Thursday, 27 July 2017

दोहे: जी में आए फूंक दें, गीता और कुरान

दिल्ली से बंगाल तक, लहू-लहू-अंगार।
आर्यवर्त में चल रहा,संस्कृति का श्रृंगार।

ज़हर-ज़हर हर शहर में,नफरत की दुर्गंध।
घर टूटे पर बन रहा, है वैश्विक सम्बंध।।

राष्ट्रवाद बंधक बना,मानवता असहाय।
राजनीति के व्यूह में, मंदिर-मस्जिद-गाय।

संसद की बेचारगी, जन-गण का दुर्भाग।
कैसे हो प्रतिरोध जब, चूनर में है दाग।।

गलियां हैं सहमी हुईं, चौराहे खामोश।।
लुच्चे खोते होश हैं, सरकारें बेहोश।।

'काम' के बदले लाठियां, 'दाम' के बदले मौत।
'जाम' के बदले लोन है, 'नाम' के बदले मौत।

तलवारों की नोक पर, कितने पहलू खान!
इतना सस्ता हो गया, आखिर कब इंसान?

देख तेरे संसार की, क्या हालत भगवान।
जी में आए फूंक दें, गीता और कुरान।

Sunday, 23 July 2017

अनुभवों के अध्याय सरल नहीं होते

अनुभवों के अध्याय सरल नहीं होते लेकिन समझ में सरलता से आ जाते हैं। आज बहुत सी चीज़ें अनुभव के रास्ते दिमाग में आ चुकी हैं और कुछ धारणाओं और मान्यताओं के रूप में परिणत हो चुकी हैं। अब ज़िन्दगी थोड़ी-थोड़ी समझ भी आने लगी है। जब भी मन उदास होता है हम ज़िन्दगी की परिभाषाएं पढ़ने बैठ जाते हैं। जब भी हम निराश छोटे हैं किस्मत के अर्थ टटोलने लगते हैं। जब भी हम हारते हैं तो बजाय अपनी कमियों पर सुधारात्मक दृष्टि डालने के हम उन कमियों पर घुटने टेक देते हैं। सबकी तो नहीं लेकिन बहुतों की यही कहानी है। मेरी भी इसलिए है क्योंकि मैं केवल अनुभव लिख पाता हूँ और आज भी मैं वही लिख रहा हूँ।

अपना स्वयं का अध्ययन करना, खुद की पड़ताल करना अपने आप को पहचान लेना कितना ज़रूरी है? यह ज़रूरी भी है या नहीं? मुझे ऐसा लगता है कि यह मानसिक तनाव और हीन भावना के अलावा कुछ भी सृजित कर पाने के लायक नहीं है। इसलिए इसके बदले किसी महापुरुष की जीवनी पढ़नी चाहिए। कोई अच्छा सा लेख पढ़ना चाहिए।

मैंने अपने आप को बहुत पढ़ा है। मेरी हर आदत पर विश्लेषण किया है। इससे मुझे पता चला कि मुझमें एक नहीं, दो नहीं हज़ारों कमियां हैं। मैं जानता हूँ कि इनका परिणाम अच्छा नहीं होगा, फिर भी मैं इन कमियों में सुधार नहीं कर पा रहा। यह भी मेरी एक कमी ही है। मेरे साथ यह भी दिक्कत है कि मुझे अपनी सारी गलतियां पता होती हैं। मुझे पता होता है कि मैं जो कर रहा हूँ या करने जा रहा हूँ वो गलत है फिर भी मैं उसके लिए कुछ भी नहीं कर पाता। अपने आप को कोसने के सिवाय। एक वाकया है ऐसा कि एक बार दारागंज इलाहाबाद के रेलवे स्टेशन पर अपने मित्र राकेश से बात करते हुए मैं अपनी कही किसी बात को याद करने की कोशिश कर रहा था और यह भी कि ये बात मैंने कही किससे थी। हल्का सा संकेत पाते ही राकेश बोल पड़े कि बात यह थी और आपने मुझसे ही कही थी। आगे जोड़ते हुए उन्होंने जो कहा था उस पर मुझे हंसी भी आई और बात कम से कम मेरे लिये तो चिंतन का विषय थी ही। उन्होंने कहा कि दिन भर आप अपने आपको कोसते ही तो रहते हैं।

मुझे ख़ुशी है कि मुझमें आत्ममुग्धता नहीं है, आत्मप्रशंसा की आदत नहीं है, शायद अहंकार भी न हो, लेकिन इस बात की चिंता भी काम नहीं है कि मुझमें खुद के बारे में अच्छा महसूस करने की भी आदत नहीं है। पता नहीं टैलेंट वगैरह का स्तर मुझमें कितना है! लोगों की आशाएं मुझे कभी कभी डरा देती हैं। कभी कभी नहीं शायद हमेशा ही। इससे आत्मविश्वास गिरता है, आत्मबल कमजोर होता है। कभी कभी मैं कई प्रतियोगिताएं इसीलिए ज्वाइन ही नहीं करता हूँ कि मन में पहले से ही धारणा बन जाती है कि यह जीतना मेरे वश की बात नहीं।

मेरे आस-पास रहने वाले लोगों से पूछिए! शायद उनको मेरी अच्छाइयों से ज्यादा मेरी कमियों के बारे में पता हो! ऐसा इसलिए कि मैं दिन भर उसी पर विमर्श करता रहता हूँ। जब भी खाली रहता हूँ, शांत हो जाता हूँ बिलकुल। सोचनीय मुद्रा में। लोगों को लगता है असामाजिकता की ओर जा रहा हूँ, उदास हूँ, निराश हूँ, सबसे अलग एकांत रहने की इच्छा है मेरी। लेकिन मेरे मन में तो मेरे अतीत-वर्तमान-भविष्य के घटनाक्रमों में संग्राम छिड़ा होता है। उथल-पुथल मेरे सामाजिक व्यवहार को लेकर भी होती है। किसी की मज़ाक में कही छोटी बातें भी गहरी लग जाती हैं। किसी से कभी मज़ाक कर दिया तो एक चिंता और मन में बैठ जाती है कि उसे बुरा तो नहीं लगा होगा! 'सॉरी' तो हमेशा इसीलिए तैयार रखते हैं। वही एकमात्र इलाज भी तो है इस तनाव का।

