Saturday, 31 October 2020

शरदः 'अनासक्त' सौंदर्य


अक्टूबर को लोगों ने उदास महीना कहा। हरसिंगार के फूलने के महीने को ऐसी संज्ञा देने का मन तो नहीं करता लेकिन अगर किसी की भी अनुभूति में अक्टूबर का महीना उदास है तो उसे सीधे-सीधे खारिज कर देना बड़ी क्रूरत होगी। ऐसी धारणाओं को खारिज किए बिना भी मैं यह कह सकता हूं कि अक्टूबर नवजीवन का महीना है। अक्टूबर में ही तो शरद आता है। शरद वही जिसकी पूर्णिमा में आकाश अमृत बरसाता है। शरद की चांदनी को अज्ञेय ने अंजुरी में भरकर पीने के लिए कहा है। शरद चांदनी बरसी, अंजुरी भरकर पी लो।

शरद वही है जिसके बारे में कहा गया, 'जीवेम शरदः शतम्'.. मतलब कि सौ शरद जीओ। यह नहीं कहा गया कि सौ वसंत जीओ.. वसंत के लिए कहते हैं कि जीवन के इतने बसंत बीत गए। बसंत बीतने का बोध है और शरद संभावना का। शरद और वसंत में यही अंतर है। एक शीत के आगमन की भूमिका है और दूसरा शीत के प्रस्थान की। एक के सम्मुख दीवाली है और दूसरे के सम्मुख होली। शरद श्रेष्ठ है या नहीं इसकी घोषणा नहीं की जा सकती लेकिन शरद जो है, वह कोई और नहीं है।

वैसे, अक्टूबर कोई महीना नहीं है। यह एक ऋतु है। जैसे शरद एक ऋतु है। उत्तर भारत में अक्टूबर एक फीलिंग है, अनुभूति है। कुहरे और धुंध से भरा आसमान और उसकी अद्भुत गंध। वातावरण में लगातार घुलती जाती नीरवता। बरसात की उमस भरी गर्मी से राहत देते सबको भाती है लेकिन इसी में जब हरसिंगार फूलने लगते हैं तो भावनात्मक जमीन पर जीने वाले लोगों के हृदय भी खिल उठते हैं। इसी में धान काटा जाता है। नई फसल घर आती है। किसान परिवार में इसके बाद उदासी नहीं होती। इसके बाद वहां जीवन फूलने लगता है।

मानस में शरद के श्वेत प्राधान्य को राम ने अलग ही उपमा दी है। सुग्रीव को किष्किंधा का राजा बनाने के बाद राम लखन के साथ वर्षाकाल बीतने का इंतज़ार करने चले जाते हैं। प्लान है कि वर्षा बीतते ही सुग्रीव की बानर सेना सीता की खोज में फैल जाएगी। सीता से मिलन की प्रतीक्षा में राम को वर्षाकाल एक पूरा जीवन की तरह दिखने लगता है। इसीलिए ही जब शरद आता है तो लखन से कहते हैं, 'जनु बरखा कृत प्रगट बुढ़ाई।' कास ऐसे फूल गए हैं कि लगता है वर्षा ऋतु ने अपना बुढ़ापा प्रगट कर लिया है। अब एक उम्र की तरह खड़ी प्रतीक्षा का अवसान होने वाला है। ऐसा शरद राम के लिए भी तो विशेष है, कि इसमें सीता से मिलन का संयोग बनने वाला है।

अक्टूबर डैन के उस एक सवाल की तलाश की तरह भी है कि शिउली ने उसके बारे में यह क्यों पूछा कि 'वेयर इज़ डैन?' यह सवाल जिसमें पता नहीं कोई हल्की-सी खुशी है या एक विराट दुख और उदासी। यह शिउली के जीवन की तरह कभी तो खाली-खाली सा और क्षणभंगुर लगता है लेकिन डैन के सवाल की बेचैन उदासी भी इसी मौसम में महसूस होती-सी है। 

अक्टूबर हरसिंगार की ऋतु है, जो रात में फूलता है। रात और फूलने का सम्बंध अपने आप में एक रूहानी संयोग है। संसार के नियमों के विपरीत। रात तो विश्राम का पहर है। इसमें नवीन आरम्भ अपने-आप में एक विरोधाभासी मेल है। अंधेरे की सभा में शेफालिका के श्वेत फूल न सिर्फ खिलते हैं बल्कि महकते भी हैं और जीवन से ऐसी अनासक्ति की मुरझा जाने तक पौधों से लिप्त रहने की कोई इच्छा नहीं रखते। डाली से टूटते हैं और अपने ही वृक्ष की छाया से दूर जाकर बिखर जाते हैं। अक्टूबर सौंदर्य के इस अनासक्त भाव के लिए भी तो विशेष है।

(शिउली और डैन शुजीत सरकार की बहुचर्चित फ़िल्म 'अक्टूबर' के किरदार हैं)

Friday, 14 August 2020

जन-गण-मन की आज़ादी


आज़ादी इज़ आल अबाउट आप कितना मनुष्य रह पाते हैं। मनुष्य रह पाने का मतलब यह कि मनुष्यता के आकाश में कितना उड़ पा रहे हैं। कहीं आपके पर तो नहीं कुतरे जा रहे है। पिंजरा धीरे-धीरे छोटा तो नहीं होता जा रहा है। पंखों की करवट भर की जगह से निश्चिंत हो जाने वाले लोग एक दिन अपनी स्वतंत्रता खो ही देते हैं। हमसे कहा जाता है कि हमने गुलामी देखी नहीं, सो स्वतंत्रता की कीमत भी क्या जान पाएंगे। स्वतंत्रता एक ऐसी चीज़ है, जिसकी कीमत महसूस करने के लिए ग़ुलामी ही की ज़रूरत नहीं। यह जन्मसिद्ध मानवीय अधिकार है। सो इसमें जब भी कतरब्योंत होगी, हम वैसे ही महसूस करने लगेंगे, जैसे सांस कम होने पर घुटन महसूस करने लगते हैं। अगर हम परिस्थितियों से समझौता न करें तो स्वतंत्रता की लड़ाई हमे हर पल लड़नी पड़े।

