Tuesday, 25 September 2018

यात्राएं रुकी नदी की तरह ठहरी जिंदगी को गतिशील करती हैं

मानक के हिसाब से स्थिर हो जाने की अलग-अलग परिभाषा होती है। साइकिल के पहिए घूमते रहें लेकिन साइकिल अगर स्टैंड पर खड़ी हो तो पहिए की इस गतिशीलता को भी स्थिर होना ही कहेंगे। काफी दिनों से कुछ ऐसी ही अनुभूति के दलदल से ऊबकर प्रतापगढ़ जाने का कार्यक्रम बना। प्रतापगढ़ ननिहाल है। पिछले साल 3 सितंबर को नाना का देहांत हो गया था। तब जाना नहीं हो पाया था। एक साल होने के बाद 1 सितंबर को उनकी पहली बरसी का कार्यक्रम था। हर लिहाज से जाना उचित लगा। यात्रागत असुविधाएं जो अब आदत में शामिल हो जाना चाहिए, हुईं। ट्रेन कैंसिल होने से लेकर सीट न मिलने और ट्रेन लेट होने तक की सारी दिक्कतें साथ चलीं। लेकिन, 3 साल बाद ननिहाल जाने का उत्साह था, सो ये दिक्कतें झेलने में दिक्कत नहीं हुई। पारिवारिक सम्मेलन के अलावा भी यह टूर कई मायनों में दिलचस्प रहा। इनमें वापसी के रास्ते में मधुबन गोष्ठी, बनारस हिंदू विश्वविद्यालय और उसके कुछ उत्साही, सशक्त और निर्भीक छात्र तथा लखनऊ यात्रा ने यात्रा को सफलता से एक कदम आगे तक पहुंचा दिया।

शुभम, सत्यम, पुरू और किरन मौसी – प्रतापगढ़ में नानी से मिलना सबसे आवश्यक प्रयोजन था। उनकी हमेशा की नानी से मिलने न आने की शिकायतों के निस्तारण के लिए तथा इस मामले में सफाई देने के लिए स्वतः निर्धारित समय सीमा भी कबकी पूरी हो चुकी थी। इसलिए जाना तो था ही। लेकिन, नानी से अपेक्षाकृत कम मुलाकात-बातचीत रही। ज्यादा समय बीता शुभम, सत्यम और पुरू के साथ। ये समय कितने अमूल्य और मजेदार होते हैं इस बारे में बता पाना संभव नहीं होगा। पुरू के साथ काफी देर तक राजनीति, समाजनीति की बहसें चलतीं। राफेल डील से लेकर आर्यन थ्योरी तक। कई पूर्वाग्रह उसकी डिबेट के साथ चलते रहे। शाखा अर्जित ज्ञान का संदर्भ भी देता। लेकिन, उसमें डिबेट करने की स्किल है, इस बात को मानने से कोई इनकार नहीं कर सकता। पढ़ता भी खूब है। जिस बारे में पढ़ता है उस विषय की ठीक याद्दाश्त होती है उसकी। उसके ऐसा मानने पर कि आर्य भारत के मूल निवासी हैं, दलितों का लंबे समय तक ब्राह्मणों ने शोषण किया था और राफेल डील भ्रष्टाचार नहीं है मेरे गहरे मतभेद हैं लेकिन इसे साबित करने के लिए मेरे जो भी संदर्भ थे उसके बारे में मेरी आशंका थी कि वह उसे खारिज कर देगा। इसलिए, हमने दलित विमर्श पर डॉ. तुलसीराम और ओमप्रकाश वाल्मीकि का संदर्भ देना उचित नहीं समझा। वह पुराणों के संदर्भ देता जिसका मैंने उसके मुकाबले कम अध्ययन किया है। खैर, जो भी हो, उसकी अपने तर्कों को मनाने के लिए तैयारी अच्छी थी। पुरू के साथ बहस में अच्छा-खासा समय बीत जाता।

शुभम सोशल मीडिया पर काफी सक्रिय रहने वाला व्यक्ति है। वन लाइनर हास्य-व्यंग्य में उसकी काफी रूचि है। उससे इस बारे में काफी चर्चा होती। सोशल मीडिया पर कीर्तीश भट्ट से लेकर आशुतोष उज्ज्वल तक के लोगों की पोस्ट पर चर्चा होती। बाहर जाने पर तस्वीरें खींचने का काम भी शुभम का था। तस्वीरें वह अच्छी खींचता है। उसकी पुरानी कई तस्वीरें वाकई बेहतरीन थीं। सत्यम के साथ इनडोर गेम्स में समय बीतता, वहीं सुंदरम के पास अपने गांव-घर और स्काउट टीम को लेकर ढेर सारी कहानियां होतीं। जो वह समय-समय पर सुनाता रहता था। किरन मौसी मां की सबसे छोटी बहन हैं। उस पूरे परिवार में सबसे ज्यादा प्रगतिशील सोच रखने वाली महिला। हालांकि, वह एक ऐसे परिवार का भी हिस्सा हैं जहां अभी भी रूढ़िवादी जड़ें मजबूत हैं। उनसे महिला अधिकारों और बच्चों की पसंद-नापसंद संबंधी आजादी को लेकर काफी देर तक बहस हुई। इस मामले में उनका कहना यही है कि बच्चों को उनकी पसंद के मुताबिक शादी इत्यादि का अधिकार है। यह अरैंज्ड मैरिज से ज्यादा बेहतर होता है। इस मुद्दे पर उन्हें मां की ओर से कड़ा प्रतिरोध मिल रहा था। पर्दा प्रथा, पितृसत्तात्मक व्यवस्थाओं पर उनका स्पष्ट मत था। वह इन सबकी विरोधी थीं। लेकिन, धारा 377 पर शायद सहमत नहीं दिखीं। हालांकि, इस पर हमारी बहुत कम बात हुई।

वापसी और बनारस – 23 सितंबर को वापसी थी। प्रतापगढ़ से इलाहाबाद जाने का प्रोग्राम था। लेकिन, 23 को रविवार होने के नाते बनारस जाने का कार्यक्रम तय कर लिया। रविवार को बनारस इसलिए कि इस दिन वहां मधुबन गोष्ठी आयोजित होती है। बनारस के छात्रों और पूर्व छात्रों द्वारा किए जाने वाले इस आयोजन से परिचय आर्य भारत ने करवाया था। इस गोष्ठी में नए रचनाकारों को कविता पाठ का मौका दिया जाता है और उस पर वरिष्ठ कवियों द्वारा टिप्पणी की जाती है। यह शानदार था। इसमें शामिल होने को लेकर जो उत्साह था उसका वर्णन करना मुश्किल है। आर्य भारत का मुझ पर विश्वास कभी-कभी चकित कर देता है। मेरे लिए अपनी कविता पर आर्य भारत की ही प्रतिक्रिया का मिल जाना बहुत उत्साहित करता है। लेकिन, वहां सुशांत शर्मा भी मौजूद थे। आर्य की हमेशा की तरह दिल हिरोशिमा नागासाकी कविता की मांग वहां भी रही लेकिन, मेरे पास यह कविता उस समय मौजूद नहीं थी। इसलिए, गीत गाना चाहता हूं और तब जागता है कविता सुनानी पड़ी। पहली कविता पर टिप्पणी करते हुए सुशांत भइया ने मुझे भवानी प्रसाद मिश्र की परंपरा-सूची में रख दिया। यह बिल्कुल ही आशातीत प्रतिक्रिया थी। दूसरी कविता चूंकि कादंबिनी पत्रिका में प्रकाशित हो चुकी थी, इसलिए उस पर बोलते हुए उन्होंने कादंबिनी के प्रति आशान्वित नजरिया प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि अगर कादंबिनी इस तरह की भाषा वाली कविताएं प्रकाशित कर रहा है तो यह सुखद संकेत है। मेरे लिए दोनों तरह की प्रतिक्रियाएं अनमोल थीं। यह भाव-विभोर होने के लिए काफी था।

बनारस की साहसी छात्राएं – मधुबन गोष्ठी से हम सभी को वहां जाना था जहां एक सफल आंदोलन के एक साल पूरा होने पर छात्राओं ने कार्यक्रम आयोजित किया था। वहां बारी-बारी से छात्राएं विश्वविद्यालय में छात्राओं की स्वतंत्रता और उस पर प्रशासनिक हस्तक्षेप संबंधी भाषणों से लोगों को संबोधित कर रही थीं। वहां पहुंचने पर देखा कि महिला महाविद्यालय के सामने एक ओर छात्राओं का कार्यक्रम चल रहा है, जिसमें छात्र भी शामिल हैं। वहीं उससे सटे हुए ही एबीवीपी के कार्यकर्ता नारेबाजी कर रहे हैं। कार्यकर्ताओं के धैर्य और सूझबूझ की वजह से न सिर्फ कार्यक्रम प्रभावित नहीं होता बल्कि झगड़े की नौबत भी बार-बार टलती रहती थी।

