Wednesday, 25 October 2017

पुण्यतिथि विशेषः ज़िन्दगी सिर्फ मोहब्बत नहीं कुछ और भी है: साहिर लुधियानवी


फोटो साभारः इंटरनेट
विभाजन के बाद साहिर ने हिंदुस्तान छोड़ दिया और पाकिस्तान चले गए। उस दौर के मशहूर फिल्म निर्देशक थे ख्वाजा अहमद अब्बास। अब्बास साहिर के दोस्त थे। साहिर के जाने से दुखी भी थे इसलिए उन्होंने इंडिया वीकली नाम के मैगजीन में साहिर के नाम खुला पत्र लिखा और उन्हें यह एहसास दिलाया कि जब तक तुम साहिर लुधियानवी हो तब तक तुम हिंदुस्तानी हो। देश बदलने के लिए तुम्हें अपना नाम यानी कि अपनी पहचान बदलनी होगी। दिल भी एक अजीब डाकिया है कि बात अगर वहां से निकले तो सही पते पर पहुंच ही जाती है। अब्बास साहब के दिल से निकली ये पुकार सरहद पार कर लाहौर पहुंच गई। साहिर ने उनका खत पढ़ा और अपनी बूढ़ी मां को साथ लेकर साहिर लुधियानवी भारत लौट आए। उसके बाद जो कुछ भी हुआ वह पूरे एक दौर के इतिहास में सर्वाधिक क्षेत्रफल पर अपनी मौजूदगी रखता है।


कहते हैं कि ग़ज़लों की बहर तभी बनती है जब जिंदगी बे-बहर हो जाए। साहिर का जीवन भी बड़ा बेतरतीब रहा है। 8 मार्च 1921 को लुधियाना में पैदा हुए अब्दुल हय़ी साहिर जब आठ साल के थे तभी माता पिता के अलगाव की दुर्घटना से उनका पाला पड़ा। अदालत में अपने संपन्न पिता के विकल्प को ठुकराते हुए साहिर ने अपनी मां का साथ मंजूर किया और जीवन भर मां के साथ ही रहे। कॉलेज के दिनों में ही उनके शेर उनकी लोकप्रियता को पंख दे रहे थे। उनकी ग़ज़लें उन दिनों काफी लोकप्रिय हो रही थीं। प्रशंसकों का समुदाय तैयार हो रहा था। इन्हीं प्रशंसकों में से एक अमृता प्रीतम भी थीं, जिनसे साहिर को मोहब्बत थी। जीवन भर अविवाहित रहने वाले साहिर की यह पहली मोहब्बत थी जिसके मुकम्मल होने की राह में साहिर का वही नाम आड़े आ गया जिसने उन्हें हिंदुस्तान वापस बुलाया था। साहिर का नाम तो मुसलमान था लेकिन दिल का कहां कोई धरम होता है।

मोहब्बत के लेखकों के लिए ताजमहल का इतिहास एक बेहतरीन विषय है। न जाने कितनी नज़्में और कितनी कविताएं ताजमहल के चमकते संगमरमर पर आशिकों की प्रेमिकाओं का नाम लिखतीं और शाहजहां और मुमताज की मोहब्बत की मिसालें देतीं लेकिन साहिर तो उस पंक्ति से अलग ही थे। तभी तो उन्होंने शहंशाह की मोहब्बत को कुछ इस तरह से कटघरे में खड़ा किया है -

ये चमनज़ार, ये जमुना का किनारा, ये महल
ये मुनक्कश दरो-दीवार, ये मेहराब, ये ताक़
एक शहंशाह ने दौलत का सहारा ले कर
हम ग़रीबों की मोहब्बत का उड़ाया है मज़ाक़।

मोहब्बत के मामले में साहिर दूसरी पारी भी खेलना चाहते थे। तब की मशहूर पार्श्व गायिका सुधा मल्होत्रा के साथ उनका नाम काफी जोर-शोर से जोड़ा जा रहा था। कहा जाता है कि साहिर की तरफ से यह एकतरफा मोहब्बत की कोशिश थी। दूसरी बार दिल की बाजी हारने के बाद ही शायर साहिर के कलम ने लिखा होगा

ज़िन्दगी सिर्फ मोहब्बत नहीं कुछ और भी है।
ज़ुल्फ़-ओ-रुखसार की जन्नत नहीं कुछ और भी है।
भूख और प्यास की मारी हुई इस दुनिया में,
इश्क ही इक हकीकत नहीं कुछ और भी है।

यह इश्क में बार बार असफल होने की वजह से झल्लाए हुए किसी आशिक का ही बयान हो सकता है। कहा जाता है कि इश्क जिंदगी में केवल एक बार ही होता है। अपने प्रेम की श्रेष्ठता को प्रमाणित करने के लिए अक्सर कवियों की कविताएं इसी सिद्धांत का अनुसरण करती हैं लेकिन साहिर ने इस मामले में भी विधान बदल दिया। अमृता से अपने रिश्तों की कहानी के पटाक्षेप को साहिर जिंदगी के एक मोड़ की तरह के देखते हैं, जिसे शायद उन्होंने ही एक खूबसूरत शिल्प दिया है या देने की कोशिश की है।

वो अफसाना जिसे अंजाम तक लाना हो नामुमकिन,
उसे इक खूबसूरत मोड़ देकर छोड़ना अच्छा।
चलो एक बार फिर से अजनबी बन जाएं हम दोनों।

साहिर का मतलब जादू होता है और सच में साहिर जादू ही लिखते थे। "जिंदगी तेरी जुल्फों की घनी छांव में गुजरने पाती तो शादाब हो भी सकती थीं", ये पंक्तियां जिंदगी की एक कसक की तरह हैं जो साहिर को साहिर बनाती हैं। तल्खियां इनकी पहली किताब का नाम है जो 24 साल की उम्र में उन्होंने छपवाई थीं और जो उस नौजवान के तल्खियों से भरे जीवन की भविष्यवाणी की तरह लगती थीं। साहिर ने हिंदी फिल्मों को बहुत सारे हिट गाने दिए। गीतकारों का मूल्य संगीतकारों और गायकों से बिल्कुल भी कम नहीं हैं, इसका आभास सबसे पहले साहिर ने ही बॉलीवुड को करवाया था। संगातकारों और गायकों से एक रुपया ज्यादा मेहनताना लेना साहिर बॉलीवुड में धाक का पैमाना हो सकती हैं।

गुरुदत्त की प्यासा फिल्म के गीतों ने उस दौर में जो तहलका मचाया था उसमें साहिर का बड़ा योगदान था। गुरुदत्त के अवसाद से भरे मुखड़े पर बजने वाले गीत "जाने वो कैसे लोग थे जिनके प्यार को प्यार मिला, हमनें तो जब कलियां मांगी, कांटों का हार मिला" में शायद उनके अपने जीवन की टीस भी शामिल थी। इसी फिल्म में दुनिया को नकारने वाला वह गीत "ये महलों, ये तख़्तों, ये ताजों की दुनिया, ये इनसां के दुश्मन समाजों की दुनिया, ये दौलत के भूखे रिवाज़ों की दुनिया, ये दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्या है", हिंदी फिल्म-गीतों की लीक बदलने वाली कविता थी। आज साहिर की पुण्यतिथि है। 25 अक्टूबर 1980 को साहिर का शरीर मिट्टी में दफ्न हो गया लेकिन उनके गीतों का साहिर और उनके अद्वितीय व्यक्तित्व का जादू न जाने कितनी सदियों की सैर करेगा उनकी उस बात को झुठलाते हुए, जिसमें वो कहते हैं -

कल और आएंगे नगमों की, खिलती कलियां चुनने वाले,
मुझसे बेहतर कहने वाले, तुमसे बेहतर सुनने वाले।
कल कोई मुझको याद करे, क्यूं कोई मुझको याद करे,
मसरूफ जमाना मेरे लिये, क्यूं वक्त अपना बरबाद करे।
मैं पल दो पल का शायर हूं..

