Monday, 4 September 2017

आज के दौर में गुरू-शिष्य परंपरा का चित्र किसी दरकते सांस्कृतिक खंडहर से कम नहीं


Image resultभारत एक प्राचीन देश है। इस प्राचीन देश की छाया में अनेक परंपराओं को प्रश्रय मिला है। बहुत सी परंपराएं आज तक निबाही जा रही हैं, तो बहुत सी ऐसी हैं, जो काल की हवाओं से घर्षण करतीं समाप्त हो गईं। गुरू-शिष्य परंपरा इस प्राचीन देश की ऐसी ही एक परंपरा है, जो एक जमाने में विश्व शिक्षा समुदाय के बीच अपनी आदर्श स्थिति की वजह से काफी आदरणीय रही है। पुराणों ही नहीं, विश्व के अर्वाचीन इतिहास के पृष्ठों में भी भारतीय गुरू - शिष्य परंपरा का जो अनुपम उदाहरण मिलता है वह सारे विश्व के लिए अनुकरणीय है। 


गुरू वशिष्ठ और उनके शिष्यों के बीच के संबंधों की बात करें या फिर द्वापर युग के कृष्ण संदीपन, द्रोण-अर्जुन के आपसी आदर-प्रेम-वात्सल्यपूर्ण दृष्टांतों की, भारत की इस परंपरा ने हमेशा से शिष्यों को गुरू के भगवान से भी ऊपर सम्माननीय होने की धारणा के पालन के प्रति प्रेरित किया है। गुरू शिष्यों की इस परंपरा में द्वापर के ही एकलव्य की भक्ति और समर्पण की कहानी अद्वितीय और अद्भुत है, जहां एक ऐसे गुरू को दक्षिणा स्वरूप एक महान धनुर्धर ने अपना अंगूठा सौंप दिया जिसने दीक्षा देने के नाम उसके जातिगत परिचय के आधार पर उसे धनुर्विद्या सिखाने से इंकार कर दिया था। यह शिष्य का गुरू के प्रति समर्पण का सर्वोच्चतम बिंदु है।

इसके बाद की बात करें तो हाल के इतिहास में भी चाणक्य और चंद्रगुप्त के बीच शिक्षक और शिष्य के बीच उल्लेखनीय संबंधों का उदाहरण मिलता है। यहां एक गुरू के सामर्थ्य और एक शिष्य की लगन का परिचय ऐतिहासिक है। शिवाजी और उनके गुरू समर्थ गुरू रामदास के बीच के संबंधों की कहानी तो सर्वविदित है, जहां शिवाजी ने अपना समस्त राज्य अपने गुरू को समर्पित कर दिया था। गुरू-शिष्य संबंधों के इस गौरवशाली इतिहास के आधार पर अगर आज के दौर के गुरू-शिष्य संबंधों का विश्लेषण करेंगे तो कहीं न कहीं इस परंपरा के आधार-स्तंभ उखड़ते से दिखाई पड़ेंगे।

आज गुरू-शिष्य संबंधों में वो समर्पण कम ही दिखाई पड़ता है। शिष्य जहां गुरू के सम्मान के प्रति अब प्रतिबद्ध दिखाई नहीं देते, वहीं आज के गुरूजनों में शिष्यों के प्रति वात्सल्य कम ही दिखाई पड़ता है। देश के शिक्षालयों की हाल की घटनाएं काफी व्यथित करती हैं। कुछ साल पहले इलाहाबाद विश्वविद्यालय के कुछ छात्रों ने मिलकर अपने ही एक शिक्षक को बुरी तरह से पीट दिया था। कुछ दिनों पहले की ही घटना है कि दिल्ली विश्वविद्यालय के एक कॉलेज में कुछ छात्रों की पिटाई से गुरूजी कोमा में चले गए थे। सिर्फ इतना ही नहीं, देश के कई शिक्षालयों में छात्रों की बुरी तरह पिटाई करते शिक्षकों की तस्वीर भी सामने आई थी। यह कहीं न कहीं, शिक्षा-शिक्षक और शिक्षार्थी की गौरवशाली परंपरा पर सिर्फ प्रश्नचिंह्न ही नहीं हैं, बल्कि आत्मविश्लेषण और आत्मविमर्श का विषय है। परंपराओं को सहेजकर रखने के जिम्मेदार समुदाय से उनके विध्वंस की आशा नहीं की जाती। इसलिए समस्त गुरूकुल समुदाय को इस पर फिर से सोचने और इसमें सुधारात्मक परिवर्तन करने की आवश्यकता है।

Friday, 1 September 2017

दुष्यंत कुमारः सत्ता के गिरेबान पर हाथ रखने वाला शायर जिसके शेर क्रांति के शंखनाद से कम नहीं