अब देख लो! आज फिर कोस लिया खुद को! पता नहीं ऐसा केवल मेरे साथ है या फिर इस तरह के और भी पीस भगवान ने बनाये हैं। ज़िन्दगी है तो जीना है ही। चाहे रोकर जियें या फिर हंसकर। हंसकर ही जीने का मैं समर्थक हूँ। बचपन से हंसने का आदती भी हूँ। लेकिन आजकल वो आदत अपने आप न जाने कहाँ खो गयी है। शायद जीवन के उस नये अनुभव का असर है।

Saturday, 22 July 2017

साहित्यः कविता का सबसे संक्षिप्त रूप-विन्यास है हाइकू


 कविताओं के लिए गागर में सागर की कहावत तो बहुत पुरानी है। बात चाहे कबीर के दो लाइन और चार चरण वाले दोहों की हो या फिर गालिब के दो मिसरों वाले किसी शेर की। ये वो चमत्कार है जो शब्दों की सबसे न्यून मात्रा में जीवन के सबसे गूढ़ रहस्यों का पूरा ग्रंथ अपने आप में समेटे हुए होता है। कविता लेखन की हाइकू विधा इसी परंपरा का एक महत्वपूर्ण सोपान है। पांच-सात-पांच शब्दों के अनुशासन में बंधा तीन लाइन का यह विचित्र काव्य कम से कम शब्दों में विशद अर्थ देते हुए कविता लेखन के गागर में सागर विशेषण को पुष्ट करता हुआ दिखाई देता है। हाइकू वर्तमान में संभवतः विश्व साहित्य की सबसे संक्षिप्त कविता है। सत्रहवीं शताब्दी के आस-पास जापान में के एक कवि मात्सुओ बाशो ने पहली बार जापानी साहित्य में हाइकू का शिल्प किया था। बाशो एक बौद्ध साधक थे। यही वजह रही कि हाइकू अपने पैदाइशी दौर में प्रकृति संबंधी विषयों के इर्द-गिर्द ज्यादा गढ़ी जाती रही। जापान में हाइकू ज्यादातर प्रकृति को चित्रित करती रही और यही हाइकू जब भारत में आती है तब अपनी प्रकृति कुछ यूं बदलती है कि गोपालदास नीरज से लेकर सत्यभूषण वर्मा तक जब हाइकू लिखते हैं तो उसे सामाजिक-राजनीतिक विसंगतियों पर व्यंग्य-बाण के धनुष की तरह इस्तेमाल करते हैं। जापान में भी व्यंग्य साहित्य उन्नत है। वहां व्यंग्य साहित्य सेर्न्यू कही जाती है।
हाइकू के प्रवर्तक मात्सुओ बाशो


शब्द-विन्यास का यह सबसे संक्षिप्त रूप भारत में गुरूदेव रविंद्रनाथ टैगोर के प्रयासों से आया। अपनी जापान-यात्रा से लौटने के बाद गुरूदेव ने 1919 में जब जापानी-यात्री लिखी तो उसमें हाइकू का जिक्र करते हुए इस विधा के प्रवर्तक बाशो के कुछ हाइकू का अनुवाद भी किया-

पुरोनो पुकुर
ब्यांगेर लाफ
जलेर शब्द

पचा डाल
एकटा को
शरत्काल।

सिर्फ गुरूदेव ने ही नहीं, हिंदी साहित्य के अनन्य साहित्यकार सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय ने भी हाइकू को भारतीय साहित्य में स्थापित करने में अमूल्य योगदान दिया है। अपनी जापान-यात्रा में अज्ञेय ने कवि बाशो की हाइकू साधना का बड़ा गहरा अध्ययन किया। 1959 के आस-पास अज्ञेय जब भारत लौटे तब उनके हे अमिताभ, सोन मछली, घाट-घाट का पानी, सागर में ऊब-डूब जैसी कालजयी कविताओं की गठरी में छंद का यह नया सांचा हाइकू भी मौजूद था। अज्ञेय ने भी बाशो की कविता का अनुवाद हिंदी मे किया था।

फुरु इके या (The Old Pond, Oh!) - तालपुराना
कावाजु तोबुकोमु (A frog jump In) – कूदा मेंढक
मिजुनो ओतू (The Water’s) – गुड़प्प..

हालांकि उपर्युक्त रचना अज्ञेय द्वारा बाशो की हाइकू का शाब्दिक अनुवाद भर है। इसमें हाइकू के अनुशासन का ख्याल नहीं रखा गया है। हिंदी साहित्य में हाइकू के प्रवेश के बाद कई साहित्यकारों ने इसके पैटर्न पर कविताएं लिखीं।

इकला चांद
असंख्यों तारे
नील गगन के
खुले किवाड़े
कोई हमको
कहीं पुकारे
हम आंएंगे
बांह पसारे।।

1964 के आस-पास लिखी गई केदारानाथ अग्रवाल की इस कविता में हाइकू की संक्षिप्तता का गुण स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। स्वयं अज्ञेय की कई कविताएं इसी तरह की हैं। साठ के दशक के बाद केदार नाथ अग्रवाल, श्रीकांत शर्मा, बच्चन, विश्वनाथ प्रसाद तिवारी, भवानी प्रसाद मिश्र और सर्वेश्वर दयाल सक्सेना जैसे कई साहित्यकारों ने अपनी कविताओं में नया प्रयोग करते हुए दो या तीन पंक्तियों की छोटी-छोटी कविताएं लिखी हैं। इस तरह के नवप्रयोगों की प्रेरणा हाइकू से ही मिलने का अनुमान लगाया जाता है।

इस तरह से नव-प्रयोगों की अपनी प्रवृत्ति और सहज भाव से सबको स्वीकारने की संस्कृति वाले हिंदी साहित्य के कोश में इस विधा का पदार्पण हुआ। अरथ अमित अति आखर थोरे का प्रायोगिक प्रतिमान स्थापित करने वाली हाइकू आज अपनी संक्षिप्तता की वजह से सर्वाधिक तेजी से अपनाई जाने वाली विधा बनती जा रही है। हाइकू में सत्रह वर्ण होते हैं। ये सत्रह वर्ण तीन पंक्तियों में इस तरह विभाजित होते हैं कि पहली और तीसरी पंक्ति में पांच-पांच वर्ण हों जबकि दूसरी पंक्ति में सात वर्ण। जैसे-
जन्म मरण
समय की गति के
हैं दो चरण