हर क्षण आज़ादी का संग्राम है। पराधीनता धीरे-धीरे ही आती है। ऐसी प्रक्रिया में अस्वतंत्रता की परिस्थिति बनती है। भ्रम बनाने वाले कई पहलू हैं। भौगोलिक रूप से हम संप्रभु हैं। सांस्कृतिक रूप से पहले से ज्यादा स्वतंत्र तो हैं ही। सामाजिक रूप से भी कथित स्वतंत्रता है। आर्थिक आज़ादी भी कही ही जाती है। पारिवारिक स्तर भी स्वतंत्रता की बात अब जोर पकड़ रही है। यह सब कहने की बाते हैं। इसको ऐसे देखें कि भौगोलिक स्वतंत्रता माने भूगोल से हम बंधे हुए रहने को आज़ाद हैं। सांस्कृतिक स्वतंत्रता भी अराजक तरीके से परतंत्रता का एक हंटर लिए दिखती है। स्वतंत्रता तो स्वतन्त्रताओं को बढ़ावा देने की प्रवृत्ति है। जिस आज़ादी की मनः-योजनाओं में औपनिवेशिक गुणधर्म हों, वह कैसी आज़ादी? वह तो पराधीनता का ही एक अन्य रूप है।

सामाजिक आज़ादी का तो कहना ही क्या! यहां एक श्रृंखला है ग़ुलामों की। समाज के विभाजन में कैसा विषम विभाजन है, यह किसी से क्या छिपा है। जातीय श्रेष्ठता का बोध अलग-अलग स्तरों पर साम्राज्यवादी सोच का आश्रयस्थल बना हुआ है। ऐसे में कोई स्वतंत्रता का पक्षधर कैसे हो सकता है। क्या आज़ाद होना आज़ादी की पक्षधरता से भी आज़ादी है। आर्थिक स्वतंत्रता का तो न ही पूछिये। अर्थ एक नए किस्म का साम्राज्य है और हम सब तेजी से इसके उपनिवेश बनते जा रहे हैं। यह सारे संसार की कहानी है। यह केवल हिंदुस्तान की बात ही नहीं। वर्ग का अंतराल खाई में बदलता चला जा रहा है। हमारी स्वतंत्रता के बरअक्स एक और बड़ी भव्य स्वतंत्रता है। यह भव्य स्वतन्त्रता हमें एक अलग तरह की ग़ुलामी की ओर धकेलती है। उधर आज़ादी नहीं होती।

इस माहौल में.. लगातार नीरस बनते मानव जीवन में जहां कथित अच्छे-अच्छों की जीवन प्रत्याशाएँ सबसे लड़ाकू उम्र में दम तोड़ दे रही हैं, स्वतन्त्रता पर बात करना ज़रूरी है। स्वतंत्रता वह नहीं जिसमें 'यह देश है वीर जवानों का' का मिथ्या अभिमान और कर्कश नाद हो बल्कि स्वतंत्रता वह जिसमें जीवन का आकाश थोड़ा और खुले। स्वछंद हवाओं से पाला पड़े। दिशाओं का विस्तार अनन्त हो और वह दिखे। क्योंकि स्वतंत्रता कभी किसी देश से सम्बंधित नहीं होती। स्वतंत्रता कभी भी संसार के मूल तत्वों का मौलिक विषय है। यह जीवन से जुड़ा है। जन-गण-मन से जुड़ा है। अधिनायक से नहीं। 

एक और 15 अगस्त मुबारक!

Thursday, 21 May 2020

राज-अभिनेता और उनके सड़ालू समीक्षक

ठीक है कि भारतीय राजनीति उद्योग में अच्छे ऐक्टर नहीं पाए जाते लेकिन इसमें सारा दोष उन्हीं का नहीं है। बात जब मूल्यांकन की आएगी तो समीक्षा की ज़रूरत होगी। समीक्षा के लिए समीक्षक चाहिए होंगे। उस पर भी समीक्षक का टेस्ट उच्चकोटि का होना चाहिए होगा। हमारे यहां अभिनेता स्वाद की जिस कसौटी पर महानायक ठहरा दिए जाते हैं उसे देखकर तमाम अंतरराष्ट्रीय नेता अपने समीक्षकों की उन्नत स्वादप्रियता को कोस सकते हैं और हमारे राज-अभिनेताओं के भाग्य से ईर्ष्या भी कर सकते हैं। 

अब सवाल बड़ा यह है कि भारतीय राजनीति उद्योग में ऐसे घटिया राज-अभिनेताओं के लिए समीक्षक की वाहियातता ज्यादा जिम्मेदार है या राज अभिनेताओं का घटिया अभिनय? वैसे हैं तो दोनों एक दूसरे के पूरक। पहले अंडा या मुर्गी के तर्ज़ पर यह सवाल भी अनुत्तरेय ही रहेगा कि समीक्षक पहले घटिया टेस्ट वाले हुए या राज-अभिनेताओं की सड़ी-गली ऐक्टिंग देख-देखकर उनकी स्वाद की कसौटी निम्नकोटि की हो गई। क्या है कि दोनों की पारस्परिक अन्तरविभागीय प्रतिद्वंदिता ऐसी सघन है कि वर्गीकरण अत्यंत मुश्किल है।