1933 के वक्त के भारत की बात करें तो आजादी का संग्राम और देशभक्ति से ओत-प्रोत साहित्य अपने पूरे उफान पर था। ऐसे माहौल में स्वातंत्र्योत्तर हिंदी साहित्य की आवाज में हिंदुस्तान की पीड़ा को गाने के लिए एक गीतकार का सृजन जारी था। बर्तानवी हुकूमत के खिलाफ विद्रोह और हिंदुस्तान के गौरवशाली इतिहास के गायन के उस दौर में इस देश के वर्तमान की हकीकत पर उंगली रखने का साहस रखने वाले दुष्यंत कुमार त्यागी इसी साल 1 सितंबर को  बिजनौर जिले राजरुपपुर नवादा में पैदा हुए थे। बिजनौर वही धरती है जहां महर्षि कण्व का आश्रम है, और जहां से भारत नाम के इस प्राचीनतम भूमि-भाग के नामकरण की पटकथा का शुभारंभ हुआ था। महाराज दुष्यंत और शकुंतला के दिव्य प्रेम का गवाह और महाराज भरत जैसे साहसी,वीर और निर्भय बालपन का साक्षी।

तपस्या, प्रेम और वीरता के इतिहास से सिंचित इस धरती पर अगर दुष्यंत कुमार जन्म लेते हैं तो उनकी रचनाओं में निर्भयता और साहस का प्रतिबिंब होना स्वाभाविक है। अब इन पंक्तियों पर ही गौर कीजिए -

मैं इन बेपनाह अंधेरों को सुबह कैसे कहूं,
मैं इन नज़ारों का अंधा तमाशबीन नहीं।

इस नदी की धार में ठंडी हवा आती तो है
नाव जर्जर ही सही, लहरों से टकराती तो है।

दुख नहीं कोई कि अब उपलब्धियों के नाम पर
और कुछ हो या न हो, आकाश-सी छाती तो है।

मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही, 
हो कहीं भी आग लेकिन आग जलनी चाहिए।

दुष्यंत कुमार साहित्य के उन कुछ चुनिंदा रत्नों में से एक हैं जिनका जीवनकाल बेहद छो़टा रहा है। मात्र 42 साल तक जीने वाले हिंदी के इस अनुपम और आदि गजलकार ने अपने छोटे से जीवन के बड़े अनुभवों को कुछ इस कदर शब्दों में बांधा कि उससे बनी उनकी हर गजल या कविता सामाजिक और राष्ट्रीय भावनात्मक पीड़ा का प्रतिनिधित्व करने लगीं। लोग उनकी हर गजल को खुद से जुड़ा हुआ मानने लगे। उससे निकटता महसूस करने लगे। यही कारण है कि हिंदी गजल की दुनिया में जितना दुष्यंत सराहे गए और जितनी उन्हें लोकप्रियता मिली वो आज तक कोई हिंदी का कवि या गजलकार हासिल नहीं कर पाया है। दुष्यंत मनमौजी किस्म के व्यक्ति थे। प्रतिकूलता के माहौल में भी सच की नब्ज पर उंगली रखने की उनकी हिम्मत ही उन्हें साहित्यकार के साथ-साथ क्रांतिकारी साहित्यकार की संज्ञा देती है। समाज के सबसे निचले तबके के लोगों के कंधों पर हाथ रखती उनकी गजलों ने उन्हें हिंदुस्तान का सबसे लाडला गीतकार बना दिया।

भूख है तो सब्र कर रोटी नहीं तो क्या हुआ।
आजकल दिल्ली में है जेरे बहस ये मुद्दआ।

दुष्यंत देश के उन करोड़ों वंचित लोगों की आवाज का प्रतिनिधित्व करते हैं जिनके हितों के दावों पर इस देश ने आजादी हासिल की और जिनकी भलाई के दावे आज भी सरकारों की कुर्सियों के तख्त बनते हैं-

मुझमें रहते हैं करोड़ों लोग चुप कैसे रहूँ,
हर ग़ज़ल अब सल्तनत के नाम एक बयान है।

दुष्यंत की एकमात्र गजल कृति साए में धूप है। इसकी लोकप्रियता के बारे में मेरे लिए कुछ भी कहना सूरज के परिचय पर प्रकाश डालना होगा। तारीख की दीवारों पर दर्ज हर क्रांति की मशाल और हर क्रांतिकारी का सबसे ज्वलंत नारा उनकी एक ग़जल, जिसके बिना आज भी कोई भी बड़ा आंदोलन अपनी पूर्णता को सोच भी नहीं सकता-

हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए,
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।

सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
सारी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।

मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।

हिंदी साहित्य के पहले गजलकार माने जाने वाले दुष्यंत ने गीत, कविता, नवगीत आदि साहित्यिक विधाओं में भी हाथ आजमाया था। लेकिन उनके गजलों के प्रचंड तेज के आगे उनकी छवि धूमिल पड़ गई। दुष्यंतकाल में अज्ञेय और मुक्तिबोध अपनी लोकप्रियता के मामले में चरम पर थे। यह वो दौर था जब गीतों और नवगीतों पर नई कविता अपनी धौंस जमाने की कोशिश कर रही थी। ऐसे दौर में हिंदी साहित्य में गजलों को न सिर्फ शामिल कर बल्कि सरल और सुबोध्य शब्दों में सजाकर उन्हें जनमानस की जिह्वा पर स्थापित करने का कारनामा दुष्यंत ही कर सकते थे। दुष्यंत के लिए मशहूर उर्दू गजलकार निदा फाजली कहते हैं कि उनकी नजर उनके युग की नई पीढ़ी के गुस्से और नाराजगी से बनी है। यह गुस्सा और नाराजगी उस अन्याय और राजनीति के कुकर्मो के खिलाफ नए तेवरों की आवाज थी, जो समाज में मध्यवर्गीय झूठेपन की जगह पिछड़े वर्ग की मेहनत और दया की नुमानंदगी करती है। इस बात की पुष्टि को आप उनकी इन रचनाओं में देखिए -