वो है अपने
देखें हो मैने जैसे
झूठे सपने

--गोपाल दास नीरज

इसी तरह की कई हाइकू कविताएं आधुनिक हिंदी साहित्य में तेजी से अपना स्थान बनाती जा रही हैं। इसका संक्षिप्त होना ही इसकी सबसे बड़ी विशेषता है जो नए कवियों को अपनी ओर आकर्षित करती है। हाइकू लिखने से पहले इसका पूरा विज्ञान समझना भी जरूरी है, क्योंकि तभी इसके अर्थों का वजन बरकरार रहेगा। आज के दौर में ऐसे कवियों की कोई कमी नहीं है जिनके लिए हाइकू सिर्फ पाच-सात-पांच वर्णों का संयोजन मात्र है, इसके अलावा कुछ भी नहीं। ऐसे लोग धड़ाधड़ हाइकू की पुस्तकें छपवाकर सिर्फ कूड़ेदानों का बोझ बढ़ा रहे हैं। हाइकू के लिए गंभीर चिंतन और एकाग्रता की आवश्यकता होती है। जीवन अनुभूतियों को शब्दों में ढालकर उकेरने के लिए पर्याप्त धैर्य चाहिए होता है। तब जाकर कहीं सच्चे अर्थों में हाइकू अपने लक्ष्यों तक पहुंचता है।


कला-खेल-साहित्य सीमाओं के बंधनों को नहीं मानते। हाइकू इस तथ्य का सबसे सटीक उदाहरण है। सोलहवीं शताब्दी में जापान में पैदा हुए साहित्य के इस सबसे लघु स्वरूप ने दुनिया के कई देशों की सीमाएं पारकर वहां के साहित्य में अपना स्थान बनाया है। हिंदी में इसका स्थान साल दर साल और दृढ़ और महत्वपूर्ण होता ही जा रहा है। यूरोप में अंग्रेजी के इतर लगभग सभी भाषाओं में हाइकू काफी उत्साह से लिखे जा रहे हैं। वैश्विक एकात्म्य की स्थापना में साहित्य के योगदान की सार्थकता सिद्ध करने का दायित्व हाइकू ने अपने कंधे पर ले लिया है और वह अपने इस काम में निरंतर सफल भी हो रहा है। यह वसुधैव कुटुंबकम के मंत्र की साकार्यता के लिए शुभ संकेत है।

Friday, 23 June 2017

उसे न कहना पड़े कि उसका जीवन एक भयानक दुर्घटना है

पिछले कुछ सालों में देश में दलित-विमर्श कुछ एक अप्रिय घटनाओं का दामन थामें देश की मीडिया की दहलीज तक पहुंचा था और अब तो यह राष्ट्रीय बहस का प्रमुख केंद्र इसलिए बन गया है क्योंकि गणतंत्र के सबसे बड़े सिंहासन के लिए होने वाली लड़ाई में आमने-सामने की सेना का नायक इसी समुदाय से सम्बन्ध रखता है। राष्ट्रपति चुनाव में एनडीए की ओर से भाजपा अध्यक्ष के रामनाथ कोविंद के नाम की घोषणा 'दलित उम्मीदवार' को रेखांकित करते हुए करने के बाद विपक्ष खेमे में माकूल जवाब देने को लेकर मची हलचल ने जो परिणाम दिया है, उसने इस लड़ाई को पूर्व निश्चित परिणाम को प्रभावित किये बिना भी रोचक बना दिया है। पूर्व लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार यूपीए समर्थित राष्ट्रपति पद की उम्मीदवार हैं। बिहार से हैं और दलित भी हैं। मीरा बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री और देश के उप प्रधानमंत्री रहे बाबू जगजीवन राम की बेटी हैं और बिहार के सासाराम से दो बार सांसद भी रह चुकी हैं। सत्ता पक्ष से डैमेज कंट्रोल के तहत उतारे गये उम्मीदवार रामनाथ कोविंद से मुकाबले के लिए उन्हें मैदान में उतारा गया है। 'दलित उत्थान' और 'दलित समर्थक' होने का राष्ट्रव्यापी सन्देश-शंखनाद करने वाले सत्ता पक्ष का दलितों को लेकर क्या रवैया अब तक रहा है, राष्ट्र को इस पर भी थोड़ा बहुत गौर अवश्य करना चाहिए।

आंध्र प्रदेश के हैदराबाद विश्वविद्यालय में कुछ मांगों को लेकर प्रदर्शन कर रहे 5 छात्रों का एबीवीपी के छात्रों से हाथापाई होने के बाद केंद्रीय मंत्री बंडारू दत्तात्रेय ने इस घटना के बाबत तत्कालीन सूचना प्रसारण मंत्री स्मृति ईरानी को पत्र लिखकर इस मामले पर कार्रवाई करने का निवेदन किया जिसके बाद विश्वविद्यालय के वाईस चांसलर ने 5 छात्रों को हॉस्टल से ससपेंड कर दिया और उनकी फ़ेलोशिप भी बन्द कर दी। इसके विरोध में पांचों छात्रों ने विश्वविद्यालय के बाहर विरोध प्रदर्शन शुरू कर दिया। घटना राष्ट्रीय स्तर पर सुर्ख़ियों में तब आई जब उन पांच छात्रों में से एक छात्र रोहित वेमुला ने एक खत लिखकर आत्महत्या कर ली। वेमुला दलित समुदाय से ताल्लुक रखते थे जिसके कारण विपक्ष ने इस मुद्दे पर सरकर को घेरने की भरपूर कोशिश की।