ऐसा है कि राज-ऐक्टरों की ऐक्टिंग को थोड़ा बहुत पचाया जा सकता है लेकिन उस पर हमेशा लहालोट रहने का अर्थ है कि मामला कुछ ज्यादा ही सड़ा हुआ है। ऐसे में सुधी और स्वस्थ जन आंख भले खुली रखें लेकिन नाक पर ज़रूर मास्क लगा लें क्योंकि भला-बुरा देखते रहने से मोतियाबिंद होने की संभावना पर प्रभाव तो नही पड़ता लेकिन कुछ ऐसा-वैसा सड़ा-गला सूंघ लिया तो जानलेवा स्तर पर बीमार ज़रूर हो जाएंगे। या हो सकता है कि सड़ालू (श्रद्धालु नहीं) लोगों के सम्पर्क में रहते रहते आपके अपने आम सड़ालू हो जाएं। आप भी जब अपनी कसौटी परखें तो वह अपने आप में अलग तरीके का वाहियातपन दिखाने लगे। 

कहना ये है कि तमाम संकटों के बीच अपनी शुद्धता और अ-सड़ालुता को बचाकर रखना एक अलग तरह की अनिवार्य चुनौती है। इसलिए भी कि जब कभी वक़्त आए तो कम से कम किसी की तो स्वादग्रंथि ऐसी हो जो यह परीक्षण कर सके कि भारतीय राजनीति उद्योग में अभिनेताओं की ऐक्टिंग आला दर्जे की सड़ी हुई है और उसके समीक्षकों की बुद्धि तो स्वयं दुर्गन्धमादन पर्वत है। 

अच्छा.. अब किसको-किसको ऐसा लगता है कि भारत में राजनीति एक उद्योग नहीं है और इस उद्योग में राज अभिनेता नहीं हैं और ये राज अभिनेता ऐक्टिंग नहीं करते और ये ऐक्टिंग घटिया किस्म की घटिया नहीं होती और उससे भी घटिया मानकों पर समीक्षित नहीं होती?? अगर आपको ऐसा लगता है तो आप निर्मल बाबा(-माई) के स्तर के दिव्य दृष्टि वाले अति आशावादी प्राणी और भावुक हैं और कोई समस्या नहीं है।

Wednesday, 22 April 2020

पुत्रोऽहं पृथिव्या


कोरोना वायरस को लेकर लागू लॉकडाउन को एक महीना होने वाला है। लोग घरों के अंदर कैद हैं और दुनिया की तमाम औद्योगिक, सार्वजनिक धार्मिक-सामाजिक गतिविधियां स्थगित हैं। इस बीच पर्यावरण के गलियारों से सुकूनदेह खबरें आ रही हैं। दिल्ली जैसे अति प्रदूषित शहर की हवाओं की स्वच्छता ने पर्यावरण के पक्ष में लड़ने वालों के लिए अपनी दलीलों में बढ़ाने लायक एक महत्वपूर्ण आधार सौंप दिया है।

सिर्फ दिल्ली ही क्यों, दुनिया के बड़े शहरों में भी सार्वजनिक यातायात, सड़कों पर दौड़ने वाली धुंए भरी गाड़ियों की अनुपस्थिति से जो वातावरण वापस लौटा है, उसे दखने के बाद लोगों से पर्यावरण को लेकर गंभीरता दिखाने जैसी आशा की जा सकती है। भारत में जैसी खबर सामने आई, उसमें गंगा-यमुना जैसी नदियों के पानी में काफी समय बाद निर्मलता के दर्शन हुए। फैक्ट्रियों के बंद होने के अलावा, नदियों में धार्मिक या अन्य स्नान के बंद होने को भी इसकी वजह माना जा रहा है। वहीं, सड़क पर न के बराबर दौड़ती गाड़ियों से हवा ऐसी स्वच्छ हुई कि पंछियो का कलरव बढ़ गया।

मिट्टी की सूरत बदली
दिल्ली जैसे शहर में रात में तारों के दर्शन किए गए और कई ऐसी चिड़ियां की चहचहाहट सुनी गई जो काफी समय से दिल्ली का रास्ता भूल चुकी थीं। पॉलिथीन का इस्तेमाल कम होने के बाद से मिट्टी की सूरत और सीरत भी बेहद कम मात्रा में ही सही पर बदली है।

यह वातावरण में बहुत मामूली बदलाव के बाद का नजारा है। हम प्राकृतिक वातावरण के अतिक्रमण में किस स्तर तक पहुंच गए थे, लॉकडाउन में बैठे-बैठे इसका अंदाजा लगा सकते हैं। यह एक दर्शन है, जिसे समझकर हम अपने भविष्य के बारे में कुछ अहम फैसले ले सकते हैं। हम यह भी सोच सकते हैं कि हर साल मानव सभ्यता को चुनौती देती इन आपदाओं का क्या संकेत है और यह हमसे क्या कहना चाहती हैं?



प्राकृतिक रिमाइंडर
अगर कह लें कि ताजी आपदा कोविड-19 एक प्राकृतिक रिमाइंडर है जो हमें याद दिलाने की कोशिश कर रहा है कि कैसी धरती तुम्हें सौंपी गई थी और तुमने उसका क्या हाल कर दिया तो इसमें कुछ भी गलत नहीं है। यह एक बड़ी कीमत है, जिसके जवाब में कई दशकों का सबसे स्वच्छ वातावरण हमारे सामने है। हम एक साथ स्याह और श्वेत दोनों के गवाह हैं। एक ओर कोरोना से मानवजाति भयभीत है तो वहीं मानवीय हस्तक्षेप की अनुपस्थिति से प्रकृति के अन्य अवयव आनंद मना रहे हैं। किसी का दुख दूसरे का आनंद तभी बनता है जब दोनों के बीच एक प्रतिकूल रिश्ता हो। शत्रुता भी कह सकते हैं। सोचिए.. हमारे कथित विकास की कोशिशों ने धरती के अपने ही सहचरों को शत्रु क्यों बना लिया?