कहाँ तो तय था चरागाँ हर एक घर के लिए
कहाँ चराग मयस्सर नहीं शहर के लिए।

जिस तरह चाहो बजाओ तुम हमें
हम नहीं हैं आदमी हम झुनझुने हैं।

इस अंगीठी तक गली से कुछ हवा आने तो दो,
जब तलक खिलते नहीं हैं कोयले देंगे धुआँ।

दुष्यंत अपनी रचनाओं में केवल क्रांति ही नहीं करते थे। शायर अपनी गजलों में भले मशाल, आग, क्रांति जैसे भारी-शब्दों का इस्तेमाल कर ले, लेकिन वह भी अपने आपको पूरा तभी मानता है जब उसकी कलम मोहब्बत की स्याही से दिल के अफसाने लिखने लगती है। दुष्यंत की मोहब्बत भी थोड़ी अजीब थी। आप भी देखिए -

एक जंगल है तेरी आंखों में,
मैं जिसमें राह भूल जाता हूं।

तू किसी रेल सी गुजरती है,
मैं किसी पुल सा थरथराता हूं।

वो घर में मेज पे कोहनी टिकाये बैठी है,
थमी हुई है वहीं उम्र आजकल, लोगों।

जियें तो अपने बगीचे में गुलमोहर के तले ,
मरें तो गैर की गलियों में गुलमोहर के लिए।

गजलों की बहर से निकलकर दुष्यंत ने जब छंदों का श्रृंगार किया तो कभी एक हारे हुए को संजीवनी मिली, एक मोहब्बत करने वाले को प्रेमाभिव्यक्ति का गीत मिला तो कभी सृष्टि की सनातन परंपरा में सत्य की जीत की संभाव्यता पर पुनः हस्ताक्षर हुए।

अब तक ग्रह कुछ बिगड़े बिगड़े से थे इस मंगल तारे पर,
नई सुबह की नई रोशनी हावी होगी अँधियारे पर।
उलझ गया था कहीं हवा का आँचल अब जो छूट गया है,
एक परत से ज्यादा राख़ नहीं है युग के अंगारे पर।


तुम्हारा चुम्बन
अभी भी जल रहा है भाल पर
दीपक सरीखा
मुझे बतलाओ
कौन-सी दिशि में अँधेरा अधिक गहरा है !

जा तेरे स्वप्न बड़े हों।
भावना की गोद से उतर कर
जल्द पृथ्वी पर चलना सीखें।
चाँद तारों सी अप्राप्य ऊचाँइयों के लिये
रूठना मचलना सीखें।
हँसें
मुस्कुराऐं
गाऐं।
हर दीये की रोशनी देखकर ललचायें
उँगली जलायें।
अपने पाँव पर खड़े हों।
जा तेरे स्वप्न बड़े हों।

दुष्यंत ने अपने साहित्य में जो कुछ भी लिख दिया है वो आने वाले कई युगों तक लोगों के कंठ से गाए जाते रहेंगे। उनकी प्रांसगिकता कभी खत्म नहीं होगी। इसलिए भी क्योंकि उनकी लिखी हर रचना एक सच्चे हृदय में तमाम दुनियावी विसंगतियों पर उठते प्रश्न की सबसे सशक्त आवाज थी। उनका हर कथन या तो सामाजिक वरीयताओं में छल-कपट से नीचे धकेल दिए गए लोगों की आवाज थी या फिर शिखरों पर बैठे लोगों को उनकी जिम्मेदारियों को याद दिलाने वाला बयान था।

गडरिए कितने सुखी हैं ।

न वे ऊँचे दावे करते हैं
न उनको ले कर
एक दूसरे को कोसते या लड़ते-मरते हैं।
जबकि
जनता की सेवा करने के भूखे
सारे दल भेडियों से टूटते हैं ।
ऐसी-ऐसी बातें
और ऐसे-ऐसे शब्द सामने रखते हैं
जैसे कुछ नहीं हुआ है
और सब कुछ हो जाएगा ।

Sunday, 27 August 2017

सदा लगी हर तरफ से आने, फिराक़ साहब, फिराक़ साहब


हर किसी की जिंदगी के समानांतर एक और जिंदगी होती है और यह सबको दिखाई नहीं देती । यह जिंदगी का एक दूसरा रंग होता है, जो किसी चित्रकार के कैनवास पर तस्वीरों की शक्ल में अपने होने की सूचना देता है, तो कभी किसी शाइर की शायरियों में प्रकट होकर अपने अस्तित्व का आभास कराता है। रघुपति सहाय फिराक़ गोरखपुरी के जीवन के समानांतर की जिंदगी में किस हिज्र की कौन सी रात थी, इसका सही-सही पता तो किसी को नहीं है, लेकिन शायद उनकी इसी जिंदगी के पन्नों पर लिखे हिज्र, रात, इश्क के जानदार शेर उनके लफ्जों को वो हिम्मत और विश्वास देते थे जिनकी बदौलत फिराक़ गोरखपुरी बड़े आत्मविश्वास से कहते थे-