देश में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, धर्म के प्रचार-प्रसार की स्वतंत्रता और सभा करने की स्वतंत्रता का संवैधानिक अधिकार सभी को प्राप्त है। इस दृष्टि से यह कार्यक्रम किसी तरह की कोई गलती नहीं थी। न ही ये राष्ट्र अहित का ही कोई कार्य था। यह महज अपनी स्वतंत्रता के लिए संघर्ष की सफलता का एक तरह से जश्न था। नारेबाजी कर रहे एबीवीपी के कार्यकर्ता कार्यक्रम कराने वालों को वामपंथी बोलते और धमकाते कि महामना की बगिया को जेएनयू नहीं बनने देंगे। उनका मतलब होता कि यहां वामपंथी विचारधारा को फलने-फूलने नहीं देंगे। और ऐसा करते हुए वह भूल जाते हैं कि यह खुलेआम संवैधानिक अधिकारों का अतिक्रमण है। अपने इस अपराध पर वह लज्जित नहीं हैं। इसके परिणामों से वह भयभीत नहीं हैं। उलटे, उनके नारों में ऐसी बद्तमीजी और अभद्रता है कि सामने से गुजरने वाला कोई भी सभ्य नागरिक शरमा जाए। वह केवल कानूनन अपराधी नहीं लगते बल्कि वह नैतिक और सांस्कृतिक अपराध के लिए भी दंडित किए जाने योग्य हैं। कार्यक्रम के दौरान उनका साहस यहां तक बढ़ आया कि आर्य भारत की कविता के बाद वे सभी हाथापई पर उतर आए।

भारत माता की जय और वामपंथ का एक ही मोटो, खाओ, पीओ, साथ में लोटो जैसे नारे एक साथ लगाने वाले महामना की बगिया के वे तथाकथित संरक्षक मानवीय चरित्र के सबसे अधम स्तर पर पहुंच गए। उन्होंने साउंड सिस्टम को लात से मारकर सड़क पर फेंक दिया। कार्यकर्ताओं के बाल खींचे। छात्राओं को पीटा। आर्य भारत के कंधे पर किसी ने जोर से मार दिया। वह काफी देर तक दर्द से परेशान रहे। वह सब कुछ भयावह था। महाविद्यालय प्रशासन की महिला प्राधिकारियों ने छात्राओं को जबर्दस्ती अंदर जाने को कहा। छात्राएं प्रतिरोध करती रहीं लेकिन उन्हें जबर्दस्ती अंदर भेजकर गेट बंद कर दिया गया। बाहर लड़कों के बीच हाथापाई जारी रही। कुछ देर बाद लड़कियां समूह में जबर्दस्ती बाहर आ गईं। वह चीख रही थीं कि हमारे साथियों को एबीवीपी के गुंडे पीट रहे हैं और हमें अंदर क्यों बंद किया जा रहा है। प्रशासन के ये लोग हमें अंदर भेजने की बजाय कुछ कर क्यों नहीं रहे। अपने छात्र साथियों के लिए लड़ने की हिम्मत करने वाली इन लड़कियों का मैं मुरीद हो गया। अपनी इस हिम्मत से उन्होंने पितृसत्तात्मक व्यवस्था के संरक्षक सेनापतित्व के किले को भी भेद दिया। उन्होंने बताया कि वह अब न सिर्फ अपनी रक्षा करने में समर्थ हैं बल्कि अपने साथियों को बचाने के लिए भी वह कुछ भी कर सकती हैं।

अस्सी घाट और लाल साफे वाले कार्यकर्ता – कार्यक्रम तो था कि वहां से अस्सी घाट जाएंगे। और काफी देर वहां बैठेंगे। लेकिन आर्य भारत को कंधे पर चोट लगी थी। इस वजह से वह कमरे पर जाना चाहते थे। कार्यक्रम के सभी कार्यकर्ता जिनमें अधिकतर काले कपड़ों और लाल गमछों से लैस थे, अस्सी घाट के पास एक चाय की टपरी पर एकत्रित थे। वहीं पर शाश्वत उपाध्याय से ठीक तरीके से मुलाकात हुई। और भी लोगों से परिचय हुआ। आर्य ने परिचय कराया कि मैं जनसत्ता में सब-एडिटर हूं। ऐसे में सभी इस घटना को मीडिया में लाने के प्रति मुझसे आशान्वित थे। चाय पीने के बाद हम अस्सी घाट की ओर बढ़े। वहां कत्थक नृत्य और संगीत का कोई कार्यक्रम चल रहा था। काफी देर तक हम वही देखते रहे। टीम दो हिस्सों में बंट चुकी थी। एक में हम, आर्य भार, गरिमा और माधुरी थे। दूसरी में कार्यक्रम के सभी साथी जो चाय की दुकान पर थे, शामिल थे। वो लोग गंगा किनारे की ओर चले गए। हम घाट से ही आशुतोष के कमरे की ओर चल पड़े। रास्ते में गरिमा ने पूरे प्रकरण पर बहुत सी बातें बताईं। उन्होंने बताया कि पिछले साल लड़कियों के संघर्ष में जब पुलिस ने लाठी चार्ज किया तब एक छात्र को बचाने के लिए उसकी छात्रा दोस्त उसके ऊपर लेट गई थी। यह सच में भावुक कर देने वाला किस्सा था।

मां का फोन और पापा से बात – कार्यक्रम में मारपीट शुरू होने के बाद मैंने आर्य भारत को फोन किया। वह अस्सी पहुंच चुके थे। हमसे रिक्शा करके वहां आने को कहा। जैसे ही हम रिक्शे पर सवार हुए, मां का फोन आया। हाल-चाल देने के बाद फोन रखने ही वाले थे कि मां ने बताया कि पापा के मकान मालिक ने उनके कमरे का ताला तोड़कर अपना ताला लगा दिया है और उसकी चाभी नहीं दे रहा। पापा उसी दिन सुबह प्रतापगढ़ से दो दिन की छुट्टी के बाद वापस आए थे। मेरा क्रोध से भर उठना लाजिमी था। मां को बोला कि पापा से बात करें और मकान मालिक के खिलाफ एफआईआर दर्ज कराएं। और तो और चोरी की धारा भी लगा दें। उन्होंने बात करके बताने को कहकर फोन रख दिया। यह दोहरा तनाव था। एक ओर एबीवीपी की गुंडागर्दी से दिमाग तनाव में था। अब उस मकानमालिक पर गुस्सा आ रहा था। समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करें। भदोही जाने का मन बना लिया। कुछ देर बाद मां का फोन आया। उन्होंने बताया कि पापा का फोन नहीं लग रहा है। फिर मैंने खुद फोन लगाया। पापा ने बताया कि उसने चाभी दे दी है। मैंने एफआइआर कराने की बात कही तो बोले कि करा दिया है। सामाजिक धूर्तता के इस नमूने से बहुत देर तक मन दुखी रहा। ऐसी घटनाएं आत्मविश्वास को और गिरा देने का काम करती हैं और दुनिया से और भरोसा उठता जाता है।

बनारस से रवानगी और अपरिचित ‘दोस्त’ – रात में थकान ज्यादा होने की वजह से जल्दी नींद आ गई। माधुरी, गरिमा और आशुतोष ने मिलकर शानदार खाना बनाया था। खिलाने के लिए हमें जगाना पड़ा। खाना खाने के बाद माधुरी और गरिमा हॉस्टल चली गईं। हम भी सो गए। सुबह उठे तो साढ़े 4 बज रहे थे। 5 बजकर 10 मिनट पर इंटरसिटी एक्सप्रेस से लखनऊ जाना था। वहीं शताक्षी और नीलेश हमारा इंतजार कर रहे थे। आशुतोष ने कहा रुक जाइए, दूसरी ट्रेन से जाइएगा लेकिन मैंने हार नहीं मानी। संयोग से 5:10 बजे स्टेशन पहुंच गए। ट्रेन में सीट भी मिल गई लेकिन टिकट नहीं ले पाए। मेरे सामने एक लड़की बैठी थी। उसे भी लखनऊ जाना था। टिकट उसने भी नहीं लिया था। इसलिए, हमसे पूछा कि कौन से स्टेशन पर ट्रेन ज्यादा देर तक रुकेगी। मैंने इंटरनेट से चेक किया तो सभी स्टेशनों पर 5 मिनट का स्टॉपेज था। इतनी देर में टिकट कहीं से भी नहीं लिया जा सकता था। हम इसी बारे में चर्चा कर रहे थे कि टीटीई को क्या जवाब देना है। बात आगे बढ़ी तो और भी बहुत सी बातें हुईं। नीलम या लवली नाम था उसका। बनारस की ही रहने वाली थी। काशी विश्वनाथ की गलियों में कहीं उसका घर था। वहीं उसका बचपन बीता था। खेलते, साइकिल चलाते, शरारतें करते।

