Tuesday, 8 March 2022

मैं मनुष्य को जानता हूँ

मैं संसार को नहीं जानता लेकिन मैं मनुष्य को जानता हूँ। मनुष्य को जान लेना बहुत कुछ जान लेना है। कम से कम इतना जान लेना तो है कि जान लिए गए मनुष्य से संवाद करके सारे संसार से संवाद कैसे किया जा सकता है। विनोद कुमार शुक्ल संसार से ऐसे ही तो संवाद करते हैं। अपनी मोहक भाषा, शांत लहजे और अर्थपूर्ण दृश्य-शब्दों के जरिये वह संसार ही की तो बात करते हैं। मैं से शुरू होते हैं और संसार तक विस्तृत हो जाते हैं। 

मानुष मैं ही हूँ
इस एकांत घाटी में
यहां मैं मनुष्य की 
आदिम अनुभूति में सांस लेता हूँ।

विनोद शुक्ल अपनी कविता में आधुनिक को उठाते हैं और कहते हैं कि इस आधुनिक के जरिये वह आदिम को उठा रहे हैं। एक पत्थर उठाकर वह पाषाणकाल का कोई पत्थर उठाते हैं। देशकाल का ऐसा समय-शब्द-सम्बन्ध जानने की ऐसी प्रक्रिया है, जिसके जरिये चीजों को उसके भौतिक पहचान के बरअक्स उसकी तात्विकता या मौलिकता में जान लिया जाता है। जैसे, वह कहते हैं:

"चारों तरफ प्रकृति और प्रकृति की ध्वनियां हैं, 
यदि मैंने कुछ कहा तो 
अपनी भाषा नहीं कहूंगा 
मनुष्य ध्वनि कहूंगा।"

'अपनी भाषा नहीं बल्कि मनुष्य ध्वनि कहूंगा' में कवि सृष्टि के वैराट्य में सम्पूर्ण मनुष्यता को एक इकाई के रूप में प्रस्तुत करता है और हमें आभास होता है कि अंतरिक्ष के परिवार में हम किसी राष्ट्रीयता से नहीं बल्कि अपनी मनुष्यता से ही पहचाने जाएंगे। यह अपने पहचान पत्र को लेकर कवि की व्यापक दृष्टि है, जो उसे सभी मनुष्यों को समान समझने और उनके भावों, अभीप्साओं, अभिव्यक्तियों को समझने में सहूलियत देती है। तभी कवि कहता है कि मैं संसार को नहीं जानता लेकिन मनुष्य को जानता हूँ। मनुष्य को जानने की कई कविताएं विनोद शुक्ल के यहां मिलेंगी।

हताशा से एक व्यक्ति बैठ गया था,
व्यक्ति को मैं नहीं जानता था 
हताशा को जानता था।

जान-पहचान के लिए या सम्बन्ध के लिए क्या ज़रूरी होता है? शायद कोई एक उभयनिष्ठ धरातल। वह हताश व्यक्ति को नहीं जानते थे लेकिन हताशा को जानते थे। ऐसे ही, उन्होंने उसकी ओर हाथ बढ़ाया। वह कवि को नहीं जानता था लेकिन हाथ बढ़ाने को जानता था। दोनों एक दूसरे को नहीं जानते थे लेकिन साथ चले क्योंकि साथ चलने को जानते थे। 

ज़ाहिर है, केवल संज्ञा (पहचान) जानने से सम्बन्ध नहीं बनते। विनोद शुक्ल अपनी कविता से साबित करते हैं कि क्रिया से भी सम्बन्ध बन सकते हैं। लोगों को उनकी पीड़ाओं से, उनके आनंद से, सहयोग भाव से भी जाना-पहचाना और अपनाया जा सकता है। इस भावना में कैसा संतत्व है! कैसी समावेशिता है। कैसा वसुधैव कुटुम्बकम का भाव है!

"सिर उठाकर मैं बहुजातीय नहीं, सब जातीय
बहुसंख्यक नहीं, सब संख्यक होकर
एक मनुष्य खर्च होना चाहता हूँ।"

पुस्तक में कई जगहों पर विनोद कुमार शुक्ल भाषा-गणितज्ञ जैसे लगते हैं। उनकी कविता में गणित के समीकरण हल करने जैसा क्रम है। उन्हें धौलागिरी को देखकर धौलागिरी की तस्वीर याद आती है क्योंकि तस्वीर पहले देखी गई थी। तस्वीर से उन्हें पूर्वजों की तस्वीर याद आती है क्योंकि उनके भी चित्र धौलागिरी के चित्र की तरह घर में लगे हैं लेकिन पूर्वजों को प्रत्यक्ष कभी देखा नहीं। पूर्वजों के प्रत्यक्ष याद न आ पाने का अभाव विनोद शुक्ल कैसे पूरा करते हैं? वह जब धौलागिरी को प्रत्यक्ष देखते हैं तो तस्वीरों से बने स्मृति-क्रम की संगत में उन्हें पूर्वजों की तस्वीर नहीं बल्कि पूर्वज प्रत्यक्ष याद आते हैं। यह अभाव को 'एक्स' मानकर समीकरण हल करने की विधि जैसा नहीं लगता है क्या?

धैर्यशील शांति की भाषा से अपनी बात कहने की विधि विनोद शुक्ल की है। विशाल और दृढ़ चट्टानी पत्थरों के छोटे-छोटे रिकस्थानों में निर्झर का जल जैसे भरकर निकल आता है, वैसे ही शुक्ल की अभिव्यक्ति लोगों के हृदय में प्रवेश करती है।

"एक अकेली आदिवासी लड़की को 
घने जंगल जाते हुए डर नहीं लगता 
बाघ-शेर से डर नहीं लगता 
पर महुआ लेकर गीदम के बाजार जाने से 
डर लगता है"

