Wednesday, 19 December 2018

मनीष पोसवाल की कविताः सड़कें धरती की नसें हैं


एक सड़क सही मायनों में
कभी नहीं चलती, आगे बढ़ती।
और कमाल तो ये है कि
ना ही कभी रुकती, खत्म होती।
बस पगडंडियों, दगड़ों और बटियाओ में बंट जाती है,
बंटवारा कर देती है बसवाटों का,
खेतों का, पहाड़ों का ,मैदानों का।
सड़क नहीं खिसकती बिलांद भर भी,
सड़क नहीं सरकती सुई बराबर भी,
दुनिया की तमाम सड़कें
धरती की नसें हैं,
जो जिंदा रख रही हैं उसे,
और इन नसों में दौड रहे हैं हम।
नदी भी सड़कें हैं,
बस वहाँ बहता है पानी
आदमी की जगह।
सड़कें कहीं नहीं आ रही-जा रही,
वो तो हम हैं जो निकले हैं चिरयात्रा पर
जो मरकर ही खत्म होगी।

मनीष पोसवाल
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Sunday, 16 December 2018

समानांतरः उदासी का उत्सव

यह जीवन रिक्त स्थानों के कदम दर कदम चलने का बिंदुपथ है

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जब आप उस अजीब सी अनुभूति की छाया में होते हैं तब तक आप अलग ही एहसास से गुजर रहे होते हैं। वहां जीत-हार जैसी प्रतियोगिताएं भी होती हैं। दुख-आनंद से मनोभाव भी होते हैं। बहुत कुछ वाजिब लगता है। बहुत कुछ गलत लगता है। इन सबसे इतर रात के सन्नाटे में कभी शांत स्थिर दिमाग से सोचिए तो लगता है कि किस कहानी का हिस्सा बन गए हैं? क्या सच में जो कुछ भी आपके साथ हो रहा है उसके नायक आप ही हैं? हां, नायक ही। कहानी को आगे ले जाने वाला नायक भर ही।

नायकत्व के तमाम आधुनिक परिभाषाओं से अलग, अयोग्य और सर्वथा दूर। एक ऐसी स्थिति, जो आपसे बिल्कुल ही अनियंत्रित हो गई हो। जिसके कारणों का पता बिल्कुल ही सृष्टि के सृजन की कथा की तरह अजान हो। रहस्यमयी हो। जहां से दुख निकलता हो। दुख भी ऐसा कि आप गहराई में उतरते चले जाएं। जिसकी आपको आदत लग जाए। जो अगर किसी वजह से न हो तो आपको बेचैनी होने लगे और ऐसा भी लगे कि आप कुछ बहुत भारी और कीमती चीज खो रहे हैं।

हर वक्त विचारों में गोते लगाना। शांत हो जाना। गंभीर हो जाना। गूढ़ से गूढ़ जीवन-सूत्रों के अर्थ ऐसे उद्घाटित होने लगते हों जैसे मन-मस्तिष्क किसी अज्ञात ज्ञान उपग्रह के सिग्नल से संलग्न हो गया हो। गहराई ऐसी स्थापित हो जाए जैसे संसार का सारा ही ज्ञान आपमें समाहित हो जाएगा। जिसे लोग उदासी कहते हैं वो आपके लिए आनंद और जीवन के सुचारु संचार की अहम आवश्यकता लगने लगे। यह कौन सा वातावरण है? यह कौन से सृजन की उथल-पुथल है? यह कौन सी चीज है जिसमें एक बीज सी बेचैनी भरती जा रही है?

क्या करें जब लगातार आनंद की चेष्टाएं असफल होती जाएं? आनंद भी क्या जीवन का परम लक्ष्य है? फिर दुख किसलिए हैं? फिर उदासी किसलिए है? यह किसी का उद्देश्य क्यों नहीं है जबकि यह सहज प्राप्य है? क्या इनकी सहज उपलब्धता इनका मूल्य कम कर देती है? उदासी भी एक उत्सव क्यों नहीं हो सकती? दुख भी एक त्योहार क्यों नहीं हो सकता? क्यों ऐसा लगता है कि हम दुखी हैं तो यह एक जीवन के प्रतिकूल घटना है? हम उदास हैं तो इससे जीवन का स्वास्थ्य सही नहीं रहेगा?

उदासी हमें गहराई प्रदान करती है। दुख हमें द्रव्यमान देते हैं। हमें सीखों से भर देते हैं। हमें विचारों से परिपूर्ण कर देते हैं। हम सघन हो जाते हैं। गहरे हो जाते हैं। ऐसे में ज्यादा चीजें हममें समा सकती हैं। सुख हमें उथला बनाते हैं। हम जब हंस रहे होते हैं तब चीजों को सतही तौर पर लेते हैं लेकिन संसार ने नियम बना लिया है कि सुख ही सही है। आनंद ही जीवन की अच्छी सेहत का संकेत है। दुख है तो बीमार हो। उदासी है तो मृतप्राय हो। यह तय कौन करे?

अभाव ही जीवन की गति हैं। असंतोष ही ईंधन है जीवन गाड़ी का। अभाव प्रेरित करते हैं। शून्य बनाते हैं ताकि नया जीवन समा सके। यह जीवन रिक्त स्थानों के कदम दर कदम चलने का बिंदुपथ है। हमारी उम्र अभावों की एक यात्रा है। मोशन ऑफ अ वैकेंट प्लेस इज़ आवर लाइफ। अभाव होंगे तो उदासी भी होगी इसलिए उदासी जीवन के आधारों की तासीर जैसी है। यानी कि अगर जीवन का स्थायी भाव कुछ है तो उदासी है। दुख है। ऐसा मेरा मानना है। इसलिए, जीवन में उदासी देने वालों और दुख देने वालों के प्रति कृतज्ञ होना हमारा नैतिक दायित्व है। यही धन्यवाद ज्ञापन हमारी उदासी का उत्सव है।

Saturday, 8 December 2018

विद्रोहीः 'मैं मानता ही नहीं कोई मुझसे बड़ा होगा'

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रमाशंकर यादव 'विद्रोही'
पुण्यतिथिः 'बास्टर्ड' सोसायटी में 'आसमान में धान' की तरह उग आने वाले कवि थे विद्रोही

"मैं किसी से प्रतिवाद नहीं करता तो उसका सिर्फ एक कारण है। मैं इस इंडियन सोसायटी का नेचर जानता हूं। यह एक बास्टर्ड सोसायटी है जो न कवि को इनाम देती है और न दंड।" नीतिन पमनानी की फिल्म 'मैं तुम्हारा कवि हूं' में बोलते हुए विद्रोही इस बात से कतई अनजान तो नहीं रहे होंगे कि वह जिस सोसायटी की बात कर रहे हैं वह हजारों साल पहले ही श्रुति परंपरा को नकारकर लिखित परंपरा के रास्ते पर चल पड़ी है। वह उसी को प्रमाणिक और ऐतिहासिक मानती है जो लिखित में है। इसमें संदेह की बात नहीं कि अगर धर्मदास ने कबीर को लिखा नहीं होता तो शायद वाचिक परंपरा का वह युगकवि सैकड़ों साल पहले अपनी समस्त दार्शनिक साखियों के साथ कहीं गायब हो गया होता। हालांकि, यह खुशी की बात है कि ऐसे हालात में भी कबीरों को उनके धर्मदास मिल जाते हैं।

हमारे युग के कबीर हैं विद्रोही
विद्रोही हमारे युग के कबीर हैं। अपने समय की संकीर्णताओं पर हथौड़ा मारने वाले कबीर। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की सड़कों, ढाबों से लेकर संसद मार्ग तक के प्रोटेस्ट तक में उस कबीर की कविता गूंजती थी और आज तक गूंज रही है। उम्मीद है कि वह आगे भी गूंजेगी क्योंकि वह लिखी नहीं गई है। वह दहाड़ी गई है। वह बोली गई है। विद्रोही का लिखने पर विश्वास ही नहीं था। वह कबीर की तरह 'मसि कागद छूयो नहीं' की स्थिति में नहीं थे। पढ़े-लिखे थे। अपने छोटे से गांव अहिरी फिरोजपुर से जेएनयू तक पहुंचे थे लेकिन फिर भी उन्होंने अपने आप को लिखने की बात नहीं सोची। जैसे वह लिखित रूप में दर्ज ही नहीं होना चाहते हों। जैसे वह आवाज के रूप में आसमान में फैल जाना और हवा में घुल जाना चाहते हों। इस बात से बिल्कुल भी अप्रभावित कि जो लिखा नहीं जाएगा वह मूल्यांकित भी नहीं होगा।

विद्रोही के समकालीन कवियों को उन्हें कवि मानने से ही ऐतराज है। उस समय हिंदी के विख्यात आलोचक नामवर सिंह भी जेएनयू में थे और विद्रोही भी। लेकिन नामवर सिंह के लिए विद्रोही कभी कवि नहीं बन पाए। शायद इसी वजह से कवि विद्रोही न तो कभी छपे और न ही उनका मूल्यांकन किया गया। इस 'बास्टर्ड' सोसायटी में विद्रोही घूम-घूमकर कहते रहे

"मैं चाहता हूं कि
पहले जनगणमन अधिनायक मरें
फिर भारत भाग्य विधाता मरें
फिर साधू के काका मरें
यानी सारे बड़े लोग पहले मर लें
और फिर मैं मरूं"

