा से अक्सर शाम को फोन पर बात हो जाती लेकिन शायद ही कभी हिम्मत हो पाई हो कि उनसे यह पूछ पाएं कि वह कैसे हैं? उनकी तबीयत कैसी है? पापा बोलते और हम जवाब देते। यही हमारी बातचीत थी और आज भी हमारा संवाद ऐसे ही होता है। चिट्ठी लिखे जाने जैसी कोई बात नहीं थी। मां को परीक्षा देने बनारस जाना था। पापा के पास ऐसी क्या चीज भेजी जा सकती है? बहुत सोचने के बाद चिट्ठी का आईडिया आया था।

कॉपी के बीच से दो पन्ने फाड़े गए और कुछ ही देर में हिंदी की किताब की उंगली थामकर कागज की सड़क पर शब्दों के पांव टहलने लगे। कि धीरे-धीरे चलते-चलते पापा के पास पहुंच जाना है। क्या सवाल करेंगे उनसे?

प्रिय पिताजी,
सादर प्रणाम
मैं यहां सकुशल हूं। आशा है कि आप भी सकुशल होंगे..

जो बात कभी सामने नहीं कह पाए वह चिट्ठी में भी तो नहीं कह पा रहे थे। वहां भी आशा कर ली थी कि वह सकुशल होंगे। ऐसा इसलिए भी कि पापाओं को अकुशल होने का कोई अधिकार नहीं होता। 23 साल के जीवनकाल में पापा को कुछ गिने-चुने बार अकुशल देखा-सुना है। खैर, जो भी मंतव्य रहा हो लेकिन किताब ने पत्र लिखने का यही ढांचा दिया था। पिता के नाम पत्र अगर मांगपत्र न हो तो आपके पुत्र होने में संदेह होने लगे। सो किताब मांगी गई थी पिता से पत्र में। पत्र का लिफाफा नहीं था। उसे चार बार मोड़ा और मां के पर्स में डाल दिया। अगले दिन फोन से सूचना मिली जो पापा ने खुद दी कि उन्हें मेरी चिट्ठी मिल गई है। मुझे आज भी वह वाक्य और वह लहजा तक याद है और मुझे आज भी लगता है कि 'तुहार चिट्ठी मिलल' बोलते हुए तब पापा मुश्किल से अपनी हंसी दबा पाए होंगे।



दूसरी चिट्ठी हिंदी में नहीं लिखी गई थी। यह संस्कृत में थी। सभी विषयों में संस्कृत और हिंदी से विशेष प्रेम था। यह चिट्ठी भी प्रशिक्षणजन्य चिट्ठी थी। संस्कृत की चिट्ठी लिखने के अभ्यास में लिखी गई। पत्र छोटे भाई शशांक के नाम लिखा गया था। वह गांव में रहता था। उससे मिलने के लिए हम छुट्टियों का इंतजार करते कि घर जाएंगे और उससे मुलाकात होगी। यह मुलाकात इसलिए भी बहुत रोमांचक और खुशनुमा होती थी क्योंकि हमारी मनमर्जियां, हमारा सारा बचपना या क्रिएटिविटी कह लें या खुराफात,शरारत चंचलता, मनबढ़ई या जो कुछ भी। उन सबमें वह हमारा एक मजबूत साझीदार था।

संस्कृत में लिखी चिट्ठी या ऐसे कह लें कि किताब से नकल कर लिखी गई चिट्ठी में घर और गांव का हालचाल पूछा गया था। किताब में लिखी चिट्ठी में किसी बड़े भाई ने अपने छोटे भाई के लिए चिट्ठी लिखी थी। शायद बड़ा भाई घर से किसी वजह से बाहर रहता था। नकल कर लिखी गई चिट्ठी में मैंने संस्कृत में लिखा, जिसका अनुवाद होता है, 'जब मैं घर से आया था तब मां कुछ बीमार थीं। अब उनकी तबीयत कैसी है?' यह तो नकल के साइड इफेक्ट का जीता-जागता उदाहरण बन गया था क्योंकि मां तो मेरे पास ही थीं रुद्रपुर में। नकल कर मैंने लिख दिया कि मां बीमार थीं कैसी हैं? हालांकि, पत्र प्रेषण से पहले प्रूफरीडिंग के लिए मां के पास ले जाई गई। तब मां की नजर इस लाइन पर गई। उन्होंने होशियारी दिखाई और केवल 'मां' की जगह 'तुम्हारी मां' (संस्कृत में) लिखकर पत्र में सुधार कर दिया।

वाक्य सही और सार्थक हो गया। पत्र में ज्यादा काट-पीट नहीं करनी पड़ी। घर से आते वक्त चाची सचमुच बीमार थीं। उनका हाल-चाल लेना तो बनता ही था। तो इस तरह से दूसरी चिट्ठी लिखी गई। इसका जवाब भी आया था। जवाबी चिट्ठी भोजपुरी में लिखी गई थी। इसे पढ़कर भाई-बहनों को बहुत हंसी आई लेकिन हमारे लिए तो उस वक्त यह अमोल थी। क्योंकि गांव से आई थी और इसमें उस मक्के की फसल की खबर थी जो हमने घर के सामने दुआर पर सरकारी नल के ठीक बगल में थोड़ी सी खाली जमीन पर बो दी थी और जिसके लिए मास्टर पापा से डांट भी सुनी थी।

इन दो पत्रों के बाद कोई पत्र नहीं लिखा गया। हां, तीसरे पत्र की भूमिका जरूर बनी। आईआईएमसी छोड़ने के बाद एक बेहद करीबी मित्र हैदराबाद चले गए। एक दिन फोन पर बातचीत के दौरान उन्होंने प्रस्ताव रखा कि हम एक दूसरे को चिट्ठी लिखेंगे। हमारा पता भी लिया। हमने यह भी सुनिश्चित किया कि हम इस पत्र के पहुंचने या इसमें लिखी बातों के बारे में चैट पर या फोन पर चर्चा नहीं करेंगे। उसका जवाब पत्र से ही दिया जाएगा लेकिन यह योजना पूरी नहीं हो पाई। न तो हमारी चिट्ठी हैदराबाद गई और न तो हैदराबाद से ही कोई चिट्ठी आई। लेकिन, आज दिल्ली से एक डिजिटल चिट्ठी आई है।

इस चिट्ठी को देखकर पहली बार लगा कि चिट्ठी में क्या चीजें होनी चाहिए? और यह भी कि चिट्ठी क्यों जरूर लिखनी चाहिए। अब एक चीज तो तय है कि चिट्ठी लिखने के लिए किताब की जरूरत नहीं पड़ेगी इसलिए इस चिट्ठी के जवाब में जो चिट्ठी लिखी जाएगी वही मेरे लिए सही मायने में पहली चिट्ठी होगी। चिट्ठी में पल्लवी ने एक ही बार में सारी बातें कह दी हैं जो अक्सर आमने-सामने की बातचीत में न कही जा सकें। यह चिट्ठी सुंदर है। इसने जरूर आंखे भिगो दी हैं जो आमतौर पर चिट्ठियां अक्सर करती रही हैं।

मेरे पत्र व्यवहार में हर जगह डाकिया अनुपस्थित है। जिन्होंने डाकिए का कर्तव्य पूरा किया वह पेशे से डाकिया नहीं थे। इस बार भी जो चिट्ठी आई है वह ईमेल पर आई है। उसका भी कोई डाकिया नहीं है लेकिन पत्र व्यवहार के इस तरीके ने एक तरह से चिट्ठी लेखन को परंपरा, पर्व या फिर रीति-रिवाज की कतार में खड़ा कर दिया है। हम एक ऐसी दुनिया में अब भी हैं, जहां भाषा के शरीर से आप भले हर किसी से 1-2 सेकंड दूर हों लेकिन मन के शरीर से आज भी उतनी ही दूरी है जितनी एक कबूतर के कहीं चिट्ठी पहुंचाने या फिर किसी साइकिल वाले बूढ़े डाकिया चाचा के पत्र लेकर घर पहुंचने वाले जमाने में लोगों के बीच होती थी। चिट्ठियों की जरूरत इसीलिए आज भी खत्म नहीं होती बल्कि बढ़ जाती है। चिट्ठियां मौन का अनुवाद भी हो सकती हैं।