शुक्ल जी की कविता में आदिवासी संरक्षण का भाव लिए कई कविताएं हैं। कवि आदिवासी जीवन को करीब से देखते हैं और यह महसूस करते हैं कि उनकी अपनी प्राचीन सभ्यता है। जीवनशैली है, जो हमसे अलग भले है लेकिन हमसे कमतर नहीं है। हमारी उन्हें सभ्यता (मुख्यधारा) की दौड़ में लाने की मानसिकता किसी औपनिवेशिक महत्वाकांक्षा की तरह लगती है। कवि जंगल में शहरों के अतिक्रमण से चिंतित है। वह अपनी कविता के जरिये जंगल, वन्य जीवों और आदिवासियों के रहन-सहन की आपसी निर्भरता और उनके अन्तर्सम्बन्धों के बारे में बताने की कोशिश करते हैं। वह बताते हैं कि कैसे जंगल मे महुआ बीनते एक आदिवासी लड़की एक बाघ ऐसे देखती है, जैसे जंगल मे एक बाघ दिखता है। वैसे ही बाघ भी एक आदिवासी लड़की को ऐसे महुआ बीनते देखता है, जैसे जंगल मे एक आदिवासी लड़की दिख जाती है। मतलब यह कि दोनों के लिए एक दूसरे का जंगल में दिख जाना बेहद सामान्य घटना है। इसमें न कोई आतंक है, न असामान्यता और न ही कोई हैरानी लेकिन इसी को ध्यान में रखते हुए हम अपनी शहरी सीमा में किसी वनवासी की कल्पना करें। हम उन्हें अपने बीच विचित्र पाते हैं और उसे ऐसे व्यवहृत नहीं करते जैसे जंगल में कोई बाघ किसी आदिवासी लड़की को देखता है या कोई आदिवासी लड़की किसी बाघ को देखती है। हम उन्हें कैसे ट्रीट करते हैं, यह 'जंगल के दिन भर के सन्नाटे में' कविता की इस पंक्ति से स्पष्ट होती है, जिसमें आदिवासी लड़की को घने जंगल मे जाते हुए बाघ-शेर से डर नहीं लगता लेकिन जब वह महुआ लेकर गीदम के बाजार जाती है तो उसे डर लगने लगता है।

शुक्ल जी की भाषा
'सब कुछ होना बचा रहेगा' की कविताएं हों या किसी अन्य संग्रह की, शुक्ल जी की कविताई की भाषा दृश्यात्मक भाषा है। अपनी कविता में वह दृश्यों से ही बात करते हैं। वह परिस्थितियों और मनोभावों का भी दृश्य बनाते हैं और उन्हें संख्यावाचक, भाववाचक या स्थानवचक विशेषणों की तरह भी इस्तेमाल करते हैं। 

दूर से अपना घर देखना चाहिए 
मजबूरी में न लौट सकने वाली दूरी से अपना घर 
कभी लौट सकेंगे की पूरी आशा में 
सात समुंदर पार चले जाना चाहिए।

 उनकी रचनाओं में कई जगहों पर शब्द एक पूरी पृष्ठकथा का अर्थभार लिए आते हैं। जैसे

"घर उसका शिविर है
जहां घायल होकर वह लौटता है"

यहां शिविर शब्द से 'वह' की एक पूरी अनुपस्थित कथा हमारी कल्पना में आती है। घर के शिविर हो जाने का मतलब है कि वह जहां से लौटता है, वह किसी युद्धभूमि से कम नहीं। वहां वह घायल होता है और शिविर में लौटता है। 

विनोद शुक्ल की कहन शैली
हमारे फैसले या हमारी राय या हमारे आचरण सिद्धांत में भले स्याह-सफेद के खांचे में फिट होने की हमेशा जल्दी में हो लेकिन व्यवहारिक ज़िन्दगी इससे अलग है। वहां तो बस परिस्थितियां हैं और घटनाएं प्रतिक्रियाओं का अनुक्रम हैं। कुछ भी पूर्वनिर्धारित नहीं है बल्कि परिस्थितिजन्य ज्यादा है। शुक्ल यह बात जानते हैं। तभी कुछ सपाट या स्पष्ट कहने की बजाय ईमानदारी और द्रष्टाभाव से पूरी स्थिति को चित्रित करते हैं। बाकी का काम वह पाठकों पर छोड़ते हैं।

तालाब के कोने में बर्तन मांजते वह छोटी-सी लड़की रोती जाती है। उसके बाप ने उसकी पीठ पर घूसे और गालों पर थप्पड़ मारे हैं। पर ऐसा क्यों? जबकि वह अपनी बेटी को बहुत प्यार करता था। मां के मरने के बाद भात वही पकाती थी।

पानी भी नहीं छलका कभी 
सिर पर रखे लोटे से 
पर आज, गिर पड़ी कहीं 
गांठ प्याज की पोटली से 
क्या उसको इतनी मार पड़ गई इसलिए?

बाप मजदूर है। पूंजीवादी व्यवस्था के शोषण का पीड़ित है। उसकी कुंठा उसके चिड़चिड़े स्वभाव में जमती चली जा रही है। चिड़चिड़ापन उसके स्वभाव में गांठ की तरह गंठती चली जा रही है। इसमें उसका भी क्या दोष? यह प्रवृत्ति तो एक शोषक व्यवस्था ने उसके मन में रोप दी है। इसका भाजन उसकी बेटी को भी बनना पड़ता है, जो इस पूरे मामले में पूर्णतः निर्दोष है। नहीं तो क्या कारण था कि वह अपनी जिस बेटी से इतना प्यार करता है, उसे सिर्फ प्याज की गांठ गिरने भर की गलती पर निर्मम तरीके से पीटने लगता है। नारीवादी दृष्टि से भी इस दृश्य के कुछ निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं। यह दृश्य सिर्फ भाषायी कौशल या कविता का अंश न होकर समाज शास्त्र से लेकर अर्थशास्त्र और राजनीति की कैसी गहरी जटिलताएं लिए हुए है, यह सोचने योग्य बात है।

यही शुक्ल जी की कहने की शैली है। यथार्थ चित्रण से सच्ची अवस्था-व्यवस्था के अनुमान के लिए कई खिड़कियां खुलती हैं। हालांकि, इसके लिए विचार और दृष्टि के लिए समझ की कसरत ज़रूरी है। अपनी कविता के लिए वह खुद भी कहीं कहते हैं, 'प्रत्येक कविता का लिखना बचा हुआ अभिव्यक्ति का बचा हुआ भी होता है जो पाठक की समझ से पूरा होता है।' कविता लेख नहीं हो सकती। कहानी नहीं हो सकती। शुक्ल जी के हिसाब से हर कविता अधूरी होती है और कविता का जो अधूरापन होता है, वह अनभिव्यक्त अभिव्यक्ति होती है, जिसे पाठक को समझना पड़ता है।

"जाते जाते ही मिलेंगे लोग उधर के 
जाते-जाते जाया जा सकेगा उस पार 
जाते-जाते छूटता रहेगा पीछे 
जाते-जाते बचा रहेगा आगे 
जाते-जाते कुछ भी नहीं बचेगा जब 
तब सब कुछ पीछे बचा रहेगा 
और कुछ भी नहीं में 
सब कुछ होना बचा रहेगा।"

Wednesday, 23 February 2022

हंसो-हंसो जल्दी हंसो

हंसो-हंसो, जल्दी हंसो। इतनी जल्दी क्या है? जल्दी है कि तुम पर निगाह रखी जा रही है। इसलिए जल्दी हंसो। इससे पहले कि तुम्हारी हंसी से गूंजता गोल गुम्बद शांत हो जाए, जल्दी हंसो। अगर चुप मिल गए तो प्रतिवाद के जुर्म में मारे जाओगे। उपाय क्या है? उपाय यही है कि हंसो और ऐसे हंसो कि किसी को जानने मत दो कि किस पर हंसते हो। ऐसे हंसो कि मालूम न पड़े कि खुश होकर हंसते हो। अगर शक हुआ कि हंसने वाला यह शख्स शर्म में शामिल नहीं है, तो मारे जाओगे। इतना ही नहीं, हंसना है लेकिन अपने आप पर नहीं क्योंकि अगर उसकी कड़वाहट पकड़ ली जाएगी तब भी मारे जाओगे। यह हास्य कैसा है? रघुवीर सहाय यह कौन सी हंसी की बात कर रहे हैं?