लेकिन कोई इस कवि के इस 'विवादित' कविता को संज्ञान में नहीं लेना चाहता। कोई कवि को दंड नहीं देना चाहता। कोई कवि को ईनाम नहीं देना चाहता। एक तरह से समकालीन लोगों द्वारा समूचे तौर पर इग्नोर कर दिया जाना ही इस कवि को ऐसी लीक पर खड़ा कर देता है जो सबसे अलग है। जिस पर विद्रोही अकेले हैं। समकालीन साहित्य के पास विद्रोही को लिखने की स्याही भले न हो लेकिन वह दर्ज होने से नहीं रहेंगे। समय हर चीज को दर्ज कर लेता है। विद्रोही को समय ने दर्ज कर लिया है। जब-जब लोगों को 'मोहनजोदड़ो की आखिरी सीढ़ी पर पड़ी औरत की लाश' और 'इंसानों की बिखरी हुई हड्डियों' पर अथाह तकलीफ होगी, अपने बच्चों और पुरखों को बचाने की चिंता होगी तब-तब लोग अपने कवि की आवाज ढूंढ लेंगे और ऐसे वक्त में विद्रोही तमाम साजिशो, षडयंत्रों के लिखित इतिहास की बंजर धरती से आसमान में धान की तरह उग पड़ेंगे।
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'मैं मानता ही नहीं..'
"मुझे मसीहाई में यकीन है ही नहीं,
मैं मानता ही नहीं कोई मुझसे बड़ा होगा।"

जिसके पास आत्ममूल्यांकन का सामर्थ्य हो वह किसी और से अपने मूल्यांकन की उम्मीद नहीं करता। विद्रोही की कविता पढ़ेंगे तो लगेगा कि वह 'काव्यशास्त्र विनोदेन कालो गच्छति धीमताम' जैसे लोगों के लिए नहीं थे। ऐसे लोग जो ड्राइंग रूम्स या पुस्तकालयों में बैठकर धीरे-धीरे समझ-समझकर, रस लेकर कविता पढ़ते हों, विद्रोही शायद उनके कवि नहीं हैं। विद्रोही की कविताओं में प्रतिध्वनि सुनाई देती है। संबोधन होता है। पुकार होती है। विद्रोही-साहित्य में कवि और श्रोता अलग-अलग नहीं है। दोनों ही कविता में विराजमान हैं। कविता में ही श्रोता भी है और कवि भी। विद्रोही की कविता किसी सुधी श्रोता से वार्तालाप की प्रक्रिया है। इसमें वह तीसरा पक्ष भी शामिल है जिसकी उलाहना देनी हो या जिसकी मजम्मत करनी हो।

मैं किसान हूँ
आसमान में धान बो रहा हूं।
कुछ लोग कह रहे हैं
कि पगले! आसमान में धान नहीं जमा करता
मैं कहता हूँ पगले!
अगर ज़मीन पर भगवान जम सकता है
तो आसमान में धान भी जम सकता है
और अब तो दोनों में से कोई एक होकर रहेगा
या तो ज़मीन से भगवान उखड़ेगा
या आसमान में धान जमेगा।

हजार साल पुराना गुस्सा और नफरत
अपनी कविताओं में पीरगाथाओं को वीरगाथाओं के व्याकरण में ढालकर विद्रोही ब्राह्मणवाद के 'गौरवाशाली' इतिहास की खिल्ली उड़ाते हैं। वह अपने आप को पंडित और ज्ञान का अगुआ कहने वाले लोगों के बनाए समाज का आईना भी विद्रोही तरीके से रखते हैं। ऐसे में उनके अंदर से गोरख पांडे की कविता की तरह 'हजार साल पुराना गुस्सा और हजार साल पुरानी नफरत' अपनी पूरी तीव्रता के साथ बाहर निकलती है।

बाम्हन का बेटा
बूढ़े चमार के बलिदान पर जीता है।
भूसुरों के गांव में सारे बाशिंदे
किराएदार होते हैं
ऊसरों की तोड़ती आत्माएं
नरक में ढकेल दी जाती हैं
टूटती जमीनें गदरा कर दक्षिणा बन जाती हैं,
क्योंकि
जिनकी माताओं ने कभी पिसुआ ही नहीं पिया
उनके नाम भूपत, महीपत, श्रीपत नहीं हो सकते,
उनके नाम
सिर्फ बीपत हो सकते हैं।
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विद्रोही! तुम करते क्या हो?
जंगलों में 'नराः वानराः' की तर्ज पर रहने वाले विद्रोही, नहाने-धोने से परहेज करने वाले विद्रोही, जेएनयू के शहर में छात्रों की संगत के सहारे जीने वाले विद्रोही, प्रोटेस्ट, सभा-कार्यक्रमों में महज अपनी कविता सुनाने के लिए लंबा इंतजार तक मंजूर करने वाले विद्रोही, प्रतिरोध के अपने वैचारिक विरासत को अपने बेटे को भी सौंपने की मंशा रखने वाले विद्रोही दिसंबर 2015 की आज ही की तारीख को दुनिया छोड़कर चले जाते हैं और वैसे ही जैसे एक योद्धा के लिए वीरगति ही उसकी सर्वोच्च उपलब्धि होती है विद्रोही भी जेएनयू छात्रसंघ की 'ऑक्यूपाई यूजीसी' प्रोटेस्ट के दौरान वीरगति को प्राप्त हुए। कविता उनके लिए खेती थी, उनके लिए वैसा ही काम था जैसा काम लोग अपनी सांसे चलाने के लिए करते हैं।
कर्म है कविता
जिसे मैं करता हूं
फिर भी लोग मुझसे पूछते हैं
विद्रोही! तुम करते क्या हो?

दर्द का दवा हो जाना भी सही नहीं
विद्रोही की बहुत सी कविताएं उल्लेखनीय हैं लेकिन सभी यहां संभव नहीं। उनकी कविताओं का संग्रह नवारुण ने प्रकाशित किया है। नितिन के पमनानी ने 'मैं तुम्हारा कवि हूं' नाम से उन पर एक डॉक्युमेंट्री फिल्म भी बनाई है। विद्रोही ने जनभाषा में कविताएं लिखी हैं। जन सरोकारों पर कविताएं लिखी हैं। हलवाह, नानी, कहांर, नूर मियां, अहीर, औरत, आदिवासी जैसे बिम्बों-शब्दों का सहारा लेकर अपनी बात कही है। लोग उनमें नागार्जुन देखते हैं। कबीर देखते हैं लेकिन विद्रोही इस बात से खुश होते हैं कि लोग उनमें तुलसीदास नहीं देखते। वह दर्द का इलाज करना जरूरी समझने वाले साहित्य-समाज के इकलौते कवि होंगे। उनके मुताबिक दर्द ठीक है। दर्द आगे भी मिले तो इनकार नहीं है लेकिन दर्द की आदत बन जाना सबसे ज्यादा खतरनाक है। वैसे ही जैसे पाश के शब्दों में मुर्दा शांति से भर जाना सबसे खतरनाक है। इसीलिए विद्रोही गालिब को खारिज करते हैं और कहते हैं -

दर्दों का आगे और भी सिलसिला हो,
पर ये तो न हो कि दर्द ही दवा हो।

Thursday, 15 November 2018

पुराणों से आधुनिक निष्कर्ष लाने वाले प्रसाद


जयशंकर प्रसाद: ऐतिहासिक-पौराणिक आख्यानों से आधुनिक निष्कर्ष निकालने वाले रचयिता

धुनिक हिंदी साहित्य जब किशोर हो रहा था उस समय जयशंकर प्रसाद का जन्म साल 1890 में काशी में हुआ था। आर्थिक संपन्नता के वातावरण में पले-बढ़े प्रसाद का विषाद और करुण भावनाओं के तट पर आना तब होता है जब 12 साल की उम्र में पिता का साया उनके सर से उठ जाता है। कुछ ही साल बाद माता की भी मृत्यु से काशी के समृद्ध सुंघनी साहू परिवार का यह वंशज घोर आर्थिक संकट के झंझावातों के फेर में पड़ता है। कहते हैं कविता व्यथा की पुत्री है। महज 9 साल की अवस्था से ही लेखन में रमे जयशंकर प्रसाद ने भी अपनी जीवन-पीड़ा का आलम्ब लेकर तमाम दार्शनिक और मनोवैज्ञानिक काव्य रचे। हालांकि, प्रसाद के परिवार को उनका लिखना पसंद नहीं आता था इसलिए जयशंकर कलाधर हो जाते हैं और इसी नाम से लेखन जारी रहता है। बड़े भाई का भी असमय निधन होने के बाद जयशंकर प्रसाद संन्यास की ओर भी प्रेरित होते हैं लेकिन कहते हैं कि विधवा भाभी के अनुनय-विनय पर वह सांसारिक जीवन में वापस लौट आते हैं। हालांकि, यह लौटना समूचा नहीं हो पाता है क्योंकि प्रसाद की रचनाएं और उनका शेष जीवन बताता है कि वह केवल देह से वापस आए हैं। उनका मन तो कहीं संन्यासी ही हो गया है।