शायद इसलिए, क्योंकि हमने समावेशी विकास का विकल्प नहीं चुना। हमने विकास के उपभोक्ताओं में केवल मनुष्यों को रखा। बाकी जंतुओं को हम एडजस्ट करते रहे। उनका इस्तेमाल करते रहे। नदी, पहाड़, जंगल जैसे तुरंत प्रतिक्रिया नहीं देने वाले अवयवों के साथ हमने एकतरफा युद्ध तो छेड़ा ही, इसके अलावा जो तत्काल प्रतिक्रिया देने की क्षमता रखते हैं ऐसे प्राणियों पर हमने अपनी शक्तियों का दुरुपयोग किया है। उन्हें नियंत्रित किया, कैद किया। उनका इस्तेमाल अपने हिसाब से किया और उनकी हत्या भी की है। समझदार और समर्थ होते मनुष्यों में उदारता होनी चाहिए। उनका हृदय बड़ा होना चाहिए। उनमें करुणा होनी चाहिए। उन्हें स्वयंभू ईश्वर नहीं हो जाना चाहिए। विनाश का तांडव नहीं करना चाहिए। उन्हें संहारक या विध्वंसक नहीं, समायोजक, संरक्षक और सर्जक होना चाहिए।

लेकिन हमने किया क्या? विकास को उद्देश्य बनाकर किए गए अभी तक के अपने प्रयासों में हमने एक प्राकृतिक विश्व पर कृत्रिम विश्व का आवरण चढ़ाने की कोशिश की है। आशय यह कि प्रकृति जो हमसे पहले से वर्तमान है और जो हमारे बाद भी रहेगी, उस पर विजय प्राप्त कर लें। जहां, चीजें अपने हिसाब से होंगी और मूल रूप से कुछ ज्यादा भयावह किस्म की बेहतर होंगी। विकास और सुविधाओं के बारे में सोचना पूर्णतः ग़लत नहीं है लेकिन यह भी तो ध्यान रखा जाना चाहिए था कि मानवीय नियंत्रण प्राकृतिक नियंत्रण के साथ तादात्म्य बिठा पाए।



प्रकृति का संचालन
मानव के नियंत्रण की चीजों में इक्वलिटी को लेकर हमेशा से सन्देह रहा है। इसमें हम अपना स्वार्थ और अपना पूर्वाग्रह नहीं छोड़ सकते। वहीं प्रकृति एक सिस्टम है। वहां कोई मालिक नहीं है जो 'बादशाह' कि तरह चीजों के संचालन में हस्तक्षेप कर रहा हो। प्रकृति का स्वार्थ उसके वैविध्य के हित में निहित है। वह सहअस्तित्व के सिद्धांत से चलती आई है। जिसमें सबकी सत्ता महत्वपूर्ण है। जिसमें सबका ध्यान रखना होता है। मर्यादित तरीके से चीजों के उपभोग का अलिखित नियम है लेकिन हम तो लिखे हुए को पढ़ना नहीं चाहते तो अलिखित चीजों पर क्या ही ध्यान देंगे।



मर्यादाओं की सीमाएं लांघना ही मानवों की दुर्दशा का कारण बनता जा रहा है। हम जिस वैश्विक संकट के बीच इस साल पृथ्वी दिवस से साक्षात्कार कर रहे हैं, वह शायद प्रकृति प्रदत्त एक अवसर है। जिसमें हम तमाम सम्भावित खतरों के एक सैंपल को भी महसूस कर रहे हैं। इसके साथ अगर हम पृथ्वी के लिए कोई फैसला लेंगे तो शायद कुछ बेहतर घट सके। प्यास के संकट में फंसा अगर जलनीति तय करे तो वह कभी नदियों, तालाबों और झरनों को लेकर क्रूर नहीं हो पाएगा। पृथ्वी हमारा घर है। पृथ्वी के समस्त जीवित-अजीवित अवयव हमारे परिवार का हिस्सा हैं। हम इसके साथ जो भी बर्ताव करेंगे, उससे परिवार का हर सदस्य प्रभावित होगा।

सर्वयोग्या वसुंधरा
इस परिवार में हम एक सशक्त, बुद्धिमान और सक्षम सदस्य के रूप में जाने जाते हैं। हम परिवार में ज्येष्ठ भी नहीं हैं। बस कुछ भी कर पाने की क्षमता से संपन्न हैं और तमाम आयामों में निरंतर विकासशील हैं। ऐसे में उन्नति की प्रक्रिया में हमें अपनी उन आदिम आदतों को छोड़कर आगे बढ़ना होगा जहां 'वीरभोग्या वसुंधरा' जैसी उक्तियों की महत्ता है। पृथ्वी पर जीवन के सुचारू संचालन के लिए यह ज़रूरी है। इसके लिए अब 'सर्वयोग्या वसुंधरा' के दृष्टिकोण पर काम करना होगा। ऐसी वसुंधरा जो सबके योग्य हो। भोग की मानसिकता से बाहर निकलते हुए योग की ओर जाना होगा।



जिनको हमने परिवार से तकरीबन निष्कासित किया है, उन्हें परिवार से योगने (जोड़ने) के अभियान पर काम करना होगा। सबके योग्य और सबक भोग्य वसुंधरा बनानी होगी। यह हमारी जिम्मेदारी है, जिसे स्वतः संज्ञान लेना होगा। यहीं से असत् से सत् का मार्ग मिलेगा। मृत्यु से अमृत की राह दिखेगी। यह पृथ्वी हमारी माता है और हम उसके पुत्र हैं। (माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः) .. पृथ्वी हमें (मानवजाति को) चिरंजीव होने का आशीर्वाद दे उसके लिए ज़रूरी है कि हम उसे प्रसन्न रखें। कैसे? लॉकडाउन में बैठकर कुछ दिन यही सोच लीजिए।

(सभी तस्वीरें natgeotravel से)