अपने परिवार से उसे काफी लगाव था। बुआ की कोई लड़की उसकी अच्छी सहेली भी थी। यात्रा के दौरान उसका फोन भी आया था। खुद के अंतर्मुखी होने को खारिज करते हुए उसने बताया कि वह अपनी तकलीफों के बारे में किसी को बताना नहीं चाहती। चाहे कोई उसका कितना ही करीबी क्यों न हो। नए दोस्त बनाने से शायद परहेज था उसे। बचपन के कुछ दोस्त ही उसके आज तक खासम-खास दोस्तों में शामिल थे। वह बताती कि कैसे लखनऊ के उस कॉलेज में जहां से वह एमबीए कर रही है, उसका कोई दोस्त नहीं है। या कहें कि उसने किसी को न तो दोस्त बनने दिया और न ही बनाया। उसका मानना है कि मेरे दोस्त पहले से ही हैं और मैं उनकी जगह किसी और को नहीं दे सकती। बनारस की बहुत तारीफ करती। बीएचयू का एग्जाम इसलिए दिया कि लोग उससे कहते कि वहां सेलेक्शन होना आसान नहीं है। फिर वहां पढ़ाई छोड़ दी और बीबीए कर लिया। अब लखनऊ से एमबीए कर रही है और एक नौकरी छोड़ चुकी है।

उसने बनारस की कई सारी तस्वीरें दिखाईं। अपने बारे में इतना सब कुछ बता दिया कि मुझे सोचना पड़ा कि यह सब कुछ मुझे क्यों बता रही है। खैर, यह तो वही जाने। उसने मुझे सर्दियों में बनारस आने का निमंत्रण दिया। बोला कि बनारस घुमाने की जिम्मेदारी मेरी। लेकिन ट्रेन से उतरते ही सोशल मीडिया और संपर्क के तमाम संसाधनों के इस दौर में भी वह भीड़ में कहीं गुम हो गई। या उसके लिए शायद मैं गुम हो गया। क्योंकि, ट्रेन से उतरने के बाद हमने एक-दूसरे को देखा ही नहीं। एक अपरिचित दोस्त, जिससे मैंने उसका नाम भी नहीं पूछा और जिसने मेरा नाम नहीं जाना मेरे लिए फिर उसी तरह अपरिचित हो गई जैसे 7 घंटे पहले ट्रेन के मिलने के पहले हम एक-दूसरे के लिए थे। बात-बात में उसने खुद ही अपना नाम बता दिया था। बनारस शायद सर्दियों में जाना हो भी लेकिन उस जिम्मेदारी का क्या जो उसके भीड़ में खो जाते ही अधूरेपन की अनिवार्यता को प्राप्त हो गई।

लखनऊ की एनबीटी यात्रा – इस यात्रा में एनबीटी के ऑफिस में बीते वक्त का हिस्सा काफी ज्यादा था। चारबाग स्टेशन से नीलेश के रूम तक और फिर एनबीटी के ऑफिस पहुंचने तक कुल 2-3 घंटे लगे थे। नीलेश को ऑफिस जाना था। ऐसे में यह एक मुलाकाती यात्रा से ज्यादा कुछ नहीं था। यात्रा के इस पड़ाव में दो सबसे अच्छे दोस्तों से मुलाकात हुई। दोनों स्टेशन तक लेने आए। जाम से लड़कर जब दोनों चारबाग मेट्रो स्टेशन के नीचे हमारे साथ बैठे तो एक बार फिर लखनऊ को कोसना शुरू कर दिया। खैर, यह यात्रा का अंतिम पड़ाव था और इसके बाद नोएडा के लिए रवाना होना था। इसलिए इसमें थोड़ा सा उदासीपन भी था।

अच्छे दोस्त आपसे कभी दूर नहीं होते। वो आपकी चर्चाओं में, बातों में, यादों में, दिमाग में स्थापित से हो गए होते हैं। आप जहां कहीं भी रहें उनकी उपस्थिति रहती है। बशर्ते दोस्ती अच्छी और गहरी हो। शताक्षी के ऑफिस में उसके एक सहकर्मी से परिचय के दौरान जब वह बोल पड़ा कि "वही, जिन्हें तुम शुक्ला-शुक्ला करती रहती हो?" तब लगा जैसे इस ऑफिस में मैं अपने सबसे अच्छे दोस्त के साथ अपनी चर्चाओं के रूप में हमेशा मौजूद रहता हूं। यह मेरी वहां हमेशा ही उपस्थिति को प्रमाणित करने वाला वाक्य था। इस उपस्थिति ने हमारी दोस्ती के प्रमाण-पत्र को और भी ज्यादा विश्वसनीय बना दिया। इससे मिलने वाला सुकून भी अवर्णनीय है। चर्चाएं चाहे जैसी होती रही हों, मैं इस बारे में सोचकर इस पावन भावना का अनादर नहीं करना चाहता।

हालांकि, इतने अच्छे दोस्तों के साथ होने पर भी लखनऊ में काफी बोर हुए। एक तो अपना मूड भी सही नहीं रह गया था। प्रतापगढ़ छोड़ने, बनारस और भदोही वाले मसले की वजह से मन खराब हो चला था। इसके अलावा अगले दिन से फिर जिंदगी के उसी ढर्रे पर चलने की कल्पना भी बार-बार मन को निराश कर रही थी। रात तकरीबन साढ़े 9 बजे लखनऊ से नोएडा की ओर रवाना हो गए।

यात्राओं से नदी के रुके हुए पानी की तरह ठहरा जीवन फिर से चलने लगता है। स्थिर मनस को गतिमान करने का यह शानदार तरीका है। इसलिए, यात्राओं को जारी रखने की दिशा में कोशिश करना उन सभी निराशाओं और उदासीनता से पीछा छुड़ाना है जो जीवन में प्रकृति के परिवर्तन सिद्धांत का रास्ता रोकती हैं। न जाने कितनी बार छुट्टियों पर यात्राएं करने का मन बना। अलग-अलग कारणों से यह कार्यक्रम टलता रहा। अब इसे टालने की कोशिश को विराम देकर जीवन गतिशील करना होगा। वरना, निराशाओं के जानलेवा होने में वक्त नहीं लगेगा।

Wednesday, 5 September 2018

सब कुछ छोड़कर हम आदमखोर बनते जा रहे हैं

तरकशः बीते साल पर साल, आजादी का क्या हाल!

निर्दोष और वैचारिक भिन्नताओं के खिलाफ हिंसा किसी भी सूरत में गलत है। अगर आप उसे जस्टिफाइ कर रहे हैं तो एक आजाद और शांतिप्रिय देश के लिए आपसे बड़ा दुर्भाग्य कुछ नहीं हो सकता। सालों, युगों और कल्पांतरों पहले क्या हुआ था या सालों, युगों और कल्पांतरों से क्या हो रहा है जैसे वाहियात और गैर-जरूरी कुतर्क भी किसी की हत्या को जायज नहीं ठहरा सकते। हिंदू, मुसलमान, सिख - की धार्मिक भावना, के अस्तित्व पर खतरा या के संरक्षण के लिए भी किसी की हत्या नहीं की जानी चाहिए। देशद्रोही को भी मारने का अधिकार हमें नहीं है।

कानून है। लाखों-करोड़ों खर्च करके हमने अपना संविधान बनाया है। और इस संविधान बनाने के लायक बनने के लिए बहुत खून बहाया है। यह खून इसलिए बहा है कि आगे निरर्थक खून बहने से रोका जा सके। लेकिन, क्या ऐसा हो पाया है। 70 साल भी ठीक से नहीं बीते और हमने आजादी के समस्त मूल्यों को लहूलुहान कर दिया है। अंग्रेजों को जिनकी बात पसंद नहीं आती थी उनके साथ वो हिंसक सुलूक से नहीं हिचकते थे। आजादी की नींव यहीं से पड़ी थी। शासन के चरित्र से हमें दिक्कत थी। शासन के उसी चरित्र की ओर हम क्या नहीं बढ़े जा रहे आजादी के 70 साल बाद।