Wednesday, 18 October 2017

अगर बच्चों ने पर्यावरण के लिए घातक हथियार थाम लिए हों तो उन्हें उनसे छीन ही लेना चाहिए

धर्म और मजहब बचाने के अनगिनत आह्वान न तो आपके कानों से अछूते हैं और न हमारे। अलग-अलग धर्म अलग-अलग कारणों से संकट में हैं। संरक्षण की गुहार लगाती कभी-कभी हिंसक और अराजक हो जाने वाली इन आवाजों के बीच हर साल एक और आह्वान दबे पांव हमारे बीच आता है और फिर मायूस होकर चला जाता है। दरअसल, सिर्फ एक बार नहीं, बार-बार आता है और हर बार निराश होकर कुछ ऊंची घुड़कती आवाज को सुनकर चुपचाप जमींदोज हो जाता है। जानते हैं वो आह्वान क्या है? अपनी धड़कन सुनिए, अपनी सांसे महसूस कीजिए, अपनी आंखों की रोशनी को देखिए और अपने कानों के पर्दों का कंपन गिनिए। ये आवाज आपके दिल के धड़कनों की अनियमितता, आंखों की रोशनी की चुभन और आपके कानों के पर्दों की थरथराहट का दर्द है। यह आवाज आपके अपने वायुमंडल की आवाज है। यह आवाज उस प्रकृति का रूदन है जिसे इंसानों ने तबाह कर दिया है और अब जब उसे संवारने का दायित्व उठाने का वक्त आया है तब कई तरह के बहाने बनाकर वह उससे अपना पिंड छुड़ा लेना चाहता है।

दिल्ली के अर्जुन गोपाल, आरव भंडारी और जोया राव की ओर से उनके पिताओं द्वारा सुप्रीम कोर्ट में दायर की गई याचिका पर सुनवाई करते हुए अदालत ने दिल्ली-एनसीआर में पटाखों की बिक्री पर बैन लगा दिया है। ये तीनों याचिकाकर्ता 6-14 साल के बच्चे हैं जिनके फेफड़े दिल्ली के प्रदूषण ने खराब कर दिए थे। दिल्ली में ऐसे ही न जाने कितने अर्जुन, आरव और जोया होंगे जिन्होंने अपने फेफड़ों के खराब होने की विभीषिका झेल ली लेकिन वे अदालत नहीं जा सकते। शायद असमर्थ हों। लेकिन इतना तो तय है न कि यह प्रदूषण सामान्य नहीं है। अदालत इस बार यह टेस्ट करना चाहती है कि पटाखों के बैन होने से क्या प्रदूषण कम हो पाएगा। पिछले साल दिवाली के बाद दिल्ली की हालत वो लोग बेहतर बता पाएंगे जो दिल्ली में उस वक्त थे। धुंध और कोहरे से लिपटी दिल्ली प्रदूषण के सबसे उच्चतम स्तर का भी मुंह देख चुकी है। ऐसे में सरकार और अन्य जवाबदेह संस्थाओं द्वारा कुछ कठोर कदम उठाने की उम्मीद तो है ही।

इसी मद्देनजर सुप्रीम कोर्ट का फैसला आया कि शायद इससे कुछ तो प्रदूषण से राहत मिले। फैसला भले समूची मानवजाति के सुरक्षा को ध्यान में रखकर लिया गया हो लेकिन इससे मानवजाति की एक उपजाति की धार्मिक आस्थाएं आहत होने लगी हैं। उनकी सांस्कृतिक चेतना मानवीय अस्तित्व के सबसे बड़े संकट की आहट सुनने के प्रति भटकसुन्न हो चुकी है। यूं तो पर्यावरण संरक्षण से जुड़ा मामला होने के नाते ऐसी उम्मीद थी कि सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले का सब ओर से स्वागत होगा लेकिन कुछ एक बयानों ने कोर्ट के आदेश की तो छोड़िए पर्यावरण को लेकर वैश्विक चिंता का जो मजाक बनाया है और इस भारी-भरकम मुद्दे को कमतर समझने की समझदारी दिखाई है उसे देखकर लगता है कि अभी हम पर्यावरण के लगातार बदलते चेहरे को लेकर गंभीर नहीं हुए हैं।

सवाल अब ये भी है कि है अभी गंभीर नहीं है तो कब होंगे। विकासशीलता अभी और ज़हर उगलेगी ये तो जेनेवा और पेरिस जैसे सम्मेलनों से साफ़ पता चलता है। कार्बन उत्सर्जन को कम करने के कोटे को लेकर हो रही बहसों को विश्व का वातावरण बड़ी गंभीरता और आशा के साथ देख रहा है और इधर मसला ही नहीं सुलझता। विकसित देशों ने अपने हिसाब से कार्बन उत्सर्जन में कटौती का कोटा तय किया जिसके लिए विकासशील देश बिल्कुल तैयार नहीं हो रहे हैं। ये मसला तो इतनी आसानी से सुलझेगा नहीं। आन-बान-शान वाला मामला भी हो सकता है। लेकिन इन सबके बीच क्या किया जाए, दिन प्रतिदिन मौसम के बदलते रंगों से भयभीत होने के सिवा। पटाखों की बिक्री पर बैन पर विमर्श के धुएं भी उठने लगे हैं। यह भी एक तरह का प्रदूषण ही है। तो पर्यावरण के प्रदूषण से पहले लोगों के दिमाग का प्रदूषण दूर करना होगा क्या? शायद हाँ! लोगों को समझाना पड़ेगा। प्रदूषण को देखने वाली उनकी दृष्टि पर माइक्रो लेंस की परत चढ़ानी पड़ेगी। ताकि उनको दिखे कि जब वो कसरत करते हैं तब जोर-जोर से जो अपनी नाक से खींच रहे हैं वो ऑक्सीजन नहीं नाइट्रोजन डाई ऑक्साइड जैसे खतरनाक रसायन हैं जिससे उनके फेफड़े की ऐसी-तैसी हो जाने वाली है। तब शायद बात कुछ समझ भी आए। नहीं तो जैसे ही आप उन्हें बिना समझाए कहेंगे कि भाई होली में होलिका दहन मत करो या फिर दिवाली में पटाखे मत फोड़ो, उन्हें कोई ज्ञानी साहब समझाने लग जाएंगे कि 'देखो, बच्चों के हाथों से पटाखे छीने जा रहे हैं।' या फिर 'देखो, अब ये लोग तुम्हारे शमशान को भी बंद करा देंगे।' वगैरह वगैरह