कुछ दिनों बाद प्रधानमंत्री के मॉडल स्टेट गुजरात के ऊना से एक हैरान कर देने वाली घटना की खबर आयी। इस घटना का जो वीडियो सामने आया था वो काफी भयानक था। मृत गाय के चमड़े उतारने को लेकर कुछ तथाकथित गौरक्षकों के दलित समुदाय के कुछ लोगों को बड़ी बेरहमी से पीटते हुए दृश्यों वाली इस वीडियो ने सरकारी 'दलित प्रेम' के आडम्बर की पोल खोलकर रख दी। गोरक्षा के नाम पर दलितों के साथ हुए इस अत्याचार के ख़िलाफ़ प्रदर्शन करते हुए कई लोगों ने आत्महत्या तक करने की कोशिश की थी ताकि सरकार के बाहर कानों तक अपनी पीड़ा पहुंचा सकें। इस घटना के बाद सरकार निशाने पर तो आई, लेकिन विपक्ष का निशाना हर बार की तरह इस बार भी चूक गया। प्रधानमंत्री ने अलबत्ता एक सभा में बोलते हुए गर्जना की थी कि मेरे दलित भाइयों को मारना बन्द करो, और अगर वार करना ही है तो मुझ पर वार करो। हालाँकि उनकी इस बात को उनके समर्थकों ने इतनी गम्भीरता से नहीं लिया।

उत्तर प्रदेश के सहारनपुर में बाबा साहेब आंबेडकर की मूर्ती को लगाने को लेकर हुए विवाद में कई दलित प्रदर्शनकारियों पर गम्भीर धाराओं में मुकदमें दायर किये गए। जिसके विरोध में भीम सेना नाम के संगठन के लोग अपने नेता चंद्रशेखर आज़ाद के नेतृत्व में दिल्ली के जंतर मंतर पर लामबंद हुए। आज़ाद बाद में गिरफ्तार कर लिए गए। दलितों की तथाकथित महाहितैषी सरकार ने मामले को गम्भीरता से लेने की ज़रूरत नहीं समझी। अखबारों और न्यूज़ वेबसाइटों ने ऐसे कई मसले छोटे छोटे कॉलमों के माध्यम से प्रकाशित किया लेकिन इन मसलों में दलितों पर हो रहे अत्याचारों के खिलाफ काम करना भारतीय राजनीति में दलित प्रेम, दलित उत्थान, दलित समर्थन की परिभाषाओं में नहीं आता। दलितों के प्रति अपनी प्रतिबद्धता दिखाने के लिए सरकार को किसी दलित नेता को ढूंढना पड़ता है जिसे वो राष्ट्रपति बनाकर उन सभी लोगों का मुंह बंद कर सके जो उपर्युक्त घटना को लेकर सरकार को घेरने की फ़िराक़ में हों।

विपक्ष ने इस मामले में हालाँकि बहुत देर कर दी। मोदी सरकार के आने के बाद विपक्ष जितना लाचार हो गया है शायद ही भारतीय राजनीति में आज से पहले गैर-सत्तापक्ष कभी इतना बेचारा रहा हो। कांग्रेस विपक्ष का अगुआ होकर एकजुटता की पहल कर सकती थी और सत्ता के खिलाफ एक ऐसा सर्वमान्य उम्मीदवार उतारकर विपक्ष की शक्ति का आभास सरकार को करवा सकती थी लेकिन वो ऐसा कर पाने में हर बार की तरह असफल रही और इस दीवार में फिर से सेंध लग गयी। हर बार ऐसा देखने को मिलता है कि विपक्षी पार्टियां जब भी एक छत के नीचे आने का प्रयास करती हैं किसी न किसी राजनेता का राजनीतिक स्वाभिमान या फिर उसकी राजनैतिक महत्वकांक्षा पूरे मंसूबे को तहस-नहस कर देती है। इस बार भी वही हुआ। जो नितीश कुमार विपक्ष को एकजुट करने के सबसे ज्यादा योग्य माने जा रहे थे उन्होंने सबसे पहले पाला बदल लिया और तभी जब विपक्ष ने अपना उम्मीदवार तक नहीं उतारा था, उनहोंने एनडीए उम्मीदवार कोविंद के समर्थन की घोषणा कर दी। काफी दिन सोचने के बाद कांग्रेस ने पूर्व लोकसभाध्यक्ष मीरा कुमार को कोविंद के खिलाफ उतरने का फैसला किया। एक योग्य उम्मीदवार होने के बावजूद भी उनकी हार तो लगभग तय है, लेकिन उनकी उम्मीदवारी ने राजनैतिक खेमे के कई बयानवीरों को शायद असमंजस में डाल दिया है। विपक्षी हलकों में कुछ समय तक भारत में हरित क्रांति के नायक एमएस स्वामीनाथन को उम्मीदवार बनाये जाने को लेकर अटकलें थीं जो शायद सरकार के उम्मीदवार के लिए बेहतर चुनौती के रूप में उभरकर आते। सत्ता पक्ष के दलित कार्ड के मुकाबले में किसानी से सम्बंधित व्यक्ति को उम्मीदवार बनाने से विपक्ष को कम से कम मनोवैज्ञानिक बढ़त तो मिल ही जाती।

भाजपा अध्यक्ष अमित शाह कोविंद का नाम प्रस्तावित करते हुए दलित हितैषी होने के दम्भ से भरे जा रहे थे और अपने चयन पर इतराते हुए उनकी पार्टी की सरकार के कार्यकाल में दलित उत्पीड़न के मामले को नज़रअंदाज़ करने में उन्हें कोई दिक्कत नहीं थी। कोविंद के दलित होने के कारण विपक्ष खुलकर इसका विरोध करने से भी डर रहा था कि कहीं तीन साल से 'गद्दार' 'राष्ट्रद्रोही' की उपाधि पाते पाते कहीं दलित विरोधी होने का तमगा भी न मिल जाए। केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान के उस बयान को याद करिये जिसमें उन्होंने कहा था कि जो कोई भी कोविंद का समर्थन नहीं करता वो दलित विरोधी है। मैं इंतज़ार कर रहा हूँ कि कोई रिपोर्टर पासवान जी से पूछे कि अब आप क्या करेंगे? कोविंद को वोट देकर महिला कम दलित विरोधी होना मंजूर करेंगे या फिर कोविंद के खिलाफ वोट देकर सरकार विरोधी होना। यह सवाल जरूर पूछा जाना चाहिए ताकि अगली बार जब ये लोग इस तरह के बयान दें और राष्ट्रपति पद की योग्यता के पावन प्रावधानों में जातिवाद की मिलावट करें तो उन्हें ये सवाल याद आ जाएं।