विवशता की एक ऐसी परिस्थिति है, जब हंसना रोने के 'इज़ इक्वल टू' हो जाता है। संविधान बना कि देश का कोना-कोना मुस्कराये। किसी चेहरे पर रोना न हो लेकिन अपनी व्यवहारिकता में संविधान हमारे चेहरे पर जो हंसी छोड़ता है, रघुवीर सहाय उस हास्य की बात करते हैं। जब आप देखते हैं कि शेर और बकरी एक घाट पर पानी पी रहे हैं और फिर शेर के दांतों से टपकते खून की सच्चाई भी आपसे देख ली जाती है। तब जिस हंसी से आपकी मुलाकात होती है, यह वही हंसी है। कवि की प्रशंसा में कहीं लिखा मिला कि रघुवीर सहाय विडंबना के खोजी कवि हैं। इस पूरे संग्रह में जैसी-जैसी विडम्बना को रघुवीर ने खोजा है, वह हंसी के होते हुए भी हास्यास्पद नहीं है।

यह हंसी तो ऐसी है, जैसे किसी गरीब पर किसी ताकतवर की मार, जहां उस गरीब के सिवाय कोई कुछ नहीं कर सकता। वह भी क्या करता है, अक्सर हंसता है। इस हंसी को समझना है, तो अपने आसपास देखिए। इस कविता का अर्थ आज से ज्यादा प्रासंगिक कभी नहीं हो सकता। क्या कारण है कि जीना मुश्किल होता जा रहा है, और लोग हंस रहे हैं। शब्दों पर सेंसर लगा है, विचारों पर निगरानी है, सोच तक पर पहरे हैं, जीवन की मौलिक आवश्यकताएं हैसियत का दामन छोड़ रही हैं और लोग हंस रहे हैं। इस हंसी में विवशता ज्यादा है क्या? इस हंसी में हास्य कितना है? कहीं ऐसा तो नहीं कि इस हंसी का आवरण ही भर हंसी का है। भीतर फूट पड़ने को उद्यत कोई रुदन तो कैद नहीं है?

रघुवीर सहाय ऐसी ही विडम्बना खोजते हैं। ज़ाहिर है उनके समय में यह विडंबना खोजनी पड़ती थी। हमारे समय में तो सब प्रत्यक्ष है। हमारे समय में तो 'रामदास' खूब प्रासंगिक है। रामदास को बता दिया गया था कि अंत समय आ गया है। उसकी हत्या होगी। अकेला रामदास, सड़क पर निहत्थे, मौन लोगों के बीच भय से किसी संगी को साथ लेने की सोचता चला जाता है। सभी मौन और निहत्थे लोगों को पता है कि उसकी हत्या होगी। लोग उसको आंख गड़ाए देखते हैं, जिसके बारे में तय है कि उसकी हत्या होगी। तभी गली से एक हत्यारा बाहर निकला। नाम पुकारा, हाथ तौलकर चाकू मारा। छूटा लोहू का फव्वारा। लोग कहते हैं, कहा था न इसकी हत्या होगी। किस्सा हत्या तक ही नहीं है। आगे भी है। हत्या के बाद हत्यारे ने क्या किया?

"भीड़ ठेलकर लौट गया वह,
मरा पड़ा था रामदास यह,
देखो-देखो बार-बार कह
लोग निडर उस जगह खड़े रह
लगे बुलाने उन्हें, जिन्हें संशय था, हत्या होगी।"

यह घटनाक्रम भी अपने पीछे एक हंसी छोड़ जाता है। आप तय कीजिये कि इस हंसी का चरित्र क्या है? रघुवीर सहाय सिर्फ कवि नहीं हैं। पत्रकार भी हैं। उनके यहां अखबार कविता का रॉ मटेरियल है। तब के अखबार घटनाओं के दस्तावेज थे। अभी के अखबार चुटकुलों के पन्ने हैं:

"निर्धन जनता का शोषण है
कहकर आप हंसे
लोकतंत्र का अंतिम क्षण है
कहकर आप हंसे।"

यह हंसी तो जीवन का केंद्रीय भाव हुई जा रही है। व्यंग्य, विवशता की इस हंसी के अलावा एक अट्टहास भी होता है। यह अट्टहास ही अपने विश्राम के क्षणों में हंसी पर निगाह रखता है। यहां हंसी का वर्गीकरण है। कैसी हंसी हँसनीय है। हंसते हुए दिखने की राजाज्ञा है। जो नहीं हसेंगे, उन्हें पड़ोसी देश का वीजा जारी कर दिया जाएगा। आज के समय के एक पत्रकार ने इसी हंसी के लिए कह दिया था कि बागों में बहार है।

'हंसो-हंसो' कविता संघर्ष की प्रक्रिया में एक कमजोर की अंतिम पूंजी से अपना शीर्षक बनाती है। यह हंसी वैसी हंसी नहीं है, जैसी हंसी होती है। यह वैसी है कि इसके अलावा कोई चारा नहीं। यह हंसी अकिंचनता, शक्तिशून्यता और बेचारगी की अभिव्यक्ति है। इसी पर निगाह रखी जा रही है कि इधर हंसी थमी और उधर विद्रोह और प्रतिवाद के जुर्म में मार डाले गए।


('हंसो-हंसो जल्दी हंसो' पढ़ने के बाद)

सम्बंधित कविता यहां पढ़ें:

Monday, 24 January 2022

डायरी: मेरी कविता

कोई पूछे तो मैं बताऊँ कि मैं कवि नहीं हूँ, बीमार हूँ। हालांकि, कवि बीमार ही होता है। किसी कवि ने ही परिभाषा दी है कि आह से उपजा होगा पहला गान। जो अपने में स्थित नहीं है, वही तो अस्वस्थ है। अगर यह परिभाषा न भी दी जाती तो भी मैं यही कहता कि मैं कवि नहीं बीमार हूँ। कविता मेरी अफनाहट की खिड़की है। यह जो खिड़की है यह कविता है या नहीं, मैं इसका दावा करने के लिए भी पर्याप्त स्वस्थ नहीं हूँ।