सनातन संस्कृति से जुड़े पर्व, व्रत, उपासना विधि आदि पर्यावरण के प्रति संवेदनशीलता का श्रेष्ठ उदहारण कही जा सकती हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि इस संस्कृति की मान्यताएं पर्यावरण-संरक्षक विधानों के काफी करीब दिखती हैं। बात चाहे होली की हो या दीवाली की, हर त्योहारों के पीछे की वैज्ञानिक समझ आधुनिकता के तथाकथित समझ से युगों पहले भी बहुत आगे थी। इन त्योहारों की जब शुरुआत हुई रही होगी तब निश्चित रूप से पर्यावरण कोई बड़ी समस्या नहीं रही होगी। होली का त्यौहार हिन्दू कैलेंडर का आखिरी वर्ष होता था। ऐसे में नए साल के स्वागत हेतु घरों की वातावरणीय नूतनता के निर्माण के लिए उनकी साफ़-सफाई की जाती थी। फलस्वरूप सफाई से इकट्ठे कूड़े आदि को होलिका में जलाया जाता था। माना जाता है कि फसलों के कटने के बाद खलिहानों में उनके आगमन का उत्सव गुलाल से मनाया जाता था। आजकल गुलालों की जगह रसायनों से युक्त खतरनाक रंगों ने ले लिया है। दशहरे में मिट्टी की मूर्तियां बनायीं जाती थीं। जिन्हें नदियों में प्रवाहित करने पर मिट्टी तली में बैठ जाती। आजकल रसायनों से बनी मूर्तियां जल-पर्यावरण के लिए कितनी घातक हैं, बताने की जरूरत नहीं है। इसी तरह से दिवाली भी दो ऋतुओं के संधिकाल का पर्व है। ऋतुचक्र के वर्षा ऋतु से शीत ऋतु की ओर प्रयाण करने के संधिबिन्दु पर दिवाली का त्यौहार मनाया जाता है। तमाम विद्वानों का इस मसले पर कहना है कि वर्षा ऋतु में विविध प्रकार के कीट-पतंगों का प्रकोप काफी बढ़ जाता है। ऐसे में लोगों ने अपने घर की छतों पर और अपने दरवाजे पर घी या फिर सरसो के तेल के दिए जलाने शुरू किये। ऐसा माना जाता है कि इससे वर्षा ऋतु में उत्पन्न कीट काफी मात्रा में नष्ट हो जाते हैं। इस तरह से देखा जाए तो हमारे त्यौहार स्वच्छता, उत्सवधर्मिता और निरोगता के एक धार्मिक अभियान की तरह होते हैं। इन पर्यावरण अनुकूल प्रावधानों के बीच ध्वनि और वायु प्रदूषण बढ़ाने वाले पटाखों की परंपरा ने कब घुसपैठ किया, इसका पता किसी को नहीं है।

दिवाली की मूल प्रज्ञा है, अन्धकार से प्रकाश की ओर, असत्य से सत्य की ओर, अज्ञान से ज्ञान की ओर, मृत्यु से अमरता की ओर। इसीलिए दिवाली को दीप बाले जाते हैं। कि अमावस की चंद्रानुपस्थिति में भी प्रकाश का एक प्रतिनिधि उजाले की अमरता का नेतृत्व कर रहा होता है। इस दृष्टि से पटाखों की परंपरा कहीं से भी दिवाली का प्रतिनिधि तत्व नहीं है। क्या अमावस और शरद की नीरवता में कर्कश शोर का समावेश किसी भी तरह से युक्तिसंगत है? क्या दिवाली शांति से अशांति की ओर जाने का पर्व है? दिवाली का आध्यात्मिक पक्ष भी इसकी इजाज़त नहीं देता। लेकिन पर्यावरणीय चिंतन इस बात का ज्यादा पुख़्ता विरोध करता है। सर्दी के दिनों के दो उत्सव आतिशबाजियों के लिए जाने जाते हैं। पहला दिवाली और दूसरा नववर्ष। बिना पटाखों के इन उत्सवों की कल्पना ने भी लोगों के दिमाग से प्रस्थान कर लिया है। ऐसे में यह एक बड़ी चुनौती है कि कैसे त्योहारों को प्रकृति का दुश्मन बनने से रोका जाए। निश्चित रूप से दिवाली आपकी भक्ति और आपके आस्था से जुड़ा मामला है। लेकिन यह कैसी भक्ति है जिसमें आप उसी प्रकृति से विभक्त हो जाते हैं जिनके संरक्षण की जिम्मेदारी आपके इन्हीं त्योहारों ने उठायी थी। धर्म और धार्मिक आस्थाओं का जब बाजारीकरण होना शुरू हो जाता है तब उनके उद्देश्य बदल जाते हैं। ऐसे में आस्थाएं अपना मूल अर्थ खोने लगती हैं और इनकी दिशाएं इनके लक्ष्यों की विपरीतता का अनुसरण करने लगती हैं।

दिवाली वैसे तो बाजार का ही त्यौहार है। हर त्योहारों की तरह इसके टूल्स का भी बड़ा बाजार सजता है। लाखों लोगों के रोज़गार का सीधा संबंध इस बाजार से होता है। यहीं पर प्रशासन की जिम्मेदारी बढ़ जाती है। एक ऐसा तरीका निकालना जिससे न तो इतनी बड़ी संख्या में मानव संसाधन को नुकसान पहुंचे और न प्राकृतिक संसाधनों को। अभी जो पटाखे इत्यादि इस्तेमाल किये जा रहे हैं, आने वाले दिनों में उनके और खतरनाक होने की पूरी सम्भावना है। ऐसे में इन्हें त्योहारों पर दाग बनने देने से रोकना होगा। बच्चों के हाथों ने अगर आने वाली नस्लों की हवाओं में घोलने के लिए ज़हर थाम लिया हो तो उनके हाथ से वो ज़हर छीन ही लेने चाहिए। अब चाहे वो बच्चे बहुसंख्यक हिन्दू समुदाय के हों या फिर अल्पसंख्यक और तथाकथित पीड़ित मुसलमान समुदाय के हों।

Saturday, 9 September 2017

भारतेंदु हरिश्चंद्रः आधुनिक हिंदी के पितामह-पुरूष

परिवर्तन गुजरते समय के अगले पदचिन्ह के पर्याय भी होते हैं और एक लंबी यात्रा का एक पड़ाव भी। पड़ाव वह जहां से यात्रा नए कलेवर में, नई ऊर्जा के साथ एक नया स्वरूप लेकर आगे बढ़ती है। इस परिवर्तन को तब केवल परिवर्तन नहीं कहा जाता। तब इसे युगांतर, क्रांति या नए मार्ग का प्रवर्तन आदि संबोधनों से संबोधित किया जाता है। हर प्रवर्तन या क्रांति अपनी स्थापना के लिए एक स्थापक ढूंढती है। एक युगपुरूष, जो केवल उस महान परिवर्तन का माध्यम बनने के लिए हमारे बीच आता है और नए मार्ग का सृजन कर उससे विश्व को आगे बढ़ने की प्रेरणा देकर चला जाता है। 9 सितंबर एक ऐसे ही महान प्रवर्तक के प्राकट्य की ऐतिहासिक तारीख है। अपने जमाने के लोकप्रिय कवि गिरिधरदास यानी कि गोपालचंद्र एक संपन्न परिवार से ताल्लुक रखते थे। कई पीढ़ियों से इस परिवार की संपन्नता अक्षुण्ण थी। अंग्रेजी राज से अच्छे संबंध भी इनकी संपन्नता के कारणों में गिने जा सकते हैं। इसी संपन्न वैश्य परिवार में 1850 ईसवी में भारतेंदु का जन्म हुआ। भारतेंदु हरिश्चंद्र, हिंदी साहित्य से परिचित कोई भी ऐसा नहीं होगा जिससे इस नाम का परिचय अब तक न हुआ हो।