Sunday, 8 March 2020

जैसे मरना ननिहाल जाना हो

यह अपने आप में कितना अविश्वसनीय है कि घर जाने पर माई नहीं मिलेंगी। वह नहीं होंगी। जितनी बार यह सोचता हूँ, उतनी बार अपने आपको दुनिया में थोड़ा और व्यर्थ पाता हूँ। इसलिए नहीं कि वही सब कुछ थीं इसलिए कि अपनी जो कुछ भी कीमत है सब उनकी स्नेहिल आँखों से ही प्रत्यावर्तित होती थी। उनकी दृष्टि में ही अपना सब द्रव्यमान था। उनके प्यार के गुरुत्वाकर्षण में ही अपना समस्त भार था। वह अब नहीं हैं और इसलिए यह व्यर्थता-बोध अगर आता है तो मैं इसे रोकना नहीं चाहता। चाहे मेरा जो भी अर्थ हो लेकिन माई की अनुपस्थिति से जो खास अर्थ दिवंगत हो गया है, लुप्त हो गया है, रिक्त हो गया है, उसे पुनर्स्थापित करना, भर पाना या प्राप्त करना भी अब वैसे ही असम्भव है जैसे दादी का वापस लौट आना।

अब 4 महीने से ज्यादा हो गए। जब वह घर पर होतीं तो उनसे कई बार फोन पर बात होती थी। कम ही बार क्योंकि उन्हें आवाज कम सुनाई देने लगी थी। वह बहुत अस्पष्ट होती थी। वैसे ही जैसे आँखें बूढ़ी हो जाएं तो सामने रखी चीज भी धुंधली दिखाई देती है। दादी को फोन पर धुंधली आवाजें सुनाई देती थीं। इसलिए हम उनसे कम ही बात कर पाते थे। बात करते हुए भी वह सवाल कम सुनने की कोशिश करतीं। श्रवणशक्ति साथ नहीं देती इसलिए वह खुद ही बिना पूछे सब हाल बता जातीं। आखिरी बार उनके निधन से 4 दिन पहले उनसे बात हुई, तब भी मैं ज्यादा कुछ नहीं बोल पाया था। माँ ने फोन लगाया था और जब उन्होंने तकरीबन रोते हुए माई से बात करने के लिए कहा तब मैं जैसे अचेत हो गया था। अभी दीवाली की छुट्टी से लौटा हूँ। अभी तो सब ठीक था।

माई से बात हुई तो उन्होंने हाल-चाल पूछे बिना ही कहा, 'बोखार उतरत नाई बा (बुखार नहीं उतर रहा है)। मैं रो पड़ा। 'क्या अब प्रस्थान का समय है?' मैंने मन में सोचा और फिर बड़ी देर तक मेरी सारी चेतना सिर्फ उस महिला पर केंद्रित हो गई, जिसका जीवन बहुत साधारण रहा लेकिन वह किसी असाधारण स्त्री की तरह अपने आत्मसम्मान और उजले हृदय के प्रकाश के विकिरण से अपनी अद्वितीयता और महानता की मौन घोषणा बनी रही। जिसने हमें अपार स्नेह दिया। शुद्ध-निश्छल प्यार। अपने जीवन के समस्त लक्ष्य-किरणों को समवेत कर प्रेम पर केंद्रित कर दिया और हम निरन्तर उससे जीवन पाते रहे।

माई से बुआ फोन पर नियमित बात करती थीं। हर छोटे-बड़े मसलों पर वह उनकी सलाहकार जैसी थीं। मुझे कई बार दोनों मां-बेटी से ज्यादा एक-दूसरे की सखियाँ लगीं। दादी से रोज बात करना बुआ की दिनचर्या का हिस्सा जैसा भी हो गया था। जैसे वह हर रोज सांस, भोजन और पानी की तरह अपनी माँ की आवाज से जीवन पाती हों। उनके भी जीवन का एक हिस्सा विदा हो गया। मुझे नहीं पता कि उनके जीवन की इस रिक्ति को अब वह कैसे संभाल रही होंगी।

दुनिया को लगता है कि बहुत वजन वाली चीजों का भार ढोना ही मुश्किल होता है। यह वही कह सकता है या कहता है जिसने रिक्तियों का भार नहीं झेला है। सबके जीवन में खालीपन होना अनिवार्य भी तो नहीं है। कुछ लोग ऐसे खालीपन के लिए तैयार रहते हैं। वह इसकी जगह पहले से ही भरना शुरू कर देते हैं। इससे मूल चीजें विस्थापित होने लगती हैं। दादी को हम सब कभी-कहीं विस्थापित नहीं कर पाए। वह वैसे ही बनी रहीं। अपने वात्सल्य के बूते। अपने प्रेम के सहारे हमेशा अपने हिस्से की जगह पर किसी मजबूत किले की तरह खड़ी रहीं। हम उन्हें कभी वहां से हटा नहीं पाए। घर में जाते ही दृष्टि जिसे सबसे पहले ढूंढती थी, वह दादी होतीं। वह न दिखें तो लगता था कि अभी घर नहीं पहुंचे। अभी घर में प्रविष्ट नहीं हुए। या अभी घर की सुगंध नहीं आई। कई बार घर गए तो पता लगा कि वह हाता में हैं। या फूलों की क्यारियों की सफाई में लगी हैं।

दो चीजें उन्हें खूब पसंद थीं। एक साफ-सफाई रखना, कुछ न कुछ करते रहता और दूसरा पौराणिक-धार्मिक किताबें पढ़ना। यह दोनों चीजें उनका अकेलापन दूर करती थीं। उनके नाती-नातिनियों के 'वनवास' के बाद। हम सबके घर से बाहर (इलाहाबाद, दिल्ली, लखनऊ) प्रवास को वह वनवास ही कहती थीं।