चिट्ठी के लिए शुक्रिया, पल्लवी! वह चिट्ठी पढ़कर यह सारी ही स्मृतियां एक झटके से चलचित्र की तरह दिमाग में चलने लगी थीं। तुम्हारे पत्र में कुछ शिकायतें हैं, कुछ स्मृतियां हैं और कुछ सवाल भी। उम्मीद है कि जल्दी ही तुम्हें जवाबी चिट्ठी लिखें।

Tuesday, 22 January 2019

आत्मलेखन: संवादशून्यता की ओर


जब आप बिलकुल अमहत्वपूर्ण होते हैं तो बहुत खाली रह सकते हैं। आपके रहने या न रहने से संसार का बहुत कुछ बदल नहीं जाता। आपके नाराज होने या खुश होने की कोई कीमत नहीं रह जाती। आप अपनी ही ज़िन्दगी के दोयम दर्जे के नागरिक होते हैं। आप अपने दोस्तों के दोयम दर्जे की दोस्ती होते हैं। आप अपने चाहने वालों के लिए दोयम दर्जे के चाहने वाले होते हैं। आप अपने परिवार के लिए दोयम दर्जे के सदस्य होते हैं। मतलब यह कि आप किसी की भी प्राथमिकताओं में नहीं होते। कोई भी आपके बर्ताव को समझने की कोशिश को समय की बर्बादी समझता है। आपके निराश होने को, दुखी होने को, खुश होने को या और भी किसी असामान्य हरकत को समझने में थोड़ी भी दिलचस्पी नहीं लेता।

ऐसा जीवन भार लगता है। अपने आप पर भी और अगर एक मिनट के लिए अपने आप से बाहर निकलकर संसार बनकर अपने आपको देखा जाए तो संसार के लिए भी। केवल भार। निरुद्देश्य जीवन। अज्ञात राहें। विचलित मन। क्षतिग्रस्त योजनाएं और पहाड़ सी सामने खड़ी उम्र। जीवन में सदैव दो पक्ष होते हैं सामाजिक रूप से। पहला उन लोगों का जिन्हें आप अपने आसपास देखना चाहते हैं। उनसे संपर्क में रहना चाहते हैं। उनसे बात करना चाहते हैं। दूसरा उन लोगों का जिनके जीवन में आप स्वयं ऐसी लिस्ट में हों। अपनी वर्तमान अवस्था को देखता हूँ तो दो दृष्टियों से देखा जीवन दिखाई देता है। एक वह दृष्टि है जहाँ से देखने पर लगता है कि जिन लोगों से साथ की उम्मीद करता था वह सभी मुझे अकेला छोड़कर चले गए हैं। दूसरी दृष्टि ऐसी है जिसमें मैं उन तमाम लोगों से पीछा छुड़ाकर भाग आया हूँ जो मुझे अकेला नहीं छोड़ना चाहते। दोनों ही स्थितियों की परिणति में मेरा अकेलापन है। दोनों एक ही श्रृंखला के हिस्से ऐसे हो जाते हैं कि बीच में अग्रोन्मुख गतिशील मैं हूँ, मेरे आगे पहली दृष्टि वाले लोग और मेरे पीछे दूसरी दृष्टि वाले।

यह अकेलापन भारी है। मेरे जीवन से संवाद निरंतर शून्य की ओर बढ़ते जा रहे हैं। मेरी संवादशैली व्यवहारिक न होकर पुस्तकीय होती जा रही है। मैं लोगों से ज्यादा किताबों से बातें करने लगा हूँ। किताबों के किरदारों से भी। उनमें अपने आप को ढूंढता हूँ। उनकी तरह सोचता हूँ। उनकी तरह बोलता हूँ। उनकी ही तरह सुनता भी हूँ। हर दुखी, संतप्त और अकेला किरदार मुझे अपने जैसा लगता है। बिल्कुल उस जैसा हो जाने की कवायद में मैं यह बिलकुल भूल जाता हूँ कि उनमें से ज्यादातर कल्पना की जमीन से पैदा होते हैं। व्यवहारिक जीवन में उनसे केवल उपहास उपजता है। शायद मेरा उपहास ही होता हो और मुझे इसकी जानकारी न हो।

एक वक्त पर ऐसा लगता था कि लिखना आ गया है तो सारे दुखों को झेला जा सकता है। यह भ्रम भी था कि हम लेखक लोग अपने दुखों को लिखकर हल्के हो जाते हैं और सबसे बड़ा यह कि हमारे दुःख ही हमें लिखना सिखा रहे हैं। यह सब छलावा है। बहाने हैं कि मन बहल जाए। एक वक्त तक बहलता भी है लेकिन फिर वही ढाक के तीन पात। जीवन इतना महत्वशून्य लगता है कि अगर अभी प्राण निकल जाएं तो संसार के किसी भी हिस्से को कोई बहुत बड़ा नुकसान उठाते हुए नहीं देखता हूँ। श्रेष्ठताओं को पूजने वाले इस संसार में अयोग्यताओं के झुके शीश के साथ जीना स्वाभिमान को चुनौती की तरह लगता है। ऐसा लगता है कि अभी से वास्कोडिगामा या कोलम्बस की तरह किसी और दुनिया की खोज में निकल जाएं जहाँ हम जैसे लोगों को भी सम्मानित ढंग से देखा जाता हो। जहाँ हम निरीह नहीं। जहाँ हम अपराधी नहीं। जहाँ हम अयोग्य नहीं लेकिन श्रेष्ठ भी नहीं। जहाँ जीने की शर्त केवल आपका होना हो। जहाँ आप रहें वही बहुत हो। आपके अंदर किसी गुणवत्ता की, श्रेष्ठता की या किसी महान कौशल की बढ़ोतरी करने की कोई जरुरत नहीं हो।

निराशा कोई रहस्य नहीं है। अपराध भी नहीं और कमजोरी तो बिलकुल नहीं। यह परिस्थिति है। परिस्थिति वह जो यह बताती है कि कितने लोगों की आत्मा में आपकी आत्मा का हिस्सा है। कितने लोग आपकी नसों की गर्मी महसूस करते हैं। कितने लोग हैं जिन्हें आपके पलकों की झपकन और सीने की उथल पुथल के स्वर सुनाई देते हैं। निराशाओं की तीव्रता आपने करीबियों की संख्या के व्युत्क्रम अनुपाती होती है। निराश होने के बाद भी ज़िन्दगी जी जा सकती है। मुझे अकेलापन झेलते हुए अब तक़रीबन 10 साल होने को आए होंगे। परिवार से ऊब होने के बाद से ही दोस्तों में मन बांटने का रास्ता खोजा। दोस्त लेकिन दोस्त ही होते हैं। उनकी अपनी सीमाएं हैं। उन्हें यह नहीं पता होता कि उनसे दोस्ती की उम्मीद में आप परिवार से उम्मीदों के हिस्से की भी उम्मीद कर रहे होते हैं। वह दोस्ती निभाते हैं और आपकी उम्मीदें दोस्ती से कहीं ज्यादा की होती हैं।