साल 1918 में प्रसाद की पहली रचना 'चित्राधार' प्रकाशित हुई। इसमें उनकी ब्रज कविताएं शामिल हैं। हिंदी साहित्य में उनके पूर्ववर्ती भारतेंदु हरिश्चंद ने हिंदी गद्य को खड़ी बोली से समृद्ध तो किया लेकिन पद्य में वह ब्रज भाषा लेखन के रथ से नहीं उतर पाए थे। बहुत लंबे समय तक हिंदी खड़ी बोली का हिंदी काव्य से साक्षात्कार नहीं हुआ था। हिंदी का यह इंतजार तब खत्म हुआ जब जयशंकर प्रसाद ने 'आंसू' लिखी। इसे हिंदी पद्य साहित्य का पहला ऐसा काव्य संग्रह माना जाता है जो खड़ी बोली हिंदी में लिखी गई है। लेकिन, जयशंकर प्रसाद को हिंदी साहित्य के इतिहास में इस युगांतकारी परिवर्तन के अलावा भी कई कारणों से याद किया जाता रहा है। इन्हीं में से एक मजबूत कारण है ‘कामायनी’।

'कामायनी' तकरीबन 47 साल जीने वाले जयशंकर प्रसाद का आखिरी महाकाव्य है। इसे जयशंकर प्रसाद की उपलब्धि से ज्यादा हिंदी साहित्य की उपलब्धि के लिए जाना-बताया जाए तो इसमें किसी को भी कोई आपत्ति नहीं होगी। 'कामायनी' मानवता के मनोविज्ञान का अद्भुत शास्त्र है। ज्ञान, भाव और कर्म की बुनियाद पर लिखे इस महाकाव्य में मानव के देवत्व पर श्रेष्ठता की उद्घोषणा का भी संकेत मिलता है। 'कामायनी' के पहले सर्ग चिंता में ही यह बात स्पष्ट रूप से दिखाई देती है।

हिमगिरि के उत्तुंग शिखर पर बैठ शिला की शीतल छांह,
एक पुरु, भीगे नयनों से देख रहा था प्रलय प्रवाह।

नंददुलारे वाजपेयी प्रसाद पर लिखे अपने लेख में बताते हैं कि कामायनी की शुरुआत ही आदर्शवादी देवसृष्टि के विध्वंस के साथ होती है। इस विध्वंस में देव-सृष्टि विनष्ट हो जाती है और मानव सृष्टि का आरंभ होता है। प्रथम मानव मनु है जो उन अमर देवों का वंशज है जो प्रलय में मर गए हैं। प्रसाद कामायनी के शब्दों से कहना चाहते हैं कि जब देव-सृष्टि विनष्ट होती है तब मानव-सृष्टि आकार लेती है। साल 1936 में प्रकाशित हुए इस महाकाव्य में प्रसाद ने प्रथम मानव मनु के माध्यम से तकरीबन संपूर्ण मानवीय संवेदनाओं का विस्तृत व्याख्यान लिखा है। कुल 15 सर्गों वाली कामायनी का हर सर्ग किसी स्थान, घटना या पात्र के नाम के शीर्षक के साथ आरंभ होने की बजाय मानव मन की वृत्तियों के आधार पर होता है।

छायावाद की समस्त प्रवृत्तियां प्रसाद की कामायनी में सम्पूर्ण रूप से विद्यमान हैं। वहीं, अगर आप निराला में छायावाद के प्रतीक-चित्रों की खोज करेंगे तब आपको उनका समूचा साहित्य उलटना पड़ेगा। यही छायावाद के अन्य स्तंभ-लेखकों के साथ भी है। तमाम विद्वान जयशंकर प्रसाद में बुद्ध का अंश देखते हैं। जीवन में इतने प्रिय लोगों का अकाल दुनिया छोड़कर चले जाना प्रसाद को मृत्यु-व्यथा के प्रश्नों की ओर लेकर जाता है। इन्हीं सवालों के जवाब में 'आंसू' और 'झरना' की सृष्टि होती है।

इस करुणा कलित ह्रदय में एक विकल रागिनी बजती।
क्यों हाहाकार स्वरों में वेदना असीम गरजती।

प्रसाद घोर आधुनिक कवि हैं। उनकी रचनाओं में आधुनिक प्रश्नों के जवाब तलाशने और सामाजिक वैषम्य पर सवाल उठाने की घटनाएं विशेष रूप से मिलेंगी। बौद्ध दर्शन की ओर झुके प्रसाद ने बुद्धकालीन चरित्रों से दो चीज़ें सीखीं। पहली तो अहिंसा और करुणा भाव। दूसरा स्त्री-सम्मान। प्रसाद ने तात्कालिक सामाजिक परिस्थितियों को आधार मानकर स्त्री-विषयक आधुनिक सवाल उठाकर स्वयं की दूरदर्शिता का परिचय भी दिया है।

नारी तुम केवल श्रद्धा हो

श्रद्धा के बिना जीवन निर्वाह असंभव है। कामायनी यही बताती है। आप कामायनी के सर्गों पर जाएंगे तो पहला सर्ग है चिंता। सृष्टि की चिंता कि पुनर्निर्माण कैसे हो? चिंता के बाद उपजती है आशा। उसके बाद श्रद्धा। श्रद्धा के बिना आशा की कल्पना नहीं हो सकती। श्रद्धा कामायनी की महिला पात्र है, जो कामायनी है। श्रद्धा से अलग हो जब कामायनी का नायक मनु इड़ा यानि की बुद्धि की ओर प्रयाण करता है तभी उसे दुखों से दो-चार होना पड़ता है। बुद्धि की अति होने से महत्वकांक्षाओं में भी बढ़ोतरी होती है। मनु पहले तो इड़ा के साम्राज्य में मंत्री होता है लेकिन फिर वह सम्राट बनने का दुःसाहस करता है। यही उसके पतन की वजह बनने लगती है। अंत में उसे कामायनी के संसर्ग से ही राहत मिलती है। यह स्पष्ट करता है कि प्रसाद अति-बुद्धिवाद यानि कि बुद्धि के एकांगी विकास पर सहमत नहीं थे। वह जीवन में सुख-दुख की समरसता का दर्शन कामायनी में स्थापित करने के प्रयास में लगे दिखाई देते हैं।

प्रसाद की रचनाओं में घोर दार्शनिक तत्वों का समावेश है लेकिन इससे वह अपने युग की प्रगतिशील चेतना से दूर नहीं हुए। उनकी कहानियों में उत्थानमूलक प्रसंगों की प्रचुरता है। उनके द्वारा स्थापित आदर्शों में यथार्थ का मिश्रण है। उनकी कहानियों, कविताओं, नाटकों के केंद्र में अधिकांशतः सामाजिक पृष्ठ पर हाशिये पर स्थित लोगों की चर्चा है। कामायनी में जहां नायिका श्रद्धा की अतिरिक्त महत्ता है वहीं कंकाल में उन्होंने रुढ़िबद्ध जाति-प्रतिष्ठा के विरुद्ध कलम चलाई है। उनका एक अन्य उपन्यास तितली मजदूरों और किसानों के जीवन-चित्र से सज्जित है। उपन्यास की नायिका तितली एक किसान पुत्री है जिसके माध्यम से प्रसाद ने ग्राम्य-नवनिर्माण संबंधी अपने विचार रखे हैं। हिंदी साहित्य में आधुनिक चेतना के प्रभात काल में नारी-स्थिति पर प्रसाद काफी मुखर हैं। प्रसाद के तत्कालीन सवाल आधुनिक नारी-विमर्श की धुरी हैं तो इससे जयशंकर प्रसाद की दूरदर्शी सर्जनात्मक क्षमता और अपने युग से आगे की सामाजिक और सांस्कृतिक चेतना का संकेत मिलता है।

तुम भूल गए पुरुषत्व मोह में कुछ सत्ता है नारी की।
समरसता है संबंध बनी अधिकार और अधिकारों की।

या

मैं जभी तौलने का करती उपचार, स्वयं तुल जाती हूं।
भुज लता फंसाकर नर-तरू से झूले-सी झोंके खाती हूं।

उनकी ज्यादातर रचनाओं में पौराणिक या ऐतिहासिक आख्यानों का सहारा लिया गया है लेकिन इससे प्रसाद ने पुरातनपंथ और रुढ़िवाद को पोषण देने की बजाय आधुनिक निष्कर्ष निकालकर सही अर्थों में प्रगतिशील, पुष्ट और प्रतिभाशाली लेखन का परिचय दिया है। प्रसाद की गैर-पौराणिक या गैर-ऐतिहासिक रचनाओं में भी कल्पना की अंध उड़ान नहीं है। उनकी समस्त कृतियों में जीवनानुभवों के निष्कर्षों का दस्तावेज है।