परिवार के धार्मिक और साहित्यिक वातावरण में हिंदी साहित्य का एक ऐसा वटवृक्ष पल रहा था जिसकी छांव में आने वाले कई दशकों, सदियों तक हिंदी का एक विशाल कुनबा प्रश्रय पाने वाले था। जन्म के महज सात साल बाद या सीधे-सीधे कहें तो महज सात वर्ष की उम्र में कवि पिता गिरिधरदास को बालक हरिश्चंद्र ने एक दोहा सुनाया, जो उन्होंने खुद लिखा था। दोहा था-

"लै ब्यौढ़ा ठाणे भए, श्री अनिरुद्ध सुजान।
बाणासुर की सेन को, हनन लगे भगवान।।"

मात्रा, भाषा. छंद विधान और भाव का संतुलन दोहे में देख पिता गदगद हो गए। बेटे को महान कवि बनने का आशीर्वाद दिया, और यही आशीर्वाद हिंदी साहित्य के मार्ग में एक नया मोड़ बनने का आधार साबित हुआ। भारतेंदु ने अपनी पहली कविता ब्रज भाषा में लिखी। उस दौर में आधुनिक हिंदी वाली कविताएं नहीं लिखी जाती थीं। साहित्य में ब्रज और अवधी का पूरी तरह से कब्जा था। भारतेंदु ने हिंदी साहित्य में खड़ी बोली भाषा का सृजन किया। खड़ी बोली हिंदी वह हिंदी थी जो ऊर्दू से काफी अलग थी। यह हिंदी उस दौर की तमाम क्षेत्रीय भाषाओं से पोषण पाती थी। हरिश्चंद्र का संपूर्ण गद्य साहित्य खड़ी हिंदी बोली ही में लिखा गया है। हां, कविता के लिए उन्होंने ब्रजभाषा को ही माध्यम बनाया हुआ था। भारतेंदु को हिंदी साहित्य का वटवृक्ष इसलिए भी कहा जा सकता है, क्योंकि हिंदी साहित्य की दुनिया में उपन्यास, निबंध, नाटक आदि की शाखाएं उन्हीं से निकलीं। साहित्य की इन विधाओं का न केवल विकास बल्कि उनका प्रचार-प्रसार भी भारतेंदु की ही उपलब्धि थी।

पंद्रह वर्ष की अवस्था से ही रचनाकर्म शुरू कर देने वाले हरिश्चंद्र अपने छोटे से जीवनकाल में साहित्य का वो उपयोगी भंडार दुनिया को सौंप गए जिसकी नींव पर आज हिंदी साहित्य अपना परचम पूरी दुनिया में लहरा पाने में कामयाब है। कविता, कहानी, नाटक, व्यंग्य, ग़ज़ल और निबंध, साहित्य की कौन सी ऐसी विधा है जिस पर भारतेंदु की कलम न चली। साहित्यकार एक तरह से समाजसुधारक की भी भूमिका में होता है। भारतेंदु की रचनाओं ने उस दैर में व्याप्त तमाम सामाजिक और धार्मिक कुरीतियों पर प्रहार करने के लिए कलम को हथियार के रूप में इस्तेमाल करने की परंपरा का सूत्रपात किया। अंधेर नगरी नाटक के जरिए एक दिक्भ्रमित और भ्रष्ट शासक के राज्य में लोगों की दुर्दशा को जिस बेहतरीन अंदाज में प्रस्तुत किया गया है, उसके बारे में क्या ही कहा जाए। अंग्रेजी राज को आधार बनाकर लिखे गए इस चुटीले व्यंग्य को आज की परिस्थिति की कसौटी पर भी रखा जाए तो भी यह खरा ही दिखता है -

अंधेर नगरी अनबूझ राजा। टका सेर भाजी टका सेर खाजा॥
नीच ऊँच सब एकहि ऐसे। जैसे भड़ुए पंडित तैसे॥

वेश्या जोरू एक समाना। बकरी गऊ एक करि जाना॥
सांचे मारे मारे डाल। छली दुष्ट सिर चढ़ि चढ़ि बोलैं॥

प्रगट सभ्य अन्तर छलहारी। सोइ राजसभा बलभारी ॥
सांच कहैं ते पनही खावैं। झूठे बहुविधि पदवी पावै ॥

धर्म अधर्म एक दरसाई। राजा करै सो न्याव सदाई ॥
भीतर स्वाहा बाहर सादे। राज करहिं अमले अरु प्यादे ॥

अंधाधुंध मच्यौ सब देसा। मानहुँ राजा रहत बिदेसा ॥
गो द्विज श्रुति आदर नहिं होई। मानहुँ नृपति बिधर्मी कोई ॥

ऊँच नीच सब एकहि सारा। मानहुँ ब्रह्म ज्ञान बिस्तारा ॥
अंधेर नगरी अनबूझ राजा। टका सेर भाजी टका सेर खाजा ॥

राष्ट्रभक्ति भारतेंदु में कूट-कूट कर भरी थी। वे आत्मसम्मान और स्वाभिमान के लिए न्यौछावर हो जाने वाले व्यक्तित्व थे। अपने देश, देश के लोगों और देश की भाषा से उन्हे अथाह प्रेम था। तभी तो अपने देश की दुर्दशा को लेकर जहां 'भारत दुर्दशा' जैसा कालजयी नाटक लिखते हैं वहीं 'भारतवर्षोन्नति कैसे हो सकती है' जैसे विषय पर निबंध लिखते हुए देश की ऐसी कड़वी हकीकत की नब्ज पर उंगली रखते हैं जो आज के दौर में भी उतनी ही प्रासंगिक है जितनी कि तब थी। 'भारतवर्षोन्नति कैसे हो सकती है' में भारतेंदु लिखते हैं कि -

"हमारे हिंदुस्तानी लोग तो रेल की गाड़ी है। यद्यपि फर्स्ट क्लास, सैकेंड क्लास आदि गाड़ी बहुत अच्छी-अच्छी और बड़े-बड़े महसूल की इस ट्रेन में लगी है पर बिना इंजिन सब नहीं चल सकती वैसी ही हिंदुस्तानी लोगों को कोई चलाने वाला हो तो ये क्या नहीं कर सकते। इनसे इतना कह दीजिए 'का चुप साधि रहा बलवाना' फिर देखिए हनुमानजी को अपना बल कैसा याद आता है।"

भारतेंदु ने अपने देश से जुड़ी चीजों की उन्नति पर बड़ा जोर दिया है। वो इसे राष्ट्रीय स्वाभिमान का प्रतीक मानते हैं। अपने एक बहुचर्चित दोहे में उन्होंने लिखा भी है-

"निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।
बिन निजभाषा ज्ञान के, मिटै न हिय को शूल।"

भारतेंदु रचनात्मकता के अक्षय स्रोत थे। अंग्रेजी राज से लोहा लेने के लिए उन्होंने जिस तरह से अपनी रचनात्मकता का सहारा लिया वह उनकी दूरदर्शी सोच का द्योतक है। उन्होंने ही पत्रकारिता में हास्य व्यंग्य विधा की शुरूआत की थी। ये उनका अपने तरह का स्वतंत्रता संग्राम था। भारतेंदु के साहित्यकोश में कई तरह की गजलें और हास्य गजलें भी सम्मिलित हैं। श्रीकृष्ण की भक्ति करतीं उनकी गजल की ये कुछ पंक्तियां देखिए -