एक समय था, जब मैं कवि बनने का जुनूनी था। कविता लिखना चाहता था, ताकि मरने के बाद अपने शब्दों में जीवित रह जाऊं। तब कविता नहीं लिखी जा पाती थी। ये वो समय था जब मैं खूब जीना चाहता था। पत्रा देखना नहीं आता था लेकिन उसमें अपनी राशि खोजकर उसके सामने उम्र की भविष्यवाणियां देखा करता था। मुझे नहीं पता कि मैं सच में क्या देखता लेकिन अपनी राशि के आगे 100 लिखा देखकर उसे 100 साल की आयु समझता और बहुत खुश हो जाता था। मेरी प्रार्थनाओं में शतायु होने की प्रार्थना सबसे पहले थी।

एक यह समय है कि जीने की इच्छा-अनिच्छा के बीच में कहीं अटक गया-सा हूँ। लगता है कि इस बात से फ़र्क़ पड़ना बन्द हो गया है कि मृत्यु आज आए या कल या परसों। दिन में कई बार ऐसा होता है, जब घुटन चरम पर पहुंच जाती है। ऐसा अंधेरा दिखता है कि दिमाग सन्न हो जाता है। ऐसा लगता है जैसे सांस न ले पाऊंगा। ऐसा लगता है जैसे कोई प्राण छीन ले गया। ऐसा लगता है जैसे सब कुछ, सब जीवन, सब करीबी, रिश्तेदार, मां-पिता साथ छोड़कर भाग रहे हों। जबकि वास्तव में ऐसा नहीं हो रहा होता है। दरअसल वो नहीं भाग रहे होते हैं। वह तो समय की धारा में वैसे ही बहे जा रहे हैं, जैसे पहले बहते थे। तब मैं उनके साथ था। 

अब मैं इस धारा में कहीं ठहर गया हूँ। जैसे नदियों के बीच कहीं द्वीप ठहर जाते हैं। यह ठहराव काफी ठहर गया है। जाने किसकी प्रतीक्षा है? हालांकि यह कहना भी झूठ है कि नहीं जानता किसकी प्रतीक्षा है। सब अपने अहंकार को तुष्ट करने का प्रपंच है। हार न मानने की इस जिद का इस बार ठीक पहाड़ से पाला पड़ गया है। ऐसा लगता है कि इस पहाड़ के भार से मैं गलने लगा हूँ। गलता-गलता शायद द्वीप से नदी हो जाऊं। नदी तो होने से रहा। इस संघर्ष में बस भाप बनता जा रहा हूँ। उड़ता जा रहा हूँ। क्षरता जा रहा हूँ।

उससे पहले इस द्वीप की नदी न हो पाने की छटपटाहट कविता में अपना रास्ता खोजती है। शब्दों में टूट-टूटकर जीवन की हिमशीलता झरती है। कुछ देर को तो लगता है कि शायद एक कदम आगे बढ़े हैं। शब्द बहुत महान चीज हैं। शब्द से बने वाक्य और वाक्य से बनी कविता पृथ्वी की महानतम रचनात्मकता है लेकिन मेरे लिए शब्द, शब्द से वाक्य, वाक्य से बनी कविता पलायन की एक जगह है, जहां मैं शरण पाता हूँ। शरणागत भी कम महान नहीं होता। मेरी कविता अगर महान होगी, तो सिर्फ इसलिए होगी कि इसने अंधेरे में घुटते एक हृदय को अपने आँचल में पनाह दी है। 

मेरी कविता रचनात्मकता नहीं है। सृजनात्मकता नहीं है। मेरी कविता जीर्णोद्धार का अनुष्ठान है। निर्माण नहीं है, मरम्मत है। कला नहीं है, चिकित्सा है। मैं कविता क्या रचूंगा, कविता मुझे प्राण देती है। मैं कवि से ज्यादा एक बीमार हूँ। बीमार होने में कोई बुराई नहीं है बल्कि बीमारी का स्वीकार उसके इलाज का पहला चरण है।

#डायरी

Sunday, 23 January 2022

अठभुजवा रह गया अबोध

अष्टभुजा शुक्ल कविता ऐसे लिखते हैं, जैसे अहाते में सब्जी बोते हों। या खेत की मेढ़ पर पेड़ लगाते हों। या दुआर पर क्यारियों में तुलसी या गुड़हल या रातरानी या गुलाब। इतनी सहज। इतना आसान। इतना कलात्मक। इतना आवश्यक। खेत के पृष्ठ पर बीज की लेखनी से फसल की भाषा में कविता लिखने की शैली 'अठभुजवा अबोध' की है। पढ़िए तो भाषा से गांव की सुगन्ध फूटती है। 

शब्द ऐसे इस्तेमाल होंगे, जैसे तमाम शुद्धतावादी 'पवित्र शब्दकोशों' के सामने अकिंचनता और निर्भरता के खिलाफ खड़े हो गए हों। कहते हुए कि 'अव्वल तो मैं लिखने के लिए शब्दों पर निर्भर नहीं करता। भाषा से क्रिया सम्पादित नहीं करता। क्रियाओं से भाषा सम्पादित करता हूँ।' अस्तित्व हो तो ऐसा कि नेमप्लेट लेकर न चलना पड़े। आपका आभास ही परिचायक हो। कथन हो तो ऐसा कि व्याख्या साथ लेकर न चलनी पड़े। कवि ऐसा जो कविताओं का अर्थ बताता न चले। ऐसी कविताएं लिखे जो लौटकर कवि के पास नहीं आतीं। 

अष्टभुजा तो कागज पर लिखने वाले कवि हैं भी नहीं। उनके पास कविता का कारखाना नहीं है। खेत है और बीज हैं। सिंचाई के लिए नदी का पानी है। लोहे के बन्द और लकड़ी से बना हाथा है, जिसके लिए उन्हें पहले बढ़ई के पास जाना पड़ा और फिर लोहार के पास भी। कुल मिलाकर वह 'हाथा मारने वाले' लेखक हैं। 

"काग़ज़ पर मैं उतना अच्छा नहीं लिख पाता
इसलिए खेत में लिख रहा था
अर्थात हाथा मार रहा था।"

'हाथा' को आप कैसे समझेंगे। ऐसे समझिए कि:

"जहां जमीन अचढ़ होती है
वहां के पौधे 
हाथा के ही सपने देखते हैं।"

अष्टभुजा हाथा ही तो हैं। तभी तो उनकी कविता अचढ़ 'हलंत' तक भी पहुंचती है, जो किसी मंत्र की टूटी हुई पूंछ की तरह है। जिसने कभी दावा नहीं किया कि वह हिंदी की वर्णमाला में किसी आरक्षित स्थान का अधिकारी भी है या नहीं। जिनके यहां 'छोटे-छोटे आलू' 'मशरूम केयर ऑफ कुकुरमुत्ता', 'बांस की जड़ें', 'दुख का घर' और 'मक्के के दाने' तक शीर्षक बने हैं। उन पर लिखा गया है। 