साहित्यिक जीवन से इतर प्रसाद का व्यक्तिगत जीवन बड़ा ही सरल था। पुत्र, पत्नी और भाभी के सम्मिलन से उनका परिवार बनता था। प्रसाद बड़े ही सामाजिक थे लेकिन गोष्ठियों, समारोहों इत्यादि में भाग लेने से कतराते थे। साहित्य की लगभग हर विधा नाटक, उपन्यास, कविता, निबंध, ग़जल इत्यादि में हाथ आजमाने वाले प्रसाद किसी की भी पुस्तक की भूमिका लिखने में बिल्कुल रूचि नहीं रखते थे। इस संबंध में तो उन्होंने उपन्यास सम्राट प्रेमचंद तक की पैरवी ठुकरा दी थी। नाटकों में प्रसाद की प्रतिभा खुलकर सामने आई है। जैसे मुंशी प्रेमचंद 'उपन्यास सम्राट' कहे जाते हैं वैसे ही प्रसाद को भी 'नाटक सम्राट' कहा जा सकता है। उनके तमाम नाटक ऐतिहासिक आख्यानों पर आधारित हैं। अंग्रेजों की गुलामी के दौर में जब राष्ट्रीय भावनाओं से ओत-प्रोत और राष्ट्रीय स्वाभिमान और आजादी की चेतना के जागरण वाली रचनाओं पर सरकारी निगरानी और दंड-विधान का अत्याचार चरम पर था तब प्रसाद इस काम के लिए ऐतिहासिक आख्यानों का ही सहारा लेते हैं। नाटक 'चंद्रगुप्त' एक हिस्से में यवन आक्रमणकारी सेल्यूकस भारत की ओर कूच करता है। इसी कथा का आधार लेकर प्रसाद तक्षशिला की राजकुमारी अलका के शब्दों में भारतवासियों का आह्वान करते हैं –

हिमाद्रि तुंग श्रृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती।
स्वयं प्रभा समुज्ज्वला स्वतंत्रता पुकारती।
अमर्त्य वीर पुत्र हो, दृढ़ प्रतिज्ञ सोच लो।
प्रशस्त पुण्य पंथ है बढ़े चलो, बढ़े चलो।

जीवन-दर्शन, आध्यात्मिकता के अलावा राष्ट्रीय भावनाएं भी प्रसाद साहित्य का श्रृंगार हैं। उन्हें अपने देश से प्रेम है। इसी प्रेम के अधीन प्रसाद भारत को अनजान क्षितिज को प्राप्त किनारा और लघु सुरधनु-से पंख पसारे खगों का नीड़ घोषित करते हैं।

लघु सुरधनु से पंख पसारे, शीतल-मलय समीर सहारे।
उड़ते खग जिस ओर मुंह किए समझ नीड़ निज प्यारा।

अरुण यह मधुमय देश हमारा।

जहां पहुंच अनजान क्षितिज को मिलता एक किनारा।

प्रसाद का जीवन बहुत संक्षिप्त रहा है। उनका अंतिम उपन्यास इरावती उनके असामयिक निधन के चलते अधूरा रह गया। साल 1937 के नवंबर की 15 तारीख को प्रसाद सदेह इहलोक से प्रयाण कर गए। इस समय तक उनकी उम्र महज 47 साल रही थी। लेकिन, अल्प जीवनकाल में ही जयशंकर प्रसाद ने जो कुछ भी हिंदी साहित्य को सौंपा वह उनकी अखंड, अजर और अमर कीर्ति का प्रमाणपत्र है। उनकी कृति 'कामायनी' को विश्व साहित्य की सदी की सर्वश्रेष्ठ कृतियों में गिना जाता है। श्यामनारायण ने इसे विश्व साहित्य का 8वां महाकाव्य घोषित किया है। वहीं, प्रकृति के सुकुमार कवि सुमित्रानंदन पंत ने कामायनी को 'हिंदी के ताजमहल' की संज्ञा दी है।

Wednesday, 31 October 2018

प्रधानमंत्री जी! देश बांटने की गतिविधियों के साथ 'एकता की मूर्ति' के फीते नहीं काटे जा सकते

हम अपने 'राष्ट्रवाद' को पूंजीपति होने से नहीं रोक पाए। हमारा राष्ट्रवाद अब 182 मीटर ऊँची प्रतिमा पर चढ़कर उन लोगों पर थूकेगा जो आज कहेंगे कि 3000 करोड़ रूपए की सरदार की मूर्ती बनाने से अच्छा था कि लाखों नर्मदा पुत्र किसानों के फसलों की सिंचाई की व्यवस्था कर दी जाती। उन्हें पानी उपलब्ध कराया गया होता। उनके खेतों में अगर हमारा शस्य श्यामल राष्ट्रवाद लहराता तो सरदार कितना खुश होते! सरदार का जब निधन हुआ था तब उनके खाते में महज़ 260 रुपए थे। अहमदाबाद में कहीं किराए पर कमरा लेकर वह रहते थे। सरदार से हम राष्ट्रीय सम्पत्तियों की अहमियत भी सीख नहीं पाए।

हमारी अंतरराष्ट्रीय स्पर्धा है किस चीज़ से? हंगर इंडेक्स में हम 103वें नम्बर पर हैं। इसे गम्भीर संकट के बतौर चिन्हित किया गया है। स्वास्थ्य के मामले में भी हम दुनिया में फिसड्डी ही हैं। शिक्षालयों की तो बात करना ही बेकार है। खुद को विश्वगुरू बताने के अलावा हमने शिक्षा के क्षेत्र में क्या काम किये हैं? लेकिन, फिर भी। हमने चुनौती स्वीकारी तो यह कि हम दुनिया की सबसे ऊंची मूर्ति बनाकर दिखाएंगे। पता नहीं इससे महापुरुषों का सम्मान होता है या अपमान? लौह पुरुष सरदार पटेल की सबसे ऊंची प्रतिमा बनने पर लहालोट होने वालों से इतर भी भारत का एक ऐसा कोना है जहाँ से स्टेचू ऑफ़ यूनिटी देखें तो सरदार लज्जित दिखाई देंगे। प्रतिमा के लिए आस-पास के गांवों के लोगों की जमीन ली गई। उन्हें विस्थापित किया गया।

बताते हैं कि सरदार सरोवर बांध बनाने के लिए ही जिन लोगों को विस्थापित किया गया था वह लोग आज तक अपने मुआवजे की प्रतीक्षा में हैं। सरकार की घोषणा और फिर उसका क्रियान्वन, दो अलग चीजें हैं। सबको केवल घोषणाओं की मुनादी सुनाई जाती है। उसके क्रियान्वन की हकीकत जानने और बताने की जरूरत किसी को नहीं लगती। हम राष्ट्रवाद का पानी पी पीकर आलोचकों को कोसते हैं। बाकी, जो लोग भूखे-प्यासे, जमीन से महरूम हैं, उनसे पूछिए तो बताएंगे कि मूर्ति कितनी भव्य है और कितनी सुंदर है? मूर्तिस्थल के समीप रहने वाले आदिवासियों ने प्रधानमंत्री के नाम खुला खत लिखा था। उन्होंने लिखा था कि जब आप मूर्ति के लोकार्पण के लिए आएंगे तो हम आपका स्वागत नहीं करेंगे। लेकिन प्रधानमंत्री को आदिवासियों के स्वागत की क्या पड़ी है? उनके स्वागत के लिए तो तमाम लोग तैयार और इंतजार में बैठे हैं।

सरदार को सरदार की उपाधि किसान पत्नियों ने दिया था। वह सबसे पहले किसान नेता ही थे। ऐसे में उनकी मूर्ति स्थापित होने से किसानों को सबसे ज्यादा खुश होना चाहिए। लेकिन ऐसा है नहीं। किसान नाराज हैं। आदिवासी किसानों ने विरोध स्वरूप भूख हड़ताल की घोषणा की है। आदिवासियों के एक नेता ने कहा है कि हम मूर्तिस्थल पर विरोध के लिए जाएंगे लेकिन उम्मीद है कि हमें वहां घुसने नहीं दिया जाएगा। इसलिए, हमारे समुदाय के बच्चे, जवान, महिलाएं और बुजुर्ग विरोध स्वरूप उपवास रखेंगे। किसानों का यह भी कहना है कि सरदार की मूर्ति के चारों ओर जो पानी इकट्ठा किया गया है, अगर वही किसानों को मिल जाता तो उनकी फसल नहीं सूखती। लेकिन, यह सौंदर्य का मामला है। अंतरराष्ट्रीय ईगो का मामला है। हमने संसार की सबसे ऊंची मूर्ति स्थापित की है। कांग्रेस के नेता रहे सरदार पटेल की। उनके निधन के कई साल बाद उनका राजनैतिक नहीं बल्कि वैचारिक दल परिवर्तन कराने की कोशिश की जा रही है। भाजपा और मोदी के इस सरदार प्रेम के कई सारे कारण हैं।

मोदी का दावा है कि सरदार के साथ कांग्रेस ने न्याय नहीं किया। नेहरू परिवार को आगे बढ़ाने के चक्कर नें उन्होंने सरदार को कम महत्व दिया। कांग्रेस में नेहरू-गांधी परिवार के वर्चस्व के बारे में हर कोई जानता है। यह कुछ बिंदुओं पर आलोच्य भी है। इंदिरा गांधी के बाद का कांग्रेस देखें तो मोदी की बात पर आसानी से भरोसा किया जा सकता है। नेहरू परिवार के बरअक्स सरदार को कम याद किया गया है लेकिन उन्हें भुला दिया गया या फिर उनका अपमान कर दिया गया, इस बात पर न सिर्फ यकीन करना मुश्किल है बल्कि यह अल्पज्ञान और इतिहास के अज्ञान का उद्घोषक बयान ही ज्यादा लगता है। सभी को पता है कि बीजेपी या नरेंद्र मोदी सरदार के साथ हुए अन्याय से दुखी नहीं हैं। बार बार आरएसएस और बीजेपी नेताओं की स्वतंत्रता संग्राम से जुड़ी विरासत को लेकर उठने वाले सवाल से वह काफी समय से परेशान थी। उसे किसी ऐसे लोकप्रिय नेता की तलाश थी जिससे वह अपनी विरासत जोड़ सके और अपने आपको जिसका राजनैतिक न सही कम से कम वैचारिक वारिस सिद्ध कर सके।