आने वाली नस्लें तुम पर रश्क़ करेंगी हमअस्रों,
जब ये ख्याल आएगा उनको, तुमने फिराक़ को देखा था।

हमें फिराक़ साहब को देखने और जमाने को रश्क करने के मौके देने का मौका तो नहीं मिला लेकिन लगभग दस सालों तक फिराक साहब के सान्निध्य का सुयोग पाने वाले जामिया मिल्लिया इस्लामिया के प्रो. शमीम हनफी बताते हैं कि किस तरह से फिराक़ साहब की जिंदगी अकेलापन, विद्रोह, गुस्सा, करूणा, और मजाहियापन का अद्भुत मिश्रण थी। शमीम साहब के मुताबिक फिराक गोरखपुरी को उर्दू साहित्य ने तुरंत स्वीकार नहीं किया, इसका सबसे बड़ा कारण था उनकी शायरियों के रवायत से अलग हटकर चलने की प्रवृत्ति। उनकी शायरियों में एक तरह का खुरदुरापन था और वही उनका आकर्षण भी था।

28 अगस्त 1896 को गोरखपुर के एक कायस्थ परिवार में जन्में रघुपति सहाय अपने बीए की पढ़ाई के दौरान पूरे प्रदेश में चौथी वरीयता प्राप्त विद्यार्थी थे। इतना ही नहीं, वो उस दौर की सबसे प्रतिष्ठित और कठिन परीक्षा आईसीएस में भी चयनित हुए थे।  स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान महात्मा गांधी के प्रभाव में आकर नौकरी छोड़ देने वालों की लिस्ट में रघुपति सहाय का नाम तब जुड़ गया जब उन्होंने इसके लिए 1920 में सिविल सर्विस की नौकरी छोड़ दी। इसके बाद स्वतंत्रता संग्राम में वो कई बार जेल भी गए।

फिराक गोरखपुरी का व्यक्तिगत जीवन बहुत अच्छा नहीं था। वह अपनी शादी को अपने जीवन की सबसे बड़ी दुर्घटना मानते थे। कहा जाता है कि बेजोड़ शादी का यही दर्द उनके अशआरों में दिखाई देता है। 29 जून 1914 को जमींदार विंदेश्वरी प्रसाद की बेटी किशोरी देवी से उनका विवाह हुआ था। फिराक़ साहब अपनी पत्नी को पसंद नहीं करते थे। अपने दांपत्य जीवन के दांत पीसकर रह जाने वाली पीड़ा के बारे में बताते हुए वह अपने एक संस्मरण में कहते हैं, “मेरे सुख ही नहीं, मेरे दुख भी इस ब्याह ने मुझसे छीन लिए”। उनके दर्द को आप इस पंक्ति से भी समझ सकते हैं जिसको उन्होंने अपने इस संस्मरण में कोट किया है कि -  “मैं पापिन ऐसी जली कोयला भई न राख”

पत्नी के प्रति उनकी नफरत इस कदर थी कि किसी के भी सामने वो उन्हें कोसने से नहीं चूकते थे। इससे संबंधित एक संस्मरण यूं है कि इलाहाबाद में रहने के दौरान एक बार जब उनकी पत्नी गोरखपुर से आईं तब आते ही उन्होंने उनसे सवाल किया, “मरिचा के अचार लाई हो कि नहीं?”। उनके नहीं में जवाब देते ही वे बिफर पड़े और बोले, “जाओ, गोरखपुर से मरिचा का अचार लेके आओ, भूल कैसे गई?”

यह फिराक़ के जीवन का स्याह पक्ष कहा जा सकता है। जाने किस जीवनसाथी के पाने की अभिलाषा या फिर किसके पीछे छूट जाने का दर्द उन्हें रात, अकेलेपन और विरह का शायर बना देता है।  

“गरज कि काट दिए जिंदगी के दिन ऐ दोस्त,
वो तेरी याद में हों या तुझे भुलाने में”

शमीम हनफी साहब बताते हैं कि फिराक़ को रात में जागने की आदत थी। उनके लिए रात सोने के लिए थी ही नहीं। रात की सोहबत का असर उनकी शायरियों में आसानी से देखा जा सकता है, जहां वो कहते हैं कि - 

“जमाना कितना लड़ाई को रह गया होगा।
मेरे ख्याल में अब एक बज गया होगा”।

“इसी खंडहर में कहीं कुछ दिए हैं टूटे हुए,
इन्हीं से काम चलाओ, बड़ी उदास है रात”।

“तुम चले जाओगे हो जाएगी ये रात पहाड़,
रात की रात ठहर जाओ कि कुछ रात कटे”।

“तबीयत अपनी घबराती है जब सुनसान रातों में,
हम ऐसे में तेरी यादों की चादर तान लेते हैं”।

