Thursday, 11 April 2019

अपनी नागरिकताओं की ओर लौटें

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◆ जरूरत है कि हम अपनी नागरिकताओं की ओर लौटें

मतदान सामूहिक हिस्सेदारी नहीं है। यह व्यक्तिगत दायित्व है। अपने लिए बेहतर के चुनाव का। इसके आपके अपने मापदंड हों। आपकी प्राथमिकताएं तय करें कि आपके क्षेत्र का प्रतिनिधित्व कौन बेहतर कर सकता है। किसी को वोट देने का आधार यह न हो कि 'उसकी लहर है' या 'वह जीत रहा है'। ग्रामीण क्षेत्रों में अक्सर लोगों से यह कहते सुना जा सकता है कि जो जीत रहा है उसे वोट देकर अपना वोट खराब करने से बचा जाए। उन्हें यह समझने की जरूरत है कि वोट आपने चाहे हारने वाले को दिया या जीतने वाले को, वह खराब नहीं होता। या तो आप सत्ता चुनते हैं या विपक्ष। महत्वपूर्ण दोनों हैं।

आपका वोट आपकी अभिव्यक्ति है। लोकतांत्रिक अभिव्यक्ति, जिसमें एक विचार, दृष्टि या नेतृत्व की सार्थकता या असार्थकता पर आप अपने विचार की मुहर लगाते हैं। यह कतई गोपनीय होना चाहिए। परिवार में ही अलग-अलग सदस्यों के मतांतर हों तो कोई दिक्कत नहीं लेकिन आपको अपने मापदंडों के आधार पर प्रत्याशी चुनने चाहिए। यही तो चुनाव की मूल आत्मा है। अलग-अलग लोगों के मापदंड पर सबसे बेहतर कौन है? सामूहिक सलाह से वोट डालने में एक नुकसान है। उभयनिष्ठ सहमति बनाने के दौरान आपके अपने कई मापदंड हटाने पड़ते हैं। इसलिए अपने स्केल पर प्रत्याशियों को मापिए और फिर मतदान किसे करना है, इसका फैसला लीजिए।

चुनाव प्रचार का अधिकार प्रत्येक प्रत्याशी को संविधान देता है। वह किस तरह से अपना प्रचार करते हैं इसे सेंसर करने के लिए बहुत कसौटियां निर्धारित नहीं हैं। ऐसे में सुप्रचार और कुप्रचार के अंतर को अपने विवेक से समझना भी हमारे लिए चुनौती है। कोरी घोषणाओं से प्रभावित हुए बिना उनके शोध और उनकी व्यवहारिकता को ध्यान में रखकर ही किसी के समर्थन अथवा विरोध का फैसला लेना चाहिए। चुनाव का वक्त केवल नेताओं की परीक्षा का मौसम नहीं होता। यह मतदाताओं के लिए उससे ज्यादा कठिन परीक्षा की घड़ी होती है।

असीमित दल बनाने के संवैधानिक अधिकार ने दलों की गिनती में बेतहाशा वृद्धि की है। जाति-धर्म-विचारधारा-लिंग-समुदाय के आधार पर बने अनेक दल चुनाव के दौरान अपनी दावेदारी पेश करते हैं। हममें से ज्यादातर देशवासियों की राजनैतिक निष्ठाएं पहले से ही निर्धारित हैं। हमारी प्रतिबद्धता घोषित है। हमने समाज को कुछ खांचों में विभाजित कर दिया है। यहां अपने विचारों के आधार पर लोग दलों के निष्ठावान कार्यकर्ता घोषित कर दिए जाते हैं। निष्पक्ष, जनहितकारी और पारदर्शी सरकार के चुनाव के लिए हमें इन पूर्वागर्हों से बाहर निकलना होगा। हमें अपनी नागरिकताओं की ओर लौटना होगा। भाजपाई, कांग्रेसी, सपाई या बसपाई होने से पहले नागरिक जिम्मेदारी के अनुच्छेदों पर दृष्टि डालनी होगी।

नागरिक होंगे तभी अपने देश के लिए नेता चुन पाएंगे। दल का समर्थक होकर हम सिर्फ दल का नेता चुनने की ही योग्यता रखते हैं। एक बात और, राजनैतिक दलों के निर्णयों में हमारी सहभागिता नहीं होनी चाहिए। सरकार बनेगी कैसे? आंकड़े कैसे पूरे होंगे? प्रधानमंत्री कौन बनेगा? जैसी चिंताएं हमारी नहीं हैं। हमारी चिंता है कि हम अपने क्षेत्र से सबसे बेहतर प्रतिनिधि कैसे भेज सकते हैं। अगर हर कोई अपने क्षेत्र से बेहतर प्रतिनिधि भेजता है, कर्मठ सांसद भेजता है तो निश्चित रूप से जो भी सरकार बनेगी वह बेहतर ही होगी। दलों के दलदल में फंसे लोकतंत्र को कुछ ऐसे ही उपायों से उबारा जा सकता है।
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Monday, 4 March 2019