इधर कुछ सालों से उनकी आवाज अपनी लय में अनिरन्तरता लिए हुए थी। आशीर्वाद देतीं तो आवाज कांप रहे होते थे। कुछ शब्द ध्वनियों के साथ बाहर नहीं आते थे। वह कहीं गुम हो जाते लेकिन उनका सम्पूर्ण वैभव जस का तस रहता। वह कहीं गुम होने की हिम्मत नहीं करता।

दादी जब कहानियां सुनातीं, तब वह दुनिया की सर्वश्रेष्ठ वक्ता होती थीं। दादी से हमने परियों की कहानियां नहीं सुनीं। पुराणों की कहानियां सुनी हैं। गर्मी की लंबी छुट्टियों में हम घर जाते थे। इस दौरान सारा परिवार छत पर सोता था। तुलसी जी के पौधे के इर्द-गिर्द एक छोटे से परिसर में दादी के देवताओं की छोटी-छोटी प्रतिमाएं थीं। वह रोज सुबह वहीं बैठकर पूजा करतीं और माला फेरती थीं।

रात के वक़्त उसी के नजदीक उनका बिस्तर लगता था। हम सभी उसी केंद्र के चारों ओर जगह बनाते। फिर कई तरह की पौराणिक कथाएं शुरू होती थीं। ये कथाएं मूलतः संस्कृत में लिखी गई हैं। गीताप्रेस ने इन्हें हिंदी में अनुवाद कराया है। ज्यादातर बुज़ुर्ग पाठकों को ध्यान में रखते हुए इनके अक्षरों को अपेक्षाकृत बड़ा रखा गया है। दादी इन्हीं किताबों से हिंदी में कहानियां पढ़ती थीं लेकिन जब इसे हमे सुनाना होता था, तब वह इसका भोजपुरी में अनुवाद कर लेती थीं। कई ऐसे शब्द, जिन्हें पढ़कर हम कभी न समझ पाते, वह उसे आसान शब्दों के इस्तेमाल से सरल बना देतीं। कहानी से कहानी निकलती। वह कुछ भी अपने पास नहीं रखना चाहतीं। सब दे देना चाहतीं थीं, जो कुछ भी उन्होंने जाना-समझा है। यह सम्पूर्ण क्रिया जब सम्पन्न हो जाती, तब उनके चेहरे पर एक अद्भुत चमक होती थी। एक अद्भुत मुस्कान, जो विकसित होकर एक लघु हंसी में परिणत हो जाती थी। फिर उनके कृष्ण-श्वेत दांत दीखते, जिनका यह स्वरूप उनकी सुर्ती खाने की आदत से बन गया था।

सुर्ती वाली बात
दादी के पास हमेशा पॉलिथीन की एक पोटली होती थी। इसमें सुर्ती और एक चुनौटी होती थी। वह इसे कई बार कहीं रखकर भूल जातीं। फिर इधर-उधर ढूंढती। याद करने की कोशिश करतीं कि कहां बैठी थीं, और कहां-कहां गई थीं। तलाशने की मुद्रा में उन्हें देखते ही हम समझ जाते कि वह सुर्ती ढूंढ रही हैं। फिर हम भी लग जाते। अक्सर वह उनके आसपास ही कहीं होती थी लेकिन उनकी नजर उस पर नहीं पड़ती थी। ऐसे में जब हम उसे ढूंढकर उन्हें देते तो फिर उनके चेहरे पर वही मोहक मुस्कान तैर जाती जो थोड़ा सा आगे बढ़कर छोटी-सी खिलखिलाहट में तब्दील हो जाती थी। अब जब मैं यह लिख रहा हूँ, तब मेरी पूरी चेतना में वह मुस्कान और हंसी गूंज रही है लेकिन अब थोड़ा सा अंतर है। उसमें से अब आनन्द नदारद है। ऐसा लग रहा है कि यह हंसी आगे बढ़कर रुदन में बदल जाने वाली है। आखिर, दादी भी तो अपनी हंसी की इस असंभाव्यता पर शोक मना रही होंगी।

मुझे पता नहीं क्यों ऐसा ही लगता है कि वह जहां हैं खुश नहीं हैं। वह अपनी नई दुनिया के निजामों से वापस लौटने की ज़िद कर रही हैं। वह अपने नाती-नातिनियों की दुहाई दे रही हैं कि हम सब दुखी हैं उनकी अनुपस्थिति से इसलिए उन्हें वापस जाने दिया जाए। काश कि उनके ईश्वर का दिल पसीज जाता। वह उन्हें वापस लौटा देता। मैं इसीलिए भी अपना शोक और अपना दुःख कम नहीं होने देना चाहता कि और कुछ न सही, कम से कम उनके देवताओं को अपने इस नियम का अपराधबोध तो हो। मेरी पीड़ा उन्हें अपराधी बनाती रहे जो दुनिया में लोगों के जीवन-मरण और सुख-दुःख के ठेकेदार बने बैठे हैं। मैं जानता हूँ कि वह उस बुजुर्ग स्त्री को दोबारा हमारे पास नहीं भेजने वाले। मैं 'समझदार' भी तो हूँ। यह जानते हुए कि कोई वहां से वापस नहीं आता, मुझे शोक नहीं करना चाहिए लेकिन इतना कठोर हमसे नहीं हुआ जाता। यह उसीके वश की बात थी। माई के बस की बात थी। जिसकी तकलीफ देखकर जब सब लोग दुखी थे, रो रहे थे, तब वह खुद उन्हें दिलासा दे रही थी और डांटते हुए कह रही थी, "भक्क, मरही के न बा (भक्क, मरना ही तो है)।" जैसे मरना ननिहाल जाना हो।

Thursday, 5 March 2020

नदीम अनवर की कविताः दंगे

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दंगों में सबसे ज्यादा खतरनाक क्या होता है?
दुकानों का लुट जाना, जल जाना?
या घरों का लुट जाना, जल जाना?
या बाजारों, गलियों, मोहल्लों की रौनक तबाह हो जाना?
क्या होता है सबसे ज्यादा खतरनाक?