बहुत से लोग कहेंगे कि इतना भी बुरा हाल नहीं है भाई। वो जान लें कि है। जितना वो सोचते हैं या हम सोचते हैं उससे भी बुरे हालात हैं। हम जब विचारधारा, देश और धर्म के नाम पर मनुष्यों की हिंसा को जस्टिफाइ करने लगें तो समझिए हालात बुरे ही नहीं अनियंत्रित भी हैं। आजादी के बाद हमें अपने कृषि क्षेत्र में काम करना था कि आत्मनिर्भर ही नहीं दुनिया में पोषक भी बन सकें। हमें अपनी शिक्षा पर काम करना था कि शिक्षित ही नहीं विश्व-शिक्षक भी बन सकें। हमें अपने स्वास्थ्य क्षेत्र में काम करना था कि निरोग ही नहीं विश्व-चिकित्सक भी बन सकें। उद्योग की दिशा में मेहनत करनी थी कि उद्यमी ही नहीं विश्व में पालक भी बन सकें। खेल की दिशा में आगे बढ़ना था कि खिलाड़ी ही नहीं खेल-शक्ति भी बन सकें। बनने के लिए कितना कुछ सोचा गया था। लेकिन हम क्या बन पाए? हालत यह है कि सब कुछ छोड़कर हम आदमखोर बनते जा रहे हैं।

शांति, सद्भाव, प्रेम, बंधुता डरपोक लोगों की ढाल नहीं है। ये मानव-मूल्य हैं। विचारों की लड़ाई में विचारों को कटने की बजाय ये कट रहे हैं। दिमाग और दिल अलग-अलग जगहों पर होते हैं। इनके संवाद भी अलग-अलग ही होने चाहिए। मतभेद और मनभेद को एक होने देना आपके व्यवहारकुशलता और नागरिक जिम्मेदारी की सबसे बड़ी हार है। कुछ घंटों बाद हम आजादी की 72वीं सालगिरह मनाएंगे। हर साल की तरह आजादी के शूर याद किए जाएंगे। अपने देश को सबसे आगे ले जाने की बातें होंगी। प्रेम, अमन को बढ़ावा देने की जिम्मेदारियों के पालन का वादा किया जाएगा। तिरंगे के आगे राष्ट्रगान गाया जाएगा - भारत भाग्य विधाता - जय हे, जय हे। हर साल करते हैं ये सब हम। 15 अगस्त 1948 से लेकर आज तक हर साल।

ये अलग बात है कि आजाद भारत की सुबह ही आजादी की मूल भावना की हत्या से होती है। हमने आजादी के लिए अहिंसा को हथियार बनाया। आजादी मिलते ही सबसे पहले अहिंसा के साथ हिंसा की और लगातार करते आ रहे हैं। क्या अर्थ है आजादी का? हमें इसकी परिभाषाओं में एक बार फिर उतरने की जरूरत है। हम तरह की विचारधारा, हर तरह के धर्म, हर तरह की संस्कृति, हर तरह के त्योहार, हर तरह के लोग सबको आजाद करने की जरूरत है। आखिर, आजादी सबको मिली थी न। फिर, वर्चस्व की लड़ाई के जरिए हम फिर गुलामी को पोषण देने पर क्यों तुले हैं? इस 15 अगस्त इसी पर सोचिए। एकांत में बैठकर। आंखें मूंदकर। एक नागरिक की तरह। एक भारतीय की तरह। एक बटा एक सौ पच्चीस करोड़ भारत की तरह।

(15 अगस्त 2018 को लिखित)

Thursday, 30 August 2018

यह सरकार प्रतिरोध और सवालों की संस्कृति को गूंगा बना देना चाहती है!

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तरकशः 'अराजक' कानून के प्रति आस्थावान प्रधानमंत्री की संवैधानिक सजा क्या है?

लोकतंत्र में किसी पार्टी का समर्थक होना बुरा नहीं है। दलीय जनतंत्र में जब हम एक दल से निराश होते हैं तो दूसरी की ओर उम्मीद भरी नजरों से देखते हैं। उम्मीदों का यही विस्थापन जनतंत्र को जीवित रखता है। दलों में एक दूसरे से बेहतर होने की होड़ इसी से लगती है। ताकि, वह उम्मीदें खरीद सकें अपने सुचरित्र से। जनतंत्र में जनता की शक्ति भी यही है। इसीलिए, किसी पार्टी का समर्थक होना उससे उम्मीद करना बुरा नहीं है। एक के बदले दूसरे के समर्थन में निश्चित रूप से हम उसका इतिहास नहीं देखते। हम उसके दावे देखते हैं। उसके वादे देखते हैं। उसकी सच्चाई परखते हैं। उसके बाद अपने समर्थन का रंग उसके झंडे में मिला देते हैं।

लेकिन तब क्या करें जब दावे धोखेबाज हो जाएं। जब वादे खोखले हो जाएं। जब झूठ बोलना ही बेहतर वक्तव्य और कुशल 'राज'नीति का मापदंड माना जाने लगे। क्या करेंगे? अगर ऐसा हो रहा है तो मान लीजिए कि अब आपकी उम्मीदें 'काले धन' से खरीदी जा रही हैं। ऐसा होने लगे तो समझ जाइए कि प्रतिस्पर्धाओं ने 'अवैध हथियारों' का इस्तेमाल शुरू कर दिया है। ऐसा होने लगे तो थोड़ा सशंकित हो जाइए कि आपकी मासूमियत और आपके विश्वास को मूर्खता की उपाधि से अलंकृत करके जनतंत्र की आड़ में एकतंत्र या तानाशाही का घिनौना खेल खेला जा रहा है। थोड़ा भयभीत हो जाइए कि दूसरों को शहीद होता देखते-देखते कभी भी कोई तीर आपकी छाती से भी पार हो सकता है।

प्रधानमंत्री ने दिसंबर 2017 में कहा कि 50 दिन में अगर कोई खास उपलब्धि नहीं रही तो मैं चौराहे पर खड़ा हो जाऊंगा और आप जो सजा देना चाहें मुझे दे सकते हैं। जनता लाइनों में खड़ी हो गई कि इतने बड़े पद पर रहते हुए इतना लोकप्रिय नेता झूठ थोड़े बोलेगा। देश के लिए देशवासी 'विपदा' झेलने को तैयार हो गए। देशभक्ति की राह में न जाने कितने अघोषित शहीद हुए, न जाने कितनों के व्यापार बर्बाद हो गए। न जाने कितनों की शादियों में दिक्कतें आईं, घर अधूरे रह गए, सपने अधूरे रह गए। कितनों के घर में कई दिनों तक चूल्हा नहीं जला। पकवान छोड़िए, नियमित भोजन नहीं बने। ये सब किसलिए झेला गया। इसलिए कि अनैतिक और अवैध तरीके से जुटाए गए तमाम भ्रष्ट और तथाकथित बड़े लोगों के खाते में जो काला धन है उसका हिसाब हो सके। उनको सजा दिया जा सके। सरकार ने कहा कि काला धन तो बाहर होगा ही आतंकवादियों के आर्थिक रास्ते बंद हो जाएंगे।

सब कुछ देश के लिए सहन किया गया कि एक दिन खबर आएगी कि भ्रष्टाचार को करारा तमाचा मारा गया है। इससे कम से कम कुछ सालों तक भ्रष्टाचार की तीव्रता में कमी तो आती ही। सच में जानकर खुशी होती कि देश पर हमला करने वाले आतंकियों के आय के स्रोत बंद हो गए और वो बर्बाद होकर घूम रहे हैं। ये सब हुआ नोटबंदी की वजह से। हम भी एक आर्टिकल लिखते कि इस सरकार ने चाहे 5 साल में कुछ भी न किया हो लेकिन नोटबंदी के लिए इसे एक बार वोट देना जरूरी है। लेकिन, खबर क्या आई। खबर आई कि विदेशों में जमा काला धन दोगुना हो गया। खबर आई कि आरबीआई ने एक रिपोर्ट जारी की है। जिसमें कहा गया है कि तकरीबन 99.3 प्रतिशत 500-1000 के नोट वापस आ गए हैं। सिर्फ 0.7 प्रतिशत नोट अर्थव्यवस्था से बाहर हुए।

नोटबंदी के पहले जो दावे किए जा रहे थे उसमें तो ये आंकड़ा तकरीबन 25 फीसदी के आस-पास बताया जा रहा था। तकरीबन 6-7 लाख करोड़ रुपए के इकानॉमी से बाहर होने की बात की जा रही थी। आखिर ऐसा क्या हुआ। क्या दिक्कत आई कि आपके अनुमान ध्वस्त हो गए। क्या इसका जवाब गुजरात में अमित शाह की अध्यक्षता वाले बैंक में सबसे ज्यादा नोट बदले जाने वाली रिपोर्ट जैसी घटनाओं की तह में है? नक्सलियों का हमला, सीमा पार से आतंकियों का हमला कुछ भी तो प्रभावित नहीं हुआ। डिजिटल कैश तक के माहौल तक की बातें झूठी साबित हो गईं। क्या वजह रही? कौन जिम्मेदार है? किसकी जवाबदेही है?