उदास जिंदगी के अफसानों के बीच फिराक़ साहब के किरदार का एक और पहलू था, जो काफी मजाहिया और दिलचस्प किस्म का था। इलाहाबाद में रहने के दौरान फिराक़ साहब उस दौर के अन्य इलाहाबादी रचनाकारों की तरह कॉफी हाउस की महफिलों में भी जाया करते थे। कॉफी हाउस की कुर्सियों पर बैठकर जब इलाहाबाद विश्वविद्यालय के अंग्रेजी का यह प्रोफेसर अपनी बुलंद और गूंजती आवाज में शेर सुनाता तो वहां मौजूद लोग अपनी कुर्सियां खींचकर उनके चारों ओर बैठ जाया करते थे। उन्हें बोलने का बहुत शौक था। उस दौरान उनसे किसी ने पूछा कि आप इतनी बातें कैसे कर लेते हैं, तो फिराक़ साहब का जवाब था कि बातें कौन करता है, यह तो दिमाग सांस लेता है। उनकी आवाज जितनी कड़क थी, स्वभाव उतना ही नरम और विनम्र था। उनके जीवन का एक और संस्मरण यूं है कि एक बार अपने दिल्ली प्रवास के दौरान वो जिन सज्जन के यहां रुके हुए थे वो कुछ सालों बाद  उनसे मिलने इलाहाबाद आए। उनके दरवाजे पर पहुंचकर उनसे पूछा कि वो उन्हें पहचानते हैं कि नहीं। फिराक़ साहब के इंकार करने के बाद जब उन्होंने अपना परिचय दिया तब फिराक साहब ने उनसे एक चप्पल की ओर इशारा करते हुए कहा कि वह उठाइए, और मेरे सिर पर मारिए। मैं आपकी पहचान कैसे भूल सकता हूं।

राजनीति में भी रघुपति सहाय की बड़ी दिलचस्पी थी। जवाहर लाल नेहरू से उनके अच्छे संबंध थे। 1917 में जब फिराक़ गोरखपुरी राजनीति में आए तब नेहरू ने उन्हें 250 रुपए महीने पर आल इंडिया कांग्रेस कमिटी का अंडर सेक्रेटरी बना दिया था। बाद में नेहरू जब अंतर्राष्ट्रीय राजनीति पर अध्ययन के लिए विदेश चले गए तब फिराक साहब ने यह पद छोड़ दिया और इलाहाबाद चले आए। आजादी के बाद पहले आम चुनाव में आचार्य कृपलानी ने किसान मजदूर प्रजा पार्टी बनाई। इस पार्टी ने उत्तर प्रदेश की 37 सीटों पर चुनाव लड़ा था। इन 37 सीटों में से एक सीट गोरखपुर जिला दक्षिणी की भी थी जिस पर पार्टी के उम्मीदवार रघुपति सहाय फिराक गोरखपुरी थे। चुनाव में महज 9 फीसदी वोट पाकर फिराक कांग्रेस के सिंहासन सिंह से बुरी तरह हार गए। हारने के बाद फिराक साहब जब नेहरू से मिले तो उन्होंने हाल चाल पूछते हुए कहा, सहाय साहब, कैसे हैं, इस पर सहाय साहब का जवाब था सहाय कहां, अब तो बस हाय रह गया है।

रघुपति सहाय अपने समय के जाने-माने विद्वानों में गिने जाते थे। उर्दू, अंग्रेजी और हिंदी में उनकी लगभग 10 कृतियां साहित्य में मौजूदगी रखती हैं। उनकी कृति गुले नग्मा को साल 1970 में साहित्य का ज्ञानपीठ पुरस्कार भी हासिल हुआ है। इसके अलावा इसी कृति को साहित्य अकादमी पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया है। अपनी शायरी के दम पर उर्दू साहित्य में फिराक गोरखपुरी नए तरह की गजल के प्रवर्तक माने जाते हैं। भारतीय संस्कृति की अथाह जानकारी, जीवन के कड़वे अनुभव और उन अनुभवों को गजलों और नज्मों में बांधने की क्षमता उन्हें एक विशिष्टता प्रदान करती है। प्यार, मोहब्बत, दर्द, विरह को शब्द देकर फिराक़ युवाओं की आवाज में गाए जाने वाले सबसे चहेते गीत माने जाते हैं। और इसीलिए, सुख़न की हर महफिल में फिराक़ गोरखपुरी एक अद्भुत और प्रभावशाली उपस्थिति हुआ करती थी, जिसके लिए उन्होंने खुद ही लिखा है कि

रहे सुखन में बचा के नजरें हर एक की मैं जहां से गुजरा,
सदा लगी हर तरफ से आने फिराक़ साहब – फिराक़ साहब।। 

Thursday, 3 August 2017

कविताः काग़ज़ पर कुछ लिख दूं

काग़ज़ पर कुछ लिख दूं,आखिर,
कुछ दिन से सोच रहा हूँ।

दिल का भूतल उथल-पुथल,
कुछ दबी हुई शै का हलचल,
कुछ पीर, नयन का नीर, कलम का 'मीर'
उगलने में संकोच रहा हूँ।
काग़ज़ पर कुछ लिख दूं, आखिर,
कुछ दिन से सोच रहा हूँ।

जीवन की जाने कौन राह!
जिस पर स्वप्नों का आत्मदाह।
कुछ शोर, जनम का भोर, जुनूनी जोर
के शव को नोच रहा हूँ।
काग़ज़ पर कुछ लिख दूं, आखिर,
कुछ दिन से सोच रहा हूँ।