इनमें से कौन सी भीड़ सबसे ज्यादा खतरनाक होती है?
नारा-ए-तकबीर का कौल देने वाली,
या फिर जय श्री राम का उदघोष करने वाली?
टोपी-तलवार वाली या फिर तिलक-त्रिशूल वाली?
किस भीड़ का शोर दहला देता है दिलों को सबसे ज्यादा?
क्या होता है सबसे ज्यादा खतरनाक?

इनमें से क्या होता है सबसे ज्यादा खतरनाक?
ईंट, पत्थर, दियासलाई, बंदूक से निकलने वाली गोली,
नंगी तलवार, चाकू, तेज़ाब, रॉड, लाठी, डंडा या फिर बेसबॉल-क्रिकेट का बल्ला?
दंगे में किसी को मारने के लिए कौन सा हथियार सबसे कारगर होता है?
क्या होता है सबसे ज्यादा खतरनाक?

क्या होता है सबसे ज्यादा खतरनाक?
मंदिर में रखी मूर्तियों को खंडित करना,
या मस्जिद की मीनार पर भगवा ध्वज लहरा देना?
मस्जिद या मंदिर... कहां लगी आग की लपटें सबसे ज्यादा डरावनी दिखती हैं?
क्या होता है सबसे ज्यादा खतरनाक?

कौन सी मौत पैदा करती है दिलों में सबसे ज्यादा खौफ़?
चाकुओं से गोदकर, पत्थरों से कुचलकर या लाठी-डंडों से पीटकर?
गोली मारकर या फिर जिंदा जलाकर?
क्या दंगे में गला दबाकर भी मारा जा सकता है किसी को?
दंगाइयों के लिए मारने का बर्बर से बर्बर और पसंदीदा तरीका कौन सा है?
क्या होता है सबसे ज्यादा खतरनाक?

खौफनाक मंजर कौन सा होता है?
आग की लपटों के बढ़ते कद के बीच जलते लोग या गरदनों से निकले गरम खून के फ़व्वारे?
या गंदे नालों में बहती लाशें जब काले-गंदे पानी को कर देती हैं लाल और बढ़ा देती है बदबू?
क्या है सबसे ज्यादा खौफ़नाक?

लाठी-डंडों से मार दिए गए आदमी की लाश पर डंडे बरसाते रहना,
या चाकुओं से गोदकर जिस्म में इतने सुराख़ कर देना कि गिनना मुश्किल हो जाए?
पत्थर मार-मारकर किसी का सिर कुचल देना या पेट से अंतड़ियां बाहर खींच लेना?
क्या होता है सबसे ज्यादा खतरनाक?

पता है दंगे में सबसे ज्यादा खतरनाक क्या होता है?
सबसे ज्यादा खतरनाक होता है नफ़रत की आग में आने वाली नस्लों का झुलस जाना, जब दो कौम के लोगों के बीच खिंच जाती है लकीर.

जान बचाकर भागे लोगों का मोहल्लों में वापस नहीं लौटना और अपनों को खो देने वालों का बदले की आग में जलते रहना.

जब डर दिल में इतना गहरा उतर आए कि मोहल्ले में खेलते बच्चों का मचाया शोर, उठा दे दिमाग में सवाल कि कहीं फसाद शुरू तो नहीं हो गया?

जब चाय के खोखे पर लोग हंसी-ठिठोली भूलकर दूसरी कौम को देने लगे गालियां, वही होता है सबसे ज्यादा खतरनाक.

जब मोहल्लों में जोर आज़माइश, छिटपुट बदमाशी करने वाले लौंडे, बंद कर देते हैं अपनी शरारतें इस डर में कि कहीं ये दंगे में न बदल जाए, वह डर सबसे ज्यादा खतरनाक होता है.   

जब दिमाग में इस कदर डर बैठ जाए कि दो मजहब के लोगों के बीच हुई बाइक की टक्कर से भी दंगा भड़क सकता है, वही डर होता है सबसे ज्यादा खतरनाक.

दंगों की खबरों के बीच जब रात को सोते हुए गली में हुई चोरी की आहट सुनकर डर जाएं लोग और सोंचे कहीं दंगाई मोहल्ले में दाखिल तो नहीं हो गए, वह डर होता है सबसे ज्यादा खतरनाक.

हिंदुओं का हिंदू बस्तियों और मुसलमानों को मुसलमान बस्तियों में ही रहने का ख्याल आना, भरोसा नहीं कर पाना, शक करते रहना बहुत खतरनाक होता है.

जिसने दंगे में खो दिया किसी अपने को उसका आने वाले वक्त में किसी दंगे में दंगाई बन जाना होता है सबसे ज्यादा खतरनाक.

और जब दंगे में मारे गए दूसरी कौम के लोगों की मौत पर मातम की जगह हम महसूस करने लगते हैं गर्व, वो होता है सबसे ज्यादा खतरनाक.

दंगा तो कुछ दिन, कुछ घंटे, कुछ मिनट चलता है लेकिन असर आने वाली कई नस्लों तक रहता है, यही होता है सबसे ज्यादा खतरनाक.

तो बोल कफ़्फ़ारा क्या होगा? क्या होगा इसका प्रायश्चित ?

लेकिन नाउम्मीदी कुफ्र है...

इन्हीं दंगों में से निकलकर सामने आ जाती हैं कई कहानियां जिनसे बंध जाती है जीने की उम्मीद. उम्मीद की नहीं... अभी सब कुछ खत्म नहीं हुआ है.

उम्मीद कायम रहती है... जब पगड़ी के लिए जान दे देने वाला सरदार जिंदर सिंह सिद्धू, अपनी पगड़ी को एक मुसलमान के सिर की दस्तार बना देता है.