"हिंदी में अफ़सोस की तरह मौजूद
×××
इतने नीचे से उठकर
वह हलंत
आज कविता का शीर्षक बना
तो यूं ही नहीं"

अष्टभुजा की कविता में रहस्य कम है। बोलचाल ज्यादा है। फरमान नहीं है। एक मुखर, निर्भीक और व्यंग्यसिद्ध आलोचक का अवलोकन है। लहजे में स्पष्टवादिता है और कहन में व्यंग्यात्मकता की अंतर्ध्वनि। बहुत सीधी-सीधी भाषा है। जिसमें

"पसीना गिराया तो खून नहीं बता सकता
सहयोग को सहायता नहीं कह सकता।
समझौते को सहअस्तित्व पुकारना मेरे बस की बात नहीं
गद्य को कविता नहीं कह सकता तो नहीं कह सकता"

('इसी हवा में अपनी भी दो-चार सांस है' पढ़ने के बाद)

Saturday, 15 January 2022

जिस मरणी गोरष मरि दीठा

संसार में गोरखनाथ पहले और आखिरी ऐसे महापुरुष होंगे, जिन्होंने अपने 'भटके' हुए गुरू को 'सही' मार्ग दिखाने का महान काम किया था। ज्ञान की धारा तो गुरु से शिष्य की ओर जाती है लेकिन यहां यह परंपरा टूट जाती है। यह कहानी सिखाती है कि गुरु कोई व्यक्तिवाचक संज्ञा नहीं होता है बल्कि ज्ञान और चेतना की एक परिस्थिति होती है, जिसमें सत्य सबसे ज्यादा प्रकाशित होता है। यहां कोई वंश परंपरा का मामला नहीं है।

कहानी है कि मछंदरनाथ (मत्स्येंद्रनाथ) भटकते हुए कदली देश पहुंच गए थे और वहां की रानी के प्रति आकर्षित हो गए थे। नाथ परंपरा में चली आ रही कहानियों में यह भी कहा जाता है कि वह देश केवल स्त्रियों का देश था, जहां पर पुरुषों का प्रवेश वर्जित था। मछिंदर नाथ अपनी धुन में भजन गाते भिक्षा मांगने के लिए वहां पहुंच गए और वहीं के होकर रह गए। इसे कदली देश की रानी का षड्यंत्र भी कहा जाता है। काफी समय बाद भी जब वह वापस नहीं लौटे तो उनके प्रतिभाशाली, करीबी और प्रिय शिष्य गोरखनाथ को बड़े ताने सुनने को मिले।

जाग मछंदर गोरख आया

परेशान होकर गोरख ने अपने गुरू को अंधकार से प्रकाश में लाने की ठान ली। भजन गाते-गाते वह कदली देश पहुंचे और जोर-जोर से गाना शुरू किया- 'जाग मछंदर गोरख आया।' कहते हैं कि शिष्य की आवाज सुनते ही मछंदर नाथ की नींद खुली। उन्होंने अपने शिष्य की आवाज पहचानी और भागकर उसके पास पहुंचे। गोरख ने अपने गुरू को मुक्त करा लिया था या यूं कहे कि 'अंधकार' में फंसे अपने गुरू को प्रकाश की राह दिखाई थी। गोरख का यह प्रताप था। 

इस तरह की कई और मान्यताएं प्रचलित हैं। मिलता-जुलता एक किस्सा यह भी है कि पति के शव पर विलाप करती एक रानी मैनाकिनी पर मछंदर नाथ द्रवित हो गए थे। उन्होंने मृत राजा की देह में प्रवेश कर लिया और रानी के साथ रहने लगे। कुछ समय बाद वह इस जीवन में इतने ज्यादा रम गए कि अपना कर्तव्य भूल गए। रानी के प्रति वह इतने आसक्त हो गए थे कि उन्होंने अपने राज्य में पुरुषों का प्रवेश तक प्रतिबंधित कर दिया। इस दौरान गोरख अपने गुरू को बचाने के लिए प्रस्तुत हुए। उन्होंने एक नर्तकी का वेश बनाया और राजा के दरबार में पहुंच गए।

वहां उन्होंने मृदंग बजाना शुरू किया। राजा को अचानक सुनाई दिया कि एक नर्तरी के मृदंग से 'जाग मछंदर गोरख आया, चेत मछंदर गोरख आया' का स्वर निकल रहा है। मछंदर की नींद खुली और वह गोरख से साथ वापस संन्यास की दुनिया में आ गए। कथा प्रतीकात्मक है। ऐसा लगता है कि नाथ पंथ के प्रवर्तक मछन्दर नाथ से ज्यादा प्रभावशाली गोरखनाथ थे। वह अपने गुरू से ज्यादा योगी रहे होंगे, इसलिए ही उनके अनुयायियों ने गोरख के बखान में उन्हें उनके गुरू से भी ऊपर रख दिया। गोरख को गुरू का तारणहार बना दिया।

समानता का पंथ

भारतीय दर्शन परंपरा में गोरख को मौलिक दार्शनिकों में गिना जाता है। वह 13वीं शताब्दी के आसपास के बताए जाते हैं। ब्राह्मण धर्म में वर्ण व्यवस्था, धार्मिक कर्मकांड और पाखंड के खिलाफ विद्रोह को ही नाथ परंपरा की नींव कहा जाता है। नाथों ने सभी मनुष्यों को बराबर का दर्जा दिया। कोई ऊंच-नीच, छुआछूत की अवधारणा नाथ परंपरा में नहीं है। यही कारण था कि भारतीय समाज में जो अछूत माने जाते थे, वे सभी लोग बाबा गोरख से जुड़े। मुसलमान भी काफी संख्या में गोरखपंथ की शरण में आए।

मुसलमान जोगियों की परंपरा

गोरखपुर, देवरिया, कुशीनगर और आसपास के जिलो में ऐसे मुसलमान जोगियों की काफी आबादी है, जो गेरुआ वस्त्र पहनकर घर-घर जाकर भिक्षा मांगते और गोरख की बानियां गाते थे। वे गोरख की कहानी, भरथरी (भर्तृहरि) की कहानी और गोपीचंद की कहानी को पदों में गाते और भिक्षा मांगते थे। आज के सांप्रदायिक विभाजनकारी माहौल में मुसलमान जोगियों की यह परंपरा खतम होने की कगार पर है। ऐसे मुस्लिम परिवारों में परंपरा के तौर पर लोग जोगी बनते थे। उनके हाथ में एक सारंगी होती थी। वे उसे बजाते और गीत गाते हुए दरवाजे-दरवाजे पर जाते थे।