राजनीति अब प्रतीकों का इस्तेमाल कर अपने काले कारनामें सफ़ेद करने का मंत्र जान चुकी है। उसके लिए गाँव के दक्खिन में बसने वाले रामधारी हरिजन की समस्याओं का समाधान, ऊना में गाय की खाल उतारने को लेकर पीटेे गये रमेश की पीठ पर कोड़ों की चोट का मरहम, हैदराबाद विश्वविद्यालय के छात्र रोहित वेमुला के जीवन की कीमत महज किसी दलित को राष्ट्रपति बना भर देने से मिल जाता है। इसी से वो दलितों की हितैषी बन जाती है। इन सारे मसलों पर वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश उर्मिल की यह टिप्पणी गौर करने लायक है जिसमें वो कहते हैं, "वो हर चुनाव मे जाति-धर्म का सबसे ज्यादा इस्तेमाल करेंगे पर जातिवादी नहीं कहलाएंगे। हर चुनाव में सबसे ज्यादा पैसा खर्चेगे पर इस धरती के सबसे ईमानदार माने जायेंगे।  क्योंकि उनके पास कारपोरेट है, मीडिया है, सारा विधि-विधान है, तमाम एजेंसियां हैं, ब्रह्म और बाबा हैं! क्या है, जो उनके पास नहीं है!" खैर, सरकार के लिए भले ही किसी दलित को राष्ट्रपति बना देना दलित उत्थान का मापदंड हो लेकिन यह देश दलितों के उस दौर का मुन्तज़िर है जब किसी रोहित वेमुला को अपना आखिरी पत्र न लिखना पड़े जिसमें उसे कहना पड़े कि उसका जीवन एक भयानक दुर्घटना है।

Sunday, 18 June 2017

खेल को खेल रहने दीजिए

खेल-कला-साहित्य-सिनेमा, आधुनिक विश्व की ये संस्कृतियां वैश्विक एकात्म्य की आखिरी उम्मीद हैं। खेल भावना पर सीमाजनित राष्ट्रवाद थोपकर इस आशा की हत्या का प्रयास सफल होने देना है या नहीं, यह हमें और आपको सोचना है।

भारत-पाकिस्तान से जब भी क्रिकेट मैच की बारी आती है, पूरा देश एक विचित्र प्रतिद्वंदिता में लग जाता है जिसमें नफरत की गंध साफ़ महसूस की जा सकती है। न्यूज़ स्टूडियोज़ जंग के मैदान बन जाते हैं। बुलेटिन के नाम डराने लगते हैं। एंकर की भाषा यूं होती है कि उसे इस त्रिभुजाकार देश की सीमाओं से बाहर ही नहीं जाने देना चाहिए। जनभावना अनावश्यक रूप से कुछ लोगों के बयान और उनकी भाषाओं को एक तीखापन दे जाती हैं। तनाव, आशंका और डर सारे देश को अपने पंजे में जकड़ लेता है, और फिर यहीं मर जाती है, खेल की मूल भावना, खेल का मुख्य उद्देश्य, खेल की मूल प्रकृति।

अपने देश से हर कोई मोहब्बत करता है। मोहब्बत कभी अलगाव का कारण नहीं बनती। अगर ऐसा होता है तो वो मोहब्बत नहीं, वो जबर्दस्ती का एक नाटक है, जो दिल से नहीं दिमाग से उपजता है। मैदान पर जब अलग अलग रंगों की जर्सी पहने अलग अलग देश की टीमें उतरती हैं तो वो दो देश नहीं होतीं, वो सिर्फ दो टीमें होती हैं। हर कोई अच्छी चीजों को पसंद करने का आदी होता है। जो भी टीम अच्छा खेले उसका समर्थन, उससे मोहब्बत करना, यही तो खेल-संस्कृति है। खेल कोई जंग नहीं है। यह उन कुछ उन्मादी लोगों की कुंठा की वजह से युद्धजन्य तनाव और भय के वातावरण में बदल जाती है जिन्हें इसे भुनाकर अपनी दुकान चलानी होती है।

इसलिए बचकर रहिएगा। खेल कोई भी हो, जीतेगा वही, जो अच्छा खेलेगा। कौन किसका बाप है, कौन किसका नाती, ये चीजें खेल का परिणाम निर्धारित नहीं करतीं। इंडियन क्रिकेट टीम के आधे से अधिक खिलाडियों की प्रदर्शन दर दुनिया भर के क्रिकेट खिलाड़ियों में सबसे बेहतर थीं, लेकिन आज पाकिस्तानी खिलाडियों के समर्पित और कसे हुए प्रदर्शन के आगे सभी बेकार साबित हुए। इसमें भारतीय टीम की कोई गलती नहीं कि वो गालियाँ सुनें। खेल है, बाज़ी कभी भी पलट सकती है। कोई भी अजेय तो नहीं है। जिसने अच्छा खेला, उसकी प्रसंशा के बीच अहंकार या नफरत तो नहीं ही आनी चाहिए।

बैट या फिर हॉकी पकड़ने वाले ख़िलाड़ी गर्दन नहीं काटते। वो बस खेलना जानते हैं। जो खिलाडी होते हैं उन्हें हार-जीत से खास फर्क नहीं पड़ता क्योंकि खेल-प्रशिक्षण की प्रक्रिया में हार को स्वीकार कर उससे सीखने का एक महत्वपूर्ण अध्याय होता है। इसलिए हार न तो प्रतिष्ठा पर प्रहार है और न ही जीत सदैव सम्राट रहने का चिर आश्वासन है। अनिश्चितताएं एक रोमांचक खेल की महत्वपूर्ण आवश्यकता हैं। मायने रखने वाली बात ये है कि किसी हार से आप कुछ सीखते हैं या फिर टूटते हैं।

ऐसे दौर में जब धार्मिकता का पूरी तरह से राजनीतिकरण हो चुका हो, सामाजिकता का पूरी तरह से राजनीतिकरण हो चुका हो तब खेल को राजनैतिक कुचक्र से बचकर रखना न सिर्फ खिलाडियों के लिए बल्कि खेलप्रेमियों के लिए भी एक बड़ी चुनौती है। हर चीज़ अपने नियत स्थान पर ही अच्छी लगतीं हैं। खेल को खेल रहने दीजिए। उसमें राजनीति मिलाकर उसका स्वरुप मत बिगाड़िये। नफरत जितनी हो सके कम करना है, मोहब्बत जितना हो सके बढ़ाना है। मोहब्बत बढ़ाने का जतन करिए, नफरत के परिणाम तो हमने कई बार देखे और भुगते हैं ही।