उम्मीद कायम रहती है... जब कोई संजीव कुमार किसी मुजीबुर रहमान की जान बचाने के लिए उसे अपने घर में पनाह दे देता है.

उम्मीद कायम रहती है... जब चांदबाग के मुसलमान नौजवान एक मंदिर को बचाने के लिए उसकी ढाल बन जाते हैं. 

उम्मीद कायम रहती है... जब किसी मस्जिद की मीनार पर लगाए भगवा को कोई रवि वापस उतार लेता है.

उम्मीद कायम रहती है... जब किसी जली हुई मज़ार के बाहर हाथ जोड़कर खड़ी हिंदू औरतें प्रार्थना करती हैं.

उम्मीद कायम रहती है... जब कोई प्रेमकांत भगेल अपने मुसलमान पड़ोसियों को आग से बचाने के लिए खुद आग में कूद जाता है.

उम्मीद कायम रहती है... जब दंगे में अपनों को खो चुके लोग बदला नहीं इंसाफ मांगते हैं.

उम्मीद कायम रहती है... जब बढ़ती नफरतों के बीच कोई पुनीत किसी नदीम से पूछता है- तेरे घर वाले मेरे बारे में कुछ निगेटिव तो नहीं सोच रहे?

और उम्मीद बरकरार रहती है... जब नदीम जवाब देता है- अब्बू कह रहे थे कुछ होता है तो पुनीत के घर चले जाना.

और आखिर में सबसे ज्यादा उम्मीद उस प्रियांशी नाम की बच्ची से बंधती है... जो अपने पड़ोसी मुसलमान के घर छोड़कर चले जाने पर रोती है, सही से खाना नहीं खा पाती और उनके जल्द लौटने की दुआ मांगती है.

प्रियांशी से सबसे ज्यादा उम्मीद इसीलिए है क्योंकि वह आने वाली नस्ल की है और आने वाली नस्लें ऐसी हों तो उम्मीद कायम रहती हैं...

Monday, 2 March 2020

जंगल में अमंगल

सांकेतिक तस्वीर

मध्य प्रदेश के देवास के जंगलों में 15-16 हट्टे-कट्टे बंदरों ने एक तकरीबन सूखते जल स्रोत पर कब्जा जमा लिया था। हम समझते थे कि मनुष्यों में ही कब्जा जमाने की प्रवृत्ति होती है लेकिन यह मनुष्यों के पूर्वजों में भी है। हो सकता है हमने उन्हीं से यह कला सीखी हो। तो देवास के बंदरों ने पानी के स्रोत पर कब्जा इसलिए जमाया था ताकि वह भीषण गर्मी में किसी और को वहां से पानी न पीने दें और उनके लिए पर्याप्त पानी बचा रहे।

उनकी इस कब्जा नीति की भेंट 15 बंदर चढ़ गए। लू और प्यास से उनकी मौत हो गई। ऐसे ही एक अन्य मामले में बंदरों की पानी को लेकर लड़ाई हुई तो एक दर्जन से ज्यादा बंदर आपस में ही लड़ मरे। दोनों ही मामले पिछले साल जून और उसके आसपास की तारीखों के हैं। जंगलों में जंगलवासियों की ये स्थिति है। जाहिर है ये घटनाएं बताती हैं कि प्राकृतिक संसाधनों के मूर्खतापूर्ण तरीके से इस्तेमाल से केवल मनुष्य प्रभावित नहीं हो रहे हैं बल्कि धरती पर रहने वाली अन्य प्रजातियों के अस्तित्व पर भी संकट आन पड़ा है।

सिर्फ इतना ही नहीं, एक और अजीबोगरीब मामला गिर के जंगल में सामने आया। एक शोध हुआ, जिसमें बताया गया कि शेरों के नन्हें शावकों में शिकार के कौशल की कमी दिखने लगी है।मतलब कि शिकार के लिए ही जाने जाने वाले शेरों की नई नस्लें शिकार करना भूल रही हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि पर्यटकों को शेर देखना होता है और शेरों को पर्यटन क्षेत्र में लाने के लिए वन विभाग की ओर से मांस के टुकड़े जंगल के टूरिज्म रीजन में रख दिए जाते हैं। इनके लिए शेर वहां आते हैं और लोग मनोरंजित होते हैं।

इस वजह से आसानी से मिले शिकार के आदी होते जा रहे नन्हें शावक शिकार की जरूरत नहीं समझ रहे। वह शिकारी होने की बजाय अब मुर्दाखोर अपमार्जक की तरह होते जा रहे हैं। वन्य जीवों के पर्यावास में मानवीय हस्तक्षेप से जानवरों की प्राकृतिक जीवनचर्या पर प्रतिकूल असर पड़ रहा है। हम अपनी समस्याएं तो नहीं ही सुलझा पा रहे हैं लेकिन अन्य सहचर प्राणियों-प्रजातियों की मुश्किलें बढ़ाते जा रहे हैं।

मध्य प्रदेश में बंदरों का आपसी युद्ध मनुष्यों के अनियोजित और गैर-इरादतन षड्यंत्र का फलीभूत संस्करण है। हो सकता है हम युद्ध न चाहते हों। मानवों-मानवों में भी। जानवरों-जानवरों में भी। वह भी प्राकृतिक संसाधनों के लिए। उन संसाधनों के लिए जिन पर सभी का बराबर अधिकार है लेकिन यह अब होने लगा है। अभी यह अंतर्प्रजातीय युद्ध है। मनुष्यों-मनुष्यों में हो रहा है। जानवरों-जानवरों में हो रहा है। आने वाले दिनों में इसके अंतरप्रजातीय युद्ध में बदलने की संभावना से इनकार कर सकते हैं क्या?

#वन्यजीवदिवस