आजादी के संग्राम के लोकप्रिय नेताओं में गांधी और सरदार आरएसएस के लिए विकल्प हो सकते थे। नेहरू प्रगतिशील तथा धर्मनिरपेक्ष राजनीति के लिए जाने जाते थे। हिंदुत्व के प्रति उनका कोई नरम रुख नहीं था। गांधी शुद्ध आस्तिक थे। हिंदुत्व के तमाम प्रतीकों पर उनकी गहरी आस्था थी। लेकिन, वह आरएसएस या हिंदू महासभा के हिंदुत्व के कभी समर्थक नहीं रहे। उनका मानना था कि हिंदुस्तान में हिंदू-मुस्लिम दंगों को रोकने के लिए हिंदुओं को पूरी तरह से अहिंसा के साथ हो लेना चाहिए। इसके लिए अगर उन्हें मर मिटना पड़ता है तो भी मुसलमानों के अंदर सुरक्षा का विश्वास पैदा करने के लिए उन्हें ऐसा करना चाहिए।

संघ महात्मा गांधी के इस सिद्धांत से असहमत था। सरदार पटेल भी गांधीजी की इस विचारधारा के समर्थन में नहीं थे। यहीं बीजेपी को सरदार अपने वैचारिक गोत्र के लगते हैं। इसके अलावा सोमनाथ मंदिर के लिए वल्लभ भाई पटेल के प्रयास को भी दक्षिपंथी खेमा काफी सराहता रहा है। सिर्फ इतना ही नहीं, गांधी जी की हत्या के बाद जब कई जगहों पर हिंदू महासभा और आरएसएस के लोगों पर हमले बढ़ने लगे थे तब सरदार ने जिम्मेदार अधिकारियों को इसके लिए फटकार लगाई थी। इन सब चीजों की वजह से हिंदुत्व की तथाकथित झंडाबरदार आरएसएस और भाजपा के लोगों के मन में सरदार पटेल को लेकर सॉफ्ट कॉर्नर है। सरदार पटेल की मूर्ति भाजपा और मोदी द्वारा अपनी विरासत आजादी के एक बड़े नेता से जोड़ने की कवायद भर है। मोदी के सरदार प्रेम में पटेल का गुजराती और पाटीदार होना भी शामिल है। उन्हें लगता है कि गुजरात में प्रभावी वोटबैंक के रूप में मौजूद पाटीदार समूहों की नाराजगी आगामी चुनावों में इस मूर्ति अनावरण के साथ दूर हो जाएगी।

यह सच है कि स्टैच्यू ऑफ यूनिटी गहरे राजनीतिक मंथन का फल है। इसके पीछे केवल सरदार का कथित खोया सम्मान लौटाना ही उद्देश्य नहीं है। सरदार पटेल को लेकर कांग्रेस के गांधी परिवार के प्रति देश की जनता में घृणा भाव भरने की दुर्भावना की गंध भी भाजपा से आती दिखाई देती है। यह आजादी के अब तक के पढ़े गए इतिहास में भावनात्मक परिवर्तन लाने का अभियान है। सरदार की प्रतिमा से दिक्कत नहीं है। यह महापुरुषों को उनकी विचारधारा के प्रतीक के तौर पर स्थापित करने सबसे सुदृढ़ और प्रभावी विकल्पों में से एक है। लेकिन, हमें इसे स्थापित करने के योग्य पहले हो लेना चाहिए था। भारत जैसे देश के लिए 3हजार करोड़ रुपए बहुत मायने रखते हैं। और फिर सरदार स्वयं सादगी और किफायतशारी के प्रतीक पुरुष थे।

 ऐसे में उनकी प्रतिमा की स्थापना में इतनी धनराशि खर्च करना एक गरीब विकासशील देश के लिए फिजूलखर्ची से ज्यादा कुछ नहीं है। वो भी ऐसा देश जहाँ आज भी राजधानी इलाके में 3 बच्चे भूख से मर जाते हों। राष्ट्र की मूलभूत समस्याएं सुलझाकर और राष्ट्रवादी महापुरुषों के सपनो का भारत निर्मित कर भी हम उन्हें अंतरराष्ट्रीय सम्मान दिला सकते हैं। एक ओर पंथ-जाति में देश को बांटने की प्रक्रिया में मशगूल होकर दूसरी ओर एकता की मूर्ति के फीते नहीं काटे जा सकते। प्रधानमंत्री ने आज कहा कि हम महापुरुषों का सम्मान करते हैं तो हमारी आलोचना होती है। प्रधानमंत्री जी का सम्मान बहुत महंगा है। इसलिए, आलोचना से कैसे बचेंगे। वो अपनी जिम्मेदारियों से महापुरुषों को सम्मानित नहीं करते बल्कि उसके लिए विशेष भव्य आयोजन होते हैं। प्रचार होता है। लोगों को दर्शाया जाता है कि देखिये हम सम्मान कर रहे हैं। पहले वालों ने केवल अपमान किया। जैसे ये सुभाष चंद्र बोस और सरदार पटेल का सम्मान न करते तो वे लोग सदैव अपमानित रहते। पता नहीं नैतिक दृष्टि से यह सम्मान ही है या परोक्ष अपमान। क्योंकि, आज तक देश में कोई सुभाष बोस और पटेल के अपमान की चर्चा नहीं करता था। प्रधानमंत्री की सवालिया ऊँगली केवल कांग्रेस पर नहीं उठी है। यह स्वतंत्रता संग्राम के बाद के हमारे पुरखों और इस देश की जनता पर भी उठायी गई है।

प्रधानमंत्री को सोचने की जरूरत है कि महापुरुषों का सम्मान कैसे करना है। किसी ने कहा है कि किसी भी महापुरुष की प्रतिमा स्थापित करना उसकी विचारधारा और सिद्धांतों की हत्या का बहाना ढूंढ लेना है। हम देश में गोरक्षा के नाम पर हो रही हत्याओं पर चुप रहेंगे। हम मॉब लिंचिंग पर चुप रहेंगे। मुम्बई और गुजरात से यूपी-बिहार के लोगों के साथ हिंसा कर खदेड़े जाने की घटना पर मौन साध लेंगे। हम अपने मंत्रियों को द्वेष फैलाने वाले बयानों पर कुछ नहीं कहेंगे। हम पूर्वोत्तर के लोगों के लिए दिल्ली रहने लायक न होने पर भी कोई प्रतिक्रिया नहीं देंगे। जातिगत हिंसा पर मुंह नहीं खोलेंगे। और फिर 3000 करोड़ की स्टेचू ऑफ़ यूनिटी बनाकर कहेंगे कि देश की एकता और अखंडता हमारी प्राथमिकता है। यह छलावा क्यों है? यह धोखा किसे है? यह झूठ आप किससे बोलते हैं?

देश के लोगों को यह सच्चाई भांपनी होगी। उन्हें सतर्क होना होगा। क्योंकि, राज्य का मूल अर्थ है। आपके अर्थ का सही इस्तेमाल नहीं होगा तो आपकी राजनीति बेपटरी हो जाएगी। आपका राज्य, आपका देश भ्रष्टाचार की ओर जाने लगेगा। इसलिए, जरुरी है कि वक़्त से साथ बदली देशभक्ति की परिभाषा को समझें। अपने महापुरुषों से प्यार करें। उनके विचारों का सम्मान करें लेकिन प्रतीकात्मक राष्ट्रवाद से बाहर आएं। राष्ट्र के लिए जिस तरह की लड़ाई हमारे हिस्से आई है उसके लिए जी जान से लड़ें। भ्रष्टाचार से लड़ें। गरीबी-भुखमरी से लड़ें। अशिक्षा से लड़ें। साम्प्रदायिकता से लड़ें। यही सच्ची देशभक्ति है। आज हमें देशभक्ति के नए प्रतीकों की जरूरत है। हमें देशभक्ति की नई परिभाषा चाहिए। हमें केवल महापुरुषों की मूर्तियां नहीं बनानी हैं। हमें नए महापुरुष भी तो चाहिए। वो भी जीवंत, सक्रिय और अमूर्त।

Tuesday, 25 September 2018

यात्राएं रुकी नदी की तरह ठहरी जिंदगी को गतिशील करती हैं

मानक के हिसाब से स्थिर हो जाने की अलग-अलग परिभाषा होती है। साइकिल के पहिए घूमते रहें लेकिन साइकिल अगर स्टैंड पर खड़ी हो तो पहिए की इस गतिशीलता को भी स्थिर होना ही कहेंगे। काफी दिनों से कुछ ऐसी ही अनुभूति के दलदल से ऊबकर प्रतापगढ़ जाने का कार्यक्रम बना। प्रतापगढ़ ननिहाल है। पिछले साल 3 सितंबर को नाना का देहांत हो गया था। तब जाना नहीं हो पाया था। एक साल होने के बाद 1 सितंबर को उनकी पहली बरसी का कार्यक्रम था। हर लिहाज से जाना उचित लगा। यात्रागत असुविधाएं जो अब आदत में शामिल हो जाना चाहिए, हुईं। ट्रेन कैंसिल होने से लेकर सीट न मिलने और ट्रेन लेट होने तक की सारी दिक्कतें साथ चलीं। लेकिन, 3 साल बाद ननिहाल जाने का उत्साह था, सो ये दिक्कतें झेलने में दिक्कत नहीं हुई। पारिवारिक सम्मेलन के अलावा भी यह टूर कई मायनों में दिलचस्प रहा। इनमें वापसी के रास्ते में मधुबन गोष्ठी, बनारस हिंदू विश्वविद्यालय और उसके कुछ उत्साही, सशक्त और निर्भीक छात्र तथा लखनऊ यात्रा ने यात्रा को सफलता से एक कदम आगे तक पहुंचा दिया।