ये मुसलमान जोगी गेरुआ वस्त्र भी पहनते थे लेकिन अब 'कपड़ों' से लोगों की जाति-धर्म और चरित्र पहचानने के इस दौर में मुसलमान जोगी इस परंपरा से विरत हो रहे हैं। चिंता की बात यह है कि भिक्षा मांगने की इस परंपरा से विमुख होने का उनका कारण प्रगतिशीलता, मुख्यधारा में आगमन या फिर शिक्षित-जागरूक होना नहीं है बल्कि एक डर है जो आज के समय की राजनीति ने समाज में रोप दिया है। मुसलमान जोगी गेरुआ वस्त्र पहनकर सारंगी बजाते हुए गोरख के पद गाते 'कुछ लोगों' को खटकने लगे हैं। ये वही लोग हैं, जिनका धंधा ही साम्प्रदायिक घृणा और आतंक की राजनीति पर कायम है।

'द वायर' में एक रिपोर्ट छपी है। उसमें बताया है कि देवरिया जिले में रुद्रपुर के जगत माझा गांव के एक ऐसे ही मुसलमान जोगी सलाउद्दीन से मिलने के लिए रिपोर्टर जाता है और उनसे गेरुए वस्त्र में सारंगी के साथ गोपीचंद और भर्तृहरि का गीत सुनाने के लिए कहता है। सलाउद्दीन इस पर नाराज हो जाते हैं। वह किसी तरह तैयार भी होते हैं तो उनके परिवार को यह बात अच्छी नहीं लगती। इसके कारणों में 'कुछ हो जाएगा तो' का जो डर है, वह हमारे प्राचीन देश के सामाजिक वातावरण में शायद नया है।

गोरखनाथ 13वीं सदी में समाज में जाति-पंथ में 'विभाजित' हर मनुष्य को एक करने के अभियान में लगे थे। यह 21वीं सदी का भारत है, जहां 'अलगाववादी धर्मरक्षकों' का ऐसा आतंक है कि लोग रंग-वस्त्र-गीत-दर्शन-शिक्षा-भाषा-संगीत आदि में भी ऐसे विभाजित होते जा रहे हैं कि यह पहचान करना मुश्किल है कि समय की धारा में हम आगे बढ़ रहे हैं या बहुत पीछे जा रहे हैं। 

मुसलमान जोगियों की विरक्ति

मुसलमान परिवार के लोग अब जोगी नहीं बनना चाहते हैं। एक कारण यह है कि परिवार के लोग भिक्षा मांगने को अच्छी चीज नहीं मानते। दूसरा यह कि एक मुसलमान का गेरुआ वस्त्र पहनना और गोरख के गीत गाना कुछ हिंदूवादी संगठनों को गरिष्ठ लगता है और उनसे यह बात पचती नहीं है। इन भीतरी और बाहरी दबावों की वजह से न सिर्फ ऐसे जोगियों ने भजन आदि गाना बंद कर दिया है बल्कि अब वे गोरखनाथ मंदिर में दर्शन इत्यादि के लिए जाने में भी इतने सहज नहीं हैं जितना पहले हुआ करते थे।

बताया जाता है कि पहले ये मुस्लिम जोगी मंदिर में बेरोक-टोक आते-जाते थे लेकिन मठ के दिवंगत महंत दिग्विजयनाथ के राजनीति में प्रवेश के बाद परिस्थितियां बदल गईं। मठ हिंदुत्व की राजनीति का केंद्र बन गया और मुसलमान जोगी वहां जाने में सहज नहीं रहे। किसी क्रांतिकारी शिक्षा का, किसी परिवर्तनकारी युग प्रवर्तक का धर्म या पंथ हो जाना ऐसे ही दिन लेकर आता है। सिर्फ प्रतीक रह जाते हैं, उपासना विधियां रह जाती हैं। धर्म की मूल प्रज्ञा नष्ट हो जाती है। 

निश्चित रूप से यह कल्पना करना अब मुश्किल है कि मुसलमान लोग गेरुआ वस्त्र पहनकर गोरखनाथ की प्रशंसा के गीत गा रहे हैं। वह गोरखनाथ मंदिर में बेरोक-टोक प्रवेश कर रहे हैं। दर्शन कर रहे हैं-पूजन कर रहे हैं। आज के वैज्ञानिक युग में यह अकल्पनीय हो तो जाना चाहिए लेकिन इसके कारणों में आधुनिकता की चेतना और प्रगतिशीलता का प्रकाशित मार्ग हो। नफरत, विभाजनकारी और द्वेष के अंधकार का आतंक न हो।

गोरख की याद

गोरख की बनाई समरसता की परंपरा के ह्रास के दौर में वह और ज्यादा याद आते हैं। उनकी शिक्षाएं याद आती हैं, जिन पर किसी धर्म-पंथ-संप्रदाय विशेष के लोगों का ही अधिकार नहीं था। उनके गुरुकुल के दरवाजे सभी के लिए खुले थे। गोरख के दौर में कोई अकादमिक शिक्षा की अवधारणा तो थी नहीं। वेदों और शास्त्रों के ज्ञाता को विद्वान और पंडित माना जाता था। स्त्रियों और अछूतों के लिए वेदपाठ प्रतिबंध था। उनके लिए शिक्षा के द्वार बंद थे। ऐसे समय में गोरख प्रकट होते हैं और समाज के हाशिये पर पड़े इस तबके को लगता है कि उनके जीवन संसार में कोई सूर्य उग आया है। वहां शिक्षा के लिए कोई रोक-टोक नहीं है। पवित्रता-अपवित्रता का कोई विधान नहीं है। सब बराबर हैं।

गोरख का धर्म

धर्म की गोरख के यहां मौलिक व्याख्या थी। ओशो अपने एक प्रवचन में कहते हैं कि हिंदी के मशहूर कवि सुमित्रानंदन पंत ने उनसे सवाल किया था कि भारतीय मनीषा में अगर आपको 12 सर्वश्रेष्ठ सितारों को चुनने के लिए कहा जाए तो आप किन्हें चुनेंगे?

ओशो ने सबसे पहले कृष्ण का नाम लिया। इसके बाद पतंजलि, फिर बुद्ध, फिर महावीर, उसके आगे नागार्जुन (बौद्ध संत), शंकर, गोरख, कबीर, नानक, मीरा, रामकृष्ण परमहंस और अंतर में जद्दू कृष्णमूर्ति। राम का नाम नहीं था। उन्होंने बताया कि राम की कौई मौलिक देन नहीं है। गोरख का नाम था। सिर्फ 12 में नहीं बल्कि टॉप-4 लोगों में भी ओशो ने गोरख को रखा। पंत ने उनसे कहा कि अच्छा 12 नहीं, बल्कि सात लोगों का समूह बनाने के लिए कहा जाए तो आप किसको-किसको रखेंगे?