दिन अंधियारे से लगते हैं,
सोते-सोते भी जगते हैं।
कुछ वर, ह्रदय का स्वर, ज्यों तीखे शर
से फोड़े कोंच रहा हूँ।
काग़ज़ पर कुछ लिख दूं, आखिर,
कुछ दिन से सोच रहा हूँ।

©राघवेंद्र

Thursday, 27 July 2017

दोहे: जी में आए फूंक दें, गीता और कुरान

दिल्ली से बंगाल तक, लहू-लहू-अंगार।
आर्यवर्त में चल रहा,संस्कृति का श्रृंगार।

ज़हर-ज़हर हर शहर में,नफरत की दुर्गंध।
घर टूटे पर बन रहा, है वैश्विक सम्बंध।।

राष्ट्रवाद बंधक बना,मानवता असहाय।
राजनीति के व्यूह में, मंदिर-मस्जिद-गाय।

संसद की बेचारगी, जन-गण का दुर्भाग।
कैसे हो प्रतिरोध जब, चूनर में है दाग।।

गलियां हैं सहमी हुईं, चौराहे खामोश।।
लुच्चे खोते होश हैं, सरकारें बेहोश।।

'काम' के बदले लाठियां, 'दाम' के बदले मौत।
'जाम' के बदले लोन है, 'नाम' के बदले मौत।

तलवारों की नोक पर, कितने पहलू खान!
इतना सस्ता हो गया, आखिर कब इंसान?

देख तेरे संसार की, क्या हालत भगवान।
जी में आए फूंक दें, गीता और कुरान।

Sunday, 23 July 2017

अनुभवों के अध्याय सरल नहीं होते

अनुभवों के अध्याय सरल नहीं होते लेकिन समझ में सरलता से आ जाते हैं। आज बहुत सी चीज़ें अनुभव के रास्ते दिमाग में आ चुकी हैं और कुछ धारणाओं और मान्यताओं के रूप में परिणत हो चुकी हैं। अब ज़िन्दगी थोड़ी-थोड़ी समझ भी आने लगी है। जब भी मन उदास होता है हम ज़िन्दगी की परिभाषाएं पढ़ने बैठ जाते हैं। जब भी हम निराश छोटे हैं किस्मत के अर्थ टटोलने लगते हैं। जब भी हम हारते हैं तो बजाय अपनी कमियों पर सुधारात्मक दृष्टि डालने के हम उन कमियों पर घुटने टेक देते हैं। सबकी तो नहीं लेकिन बहुतों की यही कहानी है। मेरी भी इसलिए है क्योंकि मैं केवल अनुभव लिख पाता हूँ और आज भी मैं वही लिख रहा हूँ।

अपना स्वयं का अध्ययन करना, खुद की पड़ताल करना अपने आप को पहचान लेना कितना ज़रूरी है? यह ज़रूरी भी है या नहीं? मुझे ऐसा लगता है कि यह मानसिक तनाव और हीन भावना के अलावा कुछ भी सृजित कर पाने के लायक नहीं है। इसलिए इसके बदले किसी महापुरुष की जीवनी पढ़नी चाहिए। कोई अच्छा सा लेख पढ़ना चाहिए।

मैंने अपने आप को बहुत पढ़ा है। मेरी हर आदत पर विश्लेषण किया है। इससे मुझे पता चला कि मुझमें एक नहीं, दो नहीं हज़ारों कमियां हैं। मैं जानता हूँ कि इनका परिणाम अच्छा नहीं होगा, फिर भी मैं इन कमियों में सुधार नहीं कर पा रहा। यह भी मेरी एक कमी ही है। मेरे साथ यह भी दिक्कत है कि मुझे अपनी सारी गलतियां पता होती हैं। मुझे पता होता है कि मैं जो कर रहा हूँ या करने जा रहा हूँ वो गलत है फिर भी मैं उसके लिए कुछ भी नहीं कर पाता। अपने आप को कोसने के सिवाय। एक वाकया है ऐसा कि एक बार दारागंज इलाहाबाद के रेलवे स्टेशन पर अपने मित्र राकेश से बात करते हुए मैं अपनी कही किसी बात को याद करने की कोशिश कर रहा था और यह भी कि ये बात मैंने कही किससे थी। हल्का सा संकेत पाते ही राकेश बोल पड़े कि बात यह थी और आपने मुझसे ही कही थी। आगे जोड़ते हुए उन्होंने जो कहा था उस पर मुझे हंसी भी आई और बात कम से कम मेरे लिये तो चिंतन का विषय थी ही। उन्होंने कहा कि दिन भर आप अपने आपको कोसते ही तो रहते हैं।

मुझे ख़ुशी है कि मुझमें आत्ममुग्धता नहीं है, आत्मप्रशंसा की आदत नहीं है, शायद अहंकार भी न हो, लेकिन इस बात की चिंता भी काम नहीं है कि मुझमें खुद के बारे में अच्छा महसूस करने की भी आदत नहीं है। पता नहीं टैलेंट वगैरह का स्तर मुझमें कितना है! लोगों की आशाएं मुझे कभी कभी डरा देती हैं। कभी कभी नहीं शायद हमेशा ही। इससे आत्मविश्वास गिरता है, आत्मबल कमजोर होता है। कभी कभी मैं कई प्रतियोगिताएं इसीलिए ज्वाइन ही नहीं करता हूँ कि मन में पहले से ही धारणा बन जाती है कि यह जीतना मेरे वश की बात नहीं।