शुभम, सत्यम, पुरू और किरन मौसी – प्रतापगढ़ में नानी से मिलना सबसे आवश्यक प्रयोजन था। उनकी हमेशा की नानी से मिलने न आने की शिकायतों के निस्तारण के लिए तथा इस मामले में सफाई देने के लिए स्वतः निर्धारित समय सीमा भी कबकी पूरी हो चुकी थी। इसलिए जाना तो था ही। लेकिन, नानी से अपेक्षाकृत कम मुलाकात-बातचीत रही। ज्यादा समय बीता शुभम, सत्यम और पुरू के साथ। ये समय कितने अमूल्य और मजेदार होते हैं इस बारे में बता पाना संभव नहीं होगा। पुरू के साथ काफी देर तक राजनीति, समाजनीति की बहसें चलतीं। राफेल डील से लेकर आर्यन थ्योरी तक। कई पूर्वाग्रह उसकी डिबेट के साथ चलते रहे। शाखा अर्जित ज्ञान का संदर्भ भी देता। लेकिन, उसमें डिबेट करने की स्किल है, इस बात को मानने से कोई इनकार नहीं कर सकता। पढ़ता भी खूब है। जिस बारे में पढ़ता है उस विषय की ठीक याद्दाश्त होती है उसकी। उसके ऐसा मानने पर कि आर्य भारत के मूल निवासी हैं, दलितों का लंबे समय तक ब्राह्मणों ने शोषण किया था और राफेल डील भ्रष्टाचार नहीं है मेरे गहरे मतभेद हैं लेकिन इसे साबित करने के लिए मेरे जो भी संदर्भ थे उसके बारे में मेरी आशंका थी कि वह उसे खारिज कर देगा। इसलिए, हमने दलित विमर्श पर डॉ. तुलसीराम और ओमप्रकाश वाल्मीकि का संदर्भ देना उचित नहीं समझा। वह पुराणों के संदर्भ देता जिसका मैंने उसके मुकाबले कम अध्ययन किया है। खैर, जो भी हो, उसकी अपने तर्कों को मनाने के लिए तैयारी अच्छी थी। पुरू के साथ बहस में अच्छा-खासा समय बीत जाता।

शुभम सोशल मीडिया पर काफी सक्रिय रहने वाला व्यक्ति है। वन लाइनर हास्य-व्यंग्य में उसकी काफी रूचि है। उससे इस बारे में काफी चर्चा होती। सोशल मीडिया पर कीर्तीश भट्ट से लेकर आशुतोष उज्ज्वल तक के लोगों की पोस्ट पर चर्चा होती। बाहर जाने पर तस्वीरें खींचने का काम भी शुभम का था। तस्वीरें वह अच्छी खींचता है। उसकी पुरानी कई तस्वीरें वाकई बेहतरीन थीं। सत्यम के साथ इनडोर गेम्स में समय बीतता, वहीं सुंदरम के पास अपने गांव-घर और स्काउट टीम को लेकर ढेर सारी कहानियां होतीं। जो वह समय-समय पर सुनाता रहता था। किरन मौसी मां की सबसे छोटी बहन हैं। उस पूरे परिवार में सबसे ज्यादा प्रगतिशील सोच रखने वाली महिला। हालांकि, वह एक ऐसे परिवार का भी हिस्सा हैं जहां अभी भी रूढ़िवादी जड़ें मजबूत हैं। उनसे महिला अधिकारों और बच्चों की पसंद-नापसंद संबंधी आजादी को लेकर काफी देर तक बहस हुई। इस मामले में उनका कहना यही है कि बच्चों को उनकी पसंद के मुताबिक शादी इत्यादि का अधिकार है। यह अरैंज्ड मैरिज से ज्यादा बेहतर होता है। इस मुद्दे पर उन्हें मां की ओर से कड़ा प्रतिरोध मिल रहा था। पर्दा प्रथा, पितृसत्तात्मक व्यवस्थाओं पर उनका स्पष्ट मत था। वह इन सबकी विरोधी थीं। लेकिन, धारा 377 पर शायद सहमत नहीं दिखीं। हालांकि, इस पर हमारी बहुत कम बात हुई।

वापसी और बनारस – 23 सितंबर को वापसी थी। प्रतापगढ़ से इलाहाबाद जाने का प्रोग्राम था। लेकिन, 23 को रविवार होने के नाते बनारस जाने का कार्यक्रम तय कर लिया। रविवार को बनारस इसलिए कि इस दिन वहां मधुबन गोष्ठी आयोजित होती है। बनारस के छात्रों और पूर्व छात्रों द्वारा किए जाने वाले इस आयोजन से परिचय आर्य भारत ने करवाया था। इस गोष्ठी में नए रचनाकारों को कविता पाठ का मौका दिया जाता है और उस पर वरिष्ठ कवियों द्वारा टिप्पणी की जाती है। यह शानदार था। इसमें शामिल होने को लेकर जो उत्साह था उसका वर्णन करना मुश्किल है। आर्य भारत का मुझ पर विश्वास कभी-कभी चकित कर देता है। मेरे लिए अपनी कविता पर आर्य भारत की ही प्रतिक्रिया का मिल जाना बहुत उत्साहित करता है। लेकिन, वहां सुशांत शर्मा भी मौजूद थे। आर्य की हमेशा की तरह दिल हिरोशिमा नागासाकी कविता की मांग वहां भी रही लेकिन, मेरे पास यह कविता उस समय मौजूद नहीं थी। इसलिए, गीत गाना चाहता हूं और तब जागता है कविता सुनानी पड़ी। पहली कविता पर टिप्पणी करते हुए सुशांत भइया ने मुझे भवानी प्रसाद मिश्र की परंपरा-सूची में रख दिया। यह बिल्कुल ही आशातीत प्रतिक्रिया थी। दूसरी कविता चूंकि कादंबिनी पत्रिका में प्रकाशित हो चुकी थी, इसलिए उस पर बोलते हुए उन्होंने कादंबिनी के प्रति आशान्वित नजरिया प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि अगर कादंबिनी इस तरह की भाषा वाली कविताएं प्रकाशित कर रहा है तो यह सुखद संकेत है। मेरे लिए दोनों तरह की प्रतिक्रियाएं अनमोल थीं। यह भाव-विभोर होने के लिए काफी था।

बनारस की साहसी छात्राएं – मधुबन गोष्ठी से हम सभी को वहां जाना था जहां एक सफल आंदोलन के एक साल पूरा होने पर छात्राओं ने कार्यक्रम आयोजित किया था। वहां बारी-बारी से छात्राएं विश्वविद्यालय में छात्राओं की स्वतंत्रता और उस पर प्रशासनिक हस्तक्षेप संबंधी भाषणों से लोगों को संबोधित कर रही थीं। वहां पहुंचने पर देखा कि महिला महाविद्यालय के सामने एक ओर छात्राओं का कार्यक्रम चल रहा है, जिसमें छात्र भी शामिल हैं। वहीं उससे सटे हुए ही एबीवीपी के कार्यकर्ता नारेबाजी कर रहे हैं। कार्यकर्ताओं के धैर्य और सूझबूझ की वजह से न सिर्फ कार्यक्रम प्रभावित नहीं होता बल्कि झगड़े की नौबत भी बार-बार टलती रहती थी।

देश में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, धर्म के प्रचार-प्रसार की स्वतंत्रता और सभा करने की स्वतंत्रता का संवैधानिक अधिकार सभी को प्राप्त है। इस दृष्टि से यह कार्यक्रम किसी तरह की कोई गलती नहीं थी। न ही ये राष्ट्र अहित का ही कोई कार्य था। यह महज अपनी स्वतंत्रता के लिए संघर्ष की सफलता का एक तरह से जश्न था। नारेबाजी कर रहे एबीवीपी के कार्यकर्ता कार्यक्रम कराने वालों को वामपंथी बोलते और धमकाते कि महामना की बगिया को जेएनयू नहीं बनने देंगे। उनका मतलब होता कि यहां वामपंथी विचारधारा को फलने-फूलने नहीं देंगे। और ऐसा करते हुए वह भूल जाते हैं कि यह खुलेआम संवैधानिक अधिकारों का अतिक्रमण है। अपने इस अपराध पर वह लज्जित नहीं हैं। इसके परिणामों से वह भयभीत नहीं हैं। उलटे, उनके नारों में ऐसी बद्तमीजी और अभद्रता है कि सामने से गुजरने वाला कोई भी सभ्य नागरिक शरमा जाए। वह केवल कानूनन अपराधी नहीं लगते बल्कि वह नैतिक और सांस्कृतिक अपराध के लिए भी दंडित किए जाने योग्य हैं। कार्यक्रम के दौरान उनका साहस यहां तक बढ़ आया कि आर्य भारत की कविता के बाद वे सभी हाथापई पर उतर आए।