ओशो ने कहा, 'सात लोगों में कृष्ण, पतंजलि, बुद्ध, महावीर, शंकर, गोरख और कबीर।' पंत बोले- 'अगर सिर्फ चार ही रखने को बोलूं तो?' ओशो ने कहा, 'तब सिर्फ कृष्ण, पतंजलि, बुद्ध और गोरख।' पंत ने एक चीज नोटिस किया कि गोरख का नाम सभी लिस्ट में है। उन्होंने पूछा कि आपने महावीर को छोड़ दिया। शंकर को छोड़ दिया। कबीर भी नहीं रहे आखिरी लिस्ट में लेकिन गोरख शीर्ष चार लोगों में भी शामिल हैं। गोरख में ऐसा क्या है?

ओशो ने कहा कि गोरख ने जो किया, कबीर उसका एक्सटेंशन हैं। नानक, मीरा उसका विस्तार हैं। गोरख ने राह तोड़ी। एक नए रास्ते का सूत्रपात किया। रुढ़ियां तोड़ीं। मनुष्य को महत्व दिया। मुक्ति का वह मार्ग बताया, जो अपेक्षित रूप से ज्यादा वैज्ञानिक है। वह जिस श्रृंखला में है, उसकी पहली कड़ी हैं। आरंभ हैं। गोमुख हैं। उन्होंने जो मार्ग बनाया, कबीर-मीरा-नानक जैसे संत उसी रास्ते पर हैं इसलिए गोरख को नहीं छोड़ सकता। गोरख ने जो दिया वह कृष्ण, बुद्ध और पतंजलि की तरह संसार को मौलिक देन है। गोरखनाथ के यहां भक्ति नहीं है। ईश्वर की भक्ति, वेदों पर आस्था, तंत्र-मंत्र पर भरोसा। वह इन माध्यमों पर भरोसा नहीं करते थे। 

हजारी प्रसाद द्विवेदी ने गोरख के लिए लिखा- उन्होंने (गोरख ने) किसी से भी समझौता नहीं किया। लोक से भी नहीं, वेद से भी नहीं ; परन्तु फिर भी उन्होंने समस्त प्रचलित साधना मार्ग से उचित भाव ग्रहण किया। केवल एक वस्तु वे कहीं से न ले सके। वह है भक्ति। वे ज्ञान के उपासक थे और लेश मात्र भी भावुकता को बर्दाश्त नहीं कर सकते थे।

गोमुख गोरख

बाद में जो बातें कबीर, मीरा, नानक और तमाम भक्तिकालीन संतों ने कहीं, वह गोरख से ही शुरू होती हैं।

मरौ वे जोगी मरौ, मरौ मरन है मीठा।

तिस मरणी मरौ, जिस मरणी गोरष मरि दीठा।

गोरख कहते हैं कि पूरी तरह से मर जाओ लेकिन कैसे मरो? जैसे गोरख मर चुका है। यह मरण मीठा है। यह कैसा मरण है? किसी मनुष्य की मृत्यु उसकी देह की मृत्यु है। देह की मृत्यु में मन नहीं मरता। मन के साथ उसके विकार भी नहीं मरते। विपश्यना की साधना के दौरान बताया जाता है कि मन में राग और द्वेष के संस्कार होते हैं। ये संस्कार नहीं मरते। देह मरती है और मन के ये संस्कार नए गर्भ में पहुंच जाते हैं। नया जीवन उन्हीं पुराने विकारों से शुरू होता है। 

कोई व्यक्ति गोरख के पास पहुंचा और कहा कि वह जीवन से बहुत निराश है और आत्महत्या करना चाहता है। गोरख कहते हैं जरूर मर जाओ लेकिन मैं बताता हूं कि वह आत्महत्या कैसी हो? कहीं किसी नदी में कूद जाओ या जहर खा लो। उससे यह शरीर मर जाएगा लेकिन जो तुम्हारा आत्महत्या के लिए व्याकुल मन है, वह नया शरीर लेकर फिर से तुम्हारे सामने यही सवाल लेकर उपस्थित हो जाएगा। इसलिए मरना है तो नई विधि बताता हूं। तिस मरणी मरौ, जिस मरणी गोरख मरि दीठा। गोरख यहां से ध्यान और समाधि की ओर ले जाना चाहते हैं। 

हंसिबा खेलिबा धरिबा ध्यान। अहनिसि कथिबा ब्रह्म गियान। 

हंसै खेलै न करै मन भंग, ते निहचल सदा नाथ के संग॥ 

ध्यान जरिया है आत्मसजगता के लिए। पूर्ण मृत्यु के लिए जीवन को जान लेना और समझ लेना जरूरी है। ध्यान के साधकों को बताया जाता है कि स्थूलता से सूक्ष्मता की ओर जाने के लिए अंतर्मुखी होना जरूरी है। अपनी ओर देखना जरूरी है। जितना सूक्ष्म होते जाएंगे, उतना ही सत्य के करीब पहुंचते जाएंगे। अपने तत्व की तरफ पहुंचते जाएंगे। अपनी ईकाई की ओर। बुद्ध की विपश्यना भी यही है। अपने शरीर के प्रति सजग होना है। उसको जानते-जानते, महसूस करते सूक्ष्मता की उस स्थिति तक पहुंच जाना है, जहां के बाद से कोई द्वैत नहीं है। केवल इकाई है। जो है तो अदृश्य जैसी लेकिन साधना से अंतर्दृष्टि ऐसी सूक्ष्म हो गई है कि वह दिख रहा है। बेपरदा हो गया है।विपश्यना के आचार्य बताते हैं कि यह स्थिति बहुत कठोर साधना के बाद आती है। कई बार तो कई जन्मों के बाद।

यही गोरख भी कहते हैं- 

अदेखि देखिबा देखि विचारिबा अदिसिटि राषिबा चीया।

पाताल की गंगा ब्रह्मंड चढ़ाइबा तहां बिमल-बिमल जल पीया।

जो अदृश्य है, उसे देखना है। सिर्फ देखना नहीं, उसे अपने अंतरतम में, विचार प्रकोष्ठ में स्थापित कर लेना है। उस अदृश्य को अपने चित्त में रख लेना है। फिर ऊर्जा की जो गंगा अधोगामिनी है, वह ऊर्ध्वगामिनी हो जाएगी। तब जाकर अमृत रस पान हो सकेगा। तब जाकर अमरता मिलेगी। तब जाकर सही मृत्यु घटित होगी। 'जिस मरणी गोरष मरि दीठा' वाली मृत्यु, जो दुखदायी नहीं है। जो 'मरन है मीठा'