यह सवाल सरकार से नहीं है। आप जो कोई भी हैं और इसे पढ़ रहे हैं उनसे ये सवाल है। आप इस देश की सरकार हैं। आप भी जवाबदेह हैं। जवाब दीजिए इसका कि कौन जिम्मेदार है? नोटबंदी की लाइन में खड़े रामसुवन की मौत का जिम्मेदार कौन है? दिसंबर 2016 में नुकसान की वजह से बर्बादी की कगार पर आ गए व्यापारियों की हालत के जिम्मेदार कौन हैं? छोटे व्यापारियों, बुनकरों, कुटीर उद्योगपतियों के भयानक नुकसान का जिम्मेदार कौन है? देश में क्या कुछ हो रहा है उस पर कुछ बोलने का आपके पास वक्त है? उस पर सवाल उठाने का आपके पास वक्त है? जय शाह पुत्र अमित शाह की संपत्ति अचानक लाख गुनी कैसे बढ़ जाती है इसका जवाब ढूंढने की आपने कोशिश की? विजय माल्या, नीरव मोदी, मेहुल चौकसी जैसे लोग जनता की गाढ़ी कमाई लूटपाटकर विदेश कैसे भाग गए? मजाक बनाने के अलावा इससे जुड़ा कोई सवाल सरकार तक आपने पहुंचाया। ऐसे कई सवाल आपके पास से गुजरे होंगे, उस पर कभी ध्यान दिया?

नहीं दिया तो कम से कम अब ध्यान देने की कोशिश कीजिए। चौराहे पर खड़े होने और लोगों से सजा देने की बात कहने वाले प्रधानमंत्री को ऐसी अराजक सजाएं देने की जरूरत नहीं है। हम तो कम से कम सभ्य बनें। संवैधानिक बनें। संविधान के मुताबिक उनकी जो सजा है हम उतनी ही सजा दें। इसके लिए फिर से समर्थन और उम्मीद के विस्थापन पर आइए। देवताओं की तरह पूजना बंद कीजिए। अंध समर्थन के चक्र से बाहर आइए। आपको अपने मूल्य बचाने हैं तो। आपको अपना खुद का पक्ष बचाना है तो। दिल्ली से दूर बैठे गांवों में अपने आप को महत्वहीन समझना बंद करना होगा। 5 साल के बाद अगले साल फिर से चुनाव होगा। दावों और वादों का खेल एक बार फिर खेला जाएगा। लाखों-करोड़ों रूपए पानी की तरह बहा दिए जाएंगे। आपको जबर्दस्ती बताया जाएगा कि उन्होंने आपकी बेहतरी के लिए बहुत कुछ किया। आप सुनेंगे। नारे लगाएंगे लेकिन वोट देने से पहले आप उनसे सवाल नहीं कर पाएंगे। आपको सवाल करने का मौका नहीं दिया जाएगा। आपको सवाल करने ही नहीं दिया जाएगा। क्यों!!!

क्योंकि, ऊंचे मंचों और ऊंची कुर्सियों को सवाल सुनने की आदत नहीं है। वो सवाल नहीं सुनना चाहते। वो केवल झूठ बोलना चाहते हैं। उन्होंने झूठ बोला कि हमने एसआईटी काला धन वालों को पकड़ने के लिए बनाई है। पांच साल में काला धन वालों के खिलाफ उन्होंने क्या किया, यह सवाल आप उनसे नहीं पूछ सकते। उन्होंने झूठ बोला कि हम स्मार्ट सिटी बनाएंगे। पांच साल में कितने शहर स्मार्ट बने ये सवाल उनसे नहीं पूछ सकते आप। उन्होंने झूठ कहा कि भ्रष्टाचारियों को संसद में नहीं घुसने देंगे। 5 साल में कितने भ्रष्टाचारी संसद से बाहर निकाले गए ये सवाल आपको नहीं पूछने दिया जाएगा। भ्रष्टाचार के आरोपसिद्ध लोगों को पार्टी में शामिल करने और पद देने संबंधी आपके सवाल आपकी जबान से बाहर भी नही निकलने दिए जाएंगे। किसानों की आय दोगुनी करने का झूठ देश की अधिसंख्य किसान जनता से छिपा नहीं है। किसानों को फसल की उचित कीमत पाने भर के लिए क्या-क्या नहीं करना पड़ा। किसानों के प्रदर्शन की अनदेखी से इस सरकार ने देश के अन्नदाताओं का सीधा अपमान किया है। किसानों का अपमान देश के उन समस्त आर्थिक मध्यवर्ग और निम्नवर्ग परिवारों का अपमान है जिनकी जिंदगी खेत के भरोसे चल रही है। क्या आपको यह अपमान नहीं लगता? अपने आत्मसम्मान को इतना सहिष्णु न बनाइए।

किसानों और गरीबों की सरकार होने का दावा करके सत्ता में आए ये लोग पूरे पांच साल जाने कैसे-कैसे मुद्दों पर राजनीति करते रहे। अपनी नाकामियां छिपाने के लिए इन्होंने राष्ट्रवाद, हिंदुत्व, मां, सैनिक जैसे पावन शब्दों को राजनैतिक खिलौना बना दिया। आतंक और भ्रष्टाचार से छुटकारा दिलाने के वादे के बरअक्स इन्होंने भय और भ्रष्टाचार का नया व्यापार खड़ा किया। इन्होंने 'स्वदेशी आतंकवादी' बनाए। मॉब लिंचर्स पैदा किए गए। सवाल करने वाले लोग अलग-अलग तरह से किनारे लगा दिए गए। अभिव्यक्ति के मंचों पर डंडा चलता रहा। रचनात्मकता या तो सहमी रही या किनारे लगा दी गई या फिर राग दरबारी हो गई। राग दरबारी लोग फले-फूले। जो खिलाफ रहे उन्हें शहरी नक्सली बोलकर जेल भेज दिया गया। उन्हें इस्तीफा देने को मजबूर कर दिया गया। उन्हें तरह-तरह से परेशान किया गया। यह सरकार प्रतिरोध और सवालों की संस्कृति को गूंगा बना देना चाहती है। यह सरकार जनतंत्र को फनतंत्र बनाकर खेल रही है। लगातार उसका मजाक उड़ा रही है। सत्ता पाने के लिए हर तरह की जोड़-तोड़, संविधान के साथ खिलवाड़ को सामान्य बनाने की कोशिश कर रही है। यह बड़ी गहरी राजनीति है। कुछ दिनों बाद इस तरह की राजनीति में हर किसी का दम घुटने लगेगा।

Tuesday, 28 August 2018

देश में बराबरी का 'प्रधानसेवक' चल रहा है

कम्युनिस्टों से लाख दिक्कत हो लेकिन साम्यवाद तो हमें चाहिए ही। लेकिन चूंकि दिक्कत है, इसलिए हमारा 'साम्यवाद' दूसरे किस्म का होगा। कांवड़िए गाड़ी तोड़ें या हड्डी, उन लोगों को तो बिल्कुल दिक्कत नहीं होना चाहिए जो दलित आंदोलन, मराठा आंदोलन, जाट आंदोलन, करणी सेना धूर्तता के वक्त चुप रहे थे या समर्थक थे। अगर उन लोगों को हड्डी तोड़ने, गाड़ी तोड़ने का अधिकार प्राप्त है तो हमारे 'साम्यवाद' के हवाले से हमको भी अधिकार मिलने चाहिए। हम भी हड्डी इत्यादि तोड़ें। तभी तो बराबरी आएगी न भाई।

हम बहुत जमीन से जुड़े लोग हैं। धरती माता की जय। इसलिए, बराबरी हासिल करने में भी हम ऊपर नहीं देखते। कौन उठे? हां, गिरकर बराबरी करनी हो तो बताओ। देर नहीं लगेगी। गिरने में तो हमारा कोई सानी ही नहीं है। सिरमन कई दफा छज्जन ठाकुर से कह चुके थे, अपनी भैंस को संभालो। रोज हमारे दरवाजे पर गोबर कर जाती है। छज्जन नहीं माने। अगले दिन सवेरे-सवेरे सिरजन छज्जन के दरवाजे को पवित्र कर आए। इस तरह से उन्होंने कर्म में साम्यवाद का परचम बुलंद किया। आदमी तो छोड़िए, उन्होंने जानवर तक के साथ साम्यवाद स्थापित कर दिया। इसे कहते हैं बराबरी।