मेरे आस-पास रहने वाले लोगों से पूछिए! शायद उनको मेरी अच्छाइयों से ज्यादा मेरी कमियों के बारे में पता हो! ऐसा इसलिए कि मैं दिन भर उसी पर विमर्श करता रहता हूँ। जब भी खाली रहता हूँ, शांत हो जाता हूँ बिलकुल। सोचनीय मुद्रा में। लोगों को लगता है असामाजिकता की ओर जा रहा हूँ, उदास हूँ, निराश हूँ, सबसे अलग एकांत रहने की इच्छा है मेरी। लेकिन मेरे मन में तो मेरे अतीत-वर्तमान-भविष्य के घटनाक्रमों में संग्राम छिड़ा होता है। उथल-पुथल मेरे सामाजिक व्यवहार को लेकर भी होती है। किसी की मज़ाक में कही छोटी बातें भी गहरी लग जाती हैं। किसी से कभी मज़ाक कर दिया तो एक चिंता और मन में बैठ जाती है कि उसे बुरा तो नहीं लगा होगा! 'सॉरी' तो हमेशा इसीलिए तैयार रखते हैं। वही एकमात्र इलाज भी तो है इस तनाव का।

अब देख लो! आज फिर कोस लिया खुद को! पता नहीं ऐसा केवल मेरे साथ है या फिर इस तरह के और भी पीस भगवान ने बनाये हैं। ज़िन्दगी है तो जीना है ही। चाहे रोकर जियें या फिर हंसकर। हंसकर ही जीने का मैं समर्थक हूँ। बचपन से हंसने का आदती भी हूँ। लेकिन आजकल वो आदत अपने आप न जाने कहाँ खो गयी है। शायद जीवन के उस नये अनुभव का असर है।

Saturday, 22 July 2017

साहित्यः कविता का सबसे संक्षिप्त रूप-विन्यास है हाइकू


 कविताओं के लिए गागर में सागर की कहावत तो बहुत पुरानी है। बात चाहे कबीर के दो लाइन और चार चरण वाले दोहों की हो या फिर गालिब के दो मिसरों वाले किसी शेर की। ये वो चमत्कार है जो शब्दों की सबसे न्यून मात्रा में जीवन के सबसे गूढ़ रहस्यों का पूरा ग्रंथ अपने आप में समेटे हुए होता है। कविता लेखन की हाइकू विधा इसी परंपरा का एक महत्वपूर्ण सोपान है। पांच-सात-पांच शब्दों के अनुशासन में बंधा तीन लाइन का यह विचित्र काव्य कम से कम शब्दों में विशद अर्थ देते हुए कविता लेखन के गागर में सागर विशेषण को पुष्ट करता हुआ दिखाई देता है। हाइकू वर्तमान में संभवतः विश्व साहित्य की सबसे संक्षिप्त कविता है। सत्रहवीं शताब्दी के आस-पास जापान में के एक कवि मात्सुओ बाशो ने पहली बार जापानी साहित्य में हाइकू का शिल्प किया था। बाशो एक बौद्ध साधक थे। यही वजह रही कि हाइकू अपने पैदाइशी दौर में प्रकृति संबंधी विषयों के इर्द-गिर्द ज्यादा गढ़ी जाती रही। जापान में हाइकू ज्यादातर प्रकृति को चित्रित करती रही और यही हाइकू जब भारत में आती है तब अपनी प्रकृति कुछ यूं बदलती है कि गोपालदास नीरज से लेकर सत्यभूषण वर्मा तक जब हाइकू लिखते हैं तो उसे सामाजिक-राजनीतिक विसंगतियों पर व्यंग्य-बाण के धनुष की तरह इस्तेमाल करते हैं। जापान में भी व्यंग्य साहित्य उन्नत है। वहां व्यंग्य साहित्य सेर्न्यू कही जाती है।
हाइकू के प्रवर्तक मात्सुओ बाशो


शब्द-विन्यास का यह सबसे संक्षिप्त रूप भारत में गुरूदेव रविंद्रनाथ टैगोर के प्रयासों से आया। अपनी जापान-यात्रा से लौटने के बाद गुरूदेव ने 1919 में जब जापानी-यात्री लिखी तो उसमें हाइकू का जिक्र करते हुए इस विधा के प्रवर्तक बाशो के कुछ हाइकू का अनुवाद भी किया-

पुरोनो पुकुर
ब्यांगेर लाफ
जलेर शब्द

पचा डाल
एकटा को
शरत्काल।

सिर्फ गुरूदेव ने ही नहीं, हिंदी साहित्य के अनन्य साहित्यकार सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय ने भी हाइकू को भारतीय साहित्य में स्थापित करने में अमूल्य योगदान दिया है। अपनी जापान-यात्रा में अज्ञेय ने कवि बाशो की हाइकू साधना का बड़ा गहरा अध्ययन किया। 1959 के आस-पास अज्ञेय जब भारत लौटे तब उनके हे अमिताभ, सोन मछली, घाट-घाट का पानी, सागर में ऊब-डूब जैसी कालजयी कविताओं की गठरी में छंद का यह नया सांचा हाइकू भी मौजूद था। अज्ञेय ने भी बाशो की कविता का अनुवाद हिंदी मे किया था।

फुरु इके या (The Old Pond, Oh!) - तालपुराना
कावाजु तोबुकोमु (A frog jump In) – कूदा मेंढक
मिजुनो ओतू (The Water’s) – गुड़प्प..