भारत माता की जय और वामपंथ का एक ही मोटो, खाओ, पीओ, साथ में लोटो जैसे नारे एक साथ लगाने वाले महामना की बगिया के वे तथाकथित संरक्षक मानवीय चरित्र के सबसे अधम स्तर पर पहुंच गए। उन्होंने साउंड सिस्टम को लात से मारकर सड़क पर फेंक दिया। कार्यकर्ताओं के बाल खींचे। छात्राओं को पीटा। आर्य भारत के कंधे पर किसी ने जोर से मार दिया। वह काफी देर तक दर्द से परेशान रहे। वह सब कुछ भयावह था। महाविद्यालय प्रशासन की महिला प्राधिकारियों ने छात्राओं को जबर्दस्ती अंदर जाने को कहा। छात्राएं प्रतिरोध करती रहीं लेकिन उन्हें जबर्दस्ती अंदर भेजकर गेट बंद कर दिया गया। बाहर लड़कों के बीच हाथापाई जारी रही। कुछ देर बाद लड़कियां समूह में जबर्दस्ती बाहर आ गईं। वह चीख रही थीं कि हमारे साथियों को एबीवीपी के गुंडे पीट रहे हैं और हमें अंदर क्यों बंद किया जा रहा है। प्रशासन के ये लोग हमें अंदर भेजने की बजाय कुछ कर क्यों नहीं रहे। अपने छात्र साथियों के लिए लड़ने की हिम्मत करने वाली इन लड़कियों का मैं मुरीद हो गया। अपनी इस हिम्मत से उन्होंने पितृसत्तात्मक व्यवस्था के संरक्षक सेनापतित्व के किले को भी भेद दिया। उन्होंने बताया कि वह अब न सिर्फ अपनी रक्षा करने में समर्थ हैं बल्कि अपने साथियों को बचाने के लिए भी वह कुछ भी कर सकती हैं।

अस्सी घाट और लाल साफे वाले कार्यकर्ता – कार्यक्रम तो था कि वहां से अस्सी घाट जाएंगे। और काफी देर वहां बैठेंगे। लेकिन आर्य भारत को कंधे पर चोट लगी थी। इस वजह से वह कमरे पर जाना चाहते थे। कार्यक्रम के सभी कार्यकर्ता जिनमें अधिकतर काले कपड़ों और लाल गमछों से लैस थे, अस्सी घाट के पास एक चाय की टपरी पर एकत्रित थे। वहीं पर शाश्वत उपाध्याय से ठीक तरीके से मुलाकात हुई। और भी लोगों से परिचय हुआ। आर्य ने परिचय कराया कि मैं जनसत्ता में सब-एडिटर हूं। ऐसे में सभी इस घटना को मीडिया में लाने के प्रति मुझसे आशान्वित थे। चाय पीने के बाद हम अस्सी घाट की ओर बढ़े। वहां कत्थक नृत्य और संगीत का कोई कार्यक्रम चल रहा था। काफी देर तक हम वही देखते रहे। टीम दो हिस्सों में बंट चुकी थी। एक में हम, आर्य भार, गरिमा और माधुरी थे। दूसरी में कार्यक्रम के सभी साथी जो चाय की दुकान पर थे, शामिल थे। वो लोग गंगा किनारे की ओर चले गए। हम घाट से ही आशुतोष के कमरे की ओर चल पड़े। रास्ते में गरिमा ने पूरे प्रकरण पर बहुत सी बातें बताईं। उन्होंने बताया कि पिछले साल लड़कियों के संघर्ष में जब पुलिस ने लाठी चार्ज किया तब एक छात्र को बचाने के लिए उसकी छात्रा दोस्त उसके ऊपर लेट गई थी। यह सच में भावुक कर देने वाला किस्सा था।

मां का फोन और पापा से बात – कार्यक्रम में मारपीट शुरू होने के बाद मैंने आर्य भारत को फोन किया। वह अस्सी पहुंच चुके थे। हमसे रिक्शा करके वहां आने को कहा। जैसे ही हम रिक्शे पर सवार हुए, मां का फोन आया। हाल-चाल देने के बाद फोन रखने ही वाले थे कि मां ने बताया कि पापा के मकान मालिक ने उनके कमरे का ताला तोड़कर अपना ताला लगा दिया है और उसकी चाभी नहीं दे रहा। पापा उसी दिन सुबह प्रतापगढ़ से दो दिन की छुट्टी के बाद वापस आए थे। मेरा क्रोध से भर उठना लाजिमी था। मां को बोला कि पापा से बात करें और मकान मालिक के खिलाफ एफआईआर दर्ज कराएं। और तो और चोरी की धारा भी लगा दें। उन्होंने बात करके बताने को कहकर फोन रख दिया। यह दोहरा तनाव था। एक ओर एबीवीपी की गुंडागर्दी से दिमाग तनाव में था। अब उस मकानमालिक पर गुस्सा आ रहा था। समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करें। भदोही जाने का मन बना लिया। कुछ देर बाद मां का फोन आया। उन्होंने बताया कि पापा का फोन नहीं लग रहा है। फिर मैंने खुद फोन लगाया। पापा ने बताया कि उसने चाभी दे दी है। मैंने एफआइआर कराने की बात कही तो बोले कि करा दिया है। सामाजिक धूर्तता के इस नमूने से बहुत देर तक मन दुखी रहा। ऐसी घटनाएं आत्मविश्वास को और गिरा देने का काम करती हैं और दुनिया से और भरोसा उठता जाता है।

बनारस से रवानगी और अपरिचित ‘दोस्त’ – रात में थकान ज्यादा होने की वजह से जल्दी नींद आ गई। माधुरी, गरिमा और आशुतोष ने मिलकर शानदार खाना बनाया था। खिलाने के लिए हमें जगाना पड़ा। खाना खाने के बाद माधुरी और गरिमा हॉस्टल चली गईं। हम भी सो गए। सुबह उठे तो साढ़े 4 बज रहे थे। 5 बजकर 10 मिनट पर इंटरसिटी एक्सप्रेस से लखनऊ जाना था। वहीं शताक्षी और नीलेश हमारा इंतजार कर रहे थे। आशुतोष ने कहा रुक जाइए, दूसरी ट्रेन से जाइएगा लेकिन मैंने हार नहीं मानी। संयोग से 5:10 बजे स्टेशन पहुंच गए। ट्रेन में सीट भी मिल गई लेकिन टिकट नहीं ले पाए। मेरे सामने एक लड़की बैठी थी। उसे भी लखनऊ जाना था। टिकट उसने भी नहीं लिया था। इसलिए, हमसे पूछा कि कौन से स्टेशन पर ट्रेन ज्यादा देर तक रुकेगी। मैंने इंटरनेट से चेक किया तो सभी स्टेशनों पर 5 मिनट का स्टॉपेज था। इतनी देर में टिकट कहीं से भी नहीं लिया जा सकता था। हम इसी बारे में चर्चा कर रहे थे कि टीटीई को क्या जवाब देना है। बात आगे बढ़ी तो और भी बहुत सी बातें हुईं। नीलम या लवली नाम था उसका। बनारस की ही रहने वाली थी। काशी विश्वनाथ की गलियों में कहीं उसका घर था। वहीं उसका बचपन बीता था। खेलते, साइकिल चलाते, शरारतें करते।

अपने परिवार से उसे काफी लगाव था। बुआ की कोई लड़की उसकी अच्छी सहेली भी थी। यात्रा के दौरान उसका फोन भी आया था। खुद के अंतर्मुखी होने को खारिज करते हुए उसने बताया कि वह अपनी तकलीफों के बारे में किसी को बताना नहीं चाहती। चाहे कोई उसका कितना ही करीबी क्यों न हो। नए दोस्त बनाने से शायद परहेज था उसे। बचपन के कुछ दोस्त ही उसके आज तक खासम-खास दोस्तों में शामिल थे। वह बताती कि कैसे लखनऊ के उस कॉलेज में जहां से वह एमबीए कर रही है, उसका कोई दोस्त नहीं है। या कहें कि उसने किसी को न तो दोस्त बनने दिया और न ही बनाया। उसका मानना है कि मेरे दोस्त पहले से ही हैं और मैं उनकी जगह किसी और को नहीं दे सकती। बनारस की बहुत तारीफ करती। बीएचयू का एग्जाम इसलिए दिया कि लोग उससे कहते कि वहां सेलेक्शन होना आसान नहीं है। फिर वहां पढ़ाई छोड़ दी और बीबीए कर लिया। अब लखनऊ से एमबीए कर रही है और एक नौकरी छोड़ चुकी है।

उसने बनारस की कई सारी तस्वीरें दिखाईं। अपने बारे में इतना सब कुछ बता दिया कि मुझे सोचना पड़ा कि यह सब कुछ मुझे क्यों बता रही है। खैर, यह तो वही जाने। उसने मुझे सर्दियों में बनारस आने का निमंत्रण दिया। बोला कि बनारस घुमाने की जिम्मेदारी मेरी। लेकिन ट्रेन से उतरते ही सोशल मीडिया और संपर्क के तमाम संसाधनों के इस दौर में भी वह भीड़ में कहीं गुम हो गई। या उसके लिए शायद मैं गुम हो गया। क्योंकि, ट्रेन से उतरने के बाद हमने एक-दूसरे को देखा ही नहीं। एक अपरिचित दोस्त, जिससे मैंने उसका नाम भी नहीं पूछा और जिसने मेरा नाम नहीं जाना मेरे लिए फिर उसी तरह अपरिचित हो गई जैसे 7 घंटे पहले ट्रेन के मिलने के पहले हम एक-दूसरे के लिए थे। बात-बात में उसने खुद ही अपना नाम बता दिया था। बनारस शायद सर्दियों में जाना हो भी लेकिन उस जिम्मेदारी का क्या जो उसके भीड़ में खो जाते ही अधूरेपन की अनिवार्यता को प्राप्त हो गई।