Thursday, 15 June 2017

लोकतंत्र में अगर आपको अपनी खुद की विचारधारा से डर लगने लगे तो समझ जाइए कि लोकतंत्र वेंटीलेटर पर है

सरकारी स्वायत्त संस्थान केवल नाम भर के स्वायत्त होते हैं। सरकार बदलते ही उनके पदों पर सरकार की भक्ति और गुणगान गाने वालों के कूल्हे टिक जाते हैं। इसके लिए उनके पास उस पद की योग्यता के नाम पर कुछ सालों की चाटुकारिता की डिग्री भर होना अनिवार्य है, बाकी नियमों को ताक पर रखकर कैसे उन्हें उनकी औकात से बड़ा पद देना है ये सब सरकार को तय करना होता है। इस देश में सरकार बदलने की पहचान पता करने का यह भी बड़ा नायाब तरीका है कि उसके किसी संस्थान में चल रही विचारधारा की हवा का श्रोत पता कर लो, वहीं रहनुमा की कुर्सी और उस पर बैठा हुआ सत्ताधिपति आपको मिल जाएगा। पिछले कुछ सालों से कई शिक्षण संस्थानों में ऐसी छीछालेदर मची हुई है कि देश के इतिहास ने सरस्वती के साधनास्थलों पर इतनी थू-थू आज से पहले कभी नहीं देखी होगी। कई संस्थानों के उच्च पदों पर चाटुकार अयोग्यों को प्रतिष्ठित करने का मसला हो या प्रतिरोधी विचारधारा के विद्यार्थियों को देशद्रोही बनाने का अभियान देश के प्रबुद्ध और विचारशील तबके में अब एक प्रकार का भय पैदा कर रहे हैं। वो भय जो कि एक स्वतंत्र संप्रभु लोकतांत्रिक राष्ट्र की लोकतांत्रिकता के स्वास्थ्य के लिए घातक है।
 iimc के लिए चित्र परिणाम
मार्च 2016 में दूरदर्शन न्यूज के तत्कालीन वरिष्ठ सलाहकार संपादक श्री केजी सुरेश को देश के सबसे बड़े मीडिया संस्थान का महानिदेशक नियुक्त किया जाता है, जिस प्रस्ताव का कैबिनेट सचिवालय यह कहकर विरोध करता है कि केजी में एडमिनिस्ट्रेटिव एक्सपीरियंस यानी कि प्रशासनिक अनुभव की कमी है। सूचना और प्रसारण मंत्रालय को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता। उसने अगर विवेकानंद इंटरनेशनल फाउंडेशन के वेबसाइट एडिटर और उसके मुखपत्र के संपादक केजी सुरेश का चयन मीडिया के सबसे बड़े संस्थान के सबसे बड़े पद के लिए कर लिया है तो उसे कोई नियम कायदे ऐसा करने से नहीं रोक सकते हैं। एक स्वायत्तशासी संस्थान की इतनी बड़ी मजबूरी आपने कहां देखी होगी जहां वह कहने को स्वतंत्र है लेकिन असल में ऐसा बिल्कुल नहीं है। संस्थान के इस सबसे बड़े पद के लिए जो योग्यता निर्धारित है वह कहती है कि एक गैर सरकारी उम्मीदवार जिसके पास कम से कम 25 साल का जर्नलिस्टिक अनुभव हो, फिल्म के क्षेत्र में, मीडिया एकेडमिक्स में कोई प्रशासनिक अनुभव हो, किसी राष्ट्रीय यूनिवर्सिटी में या फिर किसी प्रोफेशनल संस्थान में काम करने का एक्सपीरियंस हो ऐसा व्यक्ति ही इस प्रतिष्ठित संस्था का सर्वोच्च पदस्थ अधिकारी हो सकता है। इस पद पर नियुक्ति के लिए जिम्मेदार संस्था ने जब सूचना प्रसारण मंत्रालय से केजी के प्रशासनिक अनुभव संबंधी दस्तावेज मांगे तब मंत्रालय ने उन्हें केजी के एडमिनिस्ट्रेटिव एक्सपीरियंस की बजाय एडमिनिस्ट्रेटिव स्किल्स के प्रमाण-पत्र सौंप दिये थे। सारे दांव-पेंच लगाकर किसी तरह से कृष्ण गोपाल सुरेश भारतीय जनसंचार संस्थान के डायरेक्टर जनरल बना दिए गए।

kg suresh के लिए चित्र परिणाम
केजी सुरेश, महानिदेशक, आईआईएमसी
एक अनुभवहीन प्रशासक का सबसे पहला शिकार प्रतिरोध की आवाजों का वो चेहरा होता है जिससे उसको अपनी कुर्सी के पाए हिलते दिखाई देने लगते हैं। आईआईएमसी इससे अछूता नहीं रहा। केजी शासन में साल भर उनकी प्रशासनिक अपरिपक्वता का ढोल बजता रहा। शुरुआत कहां से हुई ठीक-ठीक नहीं बता सकते लेकिन पहली सरगर्मी तब बढ़ी थी जब संस्थान के कुछ कर्मचारियों को उनके कांट्रेक्ट के पूरा होने पर काम से बेदखल कर दिया गया। केजी शायद पहली बार तभी निशाने पर आए थे। हालांकि बाद में उन्होंने सारे बेदखल कर्मचारियों को पुनः बहाल करके अपने पहले प्रतिरोध पर जीत हासिल कर ही ली थी। दिसंबर में पहले सेमेस्टर की परीक्षा के समापन के बाद लगभग संस्थान के सभी छात्र छुट्टी होने के कारण घर निकल गए थे। ऐसे समय में संस्थान के एसोसिएट प्रोफेसर नरेन सिंह राव बिना कारण बताए सस्पेंड कर दिए गए। मामला सबज्यूडिस है। सोशल मीडिया पर रेडियो एंड टीवी विभाग के कई छात्र नरेन सिंह के समर्थन में खुलकर लिखने लगे। इंद्रदेव को अपना आसन हिलता दिखने लगा तो पांच छात्रों को चिन्हित किया गया। आरटीवी विभाग के अभिक देब, वैभव पलनीटकर, अंकित सिंह, सचिन शेखर और साकेत आनंद को कॉलेज प्रशासन ने नोटिस भेजकर तलब किया। मामला चेतावनी भर देकर रफा-दफा कर दिया गया।