"जहाँ देखो वहाँ मौजूद मेरा कृष्ण प्यारा है,
उसी का सब है जल्वा जो जहाँ में आश्कारा है। 

जो कुछ कहते हैं हम यही भी तिरा जल्वा है इक वर्ना, 
किसे ताक़त जो मुँह खोले यहाँ हर शख़्स हारा है ।।"

भारतेंदु का साहित्यकोश बहुत ही विस्तृत है। सभी का जिक्र करना बेहद मुश्किल है। महज 35 साल तक जीने वाले भारतेंदु की तकरीबन 150 रचनाएं प्रकाशित हुई हैं। साहित्य में उनका योगदान केवल लिखने तक ही सीमित नहीं रहा है। उन्होंने महज 18 साल की उम्र में 'कविवचनसुधा' नाम की एक पत्रिका का संपादन भी किया। इसमें उस दौर के मशहूर रचनाकारों की रचनाएं छपती थीं। इसके अलावा उन्होंने 'हरिश्चंद्र मैगजीन' का भी संपादन किया। हिंदी साहित्य में भारतेंदु काल प्राचीनता और नवीनता का संधिकाल है। यहां से जहां प्राचीनता नए स्वरूप में ढलने की कोशिश कर रही थी वहीं कई तरह की नवीनताओं ने भी अपनी यात्रा की शुरूआत की थी। इन नवीनताओं के प्रवर्तक निस्संदेह भारतेंदु थे। अपने दौर में उनकी लोकप्रियता ने उन्हें 'भारतेंदु' का संबोधन दिया तो वहीं एक अपरिमित काल वाली परंपरा में उनके योगदान ने उन्हें युगपुरूष के तौर पर स्थापित कर दिया। हिंदी साहित्य का भारतेंदु काल एक युगांतकारी घटना के तौर पर देखा जाता है। जहां से आधुनिक हिंदी ने चलना सीखा, जिसे तब खड़ी हिंदी कहा जाता था और आज जो हिंदी का पर्याय है।

भारतेंदु के व्यक्तिगत जीवन की कटुता ने कभी उनके सामाजिक, साहित्यिक और राष्ट्रीय दायित्वों को प्रभावित नहीं किया। बेहद कम आयु में पिता को खो देने वाले भारतेंदु ने स्वाध्याय के बलबूते हिंदी, अंग्रेजी, उर्दू, संस्कृत आदि भाषाओं का ज्ञान प्राप्त किया था। इन सबके इतर भारतेंदु का सामाजिक व्यवहार भी काफी तरल था। करूणा और दानशीलता उनके नसों में लहू की तरह प्रवाहित होता था। अपनी इन्हीं प्रवृत्तियों की वजह से उनके जीवन का आखिरी दौर काफी तकलीफों से भरा हुआ था। क्षय रोग की पीड़ा उनसे बर्दाश्त नहीं हुई, और 1850 में पैदा हुआ हिंदी माता का यह अनन्य पुत्र सन् 1885 में महज 35 वर्ष की आयु में स्वर्गवासी हो गया।

Monday, 4 September 2017

आज के दौर में गुरू-शिष्य परंपरा का चित्र किसी दरकते सांस्कृतिक खंडहर से कम नहीं


Image resultभारत एक प्राचीन देश है। इस प्राचीन देश की छाया में अनेक परंपराओं को प्रश्रय मिला है। बहुत सी परंपराएं आज तक निबाही जा रही हैं, तो बहुत सी ऐसी हैं, जो काल की हवाओं से घर्षण करतीं समाप्त हो गईं। गुरू-शिष्य परंपरा इस प्राचीन देश की ऐसी ही एक परंपरा है, जो एक जमाने में विश्व शिक्षा समुदाय के बीच अपनी आदर्श स्थिति की वजह से काफी आदरणीय रही है। पुराणों ही नहीं, विश्व के अर्वाचीन इतिहास के पृष्ठों में भी भारतीय गुरू - शिष्य परंपरा का जो अनुपम उदाहरण मिलता है वह सारे विश्व के लिए अनुकरणीय है। 


गुरू वशिष्ठ और उनके शिष्यों के बीच के संबंधों की बात करें या फिर द्वापर युग के कृष्ण संदीपन, द्रोण-अर्जुन के आपसी आदर-प्रेम-वात्सल्यपूर्ण दृष्टांतों की, भारत की इस परंपरा ने हमेशा से शिष्यों को गुरू के भगवान से भी ऊपर सम्माननीय होने की धारणा के पालन के प्रति प्रेरित किया है। गुरू शिष्यों की इस परंपरा में द्वापर के ही एकलव्य की भक्ति और समर्पण की कहानी अद्वितीय और अद्भुत है, जहां एक ऐसे गुरू को दक्षिणा स्वरूप एक महान धनुर्धर ने अपना अंगूठा सौंप दिया जिसने दीक्षा देने के नाम उसके जातिगत परिचय के आधार पर उसे धनुर्विद्या सिखाने से इंकार कर दिया था। यह शिष्य का गुरू के प्रति समर्पण का सर्वोच्चतम बिंदु है।

इसके बाद की बात करें तो हाल के इतिहास में भी चाणक्य और चंद्रगुप्त के बीच शिक्षक और शिष्य के बीच उल्लेखनीय संबंधों का उदाहरण मिलता है। यहां एक गुरू के सामर्थ्य और एक शिष्य की लगन का परिचय ऐतिहासिक है। शिवाजी और उनके गुरू समर्थ गुरू रामदास के बीच के संबंधों की कहानी तो सर्वविदित है, जहां शिवाजी ने अपना समस्त राज्य अपने गुरू को समर्पित कर दिया था। गुरू-शिष्य संबंधों के इस गौरवशाली इतिहास के आधार पर अगर आज के दौर के गुरू-शिष्य संबंधों का विश्लेषण करेंगे तो कहीं न कहीं इस परंपरा के आधार-स्तंभ उखड़ते से दिखाई पड़ेंगे।

आज गुरू-शिष्य संबंधों में वो समर्पण कम ही दिखाई पड़ता है। शिष्य जहां गुरू के सम्मान के प्रति अब प्रतिबद्ध दिखाई नहीं देते, वहीं आज के गुरूजनों में शिष्यों के प्रति वात्सल्य कम ही दिखाई पड़ता है। देश के शिक्षालयों की हाल की घटनाएं काफी व्यथित करती हैं। कुछ साल पहले इलाहाबाद विश्वविद्यालय के कुछ छात्रों ने मिलकर अपने ही एक शिक्षक को बुरी तरह से पीट दिया था। कुछ दिनों पहले की ही घटना है कि दिल्ली विश्वविद्यालय के एक कॉलेज में कुछ छात्रों की पिटाई से गुरूजी कोमा में चले गए थे। सिर्फ इतना ही नहीं, देश के कई शिक्षालयों में छात्रों की बुरी तरह पिटाई करते शिक्षकों की तस्वीर भी सामने आई थी। यह कहीं न कहीं, शिक्षा-शिक्षक और शिक्षार्थी की गौरवशाली परंपरा पर सिर्फ प्रश्नचिंह्न ही नहीं हैं, बल्कि आत्मविश्लेषण और आत्मविमर्श का विषय है। परंपराओं को सहेजकर रखने के जिम्मेदार समुदाय से उनके विध्वंस की आशा नहीं की जाती। इसलिए समस्त गुरूकुल समुदाय को इस पर फिर से सोचने और इसमें सुधारात्मक परिवर्तन करने की आवश्यकता है।