विराग बहुत ही कम उम्र में मन में घर कर गया है। समाज से नाता तोड़ लेने का मन करता है। सभी परम्पराएं, रीति रिवाज, जीवन पद्धतियां। सब कुछ छोड़ देने का मन होता है। लगता है जैसे जीवन देने वाले मुझे सभी जिम्मेदारियों से मुक्त कर दें। पता नहीं इसके परिणाम मिलेंगे या सत्परिणाम या दुष्परिणाम। कोई समझाता भी तो नहीं। डर लगता है कि कहीं कोई आकर मेरी अभिलाषा को अपराध न घोषित कर दे। मुझे अक्सर ऐसे किसी अज्ञात शख्स की चीखती आवाज़ सुनाई देती है और डरा सहमा मैं। डरा सहमा इसलिए कि नहीं पता क्यों अक्सर कुछ साबित करते वक़्त दलीलें मेरा साथ छोड़कर चली जाती हैं। मुझे यही डर होता है कि अगर मैं अपने आपको निरपराध सिध्द न कर पाया तो! यह मानसिक उथल-पुथल अब जीने में समस्याएं पैदा कर रहा है।

Wednesday, 19 December 2018

मनीष पोसवाल की कविताः सड़कें धरती की नसें हैं


एक सड़क सही मायनों में
कभी नहीं चलती, आगे बढ़ती।
और कमाल तो ये है कि
ना ही कभी रुकती, खत्म होती।
बस पगडंडियों, दगड़ों और बटियाओ में बंट जाती है,
बंटवारा कर देती है बसवाटों का,
खेतों का, पहाड़ों का ,मैदानों का।
सड़क नहीं खिसकती बिलांद भर भी,
सड़क नहीं सरकती सुई बराबर भी,
दुनिया की तमाम सड़कें
धरती की नसें हैं,
जो जिंदा रख रही हैं उसे,
और इन नसों में दौड रहे हैं हम।
नदी भी सड़कें हैं,
बस वहाँ बहता है पानी
आदमी की जगह।
सड़कें कहीं नहीं आ रही-जा रही,
वो तो हम हैं जो निकले हैं चिरयात्रा पर
जो मरकर ही खत्म होगी।

मनीष पोसवाल
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Sunday, 16 December 2018

समानांतरः उदासी का उत्सव

यह जीवन रिक्त स्थानों के कदम दर कदम चलने का बिंदुपथ है

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जब आप उस अजीब सी अनुभूति की छाया में होते हैं तब तक आप अलग ही एहसास से गुजर रहे होते हैं। वहां जीत-हार जैसी प्रतियोगिताएं भी होती हैं। दुख-आनंद से मनोभाव भी होते हैं। बहुत कुछ वाजिब लगता है। बहुत कुछ गलत लगता है। इन सबसे इतर रात के सन्नाटे में कभी शांत स्थिर दिमाग से सोचिए तो लगता है कि किस कहानी का हिस्सा बन गए हैं? क्या सच में जो कुछ भी आपके साथ हो रहा है उसके नायक आप ही हैं? हां, नायक ही। कहानी को आगे ले जाने वाला नायक भर ही।

नायकत्व के तमाम आधुनिक परिभाषाओं से अलग, अयोग्य और सर्वथा दूर। एक ऐसी स्थिति, जो आपसे बिल्कुल ही अनियंत्रित हो गई हो। जिसके कारणों का पता बिल्कुल ही सृष्टि के सृजन की कथा की तरह अजान हो। रहस्यमयी हो। जहां से दुख निकलता हो। दुख भी ऐसा कि आप गहराई में उतरते चले जाएं। जिसकी आपको आदत लग जाए। जो अगर किसी वजह से न हो तो आपको बेचैनी होने लगे और ऐसा भी लगे कि आप कुछ बहुत भारी और कीमती चीज खो रहे हैं।

हर वक्त विचारों में गोते लगाना। शांत हो जाना। गंभीर हो जाना। गूढ़ से गूढ़ जीवन-सूत्रों के अर्थ ऐसे उद्घाटित होने लगते हों जैसे मन-मस्तिष्क किसी अज्ञात ज्ञान उपग्रह के सिग्नल से संलग्न हो गया हो। गहराई ऐसी स्थापित हो जाए जैसे संसार का सारा ही ज्ञान आपमें समाहित हो जाएगा। जिसे लोग उदासी कहते हैं वो आपके लिए आनंद और जीवन के सुचारु संचार की अहम आवश्यकता लगने लगे। यह कौन सा वातावरण है? यह कौन से सृजन की उथल-पुथल है? यह कौन सी चीज है जिसमें एक बीज सी बेचैनी भरती जा रही है?

क्या करें जब लगातार आनंद की चेष्टाएं असफल होती जाएं? आनंद भी क्या जीवन का परम लक्ष्य है? फिर दुख किसलिए हैं? फिर उदासी किसलिए है? यह किसी का उद्देश्य क्यों नहीं है जबकि यह सहज प्राप्य है? क्या इनकी सहज उपलब्धता इनका मूल्य कम कर देती है? उदासी भी एक उत्सव क्यों नहीं हो सकती? दुख भी एक त्योहार क्यों नहीं हो सकता? क्यों ऐसा लगता है कि हम दुखी हैं तो यह एक जीवन के प्रतिकूल घटना है? हम उदास हैं तो इससे जीवन का स्वास्थ्य सही नहीं रहेगा?

उदासी हमें गहराई प्रदान करती है। दुख हमें द्रव्यमान देते हैं। हमें सीखों से भर देते हैं। हमें विचारों से परिपूर्ण कर देते हैं। हम सघन हो जाते हैं। गहरे हो जाते हैं। ऐसे में ज्यादा चीजें हममें समा सकती हैं। सुख हमें उथला बनाते हैं। हम जब हंस रहे होते हैं तब चीजों को सतही तौर पर लेते हैं लेकिन संसार ने नियम बना लिया है कि सुख ही सही है। आनंद ही जीवन की अच्छी सेहत का संकेत है। दुख है तो बीमार हो। उदासी है तो मृतप्राय हो। यह तय कौन करे?

अभाव ही जीवन की गति हैं। असंतोष ही ईंधन है जीवन गाड़ी का। अभाव प्रेरित करते हैं। शून्य बनाते हैं ताकि नया जीवन समा सके। यह जीवन रिक्त स्थानों के कदम दर कदम चलने का बिंदुपथ है। हमारी उम्र अभावों की एक यात्रा है। मोशन ऑफ अ वैकेंट प्लेस इज़ आवर लाइफ। अभाव होंगे तो उदासी भी होगी इसलिए उदासी जीवन के आधारों की तासीर जैसी है। यानी कि अगर जीवन का स्थायी भाव कुछ है तो उदासी है। दुख है। ऐसा मेरा मानना है। इसलिए, जीवन में उदासी देने वालों और दुख देने वालों के प्रति कृतज्ञ होना हमारा नैतिक दायित्व है। यही धन्यवाद ज्ञापन हमारी उदासी का उत्सव है।

Saturday, 8 December 2018

विद्रोहीः 'मैं मानता ही नहीं कोई मुझसे बड़ा होगा'

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रमाशंकर यादव 'विद्रोही'
पुण्यतिथिः 'बास्टर्ड' सोसायटी में 'आसमान में धान' की तरह उग आने वाले कवि थे विद्रोही

"मैं किसी से प्रतिवाद नहीं करता तो उसका सिर्फ एक कारण है। मैं इस इंडियन सोसायटी का नेचर जानता हूं। यह एक बास्टर्ड सोसायटी है जो न कवि को इनाम देती है और न दंड।" नीतिन पमनानी की फिल्म 'मैं तुम्हारा कवि हूं' में बोलते हुए विद्रोही इस बात से कतई अनजान तो नहीं रहे होंगे कि वह जिस सोसायटी की बात कर रहे हैं वह हजारों साल पहले ही श्रुति परंपरा को नकारकर लिखित परंपरा के रास्ते पर चल पड़ी है। वह उसी को प्रमाणिक और ऐतिहासिक मानती है जो लिखित में है। इसमें संदेह की बात नहीं कि अगर धर्मदास ने कबीर को लिखा नहीं होता तो शायद वाचिक परंपरा का वह युगकवि सैकड़ों साल पहले अपनी समस्त दार्शनिक साखियों के साथ कहीं गायब हो गया होता। हालांकि, यह खुशी की बात है कि ऐसे हालात में भी कबीरों को उनके धर्मदास मिल जाते हैं।