Tuesday, 4 January 2022

डायरी: दुख विषय पर


दुख को आने देना चाहिए। अगर दुख का कोई एक कारण है तो उससे भागने से बचना चाहिए। दुख को खत्म करने की कोशिश उसे और प्रबल बना देती है, इसलिए जरूरी है सबसे पहले दुख से सामान्य व्यवहार। जैसे हम उसके आगमन के तैयारी कर के बैठे हों या फिर ऐसे जैसे उसके आगमन के इतने अभ्यस्त हो गए हों कि हमें ठीक-ठीक वह बिंदु पता ही नहीं है जब वह आया या फिर जब वह चला जाएगा। 

इतना सामान्य हो जाने का अभ्यास हो दुख में। हम जैसे अपने सुख का क्षण भोग कर आनंदित होते हैं और उसे किसी से शब्द, वाक्य और ध्वनियों के जरिए अभिव्यक्त नहीं करते हैं, वैसे ही दुख के साथ भी करें क्योंकि यह सत्य है कि इन दोनों का स्वाद हमारे लाख वर्णन करने के बाद भी कोई दूसरा महसूस नहीं कर सकता है। 

इसे महसूस करने के लिए उसे इस प्रकार का स्वाद पहले लिया जाना आवश्यक है। फिर वह अपने स्वाद की भाषा में तुम्हारे स्वाद का अनुवाद कर सकता है। यह अनुवाद भी कितना सटीक होगा? कहां नहीं जा सकता इसलिए दुख को आने दो। उसे तुम्हारे पूरे मनस में फैल जाने दो। उसे अपना काम करने दो। तुम्हें उसके लिए अपना काम रोकने की जरूरत नहीं है। तुम जैसा सुख के समय करते हो, करो वही दुख के समय भी।

किसी बात से दुख पहुंचा है और वह बात बार-बार मानसिक पटल पर प्रकाशित हो जाती है तो होने दो। उससे लड़ो नहीं। उस से भागने की चेष्टा न करो। तुम उसका जितना सामना करोगे वह उतना ही प्रबल होता जाएगा। बालि की तरह, जो सुग्रीव का सबसे बड़ा दुख था। तुम दुखी करने वाली बात को मस्तिष्क में गूंजने दो और फिर जो भी अनुभूति होती है उसे साक्षी भाव से देखो। उसे बरतने की कोशिश करो। सहेजने की कोशिश करो। तुम्हारी कोशिश इतनी ही हो कि उसके प्रभाव से तुम किसी अन्य का नुकसान न करना। ऐसा करोगे तो धीरे-धीरे दुख का शमन होता जाएगा। उसकी धार कुंद होती जाएगी।

दुख हमारे जीवन के प्रवाह का एक हिस्सा है। हम उसको दबाकर अपने मानसिक वातावरण में कैद नहीं कर सकते। हम उसे जाने दे सकते हैं और हमें यही करना चाहिए। दुख को, शोक को, त्रास को अपनी गति से जाने देने की छूट देनी होगी। तभी वह संपूर्ण रूप से जा पाएगा। अन्यथा अपना कुछ हिस्सा या फिर अपना शव हमारे भीतर ही छोड़ जाएगा।

Wednesday, 8 December 2021

सबके कबीर

 

धर्म सार्वजनीन चीज है। सम्पूर्ण मनुष्यता और गैर-मनुष्य वस्तुओं के लिए प्रकृति का अनुशासन धर्म कहा जा सकता है। बीती कई सदियों में इस धर्म के अनुकूल चलने के लिए कई सारे पंथ बने। इन पंथों ने धर्म के असीम आकाश के नीचे परम्परा-कर्मकांड, संस्कृति, सभ्यता के छोटे-छोटे तंबू तान लिए। पत्थर की लकीर से लिखे उनके विधान में संशोधन की कोई गुंजाइश नहीं। पंथों ने सार्वजनीन धर्म को अपने छोटे-छोटे तंबुओं में कैद करने की कोशिश की तो कबीर आए।

कबीर ने धर्म को अपनी तरह से परिभाषित किया। पंथों के तमाम तंबुओं पर बिजली की तरह गिरे। इतने सच्चे, इतने प्रभावशाली कि सन्त शिरोमणि हो गए। मुसलमान बोलते कि ये तो हमारे पंथ के धर्म की व्याख्या हैं। हिन्दू कहते कि कबीर की बानी तो सनातन धर्म का ही व्याख्यान है। कबीर के जीवन का यह विवाद उनके संतत्व का प्रमाणपत्र है। वह इतने ज्यादा सार्वजनिक सन्त हैं कि कोई भी पंथ धर्म के अपने सिद्धांतों की व्याख्या उनमें देखने ही लगता है। वह वैसे ही सार्वजनीन हैं, जैसे धर्म।

किसी ने कहा कि कबीर ने हिन्दू-मुस्लिम को एकजुट करने का काम किया। कबीर ने हिन्दू और मुस्लिम होने के तत्कालीन समाज के जितने भी मानक थे, उनको ऐसी बेरहमी के साथ तोड़ा कि सारे तंबू ढहने लगे। ऐसे में हिन्दू-मुस्लिम एकजुट तो हुए पर कबीर के साथ नहीं बल्कि उनके खिलाफ। ये उन तंबुओं के प्रभारी थे, जो आसमान की सार्वजनिक सत्ता का सच नहीं स्वीकारना चाहते थे। किसी मंजे हुए सेल्समैन की तरह अपने तंबू की उत्कृष्टता के लिए जमकर प्रचार करते और कबीर की निंदा करते लेकिन कबीर को कहां फ़र्क़ पड़ा। कबीरों को कहां फ़र्क़ पड़ता है। जो घर फूंक दे आपणा, उसको कौन किस बात से दबा सकता है।


कबीर इसीलिए प्रिय हैं कि वह संसार के गिने-चुने मौलिक मनुष्यों में से एक हैं। उनके जीवन का रास्ता किसी लीक से नहीं गुज़रा। वह सत्य पहचानने की अद्भुत आंख रखते थे।

"तू कहता कागद की लेखी।

मैं कहता आँखिन की देखी।"

मनुष्यों के इतिहास में कितने सारे लोग पैदा हुए। उनकी गिनती नहीं। कबीर गणनीय मनुष्य हैं, जिन्हें सच्ची मनुष्यता की परिभाषा में एक यूनिट के रूप में अध्यायित किया जाएगा।

मगहर में कबीर की मजार भी है। समाधि भी। दो सम्प्रदायों की कथित अधिकृत भाषाओं के ये दो शब्द दो भिन्न संस्कृतियों के प्रतीक हैं। कबीर दोनों के हैं। कबीर के मरने पर साम्प्रदायिक विवाद उनकी सार्वजनिकता का सबसे सशक्त प्रमाण है। सिर्फ हिन्दू-मुस्लिम नहीं, बल्कि दुनिया के सभी पंथों को इस पर झगड़ पड़ना चाहिए कि कबीर उनके हैं। कबीर पर सब पंथों का दावा हो सकता है।

(मगहर में)