कुछ दिन बाद अंग्रेजी न्यूज वेबसाइट न्यूज लांड्री पर संस्थान के ही हिंदी पत्रकारिता के छात्र रोहिन वर्मा का आईआईएमसी में केजी के प्रशासनिक फैसलों पर एक आलोचनात्मक लेख प्रकाशित हुआ। लेख में रोहिन ने सबज्यूडिस नरेन सिंह वाले मामले पर सवाल उठा दिए। इससे पहले भी रोहिन सोशल मीडिया पर लगातार संस्थान के बारे में आलोचनात्मक लहजे में कुछ न कुछ लिखते रहते थे। खुन्नस खाए प्रशासन नें उनके फेसबुक प्रोफाइल से फोटो आदि निकालकर उनका सस्पेंशन लेटर तैयार किया। रोहिन वर्मा लेख लिखने की वजह से सस्पेंड हो गए। फरवरी के आसपास जी मीडिया के मालिक सुभाष चंद्रा का मशहूर शो द सुभाष चंद्रा शो के एक एपिसोड के लिए आईआईएमसी के ऑडिटोरियम को वेन्यू के तौर पर निश्चित किया गया। छात्रों के पुरजोर के विरोध के बाद पहले तो कार्यक्रम टला फिर रद्द ही कर दिया गया। द्वितीय सेमेस्टर परीक्षाओं के बाद जब सभी छात्र परीक्षा देकर संस्थान से रुखसत हो चुके थे तब संस्थान में यज्ञ सहित राष्ट्रीय पत्रकारिता पर सेमिनार आयोजित किया गया। विवादित आईजी कल्लूरी को बतौर वक्ता आमंत्रित किया गया। समूचा मीडिया जगत राष्ट्रीय पत्रकारिता की उत्पत्ति को लेकर थोड़ा सा आशंकित था। विरोध हुआ, लेकिन कार्यक्रम निर्विघ्न संपन्न हुआ। लगातार विरोधियों के निशाने पर रहे केजी सुरेश अपने आकाओं के विचारधाराओं को आईआईएमसी की पुरातन स्वतंत्र अभिव्यक्ति वाली संस्कृति पर प्रतिस्थापित करने से पीछे नहीं हट रहे थे।
shashwati goswami के लिए चित्र परिणाम
शाश्वती गोस्वामी, पूर्व विभागाध्यक्ष, आरटीवी विभाग, आईआईएमसी 

अनुमान के मुताबिक नंबर उन सबका लगना था जो भी केजी विचारधारा के साथ नहीं था। जिन लोगों की लिस्ट इस अंदेशे के साथ बनाई जा रही थी उनमें शाश्वती गोस्वामी का नाम तो था ही। किसी भी तरह की गलत गतिविधियों के प्रति सबसे असहिष्णु शिक्षकों में शाश्वती शामिल थीं। अपने छात्रों को सही के लिए सदैव आवाज उठाने को प्रेरित करने वाली शाश्वती 2008 से भारतीय जनसंचार संस्थान का हिस्सा हैं और तभी से उन्हें संस्थान में रहने के लिए एक क्वार्टर की व्यवस्था की गई है। बीते एक जून को शाश्वती को अपना क्वार्टर खाली करने को कहा गया जिसमें वो अपने बच्चे के साथ पिछले 9 सालों से रह रही थीं। उसके क्वार्टर खाली करने के फरमान के कुछ ही दिन बाद उन्हें संस्थान के रेडियो एंड टेलीविजन डिपार्टमेंट के विभागाध्यक्ष पद से भी हटा दिया गया। कारण क्या है, अभी किसी को नहीं पता। आरटीवी विभाग की अध्यक्षता अब स्वयं केजी सुरेश सम्हालेंगे। आम छात्रों में या जिसे जनरल पब्लिक डोमेन कहते हैं, उनमें चर्चा है कि विभाग में प्रवेश प्रक्रिया पर अपना नियंत्रण रखने के उद्देश्य से केजी ने ऐसा कदम उठाया है। इस बार के आरटीवी के छात्रों ने पूरे साल उनके नाक में दम कर रखा था, शायद इसलिए इस बार प्रवेश में अपने मुताबिक अभ्यर्थियों को प्रवेश दिलाने के उद्देश्य से उन्होंने अतिरिक्त पदभार के तौर पर आरटीवी विभाग को हथिया लिया है। ऐसा संस्थान के निवर्तमान छात्रों का कहना है। संस्थान के एक छात्र (उनसे अनुमति नहीं ली है, सो नाम नहीं लेंगे) कहते हैं कि केजी को लगता है कि विभाग के कुछ छात्रों को शाश्वती संस्थान के खिलाफ प्रोवोक करती रहीं जिससे वो लगातार प्रशासन के विरोध में कुछ न कुछ गतिविधियों को अंजाम देते रहे। उनका यह भी कहना है कि शाश्वती नॉर्थ-ईस्ट कम्युनिटी से संबंध रखती थीं, केजी जिसके प्रति अच्छी भावना नहीं रखते। इन्हीं सारी बातों के आधार पर उन्होंने शाश्वती को कैंपस और विभागाध्यक्ष के ऑफिस के बाहर का रास्ता दिखाया है।