हमारे युग के कबीर हैं विद्रोही
विद्रोही हमारे युग के कबीर हैं। अपने समय की संकीर्णताओं पर हथौड़ा मारने वाले कबीर। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की सड़कों, ढाबों से लेकर संसद मार्ग तक के प्रोटेस्ट तक में उस कबीर की कविता गूंजती थी और आज तक गूंज रही है। उम्मीद है कि वह आगे भी गूंजेगी क्योंकि वह लिखी नहीं गई है। वह दहाड़ी गई है। वह बोली गई है। विद्रोही का लिखने पर विश्वास ही नहीं था। वह कबीर की तरह 'मसि कागद छूयो नहीं' की स्थिति में नहीं थे। पढ़े-लिखे थे। अपने छोटे से गांव अहिरी फिरोजपुर से जेएनयू तक पहुंचे थे लेकिन फिर भी उन्होंने अपने आप को लिखने की बात नहीं सोची। जैसे वह लिखित रूप में दर्ज ही नहीं होना चाहते हों। जैसे वह आवाज के रूप में आसमान में फैल जाना और हवा में घुल जाना चाहते हों। इस बात से बिल्कुल भी अप्रभावित कि जो लिखा नहीं जाएगा वह मूल्यांकित भी नहीं होगा।

विद्रोही के समकालीन कवियों को उन्हें कवि मानने से ही ऐतराज है। उस समय हिंदी के विख्यात आलोचक नामवर सिंह भी जेएनयू में थे और विद्रोही भी। लेकिन नामवर सिंह के लिए विद्रोही कभी कवि नहीं बन पाए। शायद इसी वजह से कवि विद्रोही न तो कभी छपे और न ही उनका मूल्यांकन किया गया। इस 'बास्टर्ड' सोसायटी में विद्रोही घूम-घूमकर कहते रहे

"मैं चाहता हूं कि
पहले जनगणमन अधिनायक मरें
फिर भारत भाग्य विधाता मरें
फिर साधू के काका मरें
यानी सारे बड़े लोग पहले मर लें
और फिर मैं मरूं"

लेकिन कोई इस कवि के इस 'विवादित' कविता को संज्ञान में नहीं लेना चाहता। कोई कवि को दंड नहीं देना चाहता। कोई कवि को ईनाम नहीं देना चाहता। एक तरह से समकालीन लोगों द्वारा समूचे तौर पर इग्नोर कर दिया जाना ही इस कवि को ऐसी लीक पर खड़ा कर देता है जो सबसे अलग है। जिस पर विद्रोही अकेले हैं। समकालीन साहित्य के पास विद्रोही को लिखने की स्याही भले न हो लेकिन वह दर्ज होने से नहीं रहेंगे। समय हर चीज को दर्ज कर लेता है। विद्रोही को समय ने दर्ज कर लिया है। जब-जब लोगों को 'मोहनजोदड़ो की आखिरी सीढ़ी पर पड़ी औरत की लाश' और 'इंसानों की बिखरी हुई हड्डियों' पर अथाह तकलीफ होगी, अपने बच्चों और पुरखों को बचाने की चिंता होगी तब-तब लोग अपने कवि की आवाज ढूंढ लेंगे और ऐसे वक्त में विद्रोही तमाम साजिशो, षडयंत्रों के लिखित इतिहास की बंजर धरती से आसमान में धान की तरह उग पड़ेंगे।
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'मैं मानता ही नहीं..'
"मुझे मसीहाई में यकीन है ही नहीं,
मैं मानता ही नहीं कोई मुझसे बड़ा होगा।"

जिसके पास आत्ममूल्यांकन का सामर्थ्य हो वह किसी और से अपने मूल्यांकन की उम्मीद नहीं करता। विद्रोही की कविता पढ़ेंगे तो लगेगा कि वह 'काव्यशास्त्र विनोदेन कालो गच्छति धीमताम' जैसे लोगों के लिए नहीं थे। ऐसे लोग जो ड्राइंग रूम्स या पुस्तकालयों में बैठकर धीरे-धीरे समझ-समझकर, रस लेकर कविता पढ़ते हों, विद्रोही शायद उनके कवि नहीं हैं। विद्रोही की कविताओं में प्रतिध्वनि सुनाई देती है। संबोधन होता है। पुकार होती है। विद्रोही-साहित्य में कवि और श्रोता अलग-अलग नहीं है। दोनों ही कविता में विराजमान हैं। कविता में ही श्रोता भी है और कवि भी। विद्रोही की कविता किसी सुधी श्रोता से वार्तालाप की प्रक्रिया है। इसमें वह तीसरा पक्ष भी शामिल है जिसकी उलाहना देनी हो या जिसकी मजम्मत करनी हो।

मैं किसान हूँ
आसमान में धान बो रहा हूं।
कुछ लोग कह रहे हैं
कि पगले! आसमान में धान नहीं जमा करता
मैं कहता हूँ पगले!
अगर ज़मीन पर भगवान जम सकता है
तो आसमान में धान भी जम सकता है
और अब तो दोनों में से कोई एक होकर रहेगा
या तो ज़मीन से भगवान उखड़ेगा
या आसमान में धान जमेगा।

हजार साल पुराना गुस्सा और नफरत
अपनी कविताओं में पीरगाथाओं को वीरगाथाओं के व्याकरण में ढालकर विद्रोही ब्राह्मणवाद के 'गौरवाशाली' इतिहास की खिल्ली उड़ाते हैं। वह अपने आप को पंडित और ज्ञान का अगुआ कहने वाले लोगों के बनाए समाज का आईना भी विद्रोही तरीके से रखते हैं। ऐसे में उनके अंदर से गोरख पांडे की कविता की तरह 'हजार साल पुराना गुस्सा और हजार साल पुरानी नफरत' अपनी पूरी तीव्रता के साथ बाहर निकलती है।

बाम्हन का बेटा
बूढ़े चमार के बलिदान पर जीता है।
भूसुरों के गांव में सारे बाशिंदे
किराएदार होते हैं
ऊसरों की तोड़ती आत्माएं
नरक में ढकेल दी जाती हैं
टूटती जमीनें गदरा कर दक्षिणा बन जाती हैं,
क्योंकि
जिनकी माताओं ने कभी पिसुआ ही नहीं पिया
उनके नाम भूपत, महीपत, श्रीपत नहीं हो सकते,
उनके नाम
सिर्फ बीपत हो सकते हैं।
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विद्रोही! तुम करते क्या हो?
जंगलों में 'नराः वानराः' की तर्ज पर रहने वाले विद्रोही, नहाने-धोने से परहेज करने वाले विद्रोही, जेएनयू के शहर में छात्रों की संगत के सहारे जीने वाले विद्रोही, प्रोटेस्ट, सभा-कार्यक्रमों में महज अपनी कविता सुनाने के लिए लंबा इंतजार तक मंजूर करने वाले विद्रोही, प्रतिरोध के अपने वैचारिक विरासत को अपने बेटे को भी सौंपने की मंशा रखने वाले विद्रोही दिसंबर 2015 की आज ही की तारीख को दुनिया छोड़कर चले जाते हैं और वैसे ही जैसे एक योद्धा के लिए वीरगति ही उसकी सर्वोच्च उपलब्धि होती है विद्रोही भी जेएनयू छात्रसंघ की 'ऑक्यूपाई यूजीसी' प्रोटेस्ट के दौरान वीरगति को प्राप्त हुए। कविता उनके लिए खेती थी, उनके लिए वैसा ही काम था जैसा काम लोग अपनी सांसे चलाने के लिए करते हैं।
कर्म है कविता
जिसे मैं करता हूं
फिर भी लोग मुझसे पूछते हैं
विद्रोही! तुम करते क्या हो?