Friday, 1 September 2017

दुष्यंत कुमारः सत्ता के गिरेबान पर हाथ रखने वाला शायर जिसके शेर क्रांति के शंखनाद से कम नहीं

1933 के वक्त के भारत की बात करें तो आजादी का संग्राम और देशभक्ति से ओत-प्रोत साहित्य अपने पूरे उफान पर था। ऐसे माहौल में स्वातंत्र्योत्तर हिंदी साहित्य की आवाज में हिंदुस्तान की पीड़ा को गाने के लिए एक गीतकार का सृजन जारी था। बर्तानवी हुकूमत के खिलाफ विद्रोह और हिंदुस्तान के गौरवशाली इतिहास के गायन के उस दौर में इस देश के वर्तमान की हकीकत पर उंगली रखने का साहस रखने वाले दुष्यंत कुमार त्यागी इसी साल 1 सितंबर को  बिजनौर जिले राजरुपपुर नवादा में पैदा हुए थे। बिजनौर वही धरती है जहां महर्षि कण्व का आश्रम है, और जहां से भारत नाम के इस प्राचीनतम भूमि-भाग के नामकरण की पटकथा का शुभारंभ हुआ था। महाराज दुष्यंत और शकुंतला के दिव्य प्रेम का गवाह और महाराज भरत जैसे साहसी,वीर और निर्भय बालपन का साक्षी।

तपस्या, प्रेम और वीरता के इतिहास से सिंचित इस धरती पर अगर दुष्यंत कुमार जन्म लेते हैं तो उनकी रचनाओं में निर्भयता और साहस का प्रतिबिंब होना स्वाभाविक है। अब इन पंक्तियों पर ही गौर कीजिए -

मैं इन बेपनाह अंधेरों को सुबह कैसे कहूं,
मैं इन नज़ारों का अंधा तमाशबीन नहीं।

इस नदी की धार में ठंडी हवा आती तो है
नाव जर्जर ही सही, लहरों से टकराती तो है।

दुख नहीं कोई कि अब उपलब्धियों के नाम पर
और कुछ हो या न हो, आकाश-सी छाती तो है।

मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही, 
हो कहीं भी आग लेकिन आग जलनी चाहिए।

दुष्यंत कुमार साहित्य के उन कुछ चुनिंदा रत्नों में से एक हैं जिनका जीवनकाल बेहद छो़टा रहा है। मात्र 42 साल तक जीने वाले हिंदी के इस अनुपम और आदि गजलकार ने अपने छोटे से जीवन के बड़े अनुभवों को कुछ इस कदर शब्दों में बांधा कि उससे बनी उनकी हर गजल या कविता सामाजिक और राष्ट्रीय भावनात्मक पीड़ा का प्रतिनिधित्व करने लगीं। लोग उनकी हर गजल को खुद से जुड़ा हुआ मानने लगे। उससे निकटता महसूस करने लगे। यही कारण है कि हिंदी गजल की दुनिया में जितना दुष्यंत सराहे गए और जितनी उन्हें लोकप्रियता मिली वो आज तक कोई हिंदी का कवि या गजलकार हासिल नहीं कर पाया है। दुष्यंत मनमौजी किस्म के व्यक्ति थे। प्रतिकूलता के माहौल में भी सच की नब्ज पर उंगली रखने की उनकी हिम्मत ही उन्हें साहित्यकार के साथ-साथ क्रांतिकारी साहित्यकार की संज्ञा देती है। समाज के सबसे निचले तबके के लोगों के कंधों पर हाथ रखती उनकी गजलों ने उन्हें हिंदुस्तान का सबसे लाडला गीतकार बना दिया।

भूख है तो सब्र कर रोटी नहीं तो क्या हुआ।
आजकल दिल्ली में है जेरे बहस ये मुद्दआ।

दुष्यंत देश के उन करोड़ों वंचित लोगों की आवाज का प्रतिनिधित्व करते हैं जिनके हितों के दावों पर इस देश ने आजादी हासिल की और जिनकी भलाई के दावे आज भी सरकारों की कुर्सियों के तख्त बनते हैं-

मुझमें रहते हैं करोड़ों लोग चुप कैसे रहूँ,
हर ग़ज़ल अब सल्तनत के नाम एक बयान है।

दुष्यंत की एकमात्र गजल कृति साए में धूप है। इसकी लोकप्रियता के बारे में मेरे लिए कुछ भी कहना सूरज के परिचय पर प्रकाश डालना होगा। तारीख की दीवारों पर दर्ज हर क्रांति की मशाल और हर क्रांतिकारी का सबसे ज्वलंत नारा उनकी एक ग़जल, जिसके बिना आज भी कोई भी बड़ा आंदोलन अपनी पूर्णता को सोच भी नहीं सकता-

हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए,
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।

सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
सारी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।

मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।

हिंदी साहित्य के पहले गजलकार माने जाने वाले दुष्यंत ने गीत, कविता, नवगीत आदि साहित्यिक विधाओं में भी हाथ आजमाया था। लेकिन उनके गजलों के प्रचंड तेज के आगे उनकी छवि धूमिल पड़ गई। दुष्यंतकाल में अज्ञेय और मुक्तिबोध अपनी लोकप्रियता के मामले में चरम पर थे। यह वो दौर था जब गीतों और नवगीतों पर नई कविता अपनी धौंस जमाने की कोशिश कर रही थी। ऐसे दौर में हिंदी साहित्य में गजलों को न सिर्फ शामिल कर बल्कि सरल और सुबोध्य शब्दों में सजाकर उन्हें जनमानस की जिह्वा पर स्थापित करने का कारनामा दुष्यंत ही कर सकते थे। दुष्यंत के लिए मशहूर उर्दू गजलकार निदा फाजली कहते हैं कि उनकी नजर उनके युग की नई पीढ़ी के गुस्से और नाराजगी से बनी है। यह गुस्सा और नाराजगी उस अन्याय और राजनीति के कुकर्मो के खिलाफ नए तेवरों की आवाज थी, जो समाज में मध्यवर्गीय झूठेपन की जगह पिछड़े वर्ग की मेहनत और दया की नुमानंदगी करती है। इस बात की पुष्टि को आप उनकी इन रचनाओं में देखिए -

कहाँ तो तय था चरागाँ हर एक घर के लिए
कहाँ चराग मयस्सर नहीं शहर के लिए।

जिस तरह चाहो बजाओ तुम हमें
हम नहीं हैं आदमी हम झुनझुने हैं।

इस अंगीठी तक गली से कुछ हवा आने तो दो,
जब तलक खिलते नहीं हैं कोयले देंगे धुआँ।

दुष्यंत अपनी रचनाओं में केवल क्रांति ही नहीं करते थे। शायर अपनी गजलों में भले मशाल, आग, क्रांति जैसे भारी-शब्दों का इस्तेमाल कर ले, लेकिन वह भी अपने आपको पूरा तभी मानता है जब उसकी कलम मोहब्बत की स्याही से दिल के अफसाने लिखने लगती है। दुष्यंत की मोहब्बत भी थोड़ी अजीब थी। आप भी देखिए -