सच्चाई क्या है, अब शायद इससे दिलचस्पी खत्म होती जा रही है। लगातार ऐसे लोगों को टार्गेट करना जो संस्थान के स्वयंभू सुर से अलग सुर रखते हों, इस धारणा को और पुष्ट करता जा रहा है संस्थान में एक साजिश के तहत विशेष विचारधारा और उसकी मान्यताओं का जबर्दस्ती प्रतिस्थापन का महाअभियान चल रहा है। संस्थान की अनेक मनमानियों पर इन शिक्षकों की चुप्पी भी अब इनके बचाव में काम नहीं आ रही है। सभी को डर है कि अगला नंबर किसका होगा। लोकतंत्र में अगर आपको अपनी खुद की विचारधारा से डर लगने लगे तो समझ जाइए कि लोकतंत्र वेंटीलेटर पर है। मुझे अब समझ आ रहा कि मुस्कुराहटों से भी डरना चाहिए क्योंकि मुस्कुराहट की कीमत पर कोई आपके लिए आंसुओं का इंतज़ाम कर रहा होता है। संस्थान में आने के बाद केजी साहब की मुस्कानें मनोहर लगती थीं, फिर धीरे-धीरे वही मुस्कान अमनोहर लगने लगीं, मतलब अमच-चैन हरने वालीं। संस्थान के चप्पे-चप्पे पर कैमरे लग गए। लाइब्रेरी में आज किसी के भी घुसने पर पाबंदी लग गई। साल भर तमाम तरह के फरमान सुनाई देते रहे।

हालांकि हमें इन सबसे क्या लेना-देना था। हमारी कक्षाएं नियमित चलती थीं, तमाम ज्ञानवर्धक कार्यक्रम होते रहते थे, हमारे लिए संस्थान में विशेष मनोचिकित्सक भी तैनात थे। सारी सुविधाएं तो थीं, हमें क्या प्रशासन के आंतरिक मामलों के चक्कर में पड़ना। जैसा कि हमारे ही अनेक सहपाठी बड़े शान से कहते हैं। वो तो यहां तक कहते हैं, शाश्वती को हटा दिया तो क्या हुआ, रोहिन को सस्पेंड कर दिया तो क्या हुआ, नरेन सिंह को निकाल दिया तो क्या हुआ, कोई और आएगा। हमें भी ऐसा ही सोचकर चुप-चाप किसी पीआर कंपनी को ज्वाइन कर अपने जीवन की समस्त चापलूसी की कला का सदुपयोग करना चाहिए, लेकिन ये सवाल दिखने में जितने सरल हैं उससे कहीं ज्यादा भयानक हैं। कभी इनके अलग-अलग परिणामों के तार पकड़कर जाएं तो अंतिम परिणाम पर आपकी रुह कांप जाएगी। इन सवालियों के लिए तथा इस तरह की घटना को देखकर चुप्पी साधकर अपने आपको सुरक्षित समझने वालों के लिए कोई भी ओपिनियन, कोई भी सलाह या कोई भी निवेदन देने की शायद मेरी कोई औकात नहीं है, बस उन्हें मैं लेख के अंत में नवाज देवबंदी साहब के इस शेर के साथ छोड़ जाना चाहता हूं जिसे वो समझ पाएं तो बेहतर है, उनके लिए भी, हमारे लिए भी, संस्थान के लिए भी और हिंदुस्तान के लिए भी कि-
जलते घर को देखने वालों फूस का छप्पर आपका है।
आग के पीछे तेज हवा है आगे मुकद्दर आपका है।
उसके क़त्ल पर मैं चुप था तो मेरा नंबर अब आया,
मेरे क़त्ल पर आप भी चुप हैं, अगला नंबर आपका है।             

Tuesday, 13 June 2017

इस डायरी में समूचा 'मैं' लिपिबद्ध हूँ…

पॉजिटिविटी की अजीब सी लहर उठ रही है मन में आज। लग रहा है जैसे कोई बिछड़ा मौसम लौट आया हो। बहुत दिनों बाद आज डायरी खोली अपनी। दिल्ली आने के बाद जैसे नाता ही टूट गया था इससे, नहीं तो जब भी कोई नई कविता पूरी होती, तुरन्त वह डायरी में लिखी जाती थी। ऐसा करने के बाद मन में जो विजय, संतुष्टि और आनंद का भाव आता था न, कि बस अब क्या ही कहें।

आज फिर कई दिनों बाद मेरे पास  रेड,ब्लू,ग्रीन और ब्लैक पेन एक साथ दिखाई दिए। इन्हीं से मैं अपनी डायरी पर शब्द उकेरता हूँ। हर पैराग्राफ नई कलम से। रंगीन अक्षरों से सजी डायरी देखने में अच्छी लगती है। आज फिर मैंने कोशिश की कि जो कविताएं इधर लिखी गयी हैं, उन्हें डायरी पर अंकित कर ही दूं। मगर हाथ और कलम शायद एक दुसरे से रूठे हुए हैं। कई दिन भी तो हो गए हाथों में कलम थामें।

इन एक सालों के दरमियान अगर दो बार परीक्षाएं न देनी होतीं तो शायद साल भर इनसे कोई वास्ता न रहता। अब तो लिखने के सारे काम या तो मोबाइल के कीपैड से होता है या फिर लैपटॉप के। वक़्त के साथ पत्रकारिता के केवल संसाधन ही नहीं बदले हैं, बल्कि अब तो उनके नाम और उनकी परिभाषाओं तक के बदलने की नौबत आ गयी है। कई दिनों से टंकण पत्रकारिता की चर्चा इसी परिवर्तन की आहट है।

खैर, पत्रकारिता विमर्श लिखने का आज बिलकुल मूड नहीं है। आज तो मैं बस सूंघ रहा हूँ अपनी डायरी पर लिखे उन शब्दों को, जिनमें उस कविता के हर एहसास और उसके जन्म के वातावरण की खुशबू छिपी हुई है। आज तो बस देख रहा हूँ लाल , काले नीले अक्षर जिनमें उस दौर की स्मृतियाँ कैद हैं, और उस अक्षर के आस पास की सारी घटनाएं बयां कर रही हैं। आज तो बस मैं सुन रहा हूँ अपनी बीते दिनों की पीड़ा, ख़ुशी, आनंद, दुविधा, समाधान के स्वर उन शब्दों में, जिनको एक दिन तरतीब से एक छंद में ढालकर मैंने अपने इतिहास के निर्माण के लिए ईंटे तैयार की थीं।

इस डायरी को देखकर मुझे अजीब सी ख़ुशी मिलती है, क्योंकि इस डायरी में समूचा 'मैं' लिपिबद्ध हूँ। एक स्वच्छन्द 'मैं' लिपि'बद्ध' हूँ।