कविताः सब कुछ अभिनीत है

धैर्य
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सब कुछ अभिनीत है,
नेपथ्य में होना
किनारे लग जाना नहीं होता,
सुकून की वह दहलीज होता है
जहाँ यह आश्वासन है
कि सत्य क्या है! यह ज्ञात है।
आवरण के रंज में खपता है पसीना
कि दुनिया की घड़ी
और किताबों की लिखावट के बीच
बनती ही नहीं है।
सभी प्रतिमान-सभी दृष्टांत
अपने सत्य में
मध्यकालीन यूरोप के राजाओं की
राजाज्ञाओं की तरह क्रूर और अभिनीत हैं,
कि जिनके आसनों के चार पायों से
कुचल जाते हैं गैलिली।
यह सत्य भी कि
जो धरा का भेष
नित धीरज की सूक्ति बांचता है,
मुझे आकाशगंगा की
किसी डॉल्फिन ने बोला,
'कि रवि के ताप के आगे
उसी धरती का धीरज
महज़ हिलता नहीं है, नाचता है।'

Sunday, 10 February 2019

चिट्ठियां मौन का अनुवाद होती हैं


मेल पर दोस्त की चिट्ठी आई है। यह कतई आश्चर्य की बात हो सकती है कि फोन, वाट्सऐप, मैसेंजर के दौर में चिट्ठी की क्या जरूरत थी? चिट्ठी में ऐसी कौन सी बात हो सकती है जो आप फोन पर नहीं कह सकते? आप चैट पर नहीं लिख सकते। मुझे नहीं पता। ऐसा इसलिए भी कि जिंदगी में न तो कभी किसी को चिट्ठी लिखने की जरूरत लगी और न ही चिट्ठियों को लेकर कोई आकर्षण रहा। हम सेलफोन्स के दौर में पैदा हुए हैं लेकिन चिट्ठियों के सौंदर्य से, उनके वैभव से अपने आपको अलग रख पाना भी ऐसे वक्त में संभव नहीं है जब चिट्ठियों के युग की सांझ हो रही हो। कि सांझ में भी तो दिन का कुछ अंश शेष होता है।

जीवन में मैंने दो बार चिट्ठी लिखी है। यह दोनों बार की चिट्ठी बहुत अनिवार्य कारणों से लिखी गई हो ऐसा नहीं है। ऐसा भी नहीं है कि चिट्ठी न लिखते तो इससे इतर कोई संसाधन ही नहीं था कि अपनी बात चिट्ठी के प्रापक तक पहुंचाई जा सके लेकिन चिट्ठी लिखी गई। एक नहीं दो बार लिखी गई। शायद 21वीं सदी के दो-चार साल के भीतर ही मां के पास फोन मौजूद था लेकिन फिर भी इन चिट्ठियों के लिखे जाने की अहमियत अपनी जगह है।

पहली बार चिट्ठी लिखी गई पिता को। कक्षा 6 में रहे होंगे शायद। पापा बनारस में थे और हम रुद्रपुर में। हिंदी की पाठ्यपुस्तक में पत्र लिखने के तरीके के बारे में बताया गया था। पापा से अक्सर शाम को फोन पर बात हो जाती लेकिन शायद ही कभी हिम्मत हो पाई हो कि उनसे यह पूछ पाएं कि वह कैसे हैं? उनकी तबीयत कैसी है? पापा बोलते और हम जवाब देते। यही हमारी बातचीत थी और आज भी हमारा संवाद ऐसे ही होता है। चिट्ठी लिखे जाने जैसी कोई बात नहीं थी। मां को परीक्षा देने बनारस जाना था। पापा के पास ऐसी क्या चीज भेजी जा सकती है? बहुत सोचने के बाद चिट्ठी का आईडिया आया था।

कॉपी के बीच से दो पन्ने फाड़े गए और कुछ ही देर में हिंदी की किताब की उंगली थामकर कागज की सड़क पर शब्दों के पांव टहलने लगे। कि धीरे-धीरे चलते-चलते पापा के पास पहुंच जाना है। क्या सवाल करेंगे उनसे?

प्रिय पिताजी,
सादर प्रणाम
मैं यहां सकुशल हूं। आशा है कि आप भी सकुशल होंगे..

जो बात कभी सामने नहीं कह पाए वह चिट्ठी में भी तो नहीं कह पा रहे थे। वहां भी आशा कर ली थी कि वह सकुशल होंगे। ऐसा इसलिए भी कि पापाओं को अकुशल होने का कोई अधिकार नहीं होता। 23 साल के जीवनकाल में पापा को कुछ गिने-चुने बार अकुशल देखा-सुना है। खैर, जो भी मंतव्य रहा हो लेकिन किताब ने पत्र लिखने का यही ढांचा दिया था। पिता के नाम पत्र अगर मांगपत्र न हो तो आपके पुत्र होने में संदेह होने लगे। सो किताब मांगी गई थी पिता से पत्र में। पत्र का लिफाफा नहीं था। उसे चार बार मोड़ा और मां के पर्स में डाल दिया। अगले दिन फोन से सूचना मिली जो पापा ने खुद दी कि उन्हें मेरी चिट्ठी मिल गई है। मुझे आज भी वह वाक्य और वह लहजा तक याद है और मुझे आज भी लगता है कि 'तुहार चिट्ठी मिलल' बोलते हुए तब पापा मुश्किल से अपनी हंसी दबा पाए होंगे।



दूसरी चिट्ठी हिंदी में नहीं लिखी गई थी। यह संस्कृत में थी। सभी विषयों में संस्कृत और हिंदी से विशेष प्रेम था। यह चिट्ठी भी प्रशिक्षणजन्य चिट्ठी थी। संस्कृत की चिट्ठी लिखने के अभ्यास में लिखी गई। पत्र छोटे भाई शशांक के नाम लिखा गया था। वह गांव में रहता था। उससे मिलने के लिए हम छुट्टियों का इंतजार करते कि घर जाएंगे और उससे मुलाकात होगी। यह मुलाकात इसलिए भी बहुत रोमांचक और खुशनुमा होती थी क्योंकि हमारी मनमर्जियां, हमारा सारा बचपना या क्रिएटिविटी कह लें या खुराफात,शरारत चंचलता, मनबढ़ई या जो कुछ भी। उन सबमें वह हमारा एक मजबूत साझीदार था।

संस्कृत में लिखी चिट्ठी या ऐसे कह लें कि किताब से नकल कर लिखी गई चिट्ठी में घर और गांव का हालचाल पूछा गया था। किताब में लिखी चिट्ठी में किसी बड़े भाई ने अपने छोटे भाई के लिए चिट्ठी लिखी थी। शायद बड़ा भाई घर से किसी वजह से बाहर रहता था। नकल कर लिखी गई चिट्ठी में मैंने संस्कृत में लिखा, जिसका अनुवाद होता है, 'जब मैं घर से आया था तब मां कुछ बीमार थीं। अब उनकी तबीयत कैसी है?' यह तो नकल के साइड इफेक्ट का जीता-जागता उदाहरण बन गया था क्योंकि मां तो मेरे पास ही थीं रुद्रपुर में। नकल कर मैंने लिख दिया कि मां बीमार थीं कैसी हैं? हालांकि, पत्र प्रेषण से पहले प्रूफरीडिंग के लिए मां के पास ले जाई गई। तब मां की नजर इस लाइन पर गई। उन्होंने होशियारी दिखाई और केवल 'मां' की जगह 'तुम्हारी मां' (संस्कृत में) लिखकर पत्र में सुधार कर दिया।

वाक्य सही और सार्थक हो गया। पत्र में ज्यादा काट-पीट नहीं करनी पड़ी। घर से आते वक्त चाची सचमुच बीमार थीं। उनका हाल-चाल लेना तो बनता ही था। तो इस तरह से दूसरी चिट्ठी लिखी गई। इसका जवाब भी आया था। जवाबी चिट्ठी भोजपुरी में लिखी गई थी। इसे पढ़कर भाई-बहनों को बहुत हंसी आई लेकिन हमारे लिए तो उस वक्त यह अमोल थी। क्योंकि गांव से आई थी और इसमें उस मक्के की फसल की खबर थी जो हमने घर के सामने दुआर पर सरकारी नल के ठीक बगल में थोड़ी सी खाली जमीन पर बो दी थी और जिसके लिए मास्टर पापा से डांट भी सुनी थी।

इन दो पत्रों के बाद कोई पत्र नहीं लिखा गया। हां, तीसरे पत्र की भूमिका जरूर बनी। आईआईएमसी छोड़ने के बाद एक बेहद करीबी मित्र हैदराबाद चले गए। एक दिन फोन पर बातचीत के दौरान उन्होंने प्रस्ताव रखा कि हम एक दूसरे को चिट्ठी लिखेंगे। हमारा पता भी लिया। हमने यह भी सुनिश्चित किया कि हम इस पत्र के पहुंचने या इसमें लिखी बातों के बारे में चैट पर या फोन पर चर्चा नहीं करेंगे। उसका जवाब पत्र से ही दिया जाएगा लेकिन यह योजना पूरी नहीं हो पाई। न तो हमारी चिट्ठी हैदराबाद गई और न तो हैदराबाद से ही कोई चिट्ठी आई। लेकिन, आज दिल्ली से एक डिजिटल चिट्ठी आई है।

इस चिट्ठी को देखकर पहली बार लगा कि चिट्ठी में क्या चीजें होनी चाहिए? और यह भी कि चिट्ठी क्यों जरूर लिखनी चाहिए। अब एक चीज तो तय है कि चिट्ठी लिखने के लिए किताब की जरूरत नहीं पड़ेगी इसलिए इस चिट्ठी के जवाब में जो चिट्ठी लिखी जाएगी वही मेरे लिए सही मायने में पहली चिट्ठी होगी। चिट्ठी में पल्लवी ने एक ही बार में सारी बातें कह दी हैं जो अक्सर आमने-सामने की बातचीत में न कही जा सकें। यह चिट्ठी सुंदर है। इसने जरूर आंखे भिगो दी हैं जो आमतौर पर चिट्ठियां अक्सर करती रही हैं।