दर्द का दवा हो जाना भी सही नहीं
विद्रोही की बहुत सी कविताएं उल्लेखनीय हैं लेकिन सभी यहां संभव नहीं। उनकी कविताओं का संग्रह नवारुण ने प्रकाशित किया है। नितिन के पमनानी ने 'मैं तुम्हारा कवि हूं' नाम से उन पर एक डॉक्युमेंट्री फिल्म भी बनाई है। विद्रोही ने जनभाषा में कविताएं लिखी हैं। जन सरोकारों पर कविताएं लिखी हैं। हलवाह, नानी, कहांर, नूर मियां, अहीर, औरत, आदिवासी जैसे बिम्बों-शब्दों का सहारा लेकर अपनी बात कही है। लोग उनमें नागार्जुन देखते हैं। कबीर देखते हैं लेकिन विद्रोही इस बात से खुश होते हैं कि लोग उनमें तुलसीदास नहीं देखते। वह दर्द का इलाज करना जरूरी समझने वाले साहित्य-समाज के इकलौते कवि होंगे। उनके मुताबिक दर्द ठीक है। दर्द आगे भी मिले तो इनकार नहीं है लेकिन दर्द की आदत बन जाना सबसे ज्यादा खतरनाक है। वैसे ही जैसे पाश के शब्दों में मुर्दा शांति से भर जाना सबसे खतरनाक है। इसीलिए विद्रोही गालिब को खारिज करते हैं और कहते हैं -

दर्दों का आगे और भी सिलसिला हो,
पर ये तो न हो कि दर्द ही दवा हो।

Thursday, 15 November 2018

पुराणों से आधुनिक निष्कर्ष लाने वाले प्रसाद


जयशंकर प्रसाद: ऐतिहासिक-पौराणिक आख्यानों से आधुनिक निष्कर्ष निकालने वाले रचयिता

धुनिक हिंदी साहित्य जब किशोर हो रहा था उस समय जयशंकर प्रसाद का जन्म साल 1890 में काशी में हुआ था। आर्थिक संपन्नता के वातावरण में पले-बढ़े प्रसाद का विषाद और करुण भावनाओं के तट पर आना तब होता है जब 12 साल की उम्र में पिता का साया उनके सर से उठ जाता है। कुछ ही साल बाद माता की भी मृत्यु से काशी के समृद्ध सुंघनी साहू परिवार का यह वंशज घोर आर्थिक संकट के झंझावातों के फेर में पड़ता है। कहते हैं कविता व्यथा की पुत्री है। महज 9 साल की अवस्था से ही लेखन में रमे जयशंकर प्रसाद ने भी अपनी जीवन-पीड़ा का आलम्ब लेकर तमाम दार्शनिक और मनोवैज्ञानिक काव्य रचे। हालांकि, प्रसाद के परिवार को उनका लिखना पसंद नहीं आता था इसलिए जयशंकर कलाधर हो जाते हैं और इसी नाम से लेखन जारी रहता है। बड़े भाई का भी असमय निधन होने के बाद जयशंकर प्रसाद संन्यास की ओर भी प्रेरित होते हैं लेकिन कहते हैं कि विधवा भाभी के अनुनय-विनय पर वह सांसारिक जीवन में वापस लौट आते हैं। हालांकि, यह लौटना समूचा नहीं हो पाता है क्योंकि प्रसाद की रचनाएं और उनका शेष जीवन बताता है कि वह केवल देह से वापस आए हैं। उनका मन तो कहीं संन्यासी ही हो गया है।

साल 1918 में प्रसाद की पहली रचना 'चित्राधार' प्रकाशित हुई। इसमें उनकी ब्रज कविताएं शामिल हैं। हिंदी साहित्य में उनके पूर्ववर्ती भारतेंदु हरिश्चंद ने हिंदी गद्य को खड़ी बोली से समृद्ध तो किया लेकिन पद्य में वह ब्रज भाषा लेखन के रथ से नहीं उतर पाए थे। बहुत लंबे समय तक हिंदी खड़ी बोली का हिंदी काव्य से साक्षात्कार नहीं हुआ था। हिंदी का यह इंतजार तब खत्म हुआ जब जयशंकर प्रसाद ने 'आंसू' लिखी। इसे हिंदी पद्य साहित्य का पहला ऐसा काव्य संग्रह माना जाता है जो खड़ी बोली हिंदी में लिखी गई है। लेकिन, जयशंकर प्रसाद को हिंदी साहित्य के इतिहास में इस युगांतकारी परिवर्तन के अलावा भी कई कारणों से याद किया जाता रहा है। इन्हीं में से एक मजबूत कारण है ‘कामायनी’।

'कामायनी' तकरीबन 47 साल जीने वाले जयशंकर प्रसाद का आखिरी महाकाव्य है। इसे जयशंकर प्रसाद की उपलब्धि से ज्यादा हिंदी साहित्य की उपलब्धि के लिए जाना-बताया जाए तो इसमें किसी को भी कोई आपत्ति नहीं होगी। 'कामायनी' मानवता के मनोविज्ञान का अद्भुत शास्त्र है। ज्ञान, भाव और कर्म की बुनियाद पर लिखे इस महाकाव्य में मानव के देवत्व पर श्रेष्ठता की उद्घोषणा का भी संकेत मिलता है। 'कामायनी' के पहले सर्ग चिंता में ही यह बात स्पष्ट रूप से दिखाई देती है।

हिमगिरि के उत्तुंग शिखर पर बैठ शिला की शीतल छांह,
एक पुरु, भीगे नयनों से देख रहा था प्रलय प्रवाह।

नंददुलारे वाजपेयी प्रसाद पर लिखे अपने लेख में बताते हैं कि कामायनी की शुरुआत ही आदर्शवादी देवसृष्टि के विध्वंस के साथ होती है। इस विध्वंस में देव-सृष्टि विनष्ट हो जाती है और मानव सृष्टि का आरंभ होता है। प्रथम मानव मनु है जो उन अमर देवों का वंशज है जो प्रलय में मर गए हैं। प्रसाद कामायनी के शब्दों से कहना चाहते हैं कि जब देव-सृष्टि विनष्ट होती है तब मानव-सृष्टि आकार लेती है। साल 1936 में प्रकाशित हुए इस महाकाव्य में प्रसाद ने प्रथम मानव मनु के माध्यम से तकरीबन संपूर्ण मानवीय संवेदनाओं का विस्तृत व्याख्यान लिखा है। कुल 15 सर्गों वाली कामायनी का हर सर्ग किसी स्थान, घटना या पात्र के नाम के शीर्षक के साथ आरंभ होने की बजाय मानव मन की वृत्तियों के आधार पर होता है।

छायावाद की समस्त प्रवृत्तियां प्रसाद की कामायनी में सम्पूर्ण रूप से विद्यमान हैं। वहीं, अगर आप निराला में छायावाद के प्रतीक-चित्रों की खोज करेंगे तब आपको उनका समूचा साहित्य उलटना पड़ेगा। यही छायावाद के अन्य स्तंभ-लेखकों के साथ भी है। तमाम विद्वान जयशंकर प्रसाद में बुद्ध का अंश देखते हैं। जीवन में इतने प्रिय लोगों का अकाल दुनिया छोड़कर चले जाना प्रसाद को मृत्यु-व्यथा के प्रश्नों की ओर लेकर जाता है। इन्हीं सवालों के जवाब में 'आंसू' और 'झरना' की सृष्टि होती है।