एक जंगल है तेरी आंखों में,
मैं जिसमें राह भूल जाता हूं।

तू किसी रेल सी गुजरती है,
मैं किसी पुल सा थरथराता हूं।

वो घर में मेज पे कोहनी टिकाये बैठी है,
थमी हुई है वहीं उम्र आजकल, लोगों।

जियें तो अपने बगीचे में गुलमोहर के तले ,
मरें तो गैर की गलियों में गुलमोहर के लिए।

गजलों की बहर से निकलकर दुष्यंत ने जब छंदों का श्रृंगार किया तो कभी एक हारे हुए को संजीवनी मिली, एक मोहब्बत करने वाले को प्रेमाभिव्यक्ति का गीत मिला तो कभी सृष्टि की सनातन परंपरा में सत्य की जीत की संभाव्यता पर पुनः हस्ताक्षर हुए।

अब तक ग्रह कुछ बिगड़े बिगड़े से थे इस मंगल तारे पर,
नई सुबह की नई रोशनी हावी होगी अँधियारे पर।
उलझ गया था कहीं हवा का आँचल अब जो छूट गया है,
एक परत से ज्यादा राख़ नहीं है युग के अंगारे पर।


तुम्हारा चुम्बन
अभी भी जल रहा है भाल पर
दीपक सरीखा
मुझे बतलाओ
कौन-सी दिशि में अँधेरा अधिक गहरा है !

जा तेरे स्वप्न बड़े हों।
भावना की गोद से उतर कर
जल्द पृथ्वी पर चलना सीखें।
चाँद तारों सी अप्राप्य ऊचाँइयों के लिये
रूठना मचलना सीखें।
हँसें
मुस्कुराऐं
गाऐं।
हर दीये की रोशनी देखकर ललचायें
उँगली जलायें।
अपने पाँव पर खड़े हों।
जा तेरे स्वप्न बड़े हों।

दुष्यंत ने अपने साहित्य में जो कुछ भी लिख दिया है वो आने वाले कई युगों तक लोगों के कंठ से गाए जाते रहेंगे। उनकी प्रांसगिकता कभी खत्म नहीं होगी। इसलिए भी क्योंकि उनकी लिखी हर रचना एक सच्चे हृदय में तमाम दुनियावी विसंगतियों पर उठते प्रश्न की सबसे सशक्त आवाज थी। उनका हर कथन या तो सामाजिक वरीयताओं में छल-कपट से नीचे धकेल दिए गए लोगों की आवाज थी या फिर शिखरों पर बैठे लोगों को उनकी जिम्मेदारियों को याद दिलाने वाला बयान था।

गडरिए कितने सुखी हैं ।

न वे ऊँचे दावे करते हैं
न उनको ले कर
एक दूसरे को कोसते या लड़ते-मरते हैं।
जबकि
जनता की सेवा करने के भूखे
सारे दल भेडियों से टूटते हैं ।
ऐसी-ऐसी बातें
और ऐसे-ऐसे शब्द सामने रखते हैं
जैसे कुछ नहीं हुआ है
और सब कुछ हो जाएगा ।

Sunday, 27 August 2017

सदा लगी हर तरफ से आने, फिराक़ साहब, फिराक़ साहब


हर किसी की जिंदगी के समानांतर एक और जिंदगी होती है और यह सबको दिखाई नहीं देती । यह जिंदगी का एक दूसरा रंग होता है, जो किसी चित्रकार के कैनवास पर तस्वीरों की शक्ल में अपने होने की सूचना देता है, तो कभी किसी शाइर की शायरियों में प्रकट होकर अपने अस्तित्व का आभास कराता है। रघुपति सहाय फिराक़ गोरखपुरी के जीवन के समानांतर की जिंदगी में किस हिज्र की कौन सी रात थी, इसका सही-सही पता तो किसी को नहीं है, लेकिन शायद उनकी इसी जिंदगी के पन्नों पर लिखे हिज्र, रात, इश्क के जानदार शेर उनके लफ्जों को वो हिम्मत और विश्वास देते थे जिनकी बदौलत फिराक़ गोरखपुरी बड़े आत्मविश्वास से कहते थे-

आने वाली नस्लें तुम पर रश्क़ करेंगी हमअस्रों,
जब ये ख्याल आएगा उनको, तुमने फिराक़ को देखा था।

हमें फिराक़ साहब को देखने और जमाने को रश्क करने के मौके देने का मौका तो नहीं मिला लेकिन लगभग दस सालों तक फिराक साहब के सान्निध्य का सुयोग पाने वाले जामिया मिल्लिया इस्लामिया के प्रो. शमीम हनफी बताते हैं कि किस तरह से फिराक़ साहब की जिंदगी अकेलापन, विद्रोह, गुस्सा, करूणा, और मजाहियापन का अद्भुत मिश्रण थी। शमीम साहब के मुताबिक फिराक गोरखपुरी को उर्दू साहित्य ने तुरंत स्वीकार नहीं किया, इसका सबसे बड़ा कारण था उनकी शायरियों के रवायत से अलग हटकर चलने की प्रवृत्ति। उनकी शायरियों में एक तरह का खुरदुरापन था और वही उनका आकर्षण भी था।

28 अगस्त 1896 को गोरखपुर के एक कायस्थ परिवार में जन्में रघुपति सहाय अपने बीए की पढ़ाई के दौरान पूरे प्रदेश में चौथी वरीयता प्राप्त विद्यार्थी थे। इतना ही नहीं, वो उस दौर की सबसे प्रतिष्ठित और कठिन परीक्षा आईसीएस में भी चयनित हुए थे।  स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान महात्मा गांधी के प्रभाव में आकर नौकरी छोड़ देने वालों की लिस्ट में रघुपति सहाय का नाम तब जुड़ गया जब उन्होंने इसके लिए 1920 में सिविल सर्विस की नौकरी छोड़ दी। इसके बाद स्वतंत्रता संग्राम में वो कई बार जेल भी गए।

फिराक गोरखपुरी का व्यक्तिगत जीवन बहुत अच्छा नहीं था। वह अपनी शादी को अपने जीवन की सबसे बड़ी दुर्घटना मानते थे। कहा जाता है कि बेजोड़ शादी का यही दर्द उनके अशआरों में दिखाई देता है। 29 जून 1914 को जमींदार विंदेश्वरी प्रसाद की बेटी किशोरी देवी से उनका विवाह हुआ था। फिराक़ साहब अपनी पत्नी को पसंद नहीं करते थे। अपने दांपत्य जीवन के दांत पीसकर रह जाने वाली पीड़ा के बारे में बताते हुए वह अपने एक संस्मरण में कहते हैं, “मेरे सुख ही नहीं, मेरे दुख भी इस ब्याह ने मुझसे छीन लिए”। उनके दर्द को आप इस पंक्ति से भी समझ सकते हैं जिसको उन्होंने अपने इस संस्मरण में कोट किया है कि -  “मैं पापिन ऐसी जली कोयला भई न राख”

पत्नी के प्रति उनकी नफरत इस कदर थी कि किसी के भी सामने वो उन्हें कोसने से नहीं चूकते थे। इससे संबंधित एक संस्मरण यूं है कि इलाहाबाद में रहने के दौरान एक बार जब उनकी पत्नी गोरखपुर से आईं तब आते ही उन्होंने उनसे सवाल किया, “मरिचा के अचार लाई हो कि नहीं?”। उनके नहीं में जवाब देते ही वे बिफर पड़े और बोले, “जाओ, गोरखपुर से मरिचा का अचार लेके आओ, भूल कैसे गई?”