हालांकि उपर्युक्त रचना अज्ञेय द्वारा बाशो की हाइकू का शाब्दिक अनुवाद भर है। इसमें हाइकू के अनुशासन का ख्याल नहीं रखा गया है। हिंदी साहित्य में हाइकू के प्रवेश के बाद कई साहित्यकारों ने इसके पैटर्न पर कविताएं लिखीं।

इकला चांद
असंख्यों तारे
नील गगन के
खुले किवाड़े
कोई हमको
कहीं पुकारे
हम आंएंगे
बांह पसारे।।

1964 के आस-पास लिखी गई केदारानाथ अग्रवाल की इस कविता में हाइकू की संक्षिप्तता का गुण स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। स्वयं अज्ञेय की कई कविताएं इसी तरह की हैं। साठ के दशक के बाद केदार नाथ अग्रवाल, श्रीकांत शर्मा, बच्चन, विश्वनाथ प्रसाद तिवारी, भवानी प्रसाद मिश्र और सर्वेश्वर दयाल सक्सेना जैसे कई साहित्यकारों ने अपनी कविताओं में नया प्रयोग करते हुए दो या तीन पंक्तियों की छोटी-छोटी कविताएं लिखी हैं। इस तरह के नवप्रयोगों की प्रेरणा हाइकू से ही मिलने का अनुमान लगाया जाता है।

इस तरह से नव-प्रयोगों की अपनी प्रवृत्ति और सहज भाव से सबको स्वीकारने की संस्कृति वाले हिंदी साहित्य के कोश में इस विधा का पदार्पण हुआ। अरथ अमित अति आखर थोरे का प्रायोगिक प्रतिमान स्थापित करने वाली हाइकू आज अपनी संक्षिप्तता की वजह से सर्वाधिक तेजी से अपनाई जाने वाली विधा बनती जा रही है। हाइकू में सत्रह वर्ण होते हैं। ये सत्रह वर्ण तीन पंक्तियों में इस तरह विभाजित होते हैं कि पहली और तीसरी पंक्ति में पांच-पांच वर्ण हों जबकि दूसरी पंक्ति में सात वर्ण। जैसे-
जन्म मरण
समय की गति के
हैं दो चरण

वो है अपने
देखें हो मैने जैसे
झूठे सपने

--गोपाल दास नीरज

इसी तरह की कई हाइकू कविताएं आधुनिक हिंदी साहित्य में तेजी से अपना स्थान बनाती जा रही हैं। इसका संक्षिप्त होना ही इसकी सबसे बड़ी विशेषता है जो नए कवियों को अपनी ओर आकर्षित करती है। हाइकू लिखने से पहले इसका पूरा विज्ञान समझना भी जरूरी है, क्योंकि तभी इसके अर्थों का वजन बरकरार रहेगा। आज के दौर में ऐसे कवियों की कोई कमी नहीं है जिनके लिए हाइकू सिर्फ पाच-सात-पांच वर्णों का संयोजन मात्र है, इसके अलावा कुछ भी नहीं। ऐसे लोग धड़ाधड़ हाइकू की पुस्तकें छपवाकर सिर्फ कूड़ेदानों का बोझ बढ़ा रहे हैं। हाइकू के लिए गंभीर चिंतन और एकाग्रता की आवश्यकता होती है। जीवन अनुभूतियों को शब्दों में ढालकर उकेरने के लिए पर्याप्त धैर्य चाहिए होता है। तब जाकर कहीं सच्चे अर्थों में हाइकू अपने लक्ष्यों तक पहुंचता है।


कला-खेल-साहित्य सीमाओं के बंधनों को नहीं मानते। हाइकू इस तथ्य का सबसे सटीक उदाहरण है। सोलहवीं शताब्दी में जापान में पैदा हुए साहित्य के इस सबसे लघु स्वरूप ने दुनिया के कई देशों की सीमाएं पारकर वहां के साहित्य में अपना स्थान बनाया है। हिंदी में इसका स्थान साल दर साल और दृढ़ और महत्वपूर्ण होता ही जा रहा है। यूरोप में अंग्रेजी के इतर लगभग सभी भाषाओं में हाइकू काफी उत्साह से लिखे जा रहे हैं। वैश्विक एकात्म्य की स्थापना में साहित्य के योगदान की सार्थकता सिद्ध करने का दायित्व हाइकू ने अपने कंधे पर ले लिया है और वह अपने इस काम में निरंतर सफल भी हो रहा है। यह वसुधैव कुटुंबकम के मंत्र की साकार्यता के लिए शुभ संकेत है।