इस करुणा कलित ह्रदय में एक विकल रागिनी बजती।
क्यों हाहाकार स्वरों में वेदना असीम गरजती।

प्रसाद घोर आधुनिक कवि हैं। उनकी रचनाओं में आधुनिक प्रश्नों के जवाब तलाशने और सामाजिक वैषम्य पर सवाल उठाने की घटनाएं विशेष रूप से मिलेंगी। बौद्ध दर्शन की ओर झुके प्रसाद ने बुद्धकालीन चरित्रों से दो चीज़ें सीखीं। पहली तो अहिंसा और करुणा भाव। दूसरा स्त्री-सम्मान। प्रसाद ने तात्कालिक सामाजिक परिस्थितियों को आधार मानकर स्त्री-विषयक आधुनिक सवाल उठाकर स्वयं की दूरदर्शिता का परिचय भी दिया है।

नारी तुम केवल श्रद्धा हो

श्रद्धा के बिना जीवन निर्वाह असंभव है। कामायनी यही बताती है। आप कामायनी के सर्गों पर जाएंगे तो पहला सर्ग है चिंता। सृष्टि की चिंता कि पुनर्निर्माण कैसे हो? चिंता के बाद उपजती है आशा। उसके बाद श्रद्धा। श्रद्धा के बिना आशा की कल्पना नहीं हो सकती। श्रद्धा कामायनी की महिला पात्र है, जो कामायनी है। श्रद्धा से अलग हो जब कामायनी का नायक मनु इड़ा यानि की बुद्धि की ओर प्रयाण करता है तभी उसे दुखों से दो-चार होना पड़ता है। बुद्धि की अति होने से महत्वकांक्षाओं में भी बढ़ोतरी होती है। मनु पहले तो इड़ा के साम्राज्य में मंत्री होता है लेकिन फिर वह सम्राट बनने का दुःसाहस करता है। यही उसके पतन की वजह बनने लगती है। अंत में उसे कामायनी के संसर्ग से ही राहत मिलती है। यह स्पष्ट करता है कि प्रसाद अति-बुद्धिवाद यानि कि बुद्धि के एकांगी विकास पर सहमत नहीं थे। वह जीवन में सुख-दुख की समरसता का दर्शन कामायनी में स्थापित करने के प्रयास में लगे दिखाई देते हैं।

प्रसाद की रचनाओं में घोर दार्शनिक तत्वों का समावेश है लेकिन इससे वह अपने युग की प्रगतिशील चेतना से दूर नहीं हुए। उनकी कहानियों में उत्थानमूलक प्रसंगों की प्रचुरता है। उनके द्वारा स्थापित आदर्शों में यथार्थ का मिश्रण है। उनकी कहानियों, कविताओं, नाटकों के केंद्र में अधिकांशतः सामाजिक पृष्ठ पर हाशिये पर स्थित लोगों की चर्चा है। कामायनी में जहां नायिका श्रद्धा की अतिरिक्त महत्ता है वहीं कंकाल में उन्होंने रुढ़िबद्ध जाति-प्रतिष्ठा के विरुद्ध कलम चलाई है। उनका एक अन्य उपन्यास तितली मजदूरों और किसानों के जीवन-चित्र से सज्जित है। उपन्यास की नायिका तितली एक किसान पुत्री है जिसके माध्यम से प्रसाद ने ग्राम्य-नवनिर्माण संबंधी अपने विचार रखे हैं। हिंदी साहित्य में आधुनिक चेतना के प्रभात काल में नारी-स्थिति पर प्रसाद काफी मुखर हैं। प्रसाद के तत्कालीन सवाल आधुनिक नारी-विमर्श की धुरी हैं तो इससे जयशंकर प्रसाद की दूरदर्शी सर्जनात्मक क्षमता और अपने युग से आगे की सामाजिक और सांस्कृतिक चेतना का संकेत मिलता है।

तुम भूल गए पुरुषत्व मोह में कुछ सत्ता है नारी की।
समरसता है संबंध बनी अधिकार और अधिकारों की।

या

मैं जभी तौलने का करती उपचार, स्वयं तुल जाती हूं।
भुज लता फंसाकर नर-तरू से झूले-सी झोंके खाती हूं।

उनकी ज्यादातर रचनाओं में पौराणिक या ऐतिहासिक आख्यानों का सहारा लिया गया है लेकिन इससे प्रसाद ने पुरातनपंथ और रुढ़िवाद को पोषण देने की बजाय आधुनिक निष्कर्ष निकालकर सही अर्थों में प्रगतिशील, पुष्ट और प्रतिभाशाली लेखन का परिचय दिया है। प्रसाद की गैर-पौराणिक या गैर-ऐतिहासिक रचनाओं में भी कल्पना की अंध उड़ान नहीं है। उनकी समस्त कृतियों में जीवनानुभवों के निष्कर्षों का दस्तावेज है।

साहित्यिक जीवन से इतर प्रसाद का व्यक्तिगत जीवन बड़ा ही सरल था। पुत्र, पत्नी और भाभी के सम्मिलन से उनका परिवार बनता था। प्रसाद बड़े ही सामाजिक थे लेकिन गोष्ठियों, समारोहों इत्यादि में भाग लेने से कतराते थे। साहित्य की लगभग हर विधा नाटक, उपन्यास, कविता, निबंध, ग़जल इत्यादि में हाथ आजमाने वाले प्रसाद किसी की भी पुस्तक की भूमिका लिखने में बिल्कुल रूचि नहीं रखते थे। इस संबंध में तो उन्होंने उपन्यास सम्राट प्रेमचंद तक की पैरवी ठुकरा दी थी। नाटकों में प्रसाद की प्रतिभा खुलकर सामने आई है। जैसे मुंशी प्रेमचंद 'उपन्यास सम्राट' कहे जाते हैं वैसे ही प्रसाद को भी 'नाटक सम्राट' कहा जा सकता है। उनके तमाम नाटक ऐतिहासिक आख्यानों पर आधारित हैं। अंग्रेजों की गुलामी के दौर में जब राष्ट्रीय भावनाओं से ओत-प्रोत और राष्ट्रीय स्वाभिमान और आजादी की चेतना के जागरण वाली रचनाओं पर सरकारी निगरानी और दंड-विधान का अत्याचार चरम पर था तब प्रसाद इस काम के लिए ऐतिहासिक आख्यानों का ही सहारा लेते हैं। नाटक 'चंद्रगुप्त' एक हिस्से में यवन आक्रमणकारी सेल्यूकस भारत की ओर कूच करता है। इसी कथा का आधार लेकर प्रसाद तक्षशिला की राजकुमारी अलका के शब्दों में भारतवासियों का आह्वान करते हैं –

हिमाद्रि तुंग श्रृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती।
स्वयं प्रभा समुज्ज्वला स्वतंत्रता पुकारती।
अमर्त्य वीर पुत्र हो, दृढ़ प्रतिज्ञ सोच लो।
प्रशस्त पुण्य पंथ है बढ़े चलो, बढ़े चलो।

जीवन-दर्शन, आध्यात्मिकता के अलावा राष्ट्रीय भावनाएं भी प्रसाद साहित्य का श्रृंगार हैं। उन्हें अपने देश से प्रेम है। इसी प्रेम के अधीन प्रसाद भारत को अनजान क्षितिज को प्राप्त किनारा और लघु सुरधनु-से पंख पसारे खगों का नीड़ घोषित करते हैं।

लघु सुरधनु से पंख पसारे, शीतल-मलय समीर सहारे।
उड़ते खग जिस ओर मुंह किए समझ नीड़ निज प्यारा।