देश में बराबरी का 'प्रधानसेवक' चल रहा है। प्रधानसेवक तूफान का नया पर्यायवाची है भक्तजनों के मुताबिक। वहीं विपक्ष के मुताबिक झूठ का भी है। खैर, दोनों अपने-अपने हिसाब से समझें। हमें तो अपनी जान बचानी है। दोनों से। लेकिन हां, बराबरी का प्रधानसेवक तो चल ही रहा है। बल्कि इस मामले में वैश्विक प्रतिस्पर्धा है। अमेरिका ने, पाकिस्तान ने भारत का अनुसरण करते हुए यही मार्ग अपनाया था। साम्यवाद का यह नया मार्ग है। गृहमंत्री बोले, 84 से बड़ी मॉब लिंचिंग नहीं कर पाए हम। लेकिन कोशिश कर रहे हैं न। आपने 60 सालों में जो किया हम पांच साल में तो कर ही देंगे। हम समानता लाने के प्रति प्रतिबद्ध हैं।

कांग्रेस ने कहा- कैसे? हमने आजादी की लड़ाई लड़ी। आप ये कैसे कर पाएंगे। भाजपाई बोले - करेंगे, वो भी करेंगे। कार्य प्रगति पर है। पहले पराधीन तो कर दें। फिर हम अपने तरीके से लड़ाई लड़ेंगे। आजादी की। तब आएगी बराबरी। पिछले 60 सालों में देश में बराबरी के तराजू ने हिंदुओं को काफी ऊपर उठा दिया था। उसे ज्यादा से ज्यादा नीचे गिराना है। जनेऊ के धागे के माध्यम से इस अभियान में विपक्ष भी जुड़ गया।

बराबरी का वैभव पूरी तरह से उसके प्रतिद्वंदी में है। कि हम किससे बराबरी हासिल करना चाहते हैं। पाकिस्तान कहता है हम अपनी अर्थव्यवस्था को भारत से आगे ले जाएंगे। भारत कहता है कि पाकिस्तान में फलां लोगों का जीना दूभर है। बांग्लादेश में फलां लोग मारे जा रहे हैं। हम सब बराबर कर देंगे। अपनी श्रेष्ठता या बराबरी दिखाने के लिए हमें दो-चार ही देश याद आते हैं। हमारी समानता की प्रतिस्पर्था उन्हीं से है।

समस्त मीडिया भी आजकल 'अवकरिका' से भरपूर है। नौकरी जाने का खतरा है नहीं तो बता देते कि अवकरिका माने कचरा होता है। लेकिन कुछ लोग लगे थे प्रसून खिलाने में। बार-बार सफाई देना पड़ रहा था। ये कहां की बराबरी है भाई। असमानता तो छोड़िए, आप तो 'भक्ति-भावना' आहत करने लगे थे। बराबरी ऐसे नहीं आती है। आप बराबर में नहीं चलेंगे तो काट के फेंक दिए जाएंगे।

श्रेष्ठता खास लोगों की पैतृक संपत्ति थोड़ी है (बपौती कहना थोड़ा अशिष्ट लग रहा था।) इसलिए, साम्यवाद के प्रति प्रतिबद्ध हम लोगों ने 'अनुसूचित' संस्थानों को भी एमिनेन्स का दर्जा दिया। जनता को हमारी तरह कैमरे पर 'सत्य' बोलने का मौका दिया। उदाहरण के रूप में छत्तीसगढ़ की किसान महिला को देख लीजिए। उसके दोगुनी आय के 'सत्योद्घाटन' से विपक्ष की शक्ल का 'मार्गदर्शक मंडल' हो गया था।

यह अलग तरह के साम्यवाद का दौर है। उन्होंने किया था तो हम कर रहे हैं। वो कर रहे हैं इसलिए हम भी कर रहे हैं। 'तब कहां थे' इस साम्यवाद का ध्येय वाक्य है और तथाकथित 'रक्षा' मूल भाव। इस साम्यवाद से आप इतना गिर सकते हैं कि भूमिगल जल की जगह पर आप स्थापित हो सकते हैं। फिर, बिना 'पानी' वाली दुनिया में उम्मीद के अंकुर कैसे फूटेंगे, पता नहीं।

स्मृतिशेषः सार्थक वक्तव्यों का मर्यादित नेता अटल बिहारी

नफरत के खिलाफ बिगुल फूंक देने से कोई प्रेम का पैरोकार नहीं हो जाता। प्रेम का पैरोकार होने के लिए प्रेम करना भी तो जरूरी है। प्रेम होना भी तो जरूरी है। नफरत के खिलाफ नफरत से खड़े होने वाले नफरत के खिलाफ कैसे और प्रेम के साथ कैसे? यह सच है कि हालिया इतिहास में हिंदू पंथ के लोगों की प्रेम की परिभाषा थोड़ी दूषित हुई है। आप उसे सांप्रदायिकता कह सकते हैं लेकिन आस्था और सांप्रदायिकता में अंतर करने के बाद। आप किसी आस्थावान को सांप्रदायिक कैसे कह सकते हैं। आप जिनके खिलाफ हैं उनकी भाषा कैसे बोल सकते हैं? आज की दुनिया में विद्वानों की टोली में शामिल होने की बजाय प्रेम करने वालों की टोली में शामिल होना ज्यादा बेहतर है।

विश्लेषण किया जाए तो एकदम आदर्श इंसानों का समुच्चय रिक्त ही दिखेगा। गलतियां चाभी की तरह होती हैं जो सही रास्ते का ताला खोलती चलती हैं। तो क्या आलोचना गलतियों पर होगी या उसके आगे के सुधारगत कदमों की होगी? यहां हर एक बात मैं अटल बिहारी के वाजपेयी के निधन से जुड़ी लोगों की प्रतिक्रियाओं के संदर्भ में कह रहा हूं। लेकिन इसका मतलब ये नहीं है कि मैं ऐसा कह रहा हूं कि अटल जी ने बहुत सी गलतियां की और उन पर आलोचना होनी चाहिए। पता नहीं, जिन गलतियों को हम गलतियां कह रहे हैं वह गलतियां हैं भी कि नहीं। अटल को सांप्रदायिक घोषित किया जा रहा है। कुछ ने उन्हें बेकार कवि कहा। कुछ ने कहा कि आज भाजपा का जो स्वरूप है वह उन्हीं की वजह से है। यह सब तब कहा जा रहा है जब तकरीबन 13 9 सालों से बोलना बंद कर चुके अटल इहलोक छोड़कर चले गए। लोग ऐसे लोगों को संस्कारों की दुहाई देकर चुप करा रहे हैं। लेकिन, उन्हें तो अपनी विद्वत्ता, निष्पक्षता, पंथ-निरपेक्षता और उंगली काट शहादत पर इतराना है। उन्हें आप किसी भी विधि से चुप नहीं करा सकते।

राजनीति को आप काजल की कोठरी कहते हैं। यह सभी को पता है कि राजनीति की गाड़ी कैसे चलती है। मजबूरियों, उसूलों, चरित्र और जनहित में सामंजस्य बिठाकर राजनीति चलती है। आज के दौर की राजनीति में कोई ऐसा राजनेता ढूंढकर दिखाइए जिसने अटल जी की तरह इन चीजों से सामंजस्य बिठाया हो। राजनैतिक आदर्श और मर्यादा की अनुपालना के जितने सर्वश्रेष्ठ उदाहरण अटल जी के साथ जुड़े हैं उतने हिंदुस्तान के किसी एक हथेली की उंगलियों पर गिने जा सकने वाले नेताओं से जुड़े दिखाई पड़ते हैं। अटल को इसलिए दोष दिया जाता है कि वह आरएसएस और भाजपा के कार्यकर्ता थे। क्या यह उनका ऐब है? क्या हम गांधी, नानक और कबीर की उसी परंपरा से हैं जिसमें कहा जाता है कि घृणा पाप से करो पापी से नहीं? अटल को अपनी संस्कृति को लेकर अभिमान था। अपने हिंदू होने पर गर्व था। यह उनकी विचारधाराई संस्कार का अभिन्न हिस्सा था तो क्या यह उनका ऐब हुआ। उन्होंने अपने धर्म के नाम पर हिंसा करने को तो कभी नहीं कहा और न किया। उल्टा जिन लोगों ने किया वह भले ही उनकी पार्टी के क्यों न थे, उनका विरोध ही किया। वो भी सार्वजनिक रूप से। पार्टी के अंतर्विरोध का प्रतिनिधि होना क्या आसान है? हिंदू तन-मन हिंदू जीवन रग-रग हिंदू मेरा परिचय। कविता में कहां गलती है। कांवड़ियों के उपद्रव, योगी आदित्यनाथ के घटिया बयान और नरेंद्र मोदी के गोधरा वाले नीच कृत्य को ही आप हिंदुत्व समझते हैं क्या? अगर हां, तो यह आपके अल्पज्ञान की समस्या है।

जगती का रच करके विनाश कब चाहा है निज का विकास
भू-भाग नहीं, शत-शत मानव के हृदय जीतने का निश्चय।
मैं तो समष्टि के लिए व्यष्टि का कर सकता बलिदान अभय।