यह फिराक़ के जीवन का स्याह पक्ष कहा जा सकता है। जाने किस जीवनसाथी के पाने की अभिलाषा या फिर किसके पीछे छूट जाने का दर्द उन्हें रात, अकेलेपन और विरह का शायर बना देता है।  

“गरज कि काट दिए जिंदगी के दिन ऐ दोस्त,
वो तेरी याद में हों या तुझे भुलाने में”

शमीम हनफी साहब बताते हैं कि फिराक़ को रात में जागने की आदत थी। उनके लिए रात सोने के लिए थी ही नहीं। रात की सोहबत का असर उनकी शायरियों में आसानी से देखा जा सकता है, जहां वो कहते हैं कि - 

“जमाना कितना लड़ाई को रह गया होगा।
मेरे ख्याल में अब एक बज गया होगा”।

“इसी खंडहर में कहीं कुछ दिए हैं टूटे हुए,
इन्हीं से काम चलाओ, बड़ी उदास है रात”।

“तुम चले जाओगे हो जाएगी ये रात पहाड़,
रात की रात ठहर जाओ कि कुछ रात कटे”।

“तबीयत अपनी घबराती है जब सुनसान रातों में,
हम ऐसे में तेरी यादों की चादर तान लेते हैं”।

उदास जिंदगी के अफसानों के बीच फिराक़ साहब के किरदार का एक और पहलू था, जो काफी मजाहिया और दिलचस्प किस्म का था। इलाहाबाद में रहने के दौरान फिराक़ साहब उस दौर के अन्य इलाहाबादी रचनाकारों की तरह कॉफी हाउस की महफिलों में भी जाया करते थे। कॉफी हाउस की कुर्सियों पर बैठकर जब इलाहाबाद विश्वविद्यालय के अंग्रेजी का यह प्रोफेसर अपनी बुलंद और गूंजती आवाज में शेर सुनाता तो वहां मौजूद लोग अपनी कुर्सियां खींचकर उनके चारों ओर बैठ जाया करते थे। उन्हें बोलने का बहुत शौक था। उस दौरान उनसे किसी ने पूछा कि आप इतनी बातें कैसे कर लेते हैं, तो फिराक़ साहब का जवाब था कि बातें कौन करता है, यह तो दिमाग सांस लेता है। उनकी आवाज जितनी कड़क थी, स्वभाव उतना ही नरम और विनम्र था। उनके जीवन का एक और संस्मरण यूं है कि एक बार अपने दिल्ली प्रवास के दौरान वो जिन सज्जन के यहां रुके हुए थे वो कुछ सालों बाद  उनसे मिलने इलाहाबाद आए। उनके दरवाजे पर पहुंचकर उनसे पूछा कि वो उन्हें पहचानते हैं कि नहीं। फिराक़ साहब के इंकार करने के बाद जब उन्होंने अपना परिचय दिया तब फिराक साहब ने उनसे एक चप्पल की ओर इशारा करते हुए कहा कि वह उठाइए, और मेरे सिर पर मारिए। मैं आपकी पहचान कैसे भूल सकता हूं।

राजनीति में भी रघुपति सहाय की बड़ी दिलचस्पी थी। जवाहर लाल नेहरू से उनके अच्छे संबंध थे। 1917 में जब फिराक़ गोरखपुरी राजनीति में आए तब नेहरू ने उन्हें 250 रुपए महीने पर आल इंडिया कांग्रेस कमिटी का अंडर सेक्रेटरी बना दिया था। बाद में नेहरू जब अंतर्राष्ट्रीय राजनीति पर अध्ययन के लिए विदेश चले गए तब फिराक साहब ने यह पद छोड़ दिया और इलाहाबाद चले आए। आजादी के बाद पहले आम चुनाव में आचार्य कृपलानी ने किसान मजदूर प्रजा पार्टी बनाई। इस पार्टी ने उत्तर प्रदेश की 37 सीटों पर चुनाव लड़ा था। इन 37 सीटों में से एक सीट गोरखपुर जिला दक्षिणी की भी थी जिस पर पार्टी के उम्मीदवार रघुपति सहाय फिराक गोरखपुरी थे। चुनाव में महज 9 फीसदी वोट पाकर फिराक कांग्रेस के सिंहासन सिंह से बुरी तरह हार गए। हारने के बाद फिराक साहब जब नेहरू से मिले तो उन्होंने हाल चाल पूछते हुए कहा, सहाय साहब, कैसे हैं, इस पर सहाय साहब का जवाब था सहाय कहां, अब तो बस हाय रह गया है।

रघुपति सहाय अपने समय के जाने-माने विद्वानों में गिने जाते थे। उर्दू, अंग्रेजी और हिंदी में उनकी लगभग 10 कृतियां साहित्य में मौजूदगी रखती हैं। उनकी कृति गुले नग्मा को साल 1970 में साहित्य का ज्ञानपीठ पुरस्कार भी हासिल हुआ है। इसके अलावा इसी कृति को साहित्य अकादमी पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया है। अपनी शायरी के दम पर उर्दू साहित्य में फिराक गोरखपुरी नए तरह की गजल के प्रवर्तक माने जाते हैं। भारतीय संस्कृति की अथाह जानकारी, जीवन के कड़वे अनुभव और उन अनुभवों को गजलों और नज्मों में बांधने की क्षमता उन्हें एक विशिष्टता प्रदान करती है। प्यार, मोहब्बत, दर्द, विरह को शब्द देकर फिराक़ युवाओं की आवाज में गाए जाने वाले सबसे चहेते गीत माने जाते हैं। और इसीलिए, सुख़न की हर महफिल में फिराक़ गोरखपुरी एक अद्भुत और प्रभावशाली उपस्थिति हुआ करती थी, जिसके लिए उन्होंने खुद ही लिखा है कि

रहे सुखन में बचा के नजरें हर एक की मैं जहां से गुजरा,
सदा लगी हर तरफ से आने फिराक़ साहब – फिराक़ साहब।। 

Thursday, 3 August 2017

कविताः काग़ज़ पर कुछ लिख दूं

काग़ज़ पर कुछ लिख दूं,आखिर,
कुछ दिन से सोच रहा हूँ।

दिल का भूतल उथल-पुथल,
कुछ दबी हुई शै का हलचल,
कुछ पीर, नयन का नीर, कलम का 'मीर'
उगलने में संकोच रहा हूँ।
काग़ज़ पर कुछ लिख दूं, आखिर,
कुछ दिन से सोच रहा हूँ।

जीवन की जाने कौन राह!
जिस पर स्वप्नों का आत्मदाह।
कुछ शोर, जनम का भोर, जुनूनी जोर
के शव को नोच रहा हूँ।
काग़ज़ पर कुछ लिख दूं, आखिर,
कुछ दिन से सोच रहा हूँ।

दिन अंधियारे से लगते हैं,
सोते-सोते भी जगते हैं।
कुछ वर, ह्रदय का स्वर, ज्यों तीखे शर
से फोड़े कोंच रहा हूँ।
काग़ज़ पर कुछ लिख दूं, आखिर,
कुछ दिन से सोच रहा हूँ।

©राघवेंद्र