अरुण यह मधुमय देश हमारा।

जहां पहुंच अनजान क्षितिज को मिलता एक किनारा।

प्रसाद का जीवन बहुत संक्षिप्त रहा है। उनका अंतिम उपन्यास इरावती उनके असामयिक निधन के चलते अधूरा रह गया। साल 1937 के नवंबर की 15 तारीख को प्रसाद सदेह इहलोक से प्रयाण कर गए। इस समय तक उनकी उम्र महज 47 साल रही थी। लेकिन, अल्प जीवनकाल में ही जयशंकर प्रसाद ने जो कुछ भी हिंदी साहित्य को सौंपा वह उनकी अखंड, अजर और अमर कीर्ति का प्रमाणपत्र है। उनकी कृति 'कामायनी' को विश्व साहित्य की सदी की सर्वश्रेष्ठ कृतियों में गिना जाता है। श्यामनारायण ने इसे विश्व साहित्य का 8वां महाकाव्य घोषित किया है। वहीं, प्रकृति के सुकुमार कवि सुमित्रानंदन पंत ने कामायनी को 'हिंदी के ताजमहल' की संज्ञा दी है।

Wednesday, 31 October 2018

प्रधानमंत्री जी! देश बांटने की गतिविधियों के साथ 'एकता की मूर्ति' के फीते नहीं काटे जा सकते

हम अपने 'राष्ट्रवाद' को पूंजीपति होने से नहीं रोक पाए। हमारा राष्ट्रवाद अब 182 मीटर ऊँची प्रतिमा पर चढ़कर उन लोगों पर थूकेगा जो आज कहेंगे कि 3000 करोड़ रूपए की सरदार की मूर्ती बनाने से अच्छा था कि लाखों नर्मदा पुत्र किसानों के फसलों की सिंचाई की व्यवस्था कर दी जाती। उन्हें पानी उपलब्ध कराया गया होता। उनके खेतों में अगर हमारा शस्य श्यामल राष्ट्रवाद लहराता तो सरदार कितना खुश होते! सरदार का जब निधन हुआ था तब उनके खाते में महज़ 260 रुपए थे। अहमदाबाद में कहीं किराए पर कमरा लेकर वह रहते थे। सरदार से हम राष्ट्रीय सम्पत्तियों की अहमियत भी सीख नहीं पाए।

हमारी अंतरराष्ट्रीय स्पर्धा है किस चीज़ से? हंगर इंडेक्स में हम 103वें नम्बर पर हैं। इसे गम्भीर संकट के बतौर चिन्हित किया गया है। स्वास्थ्य के मामले में भी हम दुनिया में फिसड्डी ही हैं। शिक्षालयों की तो बात करना ही बेकार है। खुद को विश्वगुरू बताने के अलावा हमने शिक्षा के क्षेत्र में क्या काम किये हैं? लेकिन, फिर भी। हमने चुनौती स्वीकारी तो यह कि हम दुनिया की सबसे ऊंची मूर्ति बनाकर दिखाएंगे। पता नहीं इससे महापुरुषों का सम्मान होता है या अपमान? लौह पुरुष सरदार पटेल की सबसे ऊंची प्रतिमा बनने पर लहालोट होने वालों से इतर भी भारत का एक ऐसा कोना है जहाँ से स्टेचू ऑफ़ यूनिटी देखें तो सरदार लज्जित दिखाई देंगे। प्रतिमा के लिए आस-पास के गांवों के लोगों की जमीन ली गई। उन्हें विस्थापित किया गया।

बताते हैं कि सरदार सरोवर बांध बनाने के लिए ही जिन लोगों को विस्थापित किया गया था वह लोग आज तक अपने मुआवजे की प्रतीक्षा में हैं। सरकार की घोषणा और फिर उसका क्रियान्वन, दो अलग चीजें हैं। सबको केवल घोषणाओं की मुनादी सुनाई जाती है। उसके क्रियान्वन की हकीकत जानने और बताने की जरूरत किसी को नहीं लगती। हम राष्ट्रवाद का पानी पी पीकर आलोचकों को कोसते हैं। बाकी, जो लोग भूखे-प्यासे, जमीन से महरूम हैं, उनसे पूछिए तो बताएंगे कि मूर्ति कितनी भव्य है और कितनी सुंदर है? मूर्तिस्थल के समीप रहने वाले आदिवासियों ने प्रधानमंत्री के नाम खुला खत लिखा था। उन्होंने लिखा था कि जब आप मूर्ति के लोकार्पण के लिए आएंगे तो हम आपका स्वागत नहीं करेंगे। लेकिन प्रधानमंत्री को आदिवासियों के स्वागत की क्या पड़ी है? उनके स्वागत के लिए तो तमाम लोग तैयार और इंतजार में बैठे हैं।

सरदार को सरदार की उपाधि किसान पत्नियों ने दिया था। वह सबसे पहले किसान नेता ही थे। ऐसे में उनकी मूर्ति स्थापित होने से किसानों को सबसे ज्यादा खुश होना चाहिए। लेकिन ऐसा है नहीं। किसान नाराज हैं। आदिवासी किसानों ने विरोध स्वरूप भूख हड़ताल की घोषणा की है। आदिवासियों के एक नेता ने कहा है कि हम मूर्तिस्थल पर विरोध के लिए जाएंगे लेकिन उम्मीद है कि हमें वहां घुसने नहीं दिया जाएगा। इसलिए, हमारे समुदाय के बच्चे, जवान, महिलाएं और बुजुर्ग विरोध स्वरूप उपवास रखेंगे। किसानों का यह भी कहना है कि सरदार की मूर्ति के चारों ओर जो पानी इकट्ठा किया गया है, अगर वही किसानों को मिल जाता तो उनकी फसल नहीं सूखती। लेकिन, यह सौंदर्य का मामला है। अंतरराष्ट्रीय ईगो का मामला है। हमने संसार की सबसे ऊंची मूर्ति स्थापित की है। कांग्रेस के नेता रहे सरदार पटेल की। उनके निधन के कई साल बाद उनका राजनैतिक नहीं बल्कि वैचारिक दल परिवर्तन कराने की कोशिश की जा रही है। भाजपा और मोदी के इस सरदार प्रेम के कई सारे कारण हैं।

मोदी का दावा है कि सरदार के साथ कांग्रेस ने न्याय नहीं किया। नेहरू परिवार को आगे बढ़ाने के चक्कर नें उन्होंने सरदार को कम महत्व दिया। कांग्रेस में नेहरू-गांधी परिवार के वर्चस्व के बारे में हर कोई जानता है। यह कुछ बिंदुओं पर आलोच्य भी है। इंदिरा गांधी के बाद का कांग्रेस देखें तो मोदी की बात पर आसानी से भरोसा किया जा सकता है। नेहरू परिवार के बरअक्स सरदार को कम याद किया गया है लेकिन उन्हें भुला दिया गया या फिर उनका अपमान कर दिया गया, इस बात पर न सिर्फ यकीन करना मुश्किल है बल्कि यह अल्पज्ञान और इतिहास के अज्ञान का उद्घोषक बयान ही ज्यादा लगता है। सभी को पता है कि बीजेपी या नरेंद्र मोदी सरदार के साथ हुए अन्याय से दुखी नहीं हैं। बार बार आरएसएस और बीजेपी नेताओं की स्वतंत्रता संग्राम से जुड़ी विरासत को लेकर उठने वाले सवाल से वह काफी समय से परेशान थी। उसे किसी ऐसे लोकप्रिय नेता की तलाश थी जिससे वह अपनी विरासत जोड़ सके और अपने आपको जिसका राजनैतिक न सही कम से कम वैचारिक वारिस सिद्ध कर सके।

आजादी के संग्राम के लोकप्रिय नेताओं में गांधी और सरदार आरएसएस के लिए विकल्प हो सकते थे। नेहरू प्रगतिशील तथा धर्मनिरपेक्ष राजनीति के लिए जाने जाते थे। हिंदुत्व के प्रति उनका कोई नरम रुख नहीं था। गांधी शुद्ध आस्तिक थे। हिंदुत्व के तमाम प्रतीकों पर उनकी गहरी आस्था थी। लेकिन, वह आरएसएस या हिंदू महासभा के हिंदुत्व के कभी समर्थक नहीं रहे। उनका मानना था कि हिंदुस्तान में हिंदू-मुस्लिम दंगों को रोकने के लिए हिंदुओं को पूरी तरह से अहिंसा के साथ हो लेना चाहिए। इसके लिए अगर उन्हें मर मिटना पड़ता है तो भी मुसलमानों के अंदर सुरक्षा का विश्वास पैदा करने के लिए उन्हें ऐसा करना चाहिए।

संघ महात्मा गांधी के इस सिद्धांत से असहमत था। सरदार पटेल भी गांधीजी की इस विचारधारा के समर्थन में नहीं थे। यहीं बीजेपी को सरदार अपने वैचारिक गोत्र के लगते हैं। इसके अलावा सोमनाथ मंदिर के लिए वल्लभ भाई पटेल के प्रयास को भी दक्षिपंथी खेमा काफी सराहता रहा है। सिर्फ इतना ही नहीं, गांधी जी की हत्या के बाद जब कई जगहों पर हिंदू महासभा और आरएसएस के लोगों पर हमले बढ़ने लगे थे तब सरदार ने जिम्मेदार अधिकारियों को इसके लिए फटकार लगाई थी। इन सब चीजों की वजह से हिंदुत्व की तथाकथित झंडाबरदार आरएसएस और भाजपा के लोगों के मन में सरदार पटेल को लेकर सॉफ्ट कॉर्नर है। सरदार पटेल की मूर्ति भाजपा और मोदी द्वारा अपनी विरासत आजादी के एक बड़े नेता से जोड़ने की कवायद भर है। मोदी के सरदार प्रेम में पटेल का गुजराती और पाटीदार होना भी शामिल है। उन्हें लगता है कि गुजरात में प्रभावी वोटबैंक के रूप में मौजूद पाटीदार समूहों की नाराजगी आगामी चुनावों में इस मूर्ति अनावरण के साथ दूर हो जाएगी।

यह सच है कि स्टैच्यू ऑफ यूनिटी गहरे राजनीतिक मंथन का फल है। इसके पीछे केवल सरदार का कथित खोया सम्मान लौटाना ही उद्देश्य नहीं है। सरदार पटेल को लेकर कांग्रेस के गांधी परिवार के प्रति देश की जनता में घृणा भाव भरने की दुर्भावना की गंध भी भाजपा से आती दिखाई देती है। यह आजादी के अब तक के पढ़े गए इतिहास में भावनात्मक परिवर्तन लाने का अभियान है। सरदार की प्रतिमा से दिक्कत नहीं है। यह महापुरुषों को उनकी विचारधारा के प्रतीक के तौर पर स्थापित करने सबसे सुदृढ़ और प्रभावी विकल्पों में से एक है। लेकिन, हमें इसे स्थापित करने के योग्य पहले हो लेना चाहिए था। भारत जैसे देश के लिए 3हजार करोड़ रुपए बहुत मायने रखते हैं। और फिर सरदार स्वयं सादगी और किफायतशारी के प्रतीक पुरुष थे।

 ऐसे में उनकी प्रतिमा की स्थापना में इतनी धनराशि खर्च करना एक गरीब विकासशील देश के लिए फिजूलखर्ची से ज्यादा कुछ नहीं है। वो भी ऐसा देश जहाँ आज भी राजधानी इलाके में 3 बच्चे भूख से मर जाते हों। राष्ट्र की मूलभूत समस्याएं सुलझाकर और राष्ट्रवादी महापुरुषों के सपनो का भारत निर्मित कर भी हम उन्हें अंतरराष्ट्रीय सम्मान दिला सकते हैं। एक ओर पंथ-जाति में देश को बांटने की प्रक्रिया में मशगूल होकर दूसरी ओर एकता की मूर्ति के फीते नहीं काटे जा सकते। प्रधानमंत्री ने आज कहा कि हम महापुरुषों का सम्मान करते हैं तो हमारी आलोचना होती है। प्रधानमंत्री जी का सम्मान बहुत महंगा है। इसलिए, आलोचना से कैसे बचेंगे। वो अपनी जिम्मेदारियों से महापुरुषों को सम्मानित नहीं करते बल्कि उसके लिए विशेष भव्य आयोजन होते हैं। प्रचार होता है। लोगों को दर्शाया जाता है कि देखिये हम सम्मान कर रहे हैं। पहले वालों ने केवल अपमान किया। जैसे ये सुभाष चंद्र बोस और सरदार पटेल का सम्मान न करते तो वे लोग सदैव अपमानित रहते। पता नहीं नैतिक दृष्टि से यह सम्मान ही है या परोक्ष अपमान। क्योंकि, आज तक देश में कोई सुभाष बोस और पटेल के अपमान की चर्चा नहीं करता था। प्रधानमंत्री की सवालिया ऊँगली केवल कांग्रेस पर नहीं उठी है। यह स्वतंत्रता संग्राम के बाद के हमारे पुरखों और इस देश की जनता पर भी उठायी गई है।

प्रधानमंत्री को सोचने की जरूरत है कि महापुरुषों का सम्मान कैसे करना है। किसी ने कहा है कि किसी भी महापुरुष की प्रतिमा स्थापित करना उसकी विचारधारा और सिद्धांतों की हत्या का बहाना ढूंढ लेना है। हम देश में गोरक्षा के नाम पर हो रही हत्याओं पर चुप रहेंगे। हम मॉब लिंचिंग पर चुप रहेंगे। मुम्बई और गुजरात से यूपी-बिहार के लोगों के साथ हिंसा कर खदेड़े जाने की घटना पर मौन साध लेंगे। हम अपने मंत्रियों को द्वेष फैलाने वाले बयानों पर कुछ नहीं कहेंगे। हम पूर्वोत्तर के लोगों के लिए दिल्ली रहने लायक न होने पर भी कोई प्रतिक्रिया नहीं देंगे। जातिगत हिंसा पर मुंह नहीं खोलेंगे। और फिर 3000 करोड़ की स्टेचू ऑफ़ यूनिटी बनाकर कहेंगे कि देश की एकता और अखंडता हमारी प्राथमिकता है। यह छलावा क्यों है? यह धोखा किसे है? यह झूठ आप किससे बोलते हैं?

देश के लोगों को यह सच्चाई भांपनी होगी। उन्हें सतर्क होना होगा। क्योंकि, राज्य का मूल अर्थ है। आपके अर्थ का सही इस्तेमाल नहीं होगा तो आपकी राजनीति बेपटरी हो जाएगी। आपका राज्य, आपका देश भ्रष्टाचार की ओर जाने लगेगा। इसलिए, जरुरी है कि वक़्त से साथ बदली देशभक्ति की परिभाषा को समझें। अपने महापुरुषों से प्यार करें। उनके विचारों का सम्मान करें लेकिन प्रतीकात्मक राष्ट्रवाद से बाहर आएं। राष्ट्र के लिए जिस तरह की लड़ाई हमारे हिस्से आई है उसके लिए जी जान से लड़ें। भ्रष्टाचार से लड़ें। गरीबी-भुखमरी से लड़ें। अशिक्षा से लड़ें। साम्प्रदायिकता से लड़ें। यही सच्ची देशभक्ति है। आज हमें देशभक्ति के नए प्रतीकों की जरूरत है। हमें देशभक्ति की नई परिभाषा चाहिए। हमें केवल महापुरुषों की मूर्तियां नहीं बनानी हैं। हमें नए महापुरुष भी तो चाहिए। वो भी जीवंत, सक्रिय और अमूर्त।