इन पंक्तियों में अटल के हिंदुत्व का अर्थ है। कविता वीररस की है। अतिशयोक्ति अलंकार है। अगर साहित्यिक सौंदर्य से उनके राजनीतिक चरित्र और व्यक्तिगत संस्कार का मूल्यांकन करेंगे तो कथित विद्वत्ता का अलंकार जरूर पा लेंगे लेकिन यह न्याय तो कतई नहीं होगा। किसी ने लिखा आज की पीढ़ी जब पैदा हुई तब अटल अपनी छवि बदल चुके थे। कौन सी छवि बदला उन्होंने? उनसे पूछने की जरूरत है। राजनीति में लंबे समय तक विपक्ष की भूमिका में रहने वाले बल्कि सशक्त विपक्ष की भूमिका में रहने वाले अटल राजनीति में तब उतरे थे जब देश में नेहरू युग चल रहा था। क्या उम्र रही होगी उनकी। लेकिन उनकी राजनीतिक समज और छवि का अंदाजा इसी से लगाइए कि नेहरू ने ब्रिटिश प्रधानमंत्री से जब उनका परिचय कराया तब कहा कि विपक्ष के बड़े प्रतिभाशाली नेता हैं और मैं इनमें देश के भावी राजनेता की छवि देखता हूं। क्या आप इसी छवि की बात करते हैं? एक विदेशी पदाधिकारी से बात करते हुए नेहरू ने अटल को देश का भावी प्रधानमंत्री तक बता दिया था। अगर तब उनकी छवि ये थी और हमारे जन्म के बाद उन्होंने छवि बदल ली तो ये छवि कितनी शानदार हो गई, आप इसका अंदाजा लगाइए।

नरेंद्र मोदी को उन्होंने गुजरात का मुख्यमंत्री बनाया। 2001 की बात है। 2002 में गोधरा कांड हुआ तो उन्हें पद से हटाने को भी तैयार हो गए। सभी जानते हैं कि पार्टी में इस मामले को लेकर अटल बिल्कुल अकेले पड़ गए थे। लेकिन इस विषय पर उन्होंने अपना स्टैंड तो रखा। उन्होंने मोदी को राजधर्म की सीख दी। उन्होंने कहा कि राजा के लिए प्रजा-प्रजा में भेद करना सही नहीं है। धर्म के आधार पर, जाति के आधार पर या संप्रदाय के आधार पर। यह उनकी राजनीति का राजधर्म था। उन्होंने खुद के लिए भी यह दावा नहीं किया कि वह अपने राजधर्म का पूरी तरह पालन कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि मैं प्रयास कर रहा हूं अपने राजधर्म की पालना का। इस सत्यनिष्ठा की आज की राजनीति में उम्मीद की जा सकती है क्या? यह सबको पता है कि अटल वही बोलते थे जो कर पाते थे। एक-एक शब्द सार्थक।

अटल के वक्तव्यों में एक गैप हुआ करता था। पॉज। इस पॉज में राजनीतिक जिम्मेदारी, लोकतांत्रिक मर्यादा, सत्यनिष्ठा, भाषायी शिष्टता और मानुषिक शालीनता का शब्दकोश था। इतने लंबे राजनीतिक करियर में लगातार सक्रिय रहते आप किसी के खिलाफ अशालीन टिप्पणी, व्यवहार से बचे रहते हैं यह क्या किसी बड़ी उपलब्धि से कम है। बिना किसी ठोस मर्यादित चरित्र के क्या ऐसा हो पाना संभव है। यह सच है कि अटल आजादी की ओस में सद्यस्नात संस्कारों, विचारों, चरित्र और आचरणगत मूल्यों के आखिरी वट- वृक्ष थे। उनके बाद से ही भारतीय राजनीति ने मर्यादाओं के पर्दे फाड़ दिए। अब संसद में क्या होता है? राजनीति में क्या होता है, हम सभी देख-सुन रहे हैं।

(17 अगस्त को लिखित)

Sunday, 26 August 2018

रक्षाबंधन प्रेम, सहायता और रक्षा का पर्व है

रक्षाबंधन प्रेम, सहायता और रक्षा का पर्व है। इससे जुड़े अनेक किस्सों से रक्षाबंधन का यही चरित्र उजागर होता है। सिकंदर की पत्नी के भेजे रक्षासूत्र की वजह से पुरू ने सिकंदर की जान बख्श दी और बंदी बना लिए गए। रक्षासूत्र बांधकर लक्ष्मी ने बलि से विष्णु को मांग लिया। रक्षासूत्र भेजकर रानी कर्मावती ने बहादुरशाह के आक्रमण से रक्षा के लिए हुमायूं से सहायता मांगी।

रक्षासूत्र का सबसे अद्भुत प्रसंग महाभारत से है। शिशुपाल वध के दौरान सुदर्शन चक्र के इस्तेमाल से भगवान की अंगुली से खून निकलता देखकर द्रौपदी तुरंत अपने दुकूल का एक किनारा फाड़कर कृष्ण की उंगली पर लपेट देती हैं। इसे भी रक्षासूत्र ही कहा गया। वह दिन भी सावन की पूर्णिमा का दिन था। द्रौपदी कृष्ण की बहन नहीं थीं। सखी थीं। कृष्ण से उन्हें शर्तहीन प्रेम था।

कहा जाता है कि इंद्र की पत्नी ने भी इंद्र की रक्षा के लिए उन्हें तपोबल से उत्पन्न राखी बांधी थी। किसी युद्ध में जाने से पहले। राखी सिर्फ प्रेम का त्योहार है। सिर्फ भाई-बहन के प्रेम का नहीं। किसी से भी प्रेम का। जिसके आभार तले आप दबे हों आप उसे भी राखी बांधकर उऋण होने की कोशिश कर सकते हैं। जिस पर भी आप विश्वास जताना चाहते हों उसकी कलाई पर रक्षासूत्र का बंधन आरोपित कर सकते हैं। जिससे भी सप्रेम सहायता चाहते हों उसे बांध दीजिए राखी। जिसे रक्षा का वचन देना है उसके हाथ पर सूत्र से आश्वासन का हस्ताक्षर कर दीजिए।

पेड़-पौधों को, दोस्तों को, गुरू को, किताबों को, महापुरुषों की मूर्तियों को, ईश्वर की मूर्तियों को, मां-पिता को। जिसको चाहें, रक्षासूत्र बांध दीजिए और प्रतीकों से मुक्त होकर बंध जाइए बंधन में। रक्षाबंधन में। प्रेमबंधन में। आभारबंधन में। आदरबंधन में। सिर्फ प्रतीकों से नहीं, दिल से। 😊

Saturday, 11 August 2018

परंपरागत धार्मिकता पर राजनीति-प्रेरित धार्मिकता हावी होने लगी है

फोटोः इंटरनेट से साभार

समर्थन-विरोध की बाइनरी से हटकर लिखना आसान तो है लेकिन समझा पाना बड़ा मुश्किल है। कांवड़ यात्रा को लेकर दो तरह के पक्ष दिख रहे हैं। एक तो सम्पूर्ण कांवड़िया समुदाय को हिंसक, उग्र और बद्तमीज़ लिख रहा है। दूसरा धार्मिक स्वतंत्रता के नजरिये से तथा कुछ कु-अपवादों से परे होकर कांवड़िया शब्द के सम्मान की बात कर रहा है। यह सच है कि जजमेन्ट देने के लिए आपको दोनों पक्षों पर निष्पक्ष विचार करना चाहिए। पिछले कुछ दिनों से जारी धार्मिक आवरण वाले उपद्रव की कुंठाओं से बाहर निकलकर।

धार्मिक आस्थाएं बेहद ही शालीन, पवित्र और भली होती हैं। नरम भाव। कल्याण की शुभेच्छा। किसी भी प्राणी को तकलीफ न पहुँचाना। हर समुदाय की धार्मिक आस्था की परिभाषा इन दो-चार बिंदुओं के साथ ही पूरी होती है। हमारे समाज का एक वक्त ऐसा भी था जब अधिकांश युवा वर्ग दिवा स्वप्नों, 'पथभ्रष्ट' गतिविधियों और नास्तिक विचारधाराओं के लिए लगातार कोसा जाता रहा था। भगवान से दूरी, धार्मिक मान्यताओं, विधि-विधानों को ख़ारिज कर देने की उसकी प्रवृत्ति की वजह से घर के बुज़ुर्ग उन्हें हिकारत से देखते थे। हमारे परिवार में भगवद्भजन या धर्म से जुड़े कामों में संलग्न कोई भी बच्चा बहुत ही संस्कारी, शिष्ट और सभ्य माना जाता था। लेकिन फिर आखिर ऐसा क्या हुआ कि जो युवा वर्ग बढ़ती उम्र के साथ 'नास्तिकता' की दहलीज पर बढ़ता था वही धर्म ध्वजा उठाकर हिन्दू सुरक्षा और राष्ट्र बचाने के अभियान में शामिल हो गया?