मेरे पत्र व्यवहार में हर जगह डाकिया अनुपस्थित है। जिन्होंने डाकिए का कर्तव्य पूरा किया वह पेशे से डाकिया नहीं थे। इस बार भी जो चिट्ठी आई है वह ईमेल पर आई है। उसका भी कोई डाकिया नहीं है लेकिन पत्र व्यवहार के इस तरीके ने एक तरह से चिट्ठी लेखन को परंपरा, पर्व या फिर रीति-रिवाज की कतार में खड़ा कर दिया है। हम एक ऐसी दुनिया में अब भी हैं, जहां भाषा के शरीर से आप भले हर किसी से 1-2 सेकंड दूर हों लेकिन मन के शरीर से आज भी उतनी ही दूरी है जितनी एक कबूतर के कहीं चिट्ठी पहुंचाने या फिर किसी साइकिल वाले बूढ़े डाकिया चाचा के पत्र लेकर घर पहुंचने वाले जमाने में लोगों के बीच होती थी। चिट्ठियों की जरूरत इसीलिए आज भी खत्म नहीं होती बल्कि बढ़ जाती है। चिट्ठियां मौन का अनुवाद भी हो सकती हैं।

चिट्ठी के लिए शुक्रिया, पल्लवी! वह चिट्ठी पढ़कर यह सारी ही स्मृतियां एक झटके से चलचित्र की तरह दिमाग में चलने लगी थीं। तुम्हारे पत्र में कुछ शिकायतें हैं, कुछ स्मृतियां हैं और कुछ सवाल भी। उम्मीद है कि जल्दी ही तुम्हें जवाबी चिट्ठी लिखें।

Tuesday, 22 January 2019

आत्मलेखन: संवादशून्यता की ओर


जब आप बिलकुल अमहत्वपूर्ण होते हैं तो बहुत खाली रह सकते हैं। आपके रहने या न रहने से संसार का बहुत कुछ बदल नहीं जाता। आपके नाराज होने या खुश होने की कोई कीमत नहीं रह जाती। आप अपनी ही ज़िन्दगी के दोयम दर्जे के नागरिक होते हैं। आप अपने दोस्तों के दोयम दर्जे की दोस्ती होते हैं। आप अपने चाहने वालों के लिए दोयम दर्जे के चाहने वाले होते हैं। आप अपने परिवार के लिए दोयम दर्जे के सदस्य होते हैं। मतलब यह कि आप किसी की भी प्राथमिकताओं में नहीं होते। कोई भी आपके बर्ताव को समझने की कोशिश को समय की बर्बादी समझता है। आपके निराश होने को, दुखी होने को, खुश होने को या और भी किसी असामान्य हरकत को समझने में थोड़ी भी दिलचस्पी नहीं लेता।

ऐसा जीवन भार लगता है। अपने आप पर भी और अगर एक मिनट के लिए अपने आप से बाहर निकलकर संसार बनकर अपने आपको देखा जाए तो संसार के लिए भी। केवल भार। निरुद्देश्य जीवन। अज्ञात राहें। विचलित मन। क्षतिग्रस्त योजनाएं और पहाड़ सी सामने खड़ी उम्र। जीवन में सदैव दो पक्ष होते हैं सामाजिक रूप से। पहला उन लोगों का जिन्हें आप अपने आसपास देखना चाहते हैं। उनसे संपर्क में रहना चाहते हैं। उनसे बात करना चाहते हैं। दूसरा उन लोगों का जिनके जीवन में आप स्वयं ऐसी लिस्ट में हों। अपनी वर्तमान अवस्था को देखता हूँ तो दो दृष्टियों से देखा जीवन दिखाई देता है। एक वह दृष्टि है जहाँ से देखने पर लगता है कि जिन लोगों से साथ की उम्मीद करता था वह सभी मुझे अकेला छोड़कर चले गए हैं। दूसरी दृष्टि ऐसी है जिसमें मैं उन तमाम लोगों से पीछा छुड़ाकर भाग आया हूँ जो मुझे अकेला नहीं छोड़ना चाहते। दोनों ही स्थितियों की परिणति में मेरा अकेलापन है। दोनों एक ही श्रृंखला के हिस्से ऐसे हो जाते हैं कि बीच में अग्रोन्मुख गतिशील मैं हूँ, मेरे आगे पहली दृष्टि वाले लोग और मेरे पीछे दूसरी दृष्टि वाले।

यह अकेलापन भारी है। मेरे जीवन से संवाद निरंतर शून्य की ओर बढ़ते जा रहे हैं। मेरी संवादशैली व्यवहारिक न होकर पुस्तकीय होती जा रही है। मैं लोगों से ज्यादा किताबों से बातें करने लगा हूँ। किताबों के किरदारों से भी। उनमें अपने आप को ढूंढता हूँ। उनकी तरह सोचता हूँ। उनकी तरह बोलता हूँ। उनकी ही तरह सुनता भी हूँ। हर दुखी, संतप्त और अकेला किरदार मुझे अपने जैसा लगता है। बिल्कुल उस जैसा हो जाने की कवायद में मैं यह बिलकुल भूल जाता हूँ कि उनमें से ज्यादातर कल्पना की जमीन से पैदा होते हैं। व्यवहारिक जीवन में उनसे केवल उपहास उपजता है। शायद मेरा उपहास ही होता हो और मुझे इसकी जानकारी न हो।

एक वक्त पर ऐसा लगता था कि लिखना आ गया है तो सारे दुखों को झेला जा सकता है। यह भ्रम भी था कि हम लेखक लोग अपने दुखों को लिखकर हल्के हो जाते हैं और सबसे बड़ा यह कि हमारे दुःख ही हमें लिखना सिखा रहे हैं। यह सब छलावा है। बहाने हैं कि मन बहल जाए। एक वक्त तक बहलता भी है लेकिन फिर वही ढाक के तीन पात। जीवन इतना महत्वशून्य लगता है कि अगर अभी प्राण निकल जाएं तो संसार के किसी भी हिस्से को कोई बहुत बड़ा नुकसान उठाते हुए नहीं देखता हूँ। श्रेष्ठताओं को पूजने वाले इस संसार में अयोग्यताओं के झुके शीश के साथ जीना स्वाभिमान को चुनौती की तरह लगता है। ऐसा लगता है कि अभी से वास्कोडिगामा या कोलम्बस की तरह किसी और दुनिया की खोज में निकल जाएं जहाँ हम जैसे लोगों को भी सम्मानित ढंग से देखा जाता हो। जहाँ हम निरीह नहीं। जहाँ हम अपराधी नहीं। जहाँ हम अयोग्य नहीं लेकिन श्रेष्ठ भी नहीं। जहाँ जीने की शर्त केवल आपका होना हो। जहाँ आप रहें वही बहुत हो। आपके अंदर किसी गुणवत्ता की, श्रेष्ठता की या किसी महान कौशल की बढ़ोतरी करने की कोई जरुरत नहीं हो।

निराशा कोई रहस्य नहीं है। अपराध भी नहीं और कमजोरी तो बिलकुल नहीं। यह परिस्थिति है। परिस्थिति वह जो यह बताती है कि कितने लोगों की आत्मा में आपकी आत्मा का हिस्सा है। कितने लोग आपकी नसों की गर्मी महसूस करते हैं। कितने लोग हैं जिन्हें आपके पलकों की झपकन और सीने की उथल पुथल के स्वर सुनाई देते हैं। निराशाओं की तीव्रता आपने करीबियों की संख्या के व्युत्क्रम अनुपाती होती है। निराश होने के बाद भी ज़िन्दगी जी जा सकती है। मुझे अकेलापन झेलते हुए अब तक़रीबन 10 साल होने को आए होंगे। परिवार से ऊब होने के बाद से ही दोस्तों में मन बांटने का रास्ता खोजा। दोस्त लेकिन दोस्त ही होते हैं। उनकी अपनी सीमाएं हैं। उन्हें यह नहीं पता होता कि उनसे दोस्ती की उम्मीद में आप परिवार से उम्मीदों के हिस्से की भी उम्मीद कर रहे होते हैं। वह दोस्ती निभाते हैं और आपकी उम्मीदें दोस्ती से कहीं ज्यादा की होती हैं।

विराग बहुत ही कम उम्र में मन में घर कर गया है। समाज से नाता तोड़ लेने का मन करता है। सभी परम्पराएं, रीति रिवाज, जीवन पद्धतियां। सब कुछ छोड़ देने का मन होता है। लगता है जैसे जीवन देने वाले मुझे सभी जिम्मेदारियों से मुक्त कर दें। पता नहीं इसके परिणाम मिलेंगे या सत्परिणाम या दुष्परिणाम। कोई समझाता भी तो नहीं। डर लगता है कि कहीं कोई आकर मेरी अभिलाषा को अपराध न घोषित कर दे। मुझे अक्सर ऐसे किसी अज्ञात शख्स की चीखती आवाज़ सुनाई देती है और डरा सहमा मैं। डरा सहमा इसलिए कि नहीं पता क्यों अक्सर कुछ साबित करते वक़्त दलीलें मेरा साथ छोड़कर चली जाती हैं। मुझे यही डर होता है कि अगर मैं अपने आपको निरपराध सिध्द न कर पाया तो! यह मानसिक उथल-पुथल अब जीने में समस्याएं पैदा कर रहा है।

Wednesday, 19 December 2018

मनीष पोसवाल की कविताः सड़कें धरती की नसें हैं


एक सड़क सही मायनों में
कभी नहीं चलती, आगे बढ़ती।
और कमाल तो ये है कि
ना ही कभी रुकती, खत्म होती।
बस पगडंडियों, दगड़ों और बटियाओ में बंट जाती है,
बंटवारा कर देती है बसवाटों का,
खेतों का, पहाड़ों का ,मैदानों का।
सड़क नहीं खिसकती बिलांद भर भी,
सड़क नहीं सरकती सुई बराबर भी,
दुनिया की तमाम सड़कें
धरती की नसें हैं,
जो जिंदा रख रही हैं उसे,
और इन नसों में दौड रहे हैं हम।
नदी भी सड़कें हैं,
बस वहाँ बहता है पानी
आदमी की जगह।
सड़कें कहीं नहीं आ रही-जा रही,
वो तो हम हैं जो निकले हैं चिरयात्रा पर
जो मरकर ही खत्म होगी।

मनीष पोसवाल
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Sunday, 16 December 2018

समानांतरः उदासी का उत्सव

यह जीवन रिक्त स्थानों के कदम दर कदम चलने का बिंदुपथ है

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जब आप उस अजीब सी अनुभूति की छाया में होते हैं तब तक आप अलग ही एहसास से गुजर रहे होते हैं। वहां जीत-हार जैसी प्रतियोगिताएं भी होती हैं। दुख-आनंद से मनोभाव भी होते हैं। बहुत कुछ वाजिब लगता है। बहुत कुछ गलत लगता है। इन सबसे इतर रात के सन्नाटे में कभी शांत स्थिर दिमाग से सोचिए तो लगता है कि किस कहानी का हिस्सा बन गए हैं? क्या सच में जो कुछ भी आपके साथ हो रहा है उसके नायक आप ही हैं? हां, नायक ही। कहानी को आगे ले जाने वाला नायक भर ही।

नायकत्व के तमाम आधुनिक परिभाषाओं से अलग, अयोग्य और सर्वथा दूर। एक ऐसी स्थिति, जो आपसे बिल्कुल ही अनियंत्रित हो गई हो। जिसके कारणों का पता बिल्कुल ही सृष्टि के सृजन की कथा की तरह अजान हो। रहस्यमयी हो। जहां से दुख निकलता हो। दुख भी ऐसा कि आप गहराई में उतरते चले जाएं। जिसकी आपको आदत लग जाए। जो अगर किसी वजह से न हो तो आपको बेचैनी होने लगे और ऐसा भी लगे कि आप कुछ बहुत भारी और कीमती चीज खो रहे हैं।

हर वक्त विचारों में गोते लगाना। शांत हो जाना। गंभीर हो जाना। गूढ़ से गूढ़ जीवन-सूत्रों के अर्थ ऐसे उद्घाटित होने लगते हों जैसे मन-मस्तिष्क किसी अज्ञात ज्ञान उपग्रह के सिग्नल से संलग्न हो गया हो। गहराई ऐसी स्थापित हो जाए जैसे संसार का सारा ही ज्ञान आपमें समाहित हो जाएगा। जिसे लोग उदासी कहते हैं वो आपके लिए आनंद और जीवन के सुचारु संचार की अहम आवश्यकता लगने लगे। यह कौन सा वातावरण है? यह कौन से सृजन की उथल-पुथल है? यह कौन सी चीज है जिसमें एक बीज सी बेचैनी भरती जा रही है?

क्या करें जब लगातार आनंद की चेष्टाएं असफल होती जाएं? आनंद भी क्या जीवन का परम लक्ष्य है? फिर दुख किसलिए हैं? फिर उदासी किसलिए है? यह किसी का उद्देश्य क्यों नहीं है जबकि यह सहज प्राप्य है? क्या इनकी सहज उपलब्धता इनका मूल्य कम कर देती है? उदासी भी एक उत्सव क्यों नहीं हो सकती? दुख भी एक त्योहार क्यों नहीं हो सकता? क्यों ऐसा लगता है कि हम दुखी हैं तो यह एक जीवन के प्रतिकूल घटना है? हम उदास हैं तो इससे जीवन का स्वास्थ्य सही नहीं रहेगा?

उदासी हमें गहराई प्रदान करती है। दुख हमें द्रव्यमान देते हैं। हमें सीखों से भर देते हैं। हमें विचारों से परिपूर्ण कर देते हैं। हम सघन हो जाते हैं। गहरे हो जाते हैं। ऐसे में ज्यादा चीजें हममें समा सकती हैं। सुख हमें उथला बनाते हैं। हम जब हंस रहे होते हैं तब चीजों को सतही तौर पर लेते हैं लेकिन संसार ने नियम बना लिया है कि सुख ही सही है। आनंद ही जीवन की अच्छी सेहत का संकेत है। दुख है तो बीमार हो। उदासी है तो मृतप्राय हो। यह तय कौन करे?

अभाव ही जीवन की गति हैं। असंतोष ही ईंधन है जीवन गाड़ी का। अभाव प्रेरित करते हैं। शून्य बनाते हैं ताकि नया जीवन समा सके। यह जीवन रिक्त स्थानों के कदम दर कदम चलने का बिंदुपथ है। हमारी उम्र अभावों की एक यात्रा है। मोशन ऑफ अ वैकेंट प्लेस इज़ आवर लाइफ। अभाव होंगे तो उदासी भी होगी इसलिए उदासी जीवन के आधारों की तासीर जैसी है। यानी कि अगर जीवन का स्थायी भाव कुछ है तो उदासी है। दुख है। ऐसा मेरा मानना है। इसलिए, जीवन में उदासी देने वालों और दुख देने वालों के प्रति कृतज्ञ होना हमारा नैतिक दायित्व है। यही धन्यवाद ज्ञापन हमारी उदासी का उत्सव है।

Saturday, 8 December 2018

विद्रोहीः 'मैं मानता ही नहीं कोई मुझसे बड़ा होगा'

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रमाशंकर यादव 'विद्रोही'
पुण्यतिथिः 'बास्टर्ड' सोसायटी में 'आसमान में धान' की तरह उग आने वाले कवि थे विद्रोही

"मैं किसी से प्रतिवाद नहीं करता तो उसका सिर्फ एक कारण है। मैं इस इंडियन सोसायटी का नेचर जानता हूं। यह एक बास्टर्ड सोसायटी है जो न कवि को इनाम देती है और न दंड।" नीतिन पमनानी की फिल्म 'मैं तुम्हारा कवि हूं' में बोलते हुए विद्रोही इस बात से कतई अनजान तो नहीं रहे होंगे कि वह जिस सोसायटी की बात कर रहे हैं वह हजारों साल पहले ही श्रुति परंपरा को नकारकर लिखित परंपरा के रास्ते पर चल पड़ी है। वह उसी को प्रमाणिक और ऐतिहासिक मानती है जो लिखित में है। इसमें संदेह की बात नहीं कि अगर धर्मदास ने कबीर को लिखा नहीं होता तो शायद वाचिक परंपरा का वह युगकवि सैकड़ों साल पहले अपनी समस्त दार्शनिक साखियों के साथ कहीं गायब हो गया होता। हालांकि, यह खुशी की बात है कि ऐसे हालात में भी कबीरों को उनके धर्मदास मिल जाते हैं।

हमारे युग के कबीर हैं विद्रोही
विद्रोही हमारे युग के कबीर हैं। अपने समय की संकीर्णताओं पर हथौड़ा मारने वाले कबीर। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की सड़कों, ढाबों से लेकर संसद मार्ग तक के प्रोटेस्ट तक में उस कबीर की कविता गूंजती थी और आज तक गूंज रही है। उम्मीद है कि वह आगे भी गूंजेगी क्योंकि वह लिखी नहीं गई है। वह दहाड़ी गई है। वह बोली गई है। विद्रोही का लिखने पर विश्वास ही नहीं था। वह कबीर की तरह 'मसि कागद छूयो नहीं' की स्थिति में नहीं थे। पढ़े-लिखे थे। अपने छोटे से गांव अहिरी फिरोजपुर से जेएनयू तक पहुंचे थे लेकिन फिर भी उन्होंने अपने आप को लिखने की बात नहीं सोची। जैसे वह लिखित रूप में दर्ज ही नहीं होना चाहते हों। जैसे वह आवाज के रूप में आसमान में फैल जाना और हवा में घुल जाना चाहते हों। इस बात से बिल्कुल भी अप्रभावित कि जो लिखा नहीं जाएगा वह मूल्यांकित भी नहीं होगा।

विद्रोही के समकालीन कवियों को उन्हें कवि मानने से ही ऐतराज है। उस समय हिंदी के विख्यात आलोचक नामवर सिंह भी जेएनयू में थे और विद्रोही भी। लेकिन नामवर सिंह के लिए विद्रोही कभी कवि नहीं बन पाए। शायद इसी वजह से कवि विद्रोही न तो कभी छपे और न ही उनका मूल्यांकन किया गया। इस 'बास्टर्ड' सोसायटी में विद्रोही घूम-घूमकर कहते रहे

"मैं चाहता हूं कि
पहले जनगणमन अधिनायक मरें
फिर भारत भाग्य विधाता मरें
फिर साधू के काका मरें
यानी सारे बड़े लोग पहले मर लें
और फिर मैं मरूं"

लेकिन कोई इस कवि के इस 'विवादित' कविता को संज्ञान में नहीं लेना चाहता। कोई कवि को दंड नहीं देना चाहता। कोई कवि को ईनाम नहीं देना चाहता। एक तरह से समकालीन लोगों द्वारा समूचे तौर पर इग्नोर कर दिया जाना ही इस कवि को ऐसी लीक पर खड़ा कर देता है जो सबसे अलग है। जिस पर विद्रोही अकेले हैं। समकालीन साहित्य के पास विद्रोही को लिखने की स्याही भले न हो लेकिन वह दर्ज होने से नहीं रहेंगे। समय हर चीज को दर्ज कर लेता है। विद्रोही को समय ने दर्ज कर लिया है। जब-जब लोगों को 'मोहनजोदड़ो की आखिरी सीढ़ी पर पड़ी औरत की लाश' और 'इंसानों की बिखरी हुई हड्डियों' पर अथाह तकलीफ होगी, अपने बच्चों और पुरखों को बचाने की चिंता होगी तब-तब लोग अपने कवि की आवाज ढूंढ लेंगे और ऐसे वक्त में विद्रोही तमाम साजिशो, षडयंत्रों के लिखित इतिहास की बंजर धरती से आसमान में धान की तरह उग पड़ेंगे।
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'मैं मानता ही नहीं..'
"मुझे मसीहाई में यकीन है ही नहीं,
मैं मानता ही नहीं कोई मुझसे बड़ा होगा।"

जिसके पास आत्ममूल्यांकन का सामर्थ्य हो वह किसी और से अपने मूल्यांकन की उम्मीद नहीं करता। विद्रोही की कविता पढ़ेंगे तो लगेगा कि वह 'काव्यशास्त्र विनोदेन कालो गच्छति धीमताम' जैसे लोगों के लिए नहीं थे। ऐसे लोग जो ड्राइंग रूम्स या पुस्तकालयों में बैठकर धीरे-धीरे समझ-समझकर, रस लेकर कविता पढ़ते हों, विद्रोही शायद उनके कवि नहीं हैं। विद्रोही की कविताओं में प्रतिध्वनि सुनाई देती है। संबोधन होता है। पुकार होती है। विद्रोही-साहित्य में कवि और श्रोता अलग-अलग नहीं है। दोनों ही कविता में विराजमान हैं। कविता में ही श्रोता भी है और कवि भी। विद्रोही की कविता किसी सुधी श्रोता से वार्तालाप की प्रक्रिया है। इसमें वह तीसरा पक्ष भी शामिल है जिसकी उलाहना देनी हो या जिसकी मजम्मत करनी हो।

मैं किसान हूँ
आसमान में धान बो रहा हूं।
कुछ लोग कह रहे हैं
कि पगले! आसमान में धान नहीं जमा करता
मैं कहता हूँ पगले!
अगर ज़मीन पर भगवान जम सकता है
तो आसमान में धान भी जम सकता है
और अब तो दोनों में से कोई एक होकर रहेगा
या तो ज़मीन से भगवान उखड़ेगा
या आसमान में धान जमेगा।

हजार साल पुराना गुस्सा और नफरत
अपनी कविताओं में पीरगाथाओं को वीरगाथाओं के व्याकरण में ढालकर विद्रोही ब्राह्मणवाद के 'गौरवाशाली' इतिहास की खिल्ली उड़ाते हैं। वह अपने आप को पंडित और ज्ञान का अगुआ कहने वाले लोगों के बनाए समाज का आईना भी विद्रोही तरीके से रखते हैं। ऐसे में उनके अंदर से गोरख पांडे की कविता की तरह 'हजार साल पुराना गुस्सा और हजार साल पुरानी नफरत' अपनी पूरी तीव्रता के साथ बाहर निकलती है।

बाम्हन का बेटा
बूढ़े चमार के बलिदान पर जीता है।
भूसुरों के गांव में सारे बाशिंदे
किराएदार होते हैं
ऊसरों की तोड़ती आत्माएं
नरक में ढकेल दी जाती हैं
टूटती जमीनें गदरा कर दक्षिणा बन जाती हैं,
क्योंकि
जिनकी माताओं ने कभी पिसुआ ही नहीं पिया
उनके नाम भूपत, महीपत, श्रीपत नहीं हो सकते,
उनके नाम
सिर्फ बीपत हो सकते हैं।
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विद्रोही! तुम करते क्या हो?
जंगलों में 'नराः वानराः' की तर्ज पर रहने वाले विद्रोही, नहाने-धोने से परहेज करने वाले विद्रोही, जेएनयू के शहर में छात्रों की संगत के सहारे जीने वाले विद्रोही, प्रोटेस्ट, सभा-कार्यक्रमों में महज अपनी कविता सुनाने के लिए लंबा इंतजार तक मंजूर करने वाले विद्रोही, प्रतिरोध के अपने वैचारिक विरासत को अपने बेटे को भी सौंपने की मंशा रखने वाले विद्रोही दिसंबर 2015 की आज ही की तारीख को दुनिया छोड़कर चले जाते हैं और वैसे ही जैसे एक योद्धा के लिए वीरगति ही उसकी सर्वोच्च उपलब्धि होती है विद्रोही भी जेएनयू छात्रसंघ की 'ऑक्यूपाई यूजीसी' प्रोटेस्ट के दौरान वीरगति को प्राप्त हुए। कविता उनके लिए खेती थी, उनके लिए वैसा ही काम था जैसा काम लोग अपनी सांसे चलाने के लिए करते हैं।
कर्म है कविता
जिसे मैं करता हूं
फिर भी लोग मुझसे पूछते हैं
विद्रोही! तुम करते क्या हो?

दर्द का दवा हो जाना भी सही नहीं
विद्रोही की बहुत सी कविताएं उल्लेखनीय हैं लेकिन सभी यहां संभव नहीं। उनकी कविताओं का संग्रह नवारुण ने प्रकाशित किया है। नितिन के पमनानी ने 'मैं तुम्हारा कवि हूं' नाम से उन पर एक डॉक्युमेंट्री फिल्म भी बनाई है। विद्रोही ने जनभाषा में कविताएं लिखी हैं। जन सरोकारों पर कविताएं लिखी हैं। हलवाह, नानी, कहांर, नूर मियां, अहीर, औरत, आदिवासी जैसे बिम्बों-शब्दों का सहारा लेकर अपनी बात कही है। लोग उनमें नागार्जुन देखते हैं। कबीर देखते हैं लेकिन विद्रोही इस बात से खुश होते हैं कि लोग उनमें तुलसीदास नहीं देखते। वह दर्द का इलाज करना जरूरी समझने वाले साहित्य-समाज के इकलौते कवि होंगे। उनके मुताबिक दर्द ठीक है। दर्द आगे भी मिले तो इनकार नहीं है लेकिन दर्द की आदत बन जाना सबसे ज्यादा खतरनाक है। वैसे ही जैसे पाश के शब्दों में मुर्दा शांति से भर जाना सबसे खतरनाक है। इसीलिए विद्रोही गालिब को खारिज करते हैं और कहते हैं -

दर्दों का आगे और भी सिलसिला हो,
पर ये तो न हो कि दर्द ही दवा हो।