लखनऊ की एनबीटी यात्रा – इस यात्रा में एनबीटी के ऑफिस में बीते वक्त का हिस्सा काफी ज्यादा था। चारबाग स्टेशन से नीलेश के रूम तक और फिर एनबीटी के ऑफिस पहुंचने तक कुल 2-3 घंटे लगे थे। नीलेश को ऑफिस जाना था। ऐसे में यह एक मुलाकाती यात्रा से ज्यादा कुछ नहीं था। यात्रा के इस पड़ाव में दो सबसे अच्छे दोस्तों से मुलाकात हुई। दोनों स्टेशन तक लेने आए। जाम से लड़कर जब दोनों चारबाग मेट्रो स्टेशन के नीचे हमारे साथ बैठे तो एक बार फिर लखनऊ को कोसना शुरू कर दिया। खैर, यह यात्रा का अंतिम पड़ाव था और इसके बाद नोएडा के लिए रवाना होना था। इसलिए इसमें थोड़ा सा उदासीपन भी था।

अच्छे दोस्त आपसे कभी दूर नहीं होते। वो आपकी चर्चाओं में, बातों में, यादों में, दिमाग में स्थापित से हो गए होते हैं। आप जहां कहीं भी रहें उनकी उपस्थिति रहती है। बशर्ते दोस्ती अच्छी और गहरी हो। शताक्षी के ऑफिस में उसके एक सहकर्मी से परिचय के दौरान जब वह बोल पड़ा कि "वही, जिन्हें तुम शुक्ला-शुक्ला करती रहती हो?" तब लगा जैसे इस ऑफिस में मैं अपने सबसे अच्छे दोस्त के साथ अपनी चर्चाओं के रूप में हमेशा मौजूद रहता हूं। यह मेरी वहां हमेशा ही उपस्थिति को प्रमाणित करने वाला वाक्य था। इस उपस्थिति ने हमारी दोस्ती के प्रमाण-पत्र को और भी ज्यादा विश्वसनीय बना दिया। इससे मिलने वाला सुकून भी अवर्णनीय है। चर्चाएं चाहे जैसी होती रही हों, मैं इस बारे में सोचकर इस पावन भावना का अनादर नहीं करना चाहता।

हालांकि, इतने अच्छे दोस्तों के साथ होने पर भी लखनऊ में काफी बोर हुए। एक तो अपना मूड भी सही नहीं रह गया था। प्रतापगढ़ छोड़ने, बनारस और भदोही वाले मसले की वजह से मन खराब हो चला था। इसके अलावा अगले दिन से फिर जिंदगी के उसी ढर्रे पर चलने की कल्पना भी बार-बार मन को निराश कर रही थी। रात तकरीबन साढ़े 9 बजे लखनऊ से नोएडा की ओर रवाना हो गए।

यात्राओं से नदी के रुके हुए पानी की तरह ठहरा जीवन फिर से चलने लगता है। स्थिर मनस को गतिमान करने का यह शानदार तरीका है। इसलिए, यात्राओं को जारी रखने की दिशा में कोशिश करना उन सभी निराशाओं और उदासीनता से पीछा छुड़ाना है जो जीवन में प्रकृति के परिवर्तन सिद्धांत का रास्ता रोकती हैं। न जाने कितनी बार छुट्टियों पर यात्राएं करने का मन बना। अलग-अलग कारणों से यह कार्यक्रम टलता रहा। अब इसे टालने की कोशिश को विराम देकर जीवन गतिशील करना होगा। वरना, निराशाओं के जानलेवा होने में वक्त नहीं लगेगा।

Wednesday, 5 September 2018

सब कुछ छोड़कर हम आदमखोर बनते जा रहे हैं

तरकशः बीते साल पर साल, आजादी का क्या हाल!

निर्दोष और वैचारिक भिन्नताओं के खिलाफ हिंसा किसी भी सूरत में गलत है। अगर आप उसे जस्टिफाइ कर रहे हैं तो एक आजाद और शांतिप्रिय देश के लिए आपसे बड़ा दुर्भाग्य कुछ नहीं हो सकता। सालों, युगों और कल्पांतरों पहले क्या हुआ था या सालों, युगों और कल्पांतरों से क्या हो रहा है जैसे वाहियात और गैर-जरूरी कुतर्क भी किसी की हत्या को जायज नहीं ठहरा सकते। हिंदू, मुसलमान, सिख - की धार्मिक भावना, के अस्तित्व पर खतरा या के संरक्षण के लिए भी किसी की हत्या नहीं की जानी चाहिए। देशद्रोही को भी मारने का अधिकार हमें नहीं है।

कानून है। लाखों-करोड़ों खर्च करके हमने अपना संविधान बनाया है। और इस संविधान बनाने के लायक बनने के लिए बहुत खून बहाया है। यह खून इसलिए बहा है कि आगे निरर्थक खून बहने से रोका जा सके। लेकिन, क्या ऐसा हो पाया है। 70 साल भी ठीक से नहीं बीते और हमने आजादी के समस्त मूल्यों को लहूलुहान कर दिया है। अंग्रेजों को जिनकी बात पसंद नहीं आती थी उनके साथ वो हिंसक सुलूक से नहीं हिचकते थे। आजादी की नींव यहीं से पड़ी थी। शासन के चरित्र से हमें दिक्कत थी। शासन के उसी चरित्र की ओर हम क्या नहीं बढ़े जा रहे आजादी के 70 साल बाद।

बहुत से लोग कहेंगे कि इतना भी बुरा हाल नहीं है भाई। वो जान लें कि है। जितना वो सोचते हैं या हम सोचते हैं उससे भी बुरे हालात हैं। हम जब विचारधारा, देश और धर्म के नाम पर मनुष्यों की हिंसा को जस्टिफाइ करने लगें तो समझिए हालात बुरे ही नहीं अनियंत्रित भी हैं। आजादी के बाद हमें अपने कृषि क्षेत्र में काम करना था कि आत्मनिर्भर ही नहीं दुनिया में पोषक भी बन सकें। हमें अपनी शिक्षा पर काम करना था कि शिक्षित ही नहीं विश्व-शिक्षक भी बन सकें। हमें अपने स्वास्थ्य क्षेत्र में काम करना था कि निरोग ही नहीं विश्व-चिकित्सक भी बन सकें। उद्योग की दिशा में मेहनत करनी थी कि उद्यमी ही नहीं विश्व में पालक भी बन सकें। खेल की दिशा में आगे बढ़ना था कि खिलाड़ी ही नहीं खेल-शक्ति भी बन सकें। बनने के लिए कितना कुछ सोचा गया था। लेकिन हम क्या बन पाए? हालत यह है कि सब कुछ छोड़कर हम आदमखोर बनते जा रहे हैं।

शांति, सद्भाव, प्रेम, बंधुता डरपोक लोगों की ढाल नहीं है। ये मानव-मूल्य हैं। विचारों की लड़ाई में विचारों को कटने की बजाय ये कट रहे हैं। दिमाग और दिल अलग-अलग जगहों पर होते हैं। इनके संवाद भी अलग-अलग ही होने चाहिए। मतभेद और मनभेद को एक होने देना आपके व्यवहारकुशलता और नागरिक जिम्मेदारी की सबसे बड़ी हार है। कुछ घंटों बाद हम आजादी की 72वीं सालगिरह मनाएंगे। हर साल की तरह आजादी के शूर याद किए जाएंगे। अपने देश को सबसे आगे ले जाने की बातें होंगी। प्रेम, अमन को बढ़ावा देने की जिम्मेदारियों के पालन का वादा किया जाएगा। तिरंगे के आगे राष्ट्रगान गाया जाएगा - भारत भाग्य विधाता - जय हे, जय हे। हर साल करते हैं ये सब हम। 15 अगस्त 1948 से लेकर आज तक हर साल।

ये अलग बात है कि आजाद भारत की सुबह ही आजादी की मूल भावना की हत्या से होती है। हमने आजादी के लिए अहिंसा को हथियार बनाया। आजादी मिलते ही सबसे पहले अहिंसा के साथ हिंसा की और लगातार करते आ रहे हैं। क्या अर्थ है आजादी का? हमें इसकी परिभाषाओं में एक बार फिर उतरने की जरूरत है। हम तरह की विचारधारा, हर तरह के धर्म, हर तरह की संस्कृति, हर तरह के त्योहार, हर तरह के लोग सबको आजाद करने की जरूरत है। आखिर, आजादी सबको मिली थी न। फिर, वर्चस्व की लड़ाई के जरिए हम फिर गुलामी को पोषण देने पर क्यों तुले हैं? इस 15 अगस्त इसी पर सोचिए। एकांत में बैठकर। आंखें मूंदकर। एक नागरिक की तरह। एक भारतीय की तरह। एक बटा एक सौ पच्चीस करोड़ भारत की तरह।

(15 अगस्त 2018 को लिखित)