अभियान भी यूं कि दुर्गा पूजा, जन्माष्टमी, दीवाली से लेकर कांवर यात्रा जैसे उत्सवों की शालीनता सड़कों पर गुंडागर्दी का तांडव करने लगी। दुर्गा पूजा में अराजकता और फूहड़ता का जो प्रदर्शन होता है कि दुर्गा-काल के राक्षस भी शर्मा जाएं। कांवर यात्रा में जो कुछ भी हो रहा है उसे हम देख ही रहे हैं। भक्तों से कौन डरता था? लेकिन आज हम डर रहे हैं। पहले भक्तों का समूह निकलता था तो सारा समाज धार्मिक और जातिगत बाधाओं के पार आकर उनकी सेवा में लग जाता था। क्या कि, यही धर्म है। पुण्य मिलता है। भगतजन भी सेवा करवाने को हमेशा तैयार नहीं रहते थे। क्या कि, हमारे समस्त अर्जित पुण्य कहीं सेवा करके ये न ले जाएं। ऐसे भक्त अब नहीं दिखते। कारण यही नए भक्त हैं।

पूजा-पाठ निहायत व्यक्तिगत मामला है। प्रदर्शन की इसमें कोई जगह नहीं है। दादी बताती हैं कि पूजा-पाठ, दया-दान-पुण्य आदि का प्रदर्शन करने पर उसका फल नहीं मिलता। गुप्त-दान को इसीलिए महत्वपूर्ण माना गया है। दादी का कहना है कि धर्म का पालन करना बहुत कठिन है। जो धर्म का पालन नहीं करता वह धर्म की रक्षा क्या करेगा? लेकिन, हमारे देश के युवाओं ने धर्म की रक्षा का भार अपने ऊपर ले लिया है। उन्होंने चोला तो पहन लिया धर्म का लेकिन धर्म को धारण नहीं कर पाए। इसलिए, धार्यते इति धर्म: की परिभाषा से बाहर हो गए। आजकल अधार्मिकों ने धर्म की रक्षा का ठेका ले लिया है। हम चुप होकर उन्हें अपनी सहमति भी प्रदान कर रहे हैं।

फोटोः इंटरनेट से साभार
धर्म के राजनीतिकरण ने धार्मिक कृत्यों का चरित्र बदला है। राम मंदिर आंदोलन का इसमें उल्लेखनीय योगदान है। धर्म जब मंदिरों से बाहर आया तब युवाओं ने उसे हाथों हाथ लेना शुरु कर दिया। धार्मिक अभिवादन जब राजनीतिक नारों में तब्दील हुए तब भगवान और धार्मिक कार्यों से हमेशा विमुख रहने वाला युवा वर्ग अलग तरह की आस्तिकता की ओर बढ़ने लगा। इस आस्तिकता में धर्मग्रंथों का अध्ययन कितना है यह रिसर्च का विषय है। इस आस्तिकता में शालीनता और समावेशी भाव के साथ एक घृणाभाव, एक अलगाव, उग्रता और आक्रामकता भी शामिल हो गई है। राजनीतिक रैलियों और धार्मिक यात्राओं के नारे लगभग एक होने लगे हैं। राजनीति के साथ धर्म में भी रोमांच मिलने के साथ ही युवाओं का आकर्षण इस ओर तेजी से बढ़ने लगा है। फलस्वरूप, दशहरे में जागरण के मंच और मूर्ति स्थापना समितियों की संख्या बढ़ने लगी है। मूर्ति स्थापना तथा विसर्जन के दौरान डीजे पर बजते कनफोड़ू संगीत के बीच की अराजकता सामान्य घटना होने लगी है। कांवड़ यात्रा में भी इसी तरह के दृश्य दिखने लगे हैं। धर्म उन्माद हो गया है। राजनीति प्रेरित धार्मिकता परंपरागत धार्मिकता पर हावी होने लगी है।

राजनैतिक धर्मवाद के साथ एक और चीज का जन्म हुआ है। हिन्दू राष्ट्रवाद का। मतलब हिन्दवी संस्कृति ही असल राष्ट्रवाद का चरित्र है। इतिहास के शब्दकोष में हिन्दू के कई अर्थ हैं। हिन्दू धर्म भी है, संस्कृति भी, पंथ भी और भौगोलिक पहचान भी। हम सबको एक ही अर्थ में समेटकर राष्ट्रीयता का प्रमाणपत्र तैयार करने पर तुले हैं। हिन्दू धर्म का प्रसार भारत से बाहर भी है। क्या संसार भर के हिन्दू भारतीय हैं? हिंदुत्व को राष्ट्रवाद में सम्मिलित कर उसके दायरे को 32 लाख वर्गकिलोमीटर के इस देश की सरहदों में समेट नहीं रहे क्या हम! इस देश में कोई बाहरी नहीं है इस सत्य को कब स्वीकार किया जाएगा। हज़ारों साल पहले कौन कहाँ से आया था इस आधार पर लड़ाई झगड़े कब ख़त्म होंगे। आदिकाल में यायावरी सभ्यता थी। सब कहीं न कहीं से आए-गए हैं। अब स्थायी सभ्यता है। सब स्थिर हैं। पलायन नहीं होता। वक़्त बदला, सभ्यता बदली तो सोच भी बदलनी चाहिए कि नहीं?

खैर, हम युवाओं की आधुनिक धार्मिक सहभागिता पर बात कर रहे थे। धर्म के साथ जुड़ने, पूजा-पाठ करने से कोई नुकसान नहीं है। हां, आप विज्ञान से थोड़े दूर होते जाते हैं। लेकिन उसका भी संतुलन बना हुआ है। वैज्ञानिक सोच जिनमें विकसित हो जाती है फिर वो किसी की नहीं  सुनते। आप आस्तिक बनिए। पूजा कीजिये। नमाज कीजिये। शिव को पूजिए। राम को पूजिए। अल्लाह, बुद्ध, जीसस, महावीर का पूजन कीजिये। कांवर यात्रा पर जाइये। बद्रीनाथ केदारनाथ, हज यात्रा। यात्राओं से आपकी सोच का विस्तार होगा। तमाम जीवनशैलियों और अनुभवों से गुजरेंगे। भगवद भजन से मानसिक शांति भी मिलेगी। लेकिन, धर्म रक्षा की ध्वजा न उठाइये। इसके बदले आप अपने अन्तर्धर्म की रक्षा कीजिये।

कांवड़ यात्रा आज की नहीं है। बहुत पुरानी है। तबकी जब कार नहीं होते थे और प्लास्टिक की कांवड़ भी नहीं होती थी। हॉकी और बेसबॉल स्टिक भी नहीं होती थी। गुंडे खद्दर पहन लें या भगवा ड्रेस। वे गुंडे ही रहेंगे। बद्तमीज़ और आवारा ही रहेंगे। धूर्त और दुष्ट ही रहेंगे। कपड़े बदलकर वह कांवड़िए या जननेता नहीं बन जाएंगे। धर्म अगर व्यक्तिगत है तो अधर्म भी व्यक्तिगत ही है। आपके जजमेन्ट और प्रतिक्रियाओं में शिव के असल भक्तों के साथ न्याय भी दिखना चाहिए। समस्त कांवड़ियों को गुंडा कहा जाना एक बचकाने फैसले जैसा है। जो उपद्रव कर रहे हैं वो भक्त नहीं अपराधी हैं। धर्म और कानून दोनों इसकी इजाजत नहीं देते। इनका समर्थन करने वाले न तो देश के साथ हैं और न ही धर्म के। इनका बहिष्कार ही धर्म है। इनका समर्थन ही अधर्म। इसलिए, कांवड़ियों से होने वाली दिक्कतों पर आपकी कानून और धर्म व्यवस्था जिम्मेदार है। सवाल उन पर उठाइये। कि अगर वो इन्हें नहीं रोक पा रहे हैं तो इनका समर्थन कर रहे हैं। अपनी जिम्मेदारी भी तय कीजिए।

धर्म और धार्मिक मान्यताएं आधुनिक युग में कितनी आवश्यक हैं यह अलग विमर्श का विषय है। लेकिन फिलहाल, सोशल मीडिया के त्वरित फैसले एक बड़े समूह की धार्मिक भावनाओं का अपराधीकरण करने पर आमादा हैं। इसे रोका जाना चाहिए। सामाजिक सौहार्द के लिए भी यह जरूरी है और धर्म और राष्ट्रवाद जैसी पावन और निश्छल भावनाओं के उद्दंडों द्वारा इस्तेमाल पर रोक लगाने के लिए भी यह बहुत जरूरी है।