Monday, 18 June 2018

व्यंग्यः यह प्रतीकात्मक राजनीति का दौर है

प्रतीकात्मक चित्र (इंटरनेट से साभार)

आजकल देश में प्रतीकात्मक राजनीति का दौर है। मतलब झगड़ा ठीक से नहीं हो पा रहा है तो प्रतीकात्मक कर लें। केजरीवाल एलजी साहब के यहां, कपिल मिश्रा और भाजपा वाले केजरीवाल के यहां रजाई गद्दे और सोफे पर गिरे पड़े हैं। वो एक प्रतीकात्मक लड़ाई लड़ रहे हैं। ऐसी ही प्रतीकात्मक लड़ाई कांग्रेस ने कथित भूख हड़ताल की मदद से लड़ी थी और भाजपा ने संसदीय गतिरोध के खिलाफ देशव्यापी भूख हड़ताल के माध्यम से इस परंपरा को और मजबूत किया था। अमित शाह प्रतीकात्मक संपर्क अभियान पर हैं। देश भर की महान हस्तियों को अपनी उपलब्धियां गिना रहे हैं, जैसे किसी को पता नहीं है। लेकिन प्रतीकात्मक राजनीति को मजबूत करने के लिए ऐसा करना जरूरी है।

हम प्रतीकों के लिए लड़-कट-मरने वाले लोग हैं। प्रतीक हमें आकर्षित करते हैं। प्रतीकों से हमारी बहुत आस्था है। 'अप्रतीकीय संस्कृति' वाले लोगों ने भी प्रतीकों की महिमा को भलीभांति समझ लिया है। वह भी अपने प्रतीकों पर होने वाले प्रहार पर प्रतीकात्मक प्रतिक्रिया देने लगे हैं। भारतीय जनता के इस प्रतीक प्रेम को 'भारतीय जनता पार्टियों' ने अपनी रणनीति का अहम हिस्सा बना लिया है। अब वह प्रतीकों को लेकर गंभीर हो गए हैं। ऊना से लेकर सहारनपुर तक की घटना पर विरोधियों को क्या जबर्दस्त उत्तर दिया था हमारी सरकार ने। उन्होंने प्रतीकात्मक उत्तर का सहारा लिया। यह बहुविकल्पीय और विस्तृत उत्तरीय प्रश्नों के बीच का रास्ता था। प्रतीकात्मकीय उत्तर। उन्होंने सर्वोच्च संवैधानिक प्रतीकात्मक पद के लिए प्रतीकात्मक व्यक्ति की तलाश की और विपक्ष को प्रतीकात्मक जवाब दे डाला।
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फोटो सोर्सः वन इंडिया 

काम तो काम, राजनीतिज्ञों ने अपने बयानों तक में प्रतीकात्मकता को पर्याप्त जगह दी है। हम लोग खामख्वाह मजाक बनाते हैं। प्रधानमंत्री ने प्रतीकात्मक रूप से अपनी भारी जीत को भारी महसूस कराने के लिए 600 करोड़ मतदाताओं की कल्पना की थी और प्रतीकात्मक राजनीति के प्रति उनकी श्रद्धा देखिए कि वह भूल गए कि प्रतीकों के देश भारत में नहीं विदेश की किसी धरती पर हैं। प्रेम और जुनून ऐसा होना चाहिए। देश के राजनीति शास्त्र के राष्ट्रीय शिष्य राहुल गांधी भी इसी दृष्टिकोण से आजकल भाषण देते हैं। उन्होंने कहा कि कोका कोला कंपनी के मालिक पहले शिकंजी बेचते थे। आपको इसे प्रतीक के तौर पर स्वीकार कर लेना चाहिए था। वैसे भी महान हस्तियों के संघर्षों की कहानियों में जो वो बताते हैं क्या सब सही ही होता है? हां, मगरमच्छ वाली बात और है। उसके सही होने में कोई संदेह नहीं है। राष्ट्रीय अध्यक्ष जी ने सोचा होगा सारे महापुरुषों ने बचपन में अखबार, चाय इत्यादि बेचा ही होता है। ये सारे प्रतीक तो अब पुराने हो गए हैं। मार्केट में कुछ नए प्रतीक लाने की जरूरत है। प्रतीकात्मक राजनीति के लिए यह उनकी प्रतिबद्धता तो ही थी।

वैसे, हम प्रतीकात्मक राजनीति के एक महान पुरोधा के युग में जी रहे हैं। इसका हमें गर्व होना चाहिए। बदलाव के वादे के रास्ते सत्ता में आई सरकार ने ढाई साल बाद भी कोई बदलाव नहीं देखा तो प्रतीकात्मक बदलाव के तौर पर नोट बदल दिए। प्रतीकात्मक झाड़ू लेकर घूमने से लेकर प्रतीकात्मक योगा तक क्या कुछ नहीं किया प्रतीकों की राजनीति के लिए। हां, प्रतीकात्मक योगा ही तो है। इससे पहले फिटनेस के लिए ऐसा योगा कभी नहीं देखा था। और तो और पार्टी के बुजुर्ग लोगों की प्रतिष्ठा में कोई कमी न हो इसके लिए उन्हें भी प्रतीक बनाना जरूरी था। इसलिए एक अलग से प्रतीकात्मक (सॉरी) मार्गदर्शक मंडल बना दिया। प्रधानमंत्री के पास विपक्ष के हर सवालों का प्रतीकात्मक जवाब था। लोगों ने कहा कि इंटरव्यू नहीं देते सो एक नहीं, तीन-तीन प्रतीकात्मक इंटरव्यू दे डाले। पुरोधा को छोड़िए, उनके मंत्री भी क्या कम हैं! झोपड़ी में रहने वाले लोगों को फाइव स्टार होटल में बुलाकर और उनके साथ खाना खाकर दलित-उत्थान और समतामय समाज की दिशा में उनके प्रतीकात्मक योगदान को कौन भूल सकता है! प्रतीकात्मक राजनीति के जनक का जीवन ऐसे अनेक उदाहरणों से भरा पड़ा है। और पिक्चर तो अभी बाकी ही है, भाइयो भैणों।
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खैर, लोकतंत्र के नाम पर अब इस देश में प्रतीकात्मक लोकतंत्र ही तो बचा है। राजशाही, भाई-भतीजावाद, पुत्रवाद, मित्रवाद, गुरूवाद को संवैधानिक पद-प्रतीकों के खांचे में घुसाकर मनमानी की ही जा रही है। सोशल मीडिया से लेकर सड़क तक प्रतीकात्मक प्रतिरोध की संस्कृति पनप रही है। संसद में प्रतीकात्मक कार्यवाही हो रही है। लोग प्रतीकों को लेकर पागल हैं। मार-काट मचा रहे हैं। प्रतीकों को सत्य मान लिया गया है, यह भूलकर कि प्रतीक तो प्रतीक ही हैं, यथार्थ नहीं। कहीं ऐसा न हो जाए कि इस प्रतीकवादी युग में यथार्थवाद भी एक प्रतीक बनकर रह जाए।

जनसत्ता वेव में प्रकाशित

Friday, 8 June 2018

पक्षपात आज के डिबेट का नया नैतिक चरित्र है

स्वर्गीय अनुपम मिश्र ने अच्छे विचारों के अकाल की कल्पना की थी। विचारों के सन्दर्भ में कुछ और संकट हैं। विचारों के अच्छे विमर्श के अकाल का। असल मुद्दों को छिटकने न देने के कौशल के अकाल का। आज के दौर में हर दूसरी राजनितिक घटना ऐतिहासिक है। ज़ारी है उन पर विमर्श पर विमर्श। वो भी ऐसा, जैसे बांस के कईन से गन्ने का रस निकाल देंगे।

स्वस्थ प्रतिरोध का जिम्मा सँभालते-सँभालते हम कब सवालों की जिम्मेदारी से फैसले देने पर उतारू हो गए, कब विपक्ष से न्यायाधीश बन गए, पता ही नहीं चला। अब हम सब भविष्यवक्ता हैं। अब हम आंकलन नहीं करते, भविष्य बकते हैं। आलम ये है कि दीनानाथ के भैंस के रंभाने की आवाज सुनकर ही लोग बता सकते हैं कि उनका बिटवा इस बरस 12वीं में पास होगा कि नहीं। यह अद्भुत कला है।

बड़े बारीक तर्क होते हैं जो जनरलाइज्ड नहीं होते। ये तर्क हर बार अलग-अलग विमर्शों में अलग-अलग होते हैं। बहुत सारे अपवादों से भरे इस विमर्श को बुद्धिजीविता का उत्कर्ष माना जाता है। बाकी इस पर कोई भी सवालिया टिप्पणी मूर्खता, देशद्रोह और एंटी-फलां वाद का प्रमाण पत्र भी होती है। 'पक्षपात' आज के डिबेट का नया नैतिक चरित्र है। आप खोपड़ी फोड़कर भी इसे नहीं समझ सकते।

Tuesday, 5 June 2018

पर्यावरण मंथन: 'प्रकृति' की नाराजगी के आगे घुटने टेकती 'संस्कृति'


आर्कटिक के बर्फीले देश की सफ़ेद लोमड़ी अपने रंग का फायदा उठाकर शिकार करती है। वह सफ़ेद बर्फ में छिप जाती है और सच में लगभग अदृश्य हो जाती है। ऐसा वह तब भी करती है जब बाज़ उसका शिकार करने की कोशिश करते हैं। ग्लोबल वार्मिंग की वजह से आर्कटिक पिघल रहा है। लोमड़ी का सफ़ेद रंग अब काम नहीं आ रहा। उसकी समूची प्रजाति पर खत्म होने का संकट आन पड़ा है। रंग सिर्फ लोमड़ी की धरती का नहीं बदल रहा है। आपकी अपनी धरती का भी बदल रहा है। बहुत तेजी से। पर्यावरण संकट का शोक गीत गाते आज 43 साल बीत गए। वैश्विक तापमान में वृद्धि लगातार जारी है। ऐसे में आर्कटिक लोमड़ी केवल एक उदहारण है। हमारी तथाकथित विकास-धारा में धरती के विभिन्न कोनों में ऐसी न जाने कितनी प्रजातियां अपने अस्तित्व की समाप्ति के संकट के मुहाने पर खड़ी हैं। और किसी की क्या बात करें, हमारी अपनी प्रजाति क्या इस संकट से अछूती है!

वैज्ञानिकों का अनुमान है कि कार्बन उत्सर्जन में तत्काल कमी नहीं लायी गयी तो सदी के अंत तक वैश्विक तापमान में भयानक स्तर की वृद्धि होगी। ये वृद्धि हम अभी ही नहीं झेल पा रझे हैं। सोचिए, आने वाली पीढ़ियां इसे कैसे झेलेंगी। इसके दुष्प्रभाव देश के अनेक हिस्सों में दिखाई देने लगे हैं। शिमला के लोगों ने अपने पर्यटकों से अपील की है कि हमारे यहाँ हमारे लिए ही पानी नहीं है, आपको क्या पिलाएंगे। इसलिए यहाँ न ही आइये। हमारे यहाँ आगंतुकों का पानी और मीठा से स्वागत करने की परंपरा रही है। लेकिन वहां अब मीठा बचा है। पानी नहीं है। देख लीजिए, स्वाद और रंग से हीन एक पदार्थ आपके जीवन के सारे रंग कैसे छीन लेता है। इतनी सुंदर जगह शिमला। लोगों ने किसी बाहरी को वहां आने से मना कर दिया है। होटलों ने बुकिंग बंद कर दी है। अतिथि देवो भवः की संस्कृति ने प्रकृति की एक नाराजगी के आगे घुटने टेक दिए हैं। अब ये आपको सोचना है कि आप प्रकृति को बचाएंगे या संस्कृति को।

यह केवल शिमला की हालत नहीं है। बुंदेलखंड और मराठावाड़ा के बारे में हम अक्सर समाचारों में सुनते रहते हैं। सूखा और अकाल का नाम सुनते ही इन दो क्षेत्रों के नाम बरबस होठों पर आ जाते हैं। जल का दोहन, जंगलों का खात्मा और बढ़ता वैश्विक तापमान अगर नहीं रुका तो न सिर्फ सारे देश का बल्कि समूची दुनिया का 'बुन्देलखण्डीकरण' होना तय है। पानी है तो सब कुछ है। गर्मियों में देश की नदियों की हालत नालों की तरह हो जाती है। नाले फिर भी अपने स्तर पर पानी से भरे होते हैं। नदियों के टापुओं पर लोग गाड़ी चलाना सीख रहे हैं। बच्चे क्रिकेट खेल रहे हैं। समुद्र का जलस्तर लगातार बढ़ता जा रहा है। ऐसा माना जा रहा है कि 22वीं सदी तक समुद्री जलस्तर में तकरीबन 1 मीटर का इज़ाफ़ा हो जाएगा और लगभग साढ़े 5 हजार वर्गकिमी की जमीन समुद्र में समा जाएगी। इससे करीब 70 लाख लोग अपनी जमीन से विस्थापित होंगे। इतना ही नहीं क्लाइमेट चेंज की वजह से मौसम का वो हाल होगा कि सूखा और बाढ़ की ऐसी भयावह स्थिति पैदा होगी जिसका सानी इतिहास में ढूंढना मुश्किल होगा। इससे खाद्य संकट की भयानक स्थिति हमारे समक्ष उपस्थित होगी।

किसानों का आंदोलन आजकल चर्चा में है। उन्हें अपनी फसल का उचित दाम नहीं मिल रहा है। ऐसे भी किसान हैं जिनकी फसल मौसम की वजह से ख़राब हो जाती है। फसल के लिए जब बारिश होनी चाहिए तब होती नहीं। जब नहीं होनी चाहिए तब होती है। दोनों ही परिस्थितियों में उन्हें नुकसान उठाना पड़ता है। कुछ झेल नहीं पाते तो आत्महत्या कर लेते हैं। मौसम की मार से हमारी भोजन की थाली पर असर पड़ना तो तय है। थाली के साथ पानी के गिलास पर भी संकट है। बारिश न होने की वजह से किसान सिंचाई के अन्य विकल्पों की ओर बढ़ते हैं। इनमें नदियों-नहरों से फसल सींचने का विकल्प है। इनकी व्यवस्था न होने पर किसान बोरिंग से भूमिगत जल सिंचाई के लिए निकालते हैं। भूमिगत जल स्तर पहले ही गिरता जा रहा है। ऐसे में आपके पीने के हिस्से के पानी से सिंचाई हो रही है। भोजन के लिए की जाने वाली यह कवायद आपके लिए भयंकर जल संकट की भूमिका तैयार कर रही है।

पॉलीथीन हमारे पर्यावरण के लिए एक नए दानव की तरह उभर रहा है। इसे नष्ट होने में हजारों साल लगते हैं। इसे नष्ट करने की दूसरी विधि है कि इसे जला दिया जाए लेकिन ऐसा करना भी बड़ी मूर्खता होगी। इसके धुएं से निकलने वाले हानिकारक रसायन हमारा सांस लेना दूभर कर देंगे। पिछले दो दशकों में पॉलिथीन के इस्तेमाल में काफी वृद्धि देखने को मिली है। केवल भारत की ही बात करें तो आज की तारीख में देश में प्लास्टिक की उत्पादन क्षमता तकरीबन 50 लाख टन से भी ज्यादा है। 2001 तक भारत में हर दिन 5400 टन के हिसाब से साल भर में 20 लाख तन प्लास्टिक कचरा पैदा होने लगा था। अब तो 2018 है। आज की स्थिति का आप अंदाज़ा लगा सकते हैं। पॉलीथीन गैर- जैव विघटित पदार्थ है। मतलब कि यह सड़ता-गलता नहीं है। ऐसे में यह मिट्टी की उर्वरा शक्ति को प्रभावित करता है। भूमिगत जल के पुनर्संचयन में दिक्कतें पैदा करता है। नालियों में पहुंचकर जाम की स्थिति बनाता है। इससे तमाम तरह की बीमारियां फैलती हैं। अक्सर पशु इनमें अपने लिए भोजन तलाशते इन्हें निगल जाते हैं। जिससे उनकी मौत तक हो जाती है।

प्लास्टिक से पर्यावरण को बचाने का एक ही उपाय है कि इसके इस्तेमाल में कमी लाई जाए। इसके लिए कठोर संकल्प की जरूरत होगी। प्लास्टिक थैलियों के उपयोग के हम इतने आदी हो चुके हैं कि इसे छोड़ पाना बेहद मुश्किल है। लेकिन यह असंभव नहीं है। तमाम प्रदेशों की सरकारों ने इनके इस्तेमाल पर प्रतिबंध लगाया है लेकिन फिर भी यह चोरी-छिपे दुकानों पर मिल ही जाती हैं। हम इनसे होने वाले नुकसानों को इग्नोर कर धड़ल्ले से इसके इस्तेमाल में जुट जाते हैं। यह जानते हुए भी कि पॉलिथीन पर्यावरण को बाद में नुकसान पहुंचाता है, उससे पहले यह आपकी सेहत पर हमला बोलता है। कई शोधों में यह बताया गया है कि पॉलिथीन में रखे गर्म भोजन, चाय आदि का सेवन करने से कैंसर जैसी घातक बीमारी हो सकती है। गर्म खाद्य पदार्थों की वजह से पॉलिथीन के केमिकल्स टूटते हैं और खाने वाली चीजों में घुल जाते हैं। यही चीजें जब आप खाते हैं तो बीमारी की चपेट में आते हैं।

इस साल पर्यावरण दिवस की थीम बीट प्लास्टिक पॉल्यूशन रखी गई है। पॉलीथीन पॉल्यूशन दूर करने का एक ही तरीका है कि इसके इस्तेमाल में कमी लाई जाए। इसके लिए खुद के प्रति जवाबदेही रखते हुए ईमानदारी से पॉलीथीन को अपने जीवन से रिमूव करना होगा। सामान रखने के अन्य विकल्प जैसे- जूट या कपड़ों की थैली का इस्तेमाल इसमें आपकी मदद कर सकते हैं।  ध्यान रखें, धरती आने वाली पीढ़ियों के लिए आपके पास रखी विरासत की तरह है। इसे जब आप अपनी अगली नस्लों को सौंपेंगे तो यह आपकी जिम्मेदारी है कि इसका माहौल जीवनानुकूल हो। यह धरती जैसी आपको मिली थी आप उससे बेहतर रूप में आने वाले वक़्त को सौंपे, आज के दिन आपका यही संकल्प होना चाहिए।

(5 जून 2018 को जनसत्ता वेब में प्रकाशित)

व्यंग्यः देश 'अंकल' का वायरल डांस देखने में बिजी है और तुम कर्ज माफी का रोना रो रहे हो!


वायरल अंकल का डांस वीडियो वायरल होते ही पेट्रोल की महंगाई का प्रतिरोध पार कर भी हमारे मीडिया के जांबाज़ अंकल के घर पहुँच गए। उनका इंटरव्यू लिया गया जो अखिल भारतीय नृत्यकला प्रशिक्षण और प्रेरणा के लिए ऐतिहासिक जरूरत है। ऐसे ही कुछ दिन पहले कोई प्रिया प्रकाश वारियर भी वायरल हुई थीं। तब हिंदुस्तान का आखिरी किनारा भी दिल्ली से काफी नज़दीक हो गया था। सभी के माइक के पीछे वारियर थीं और कैमरे पर उनका मुस्कुराता चेहरा। रातोरात प्रसिद्धि के उड़नखटोले पर विराजमान उस दिव्य महिला के सौंदर्य और उसकी खुशी पर समूचा देश मोहित था। हमें उसकी खुशी करीब से महसूस हो इसलिए समाचार वालों ने दिन भर उसके हंसते चेहरे के प्रसारण की पुनरावृत्ति की हद कर डाली थी।

वायरल चीजें हैं भाई। जो देश देखना चाहता है हम तो वही दिखाते हैं। लेकिन मैं नहीं मान सकता कि देश गुज्जू पहलवान का डांस नहीं देखना चाहता होगा। हाँ, थोड़ा बोरिंग है पर डांस तो डांस है। नृत्य कला। एकदम नए जमाने की नृत्य कला। पहले कभी नहीं देखी गयी। गुज्जू पहलवान कोई प्रोफेशनल डांसर नहीं थे। किसान थे। डांस तो उनसे देश की कला-प्रेमी सरकार ने जबर्दस्ती करवाया। खेत के लिए बैंक से लगायत खाद-बीज-विक्रय केंद्र तक नाचने के बाद गुज्जू ने आखिरी नाच में तो कमाल कर दिया। बिना प्राण के नाचना तो कमाल ही है न। पहलवान आखिरी बार नाचे अपने दुआर पर खुद ही के लगाए नीम के पेड़ पर। गले में फंदा था। टांगें जमीन से कुछ ऊपर थीं और शरीर एक शांत, स्थिर डांस में मग्न। वीडियो तो नहीं, फोटो वायरल हुआ। बहुत वायरल हुआ। ट्वीट भी हुआ। लोग रोए, धिक्कारे सब किए। एमपी वाले मामा तब मुंह में पान चबाकर भोपाल की सड़क (बेटर दैन अमेरिका) रंग रहे थे। नहीं तो बोलते जरूर कि पसन्द आया डांस।

टीवी का असर बहुत दूर तक है। मामला वहां पहुँच जाए तो नदियापार वाले जेबकतरा भक्कू की चोरी हुई साइकिल के बदले नयी मोटरसाइकिल सरकार घर आकर दे जाती है। बस नाटक मज़ेदार होना चाहिए कि टीवी पर चले तो लोगों का अच्छा खासा मनोरंजन हो। मनोरंजन से कोई समझौता नहीं। मनोरंजन के लिए हम किसी के मौत का भी तमाशा बना सकते हैं। बस, एंटरटेनमेंट-एंटरटेनमेंट-एंटरटेनमेंट। खैर, यही सोचकर मद्रास वाली मंडली ने पहली बार स्क्रिप्ट लिखी। तैयार होकर आए। लेकिन क्या करें। 'प्रचारक' तो नहीं थे। किसान ही तो थे। उन्होंने सोचा जब यही सब करने से लोग 'ट्वीट' करेंगे तो यह भी कर लें। लेकिन कोई फायदा नहीं। ट्वीट तो छोड़िए किसी 'सफेद कबूतर' ने 'बीट' तक करने की जरूरत नहीं समझी।

इसलिए, खेत वालों को अभी और मेहनत करना चाहिए। थोड़ा डांस-वांस सीखें। गाना-वाना गाएं तब तो लोग देखना पसंद करने के बारे में सोचें भी। क्या हर बार वही रोना रोते रहें कि 'कर्ज माफ कर दो' - 'कर्ज माफ कर दो'। कर्ज क्या पेड़ पर उगते हैं! वो 'पेड' पर उगते हैं। जिसने 'पेड' किया उसको कर्ज भी अदा किया और उसके प्रति फ़र्ज़ भी अदा किया। तुम रोना रोओ। देते भी क्या हो! चावल-दाल-रोटी। कुछ इनोवेटिव करो यार। जिससे मज़ा आए। नहीं कुछ तो गेंहू-चावल का नाम ही बदलो। जैसे, चावल का नाम बदलकर 'वंदे मातरम अन्न' और गेहूं का नाम 'जय हिंद दाना' करो। देशभक्ति झलके। तब तो लोग इमोशनली जुड़ेंगे। यू नो! देश ही सबकुछ है। तुम्हारे खेत से देशभक्ति वाली फीलिंग ही नहीं आती। एक तो फसल भी तुम्हारी हरी-हरी होती है। उगाओगे भारत की जमीन पर पाकिस्तान का झंडा। तुम्हारे देशद्रोह पर बुलेटिन नहीं चलवा रहे, ये क्या कम है!

देखिए! वायरल अंकल के डांस के परम आनन्द के बीच किसान की याद दिलाने का अपराध मैं बिल्कुल नहीं करना चाहता था। लेकिन उन्हें भी समझाना जरूरी हो गया था कि हर बार का नाटक बंद करें। सारा देश अंकल का वायरल डांस देखने में बिजी है। किसानों ने अपनी सब्जियां सड़क पर फेंक दी तो क्या हुआ। इससे हमारे (अ)धर्म को, हमारी देश(भक्ति) को तो कोई नुकसान नहीं पहुंचा। किसानों ने दूध ही तो सड़क पर बहाया है। अब ये तो कन्फर्म नहीं ही है कि दूध गाय का है। एक बार हो जाए तो हड्डी पसली एक करने में देर थोड़े लगेगी। ऐसे नाटक चलते रहते हैं। सब मीडिया में आने की ललक है। मैले-कुचैले कपड़ों के साथ देश को रुलाने के लिए टीवी पर आना है इनको। अरे, देश को हंसने दीजिए भाई। वैसे ही कितने सारे रोने के संसाधन जनता के पास उपलब्ध हैं। जिस टीवी पर तुम रोने जा रहे हो वहां देश के जिम्मेदार प्रतिनिधि लाखों रुपए की सैलरी लेकर जनता को हंसाने का काम करते हैं। वे मेहनत करके ऐसे वाहियात बयान देते हैं जिस पर जनता हंसे और आलू-टमाटर-दाल-पेट्रोल के दर्द को भुलाए रखे। मंत्री जी ने भी इस बात की पुष्टि कर दी कि तुम लोग मीडिया में आने के लिए ही ये सब करते हो। मंत्री जी को डर है कि अगर तुम मीडिया में आ जाओगे तो उनका क्या होगा। महीने में दो-तीन बार जब तक मंत्री जी को फुटेज नहीं मिलता है तब तक उनका दस्त ठीक नहीं रहता। उनकी भी तो सोचो।

सोशल मीडिया पर लिखने वाले धुरंधरों की भी अपनी मजबूरी है। वह अपने सभी करुण शब्दों को विभिन्न घटनाओं पर खर्च कर चुके हैं। वे अब कुछ भी लिखते हैं तो बहुत बोरिंग लगता है। वो क्या ही करें। इतनी बार उन्हें भावुक पोस्ट लिखना पड़ता है कि शब्दों और आंसू का स्टॉक ही खत्म हो जाता है। वैसे, जनता का दुख-दर्द दूर करने की यह सरकारी नीति भी हो सकती है। इससे आप सुख में और दुख दोनों में एकदम सामान्य रहने लगेंगे। सरकार ने वह स्टेटस पढ़ा है जो एक बार द्वापर में श्रीकृष्ण ने अपने वाट्स एप पर लगाया था। जिसमें उन्होंने कहा था कि सुख-दुख में समान रहने वाला ही योगी है। सरकार सबको योगी बना रही है तो इसमें क्या हर्ज है। क्या पता, कब मुख्यमंत्री या राज्यमंत्री का दर्जा मिल जाए। हम सबको वहीं तो पहुंचना है। जब तक तुम्हारी बात करेंगे लात खाएंगे। कुर्सी मिलने के बाद कहां तुम-कहां हम।

वायरल होना है तो रोना छोड़ो। कुछ नया करो। बिना वायरल हुए कौन पूछेगा तुम्हें? वैसे भी वायरल के नाम पर तुम्हारे हिस्से सिर्फ वायरल वाला बुखार ही आता है। ये दूध फेंकने, सब्जियां फेंकने से काम नहीं बनेगा। लोग इतनी बार ये 'नाटक' देख चुके हैं कि अब भावुक होने भर की भावुकता उनके जेहन में बची ही नहीं है। लोगों का दिल भी तो अब सरकार-सरकार हो गया है, कुछ भी करो वह क्या ही पिघलेगा!

(5 जून 2018 को जनसत्ता वेब में प्रकाशित)

Wednesday, 16 May 2018

प्रतिष्ठानों की प्रतिष्ठा

कर्नाटक विधानसभा में कुल 222 विधायक हैं। 117 विधायक जेडीएस-कांग्रेस के पास हैं। भाजपा के पास 104 और 1 निर्दलीय। मतलब राज्यपाल साहब को भी पता है कि भाजपा को बहुमत पूरा करने के लिए कांग्रेस-जेडीएस के फाइव स्टार रिसॉर्ट में सेंधमारी करनी पड़ेगी। और यह तो सबको पता है कि सेंधमारी के लिए पकौड़ा और चाय से बात नहीं बनेगी। फिर भी वुजुभाई वाला को लगा कि भाजपा को ही सरकार बनाने के लिए बुलाना कुर्सी (सॉरी) मिट्टी का कर्ज चुकाने के लिए जरूरी है।

कल रात किसी ने कहा राज्यपाल पद की अपनी प्रतिष्ठा है। उसे इस मामले में कोर्ट में नहीं घसीटना चाहिए। जनादेश की छाती पर लोकशाही का बाजार लगा डालने वाले लोगों की प्रतिष्ठा लोकतान्त्रिक देश का नागरिक होने की मजबूरी है तो मेरी नागरिकता का इस्तीफा ले लीजिए। ऐसे ही लोग राष्ट्रपति, मुख्य न्यायाधीश और सेना जैसे प्रतिष्ठानों की प्रतिष्ठा को लेकर इतने भावुक होते हैं कि उन्हें हर तरह के सवालों के दायरे से बाहर कर देते हैं। इनकी प्रतिष्ठा का ख्याल हमें ही क्यों हो? उन्हें खुद कब अपने पद की महत्ता और गरिमा का ख्याल होगा!

खैर, सरकार तो कांग्रेस-जेडीएस का बनना भी अनैतिक है। कि यह जनादेश गठबंधन को तो नहीं मिला। कुर्सी के लिये हाथ मिलाने वाले लोग विश्वसनीय होंगे, इस पर विश्वास करना मुश्किल है। लेकिन फिर भी, इनका सरकार बना लेना कम अनैतिक है। यह उन इरादों पर कड़ा प्रहार होगा जो इस देश में लगातार हर अनैतिक काम खुलेआम करने की बदतमीजी दिखा रहे हैं। उनकी कार्यशैली में संविधान की खोल भर है, आत्मा नहीं है। अगर ऐसा नहीं होता तो ये लोग गोआ से लेकर सिक्किम तक आंकड़ों की जालसाजी कर सत्ता-लोलुपता की बेशर्म राजनीति नहीं करते।

वैसे भी अब राजनीति में नैतिकता के नाम पर 6 मात्राओं वाले चार अक्षरों के अलावा कुछ भी नहीं बचा है। अब जब तड़ीपार लोग पार्टी अध्यक्ष बनेंगे तो इससे अलग आप क्या ही उम्मीद कर सकते हैं। दया उन पर आती है जो ऐसे लोगों की जीत को अपनी जीत समझकर खुश होते हैं। इस बात को जानकर भी या अंजान होकर भी कि अगर वो वोटर हैं तो असल में यह उनकी हार है। इस हार के शिकार वो आज नहीं हैं तो कल होंगे। अगर ऐसे ही इस प्रवृत्ति को अपने समर्थन की खाद देते रहे तो..

Monday, 23 April 2018

पुस्तक दिवस प्रवचनः आप जब किताबों से जुड़ते हैं तो एक नई ही जीवनशैली में जीने लगते हैं

सौ किताबें पढ़ना तब एक बार कुछ लिखना।

दिवसों की औपचारिकताओं में पुस्तक दिवस का भी शामिल हो जाना हैरान नहीं करता। हम जिन भी चीजों से दूर होते जाएंगे उनके नाम एक दिन निर्धारित कर देंगे। इसलिए क्योंकि हर दिन हम उसके लिए समय नहीं दे सकते सो एक दिन तो उसके बारे में कुछ सोचे-कहें। पुस्तक दिवस ऐसा ही एक दिन है। सुबह से सोशल मीडिया पर पुस्तकों के बारे में तमाम चीजें पढ़ रहा हूं। पुस्तकों पर शेर लिखे जा रहे हैं। पुस्तकों की तस्वीरें दिख रही हैं। कोट्स भी हैं कुछ जो पुस्तक पढ़ने के लिए प्रेरित करती हैं। अच्छा है सब। पढ़कर मन खुश हो जाता है। आश्वासन भी मिलता है कि पुस्तकों से दोस्ती करके कुछ गलत नहीं किया। सही संगत है।

अपने सामाजिक परिवेश की बात करूं तो यहां पुस्तकों का एक प्रतिष्ठित दर्जा है। किताबों से लगाव रखने वाले लोगों को हमारे यहां अलग ही दृष्टि से देखा जाता है। बुजुर्गों और शिक्षित लोगों के लिए किताबों में घुसा रहने वाला व्यक्ति समझदार है। माता-पिता के लिए उनके बेटे का पुस्तक-प्रेम सामाजिक संवादों में उन्हें मजबूत स्थिति प्रदान करने वाला तथ्य है। जिन लोगों को पुस्तकों से प्रेम नहीं होता उनके लिए पुस्तक पढ़ने वाला व्यक्ति 'छद्म पढ़वैय्या' टाइप है जो किताबें पढ़ने का केवल दिखावा करता है और जिसकी वजह से उनके माता-पिता के तानों को उस 'किताबी कीड़े' का सहज उदाहरण उपलब्ध हो जाता है। खैर, जो भी हो। किताबों से प्रेम होना मजेदार चीज है। बचपन से ही लोगों को इनसे दोस्ती कर लेनी चाहिए। अब तक के अपने तमाम अनुभवों से मैं इस बात का पक्का समर्थक हो गया हूं।

चपन में शिक्षकों के वे कथन मुझे आज भी याद हैं जिनमें वे कहते कि किताबें पढ़ो। यह जरूरी नहीं कि वे किताबें तुम्हारे सिलेबस की हैं या नहीं। कोई भी किताब उतनी ही उपयोगी होती है जितनी कोर्स-सिलेबस की किताबें। किताबों से दोस्ती करने को प्रेरित करने वाले शिक्षक ही आपके सच्चे हितैषी हैं। अन्य सभी सामान्य बच्चों की तरह मुझे भी पढ़ना-लिखना कहां भाता था। दरअसल, हमारे यहां पढ़ने के नाम पर दो ही चीजें मशहूर और स्वीकार्य थीं। पहला- गणित के सवाल लगाना और दूसरा अंग्रेजी के मीनिंग्स याद करना। इसके अलावा पेपर पढ़ते या अन्य किताबों में सिर घुसाए दिख जाने पर परीक्षाओं का हवाला देकर अच्छी खासी डांट पड़ती। अभिभावकों का पढ़ाई को लेकर इस तरह का पक्षपात कभी भी सिलेबसेत्तर किताबों को पढ़ने में सहज महसूस नहीं होने देता था। हालांकि, इसके लिए विकल्प था कि हम अपने सिलेबस की चीजें तैयार कर लें और फिर इन किताबों को पढ़ें। इस पर किसी की नाराजगी का कोई कारण नहीं था। लेकिन इतने भी तो मेधावी नहीं थे न। सो, पाठ्यक्रम से इतर किताबों से दोस्ती न हो पाई कभी।

साहित्यिक किताबों की उपलब्धता भी हमारे क्षेत्र में आसान नहीं थी। और हममें उतनी प्यास भी नहीं कि तमाम महापुरुषों की कहानियों की तरह 'जिन ढूंढा तिन पाइयां' की तर्ज पर साहित्यिक किताबें कहीं से खोज लाते। सच तो यह था कि हाईस्कूल तक आकर भी हमने सिवाय रश्मिरथी, निर्मला और गोदान के कोई समूचा साहित्य देखा ही नहीं था। इलाहाबाद आने के बाद कुछेक लोकप्रिय किताबों के दर्शन हुए जिनके रचनाकारों के नाम बचपन से रटते आए थे। भारत-भारती, कामायनी, आनंदमठ, देवदास, आकाशदीप, हल्दीघाटी आदि कुछ ऐसी ही रचनाएं थीं। कविताएं लिखने का शौक था। पढ़ने का भी शौक था। लेकिन हाईस्कूल और इंटरमीडिएट की किताबों में जितने काव्य थे उनके अतिरिक्त कविताओं का कोई दूसरा संग्रह उपलब्ध नहीं था। उन्हीं कविताओं को पढ़कर शुरुआती काव्य-लेखन आरंभ हुआ था। इसीलिए शुरुआती रचनाओं में रामधारी सिंह दिनकर, निराला जैसे रचनाकारों की छाप टूटी-फूटी और कच्ची अवस्था में दिखलाई पड़ती है। उनके जैसे शब्द-शिल्प बनाने की नाकाम कोशिशें।

कविताओं पर टिप्पणी करते हुए गुरूजी ने समझाया था कि लिखने से पहले पढ़ना जरूरी है। उन्होंने कहा था कि सौ किताबें पढ़ना तब एक बार कुछ लिखना। यह मंत्र दिमाग में बैठ गया। उन्हीं के सुझाव पर कुछ किताबें खरीदी गईं और किताबों से निकटता बढ़नी शुरू हुई। महंगी किताबें पुस्तक मेले से, यूनिवर्सिटी रोड से खरीदने का सिलसिला शुरू हुआ। किताबों पर खर्च करना कहीं से फिजूलखर्ची नहीं लगता सो किताबें बढ़ती गईं। अब तो अपनी सैलरी आती है। सो हर महीने एक-दो किताबें मंगा ही ली जाती हैं। काफी किताबें इकट्ठी हो गई हैं। अब पढ़ने का समय नहीं मिलता। लेकिन धीरे-धीरे किताबें मेरे लिए सबसे निकटतम हमसफर बनती जा रही हैं।

किताबों का हमारे जीवन में क्या प्रभाव है इस बारे में विश्लेषण के लिए अभी मेरी उम्र पर्याप्त समय नहीं है। कभी-कभी लगता है कि मेरे जीवन में किताबों का दाखिला बेहद जरूरी था। यह मेरा अकेलापन दूर करती हैं। किताबें हैं इसलिए मैं हमेशा इस बात का दावा करता फिरता हूं कि मैं कभी अकेला नहीं होता। कहानियों, उपन्यासों के अलावा कविताएं पढ़ना बेहद पसंद है। यात्रा-साहित्य, दलित साहित्य, ऐतिहासिक सूचनाओं से समृद्ध कुछ किताबें, आत्मकथा आदि कुछ ऐसी साहित्यिक विधाएं हैं जो विशलिस्ट में शामिल हैं। मतलब मौका लगते ही इन्हें पढ़ना है। साहित्य का गलियारा अभी इतना परिचित नहीं है कि उसमें से मैं पसंदीदा लोगों की सूची तैयार करूं। जो भी पढ़ा है अभी बेहद कम है। अभी लगातार पढ़ना है।

खैर, ये तो रही मेरी बात। हालांकि, बहुत यह बहुत ज्यादा समय नहीं है लेकिन फिर भी किताबों के परिप्रेक्ष्य में दौर अब काफी बदला है। इंटरनेट और स्मार्टफोन्स की सुलभता और घर-घर इसकी उपलब्धता ने अब पढ़ना आसान बना दिया है। अब किताब कागज पर मुद्रित कुछ अक्षरों की परिभाषा से बाहर आ गए हैं। किंडल, ई-बुक्स और तमाम ब्लॉग्स ने साहित्य की सर्वश्रेष्ठ रचनाओं को हर किसी की दहलीज तक पहुंचाया है। अब ऐसी-ऐसी रचनाएं हम पढ़ जाते हैं जिसके बारे में कभी सोचा भी न हो। शहरों से लेकर सुदूर गांवों तक के लोग अगर पढ़ने की थोड़ी-बहुत भी ख्वाहिश रखते हैं तो उन्हें किताबें सहज रूप से उपलब्ध हैं। बहुत सी किताबें इंटरनेट पर ई-बुक्स की शक्ल में उपलब्ध हैं। ऐसा नहीं है कि मैं बहुत पुराने दौर का हूं लेकिन मैंने ऊपर जिस दौर की बात की है उस समय तक अभी स्मार्टफोन्स और ई-बुक्स का चलन लोकप्रिय नहीं हुआ था खासकर, रुद्रपुर के उस इलाके में जहां मेरी पढ़ाई-लिखाई चली। बाद में इलाहाबाद आने के बाद मैंने दो महत्वपूर्ण उपन्यास देवदास और आनंदमठ ई-बुक्स के जरिए ही पढ़ी।

अब मैं पढ़ने के लिए ई-बुक्स का बेहद कम इस्तेमाल करता हूं। मुझे कागज वाली किताबें ज्यादा भाती हैं। मैं उस पर अपनी पसंदीदा लाइनों को रेखांकित कर सकता हूं। साथ ही मैं आंखों के लिए भी यह विकल्प बेहतर लगता है। मोबाइल या कंप्यूटर स्क्रीन पर आप ज्यादा देर तक नहीं पढ़ सकते। महंगाई की जद में सिर्फ सब्जियां और पेट्रोल ही नहीं आते, किताबें भी आती हैं। लगातार किताबें महंगी होती जा रही हैं। ऐसे में पाठकों की संख्या प्रभावित होना आम है। अच्छी वस्तुनिष्ठ और जानकारीपरक किताबों के लिए हम हिंदी पट्टी के लोग थोड़े-से अभावग्रस्त रहते हैं।ज्यादातर अच्छी और लोकप्रिय किताबें अंग्रेजी में लिखी हैं। उनके अनुवाद जो हिंदी में हैं या तो बेहद कठिन हैं या फिर हैं ही नहीं। ऐसे में हमारे पास पढ़ने के सीमित संसाधन हैं। लेकिन वह भी इतने हैं कि पढ़ते-पढ़ते उमर निकल ही जाए।

किताबों को देखने के लिए दो तरह की दृष्टि है। एक पाठक की और एक लेखक की। कुछ लोग पाठकीय दृष्टि से किताबें ढूंढते हैं। उन्हें अच्छी किताबें पढ़ने की तलब रहती है। दूसरा एक खेमा है जो किताबें प्रकाशित करवाने की होड़ में होता है। अच्छे कंटेंट वाले लोगों की किताबों की प्रतीक्षा रहती है लेकिन आजकल ऐसे लेखकों की संख्या तेजी से बढ़ रही है जो बेसब्र हैं। उन्हें जल्द से जल्द प्रकाशित होने की बेसब्री है। त्रासदी सिर्फ इतनी नहीं है, बेस्ट सेलर बनने की बीमारी भी तेजी से बढ़ती जा रही है। इस चक्कर में जो साहित्य सामने आ रहा है वह बेहद निराशाजनक है। किताबों को ज्ञान का सागर माना जाता रहा है। उस पर लोगों का अटूट विश्वास होता है। यही कारण है कि कितबों में उद्धृत चीजों को बहसों, संबोधनों आदि में बतौर संदर्भ इस्तेमाल किया जाता रहा है। लेकिन आधुनिक समाज में बाजारवाद इस कदर हावी है कि पाठकों की चुनौतियां बढ़ गई हैं। पूंजी देकर किताबें प्रकाशित करना हो या किताबों की पेड समीक्षा - पाठकों के लिए उपयोगी पुस्तकों के चयन की चुनौती काफी बढ़ी है।

किताबों के साथ क्या है कि गलत किताब हाथ लग जाए तो उसकी सामग्री आपके बौद्धिक वृक्ष के तनों में दीमक की तरह लग जाती है। ऐसी किताबों से खुद को बचाना भी हमारी ही जिम्मेदारी है। इसीलिए किताबों के मामले में अब हम सबको थोड़ा सतर्क रहना होगा। सोशल मीडिया जैसे स्वतंत्र अभिव्यक्ति के विकल्पों ने भारी मात्रा में लेखक पैदा किए हैं। लाइक्स और कमेंट्स की परंपरा के इन लेखकों पर फूंक-फूंक कर भरोसा करने की जरूरत है।

किताबों के बारे में काफी प्रवचन हो गया। जितनी किताबें नहीं पढ़ीं उससे ज्यादा तो प्रवचन कर दिया। खैर, यह तो मेरी किताबों को लेकर अपनी राय है। आपकी अलग हो सकती है। फिलहाल, किताबें मेरे लिए भावनात्मक लगाव का भी विषय हैं। यह उस समय साथ निभाती हैं जब आस-पास कोई नहीं होता और आपको संबल की जरूरत होती है। उस वक्त यह एक तरह से शरीर में जीवन की तरह प्रवाहित होती हैं। जैसे अनखिले गुड़हल पर पानी की दो-चार बूंदे छिड़क दें तो कुछ देर बाद वह डाली से टूटकर भी पूरी तरह से खिल जाता है। ठीक वैसा ही किरदार मेरे जीवन में किताबों का है। आप जब किताबों से जुड़ते हैं तो एक नई ही जीवनशैली में जीने लगते हैं। आपमें परिवर्तन तो आता ही है, साथ ही आप अपने आचरणों में ज्यादा स्थायी होते जाते हैं। यथार्थ में जीने लगते हैं। आत्मविश्वास से भरपूर हो जाते हैं। बेहतर अभिव्यक्ति के लिए आपमें परिपक्वता आने लगती है।

किताबें पढ़ने के लिए कोई तकनीकी नहीं होती। मेरे एक शिक्षक कहा करते हैं कि 'पढ़ना पढ़ने से आता है।' पढ़ने की यही एकमात्र तकनीकी है। आप जितना पढ़ेंगे, पढ़ाई की तकनीकियों से आप उतने ही समृद्ध होते जाएंगे। किताब दिवस पर कहने के लिए ज्ञान की कोई बहुत बड़ी बात नहीं है मेरे पास। सिवाय इसके कि पढ़िए। जो भी किताब मिले उसे पढ़िए। सिलेबस की, गैर-सिलेबस की। जो भी मिले। किताब दिवस मनाने की सार्थकता इसी में है।

Friday, 23 March 2018

दलीय राजनीति: सब हवा-हवाई है

रसूख, बाहुबल, धनबल और कपट के खेल की लगातार कमेंट्री सुन-सुनकर हम फूले नहीं समा रहे हैं। दलीय राजनीति किसी मैच की तरह नहीं लगती! जहां हर पार्टी का अपना दर्शक-वर्ग है। हर कोई मुखपत्र बन गया है, प्रवक्ता बन गया है, विश्लेषक बन गया है, उद्घोषक बन गया है। क्या राजनीति के विमर्श विधानसभाओं-राज्यसभाओं-लोकसभाओं की सीटों के सांख्यिकीय विश्लेषण के अलावा कुछ भी नहीं है? दलीय राजनीति से लोकतंत्र बहुत उम्मीद करता था। सब अब हवा-हवाई है।

किसानों की, जवानों की, छात्रों की, सामान्य नागरिकों की व्यथा कथाओं से उनके माथे पर आर्टिफिशल शिकन पड़ती है। कुछ ही दिनों में वह देश को बहा ले जाते हैं हंसी-ख़ुशी-रोमांच की नयी दुनिया में। हम भी तो अभी बच्चे हैं। कुछ दिन पहले के आंसू थम गए हैं। नया खेल जैसे ही मिला। हम छाले भूल गए। हम छल भूल गए। हम इस क़दर बच्चे हैं कि हमें हर दिन आंसू भी नए-नए चाहिए। पता नहीं, कैसे क्या किया जाए। मैं राजनीतिक विश्लेषक नहीं हूँ। टीवी पर केवल राजनीति दिखती है। शाही महल में लगे किसी सीसीटीवी कैमरे सा लगता है भारतीय मीडिया और तमाशबीन लगती है भारतीय जनता। इस जनता में बेशक उन लोगों का गिना जाना केवल भ्रम है जिनसे यह देश अथाह उम्मीद करता है।

राजनीति के नाम पर हम इतिहास-भूगोल-गणित-संस्कृत-विज्ञान एटसेट्रा एटसेट्रा सब पर बात कर लेते हैं। अगोड़ो-भगोड़ों, दल-बदलू, धोखेबाजों, बेईमानों, भ्रष्टों सब पर बात कर लेते हैं। पड़ोसी जिला, पड़ोसी राज्य, पड़ोसी देश तक पर चिल्ल पों मचा लेते हैं। हम सब करते हैं ऐसा। सीमित विकल्पों की विवशता पर हारकर बैठ जाते हैं। कि हम तो विकल्प नहीं बन सकते। क्यों! क्योंकि विकल्प बनने की हैसियत सबकी नहीं है। क्यों नहीं है! क्योंकि राजनीतिक प्रतिष्ठानों ने अपने रहनुमाओं की योग्यता की कसौटी का आधार ही बदल दिया है। तो! तो उस आधार पर हर कोई फिट नहीं बैठता। क्यों! क्योंकि हर कोई पहुंचा हुआ नहीं है। कहाँ पहुंचा हुआ नहीं है! राजनीती तक। तो राजनीति को हम तक आना चाहिए! नहीं। क्यों! वह बंधक है और लोग भ्रम में हैं कि वह उनसे दूर चली गयी है। तो!

तो, दो ही काम हो सकते हैं। व्यवस्था को चुनाव सुधार, राजनीति के चरित्र सुधार के लिए विवश करें या फिर राज्यसभा के मतों की गिनती करें और विजयी-पराजयी प्रत्याशियों के लिए हर्ष-संवेदना व्यक्त करें, विश्लेषण करें, ज्ञान बघारें, जोक टीपकर जोकर बन जाएं। चोट्टों की चोट्टई पकड़ लेना बहुत कठिन नहीं है। परीक्षा यहां से है कि चोट्टई पकड़ने के बाद का हमारा अगला कदम क्या है! पता नहीं क्या होना चाहिए! मुझे नहीं समझ इतनी। मुझे फिलहाल ऐसा लगता है कि चुनाव-उनाव मौजूदा स्वरुप में पूरी तरह से बकवास हैं। नौटंकी हैं। नौटंकी यूं कि इर्रिटेट करने लगी है। आज दिन भर राज्यसभा की सीट गिनते तमाशबीन जैसा महसूस कर रहे थे। कि परत दर परत तमाशा जारी है, खुलेआम। हम दावों पर खुश हैं और वो अपने दावों पर और पॉलिश पोत रहे हैं।

सोचिए, मेरा तो सर दर्द हो रहा। हाँ, सोचते-सोचते ही। नहीं सोच पा रहे, क्या किया जाए। मदद करेंगे क्या!

(आलेख ज्यादा लम्बा हो गया हो और आपका भी सर दर्द हो गया हो और समझ नहीं आया हो कि कहना क्या चाहते हैं तो हृदय की गहराइयों से माफ़ी मांगते हैं।)

~फेसबुक